अंजू की रचनाएं मुझे भारतीयता से ओतप्रोत दिखाई पड़ती हैं। इनका स्वाद मुझे ठेठ देसी लगता है। इनके पात्रों में अनुभवजन्य परिपक्वता है। यह परिक्वता पहले पहल मुझे ट्रांस्प्लांटेड लगीं लेकिन ज्यों ज्यों मैं इनकी लघुकथाओं को इनसे परिचय और प्रगाढ़ता के माध्यम से पढ़ता गया मुझे समझ आ गया कि यह वस्तुतः वह धर्म-संस्कार हैं जो खुद इनके भीतर से इनके पात्रों के भीतर जाकर रचे बसे हैं। यह इनका एक बहुत बड़ा अलक्षित अचीवमेंट ही कहा जायेगा कि इन्होंने अपने कमोबेश सभी लघुकथाओं में किसी न किसी एक पात्र को अपने भीतर की कोमलता प्रदान की है और इनके पात्र भी इनके विषय विन्यास ही नहीं, अधिकतम एक्टिविटी को भी इनसे आहरित किये बैठे हैं। संतोष की बात है कि यह आहरण भी कभी इन्हें खाली हाथ न कर सका। नित नई लघुकथा लिखते समय यह अपने पात्रों को जीवन देते दिखीं। निश्छल, निस्पृह, निश्चिंत।
अंजु खरबंदा |
इनके पात्रों में अनुभवजन्य परिपक्वता मैंने क्यों कही? ये अपने पात्रों के चरित्र में विविध रंग सायास अथवा अनायास भरने के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं। इनकी कतिपय लघुकथाओं में मैंने महसूस किया कि मुख्य पात्र सदैव सैक्रिफाइस के लिए तैयार रहता है। यह विरोध करना नहीं जानता या नहीं चाहता। यह संबंध सुधारक है। इसके पास क्रांति के कारण तो मिल जाएंगे मगर लड़कर हक़ मांगने की कोई इच्छा नहीं दिखती।
इसके साथ ही यदि इनके कुछ स्त्री पात्रों के चरित्र की पड़ताल करें तो चौंकाऊं नतीजे प्राप्त होते हैं। इनकी लघुकथाओं के कतिपय स्त्री पात्र क्रान्ति का बिगुल लिए होते हैं। ये पात्र लड़कर भी अपना हक़ लेना जानते हैं। इनका लड़ना सिर पर सवार होना नहीं है। इनका लड़ना ज़िद तक सीमित है। यह ज़िद भी कुछ पाने के लिए नहीं है। उनकी यह ज़िद सच्चाई, समझदारी के लिए है। यह ज़िद बराबरी की मांग लिए चलती है। ज़िद में भी इनकी स्त्री पात्र कर्कश नहीं होती। वह सभ्यता के दायरे में रहती है। वह संस्कारित है। उसे अपने बोलने की आज़ादी का ज्ञान है। उसे अपनी सीमाओं का भी ज्ञान है।
इनकी स्री झुकना भी जानती है और तेवर दिखाना भी। इनकी स्त्री आत्मसम्मान की मूरत है। तेजस्वी है। बातचीत में बैलेंसिंग रखती है और अधिकारों के प्रति भी तभी मुखर होती है जब उसे दबाने की कोशिश की जाती है। उसके व्यक्तित्व को मरने के लिए छोड़ा जाता है।
पहली रात में ही अपने पति को मिसफिट करने वाली इनकी विद्रोहिणी पात्र मुग्धा को समझने की कोशिश कीजिये, क्या चाहती है अपनी पति से। अनचाहे बच्चे को जन्म देने के लिए व्यग्र /उत्सुक /लगभग उतावली सी शैली के चरित्र से मुग्धा की तुलना कीजिये। पति से कुछ कहने से भी संकोच करती है। मुग्धा की भांति ही दिशा का चरित्र है। वह अपनी माँ की मांगों को ससम्मान स्वीकार करने का तब भी हौसला दिखाती है जब वह उसे देखने के लिए आने वाले लड़के के सामने गोरेपन की क्रीम लगाकर आने को कहती है।
अब थोड़ा श्रेया को याद कीजिये जिसकी स्कूटी सीखने की इच्छा होने पर पतिदेव की हिक़ारत भी रोक नहीं पाती और खुलापन जिसकी रगरग में बसता है। रिया को कौन भूल सकता है जो अपने पुराने प्रेमी को अवॉयड करके पति को चूज़ करती है और अतीत पर मिट्टी डालने का संदेश देती है। रमिता जैसे चरित्र को कौन भूल सकता है जो पति के विरोध के बावजूद ऑफिशियल ट्रेनिंग के लिए अमेरिका जाने को तैयार हो जाती है जहाँ की कल्पना मात्र उसे मन्द मन्द शीतल हवा का अहसास करा जाती है।
सिर्फ स्त्री ही क्यों। अंजू की लघुकथाओं के पुरुष पात्र भी अपनी अतिरिक्त संवेदना और क्रांतिकारी निर्णयों के कारण चिन्हित किये जा सकते हैं।
तारु को याद कीजिये। पत्नी की असामयिक मृत्यु के बाद बच्चों को एक मिशन की तरह पालना कितने लोग कर पाते हैं। सरप्राइज' लघुकथा का वह दामाद याद करें जिसका लघुकथा में ज़िक्र ही तब होता है जब मोरिशस में अपने हनीमून के लिए टिकट लेते समय वह सास ससुर के गोवा के लिए भी टिकट खरीदकर भिजवाता है। 'सोलमेट' लघुकथा के राकेश कुमार को याद करें जो शादी के बाद अपनी बीवी को उसकी माँ के लिए उदास देखकर सलाह देता है कि उन्हें भी यहीं ले आओ, साथ रहेंगी।
वस्तुतः जब अंजू लघुकथा लिखने के लिए कैरीकेचर तैयार करती हैं तो मन ही मन चरित्र में डूब जाती हैं। इनके वाक्य विन्यास बची हुई ज़िम्मेदारी को निभा देते हैं। कैरेक्टर तलाशने का हो या न हो, नहीं जानता, पर कैरक्टर तराशने का इनका अपना फ़लसफ़ा कमोबेश सभी लघुकथाओं में दिखाई पड़ता है। लघुकथा का जो फ्रेम लेकर ये चलती हैं उसमें ये उदासी, मोह, खुशी, त्याग, बलिदान चरित्र की उपस्थिति आवश्यकतानुसार करके ये अपनी लघुकथाओं को चारित्रिक ऊंचाइयों पर ले जाती हैं जहाँ से इनके बाकी सहयोगी पात्र अक्सर बौने नज़र आते हैं। ख़ुद इनकी दृष्टि इतनी व्यापक है कि विषयों का अंबार है इनके पास। चरित्रों के लिए इतनी छटपटाहट है कि यदि ये कहानी ही नहीं, उपन्यास भी लिखना आरम्भ करें तो यह छटपटाहट कम नहीं होगी। कहानी दर कहानी या उपन्यास दर उपन्यास बढ़ती चली जायेगी। जैसे लघुकथा दर लघुकथा बढ़ती चली जाती है।
डॉ. जितेन्द्र जीतू
संपर्क : jitendra.jeetu1@gmail.comमोबाइल: 8650567854
3 comments:
हार्दिक आभार सर 🌹
आभार, बड़े भाई💐
कथाओं की आत्मा को स्पर्श करती समीक्षा
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