Tuesday, 28 December 2010

‘मेरी श्रेष्ठ लघुकथाएँ’, अन्धा मोड़’ तथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’

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कबूतरों से भी ख़तरा है
एन॰ उन्नी हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ और सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी रचनाओं से पहला परिचय बलराम द्वारा संपादित लघुकथा कोशों के माध्यम से 1997 में हुआ। उन दिनों मेरे द्वारा संपादित लघुकथा संकलन मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ की पांडुलिपि लगभग तैयार थी। मैंने तब एन॰ उन्नी की रचनाओं को उसमें शामिल करने के बारे में बलराम को बताया। उन्होंने कहा कि उन्नी मलयालम भाषी जरूर हैं, मलयालम लेखक नहीं। बावजूद इस सचाई को जान लेने के उनकी लघुकथाओं को मैंने मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ की पांडुलिपि में शामिल किया, इस नीयत से कि मलयालम संसार यह जाने कि उसने हिन्दी को कितना बड़ा लघुकथाकार अनजाने ही दे रखा है। अभी हाल में, संभवत: बलराम के ही सद्प्रयास से उनका लघुकथा संग्रह कबूतरों से भी ख़तरा है प्रकाश में आया है जिसमें उनकी 59 रचनाएँ संग्रहीत हैं। आईने का फ़न में बदलना शीर्षक से संग्रह की भूमिका सनत कुमार ने लिखी है। उन्नी जी ने कथ्य के चुनाव में अपने समय को वरीयता दी है तथा अधिकांशत: कहानी-शैली को अपनाया है इसलिए उनकी लघुकथाओं में समकालीन कथारस की अनुभूति सहज ही होती है तथापि संग्रह की खोज, पर्याय, जन्मदिन, साजिश, चूहा, स्वप्न-भंग, बदलते मुहावरे, काँटों की दीवार, सूँड, बदला, ग़ुलाम, चुनौती, खबरदार तथा वचन रक्षक को आकार की दृष्टि से लघुकथा स्वीकार पाना कठिन प्रतीत होता है।
प्रकाशक : मित्तल एण्ड सन्स, सी-32, आर्यानगर सोसायटी, दिल्ली-110092

अन्धा मोड़
हिन्दी लघुकथा के एक-और चर्चित व वरिष्ठ कथाकार हैं कालीचरण प्रेमी। दुर्दैव से वह लगातार जूझते रहे हैं लेकिन अपनी रचनात्मक गुणवत्ता के ग्राफ को उन्होंने नीचे नहीं आने दिया। एकल लघुकथा-संग्रह कीलें(2002) तथा संपादित कहानी संकलन युगकथा के बाद कवयित्री व कथाकार सुश्री पुष्पा रघु के साथ मिलकर उन्होंने लघुकथा संकलन अन्धा मोड़(2010) संपादित किया है। 280 पृष्ठीय इस संकलन में देशभर के 93 कथाकारों की कुल 282 लघुकथाएँ संकलित हैं। सम्पादकीय(कालीचरण प्रेमी) तथा भूमिका (पुष्पा रघु) के अलावा इसमें लघुकथा जीवन की आलोचना है(कमल किशोर गोयनका) तथा लघुकथा लेखन:मेरी दृष्टि में(सूर्यकांत नागर) शीर्षक दो उपयोगी लेख भी हैं।
प्रकाशक : अमित प्रकाशन, के॰बी॰ 97, कविनगर, ग़ाज़ियाबाद-201002

मेरी श्रेष्ठ लघुकथाएँ
विभिन्न विषयों को केन्द्र में रखकर हिन्दी में लघुकथा के संकलन संपादित करने में गत 4-5 वर्षों से डॉ॰ रामकुमार घोटड़ अग्रिम पंक्ति में हैं। चार हिन्दी तथा एकराजस्थानी लघुकथा संग्रहों के अलावा उनका एक व्यंग्य संग्रह व दो मौलिक कहानी संग्रह भी सन् 1989 से 2006 तक प्रकाशित हो चुके हैं। सन् 2006 से 2010 तक दो राजस्थानी की तथा 9 हिन्दी की पुस्तकें सम्पादित कर चुके हैं और 9 अन्य पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।
प्रस्तुत पुस्तक को रचनात्मक व समीक्षात्मकदो खण्डों में विभाजित किया गया है। रचनात्मक खण्ड में डॉ॰ घोटड़ ने अपनी 33 पूर्व-प्रकाशित तथा 25 अप्रकाशितकुल 58 लघुकथाएँ संग्रहीत की हैं और समीक्षात्मक खण्ड में उन्होंने स्वयं की लघुकथाओं व सम्पादित पुस्तकों पर प्राप्त कुल 25 पत्रों, समीक्षाओं, रिपोर्टों आदि को संकलित किया है।
प्रकाशक: अनामय प्रकाशन, ई-776/7, लाल कोठी योजना, जयपुर-302015

नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएँ देने के साथ-साथ यह बताते हुए अति प्रसन्नता हो रही है कि आप सब के सहयोग और स्वीकार के चलते ही जनगाथा अपने प्रकाशन के चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस अंक में प्रस्तुत है उपर्युक्त लघुकथा संग्रह व संकलनों से एक-एक लघुकथाबलराम अग्रवाल


लघुकथाएँ

बुझते चिराग़/डॉ॰ रामकुमार घोटड़
आपकी पुस्तक तो पिछले वर्ष ही आने वाली थी, क्या रहा?
नहीं आ पाई।
क्यों?
प्रकाशक को प्रकाशन-खर्च का एक चौथाई तो पांडुलिपि के साथ ही भेज दिया था। बाकी सहयोग राशि छ: महीने बाद भेजनी थी।
फिर…?
एक रात श्रीमती जी को पेट में तेज़ दर्द हुआ। जाँच करने पर डॉक्टर ने पित्त की थैली में पथरियाँ बताईं जिसका इलाज़ ऑपरेशन ही था। अत: जमापूँजी खर्च हो गई।
और इस साल?
इस साल घरेलू खर्च में कटौतियाँ करके कुछ रकम इकट्ठी की। ससुराल से बड़ी बेटी आ गई। सामाजिक परम्परा के अनुसार पहला जापा पीहर में ही होना चाहिए। डॉक्टरनी नॉर्मल डिलीवरी नहीं करवा पाई, सीजेरियन करना पड़ा।
और अब? 
प्रकाशक महोदय के पत्र आते हैं कि अनुबंध की शर्तों के अनुसार अवधि पार हो गई है। पूर्व मे भेजी गई राशि को आई-गई मानकर क्यों न पांडुलिपि को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाय!                               (मेरी श्रेष्ठ लघुकथाएँ से)

सरस्वती-पुत्र/जगदीश कश्यप
क्या तुम मेरी लड़की को सुखी रख सकोगे?
यह बात आप अपनी लड़की से पूछो। और लेखक ने अपने मुरझाए चेहरे की दाढ़ी पर हाथ फेरा।
मैं तुमसे अत्यन्त घृणा करता हूँ… प्रेमिका के पापा ने उसे घूरते हुए कहा। उसके बटन-टूटे कुर्ते में सीने से बाहर झाँक रहे बालों को देख, वह और-भी उबल पड़ा,तुम लीचड़ आदमी! शादी वाली बात सोच कैसे सके!
क्या यही कहने के लिए बुलाया था आपने मुझे?
इतने में प्रेमिका दो कप चाय लाई और मेज पर रखकर मुड़ चली। जाते-जाते उसने मुस्कराते हुए कनखियों से प्रेमी को घूरा लेकिन वह मुँह नीचा किए बैठा रहा जबकि प्रेमिका का पापा तीव्र गुस्से से उस फटेहाल युवा कवि को घूर रहा था गोया कि उसे कच्चा चबा जायगा।
अच्छा लो, चाय उठाओ। पता नहीं क्यों, सुन्दर लड़की का बाप ठंडा पड़ गया था! अपमानित युवा लेखक ने चाय का कप उठाया और धीरे-धीरे सिप करने लगा। इसी बीच जवान लड़की के बाप ने कई महत्वपूर्ण निर्णय ले लिए थे अत: वह अचानक बोल पड़ा,कहो तो तुम्हारी सर्विस के लिए ट्राई करूँ?
इस पर पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़गार चौंक पड़ा।
लेकिन, तुन्हें मेरी लड़की को भूलना होगा।
शर्त वाली बात पर कवि चुप रह गया और नमस्कार करके चला आया।
उसके जाते ही बी॰ए॰ में पढ़ रही लड़की का पापा बराबर सोच रहा था कि आखिर उस कमजोर युवक में ऐसा क्या था कि उसकी सुन्दर लड़की ने ज़हर खाने की धमकी दे दी! ज़ाहिर था कि वह उसकी क़लम पर मर-मिटी थी।
हूँ… लड़की के बाप ने खुद से कहा,भगवान भी कैसे-कैसे लीचड़ों को लिखने की ताक़त दे देता है!
उधर लेखक सारी रात खुद को समझाता रहा कि वह शर्त वाली नौकरी कभी स्वीकार नहीं करेगा और आत्मनिर्भर होने तक उस लड़की से शादी नहीं करेगा।                                                (अन्धा मोड़ से)


औकात/एन॰ उन्नी
कबाड़ की माँग बढ़ रही है। कबाड़ की कीमत बढ़ रही है। कबाड़ से नए-नए सामान बनाकर मंडी पहुँच रहे हैं। कुल मिलाकर कबाड़ की इज्ज़त बढ़ गयी है।
इस ज्ञान के साथ, घर का अतिसूक्ष्म निरीक्षण किया तो पाया कि कमरे कबाड़ से भरे पड़े हैं। एक-साथ दे नहीं सकते क्योंकि कॉलोनी में एक ही कबाड़ी आता है। कबाड़ ले जाने के लिए एक ही ठेला है उसके पास। मैंने कबाड़ को इकट्ठा किया। भाव करके किश्तों में कई बार ठेला भर दिया। कबाड़ी की खुशी देखते ही बनती थी। आखिर में, जब घर खाली हुआ और मुझे खाने को दौड़ा तो कबाड़ की अन्तिम किश्त के रूप में मैं स्वयं ठेलागाड़ी पर आसीन हो गया। मज़ाक समझकर कबाड़ी हँस दिया और कहने लगा,कबाड़ की कीमत आप जानते ही हैं; और अपनी भी। आप कृपया उतर जाइये।
मैं उतर गया और वह चला गया। जाते हुए उस निर्दयी कबाड़ी की चाल मैं देखता रहा। सोचता रहा किआखिर मेरी औकात क्या है?
(कबूतरों से भी खतरा है से)

Sunday, 28 November 2010

सुभाष नीरव की लघुकथाएँ

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सुभाष नीरव नौवें दशक के प्रतिभासंपन्न लघुकथाकार हैं। रूपसिंह चंदेल हीरालाल नागर के साथ उनकी लघुकथाओं का एक संकलन कथाबिंदुसन् 1997 में चुका है। लेखन, अनुवाद, आलोचना संपादन आदि लघुकथा की बहुआयामी सेवा के मद्देनजर लघुकथा के लिए पूर्णतः समर्पित पंजाब की साहित्यिक संस्था मिन्नी द्वारा सन् 1992 में उन्हें प्रतिष्ठित माता शरबती देवी पुरस्कारसे सम्मानित किया जा चुका है। उनकी लघुकथाओं को पढ़कर निःसंकोच कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों की तुलना में भले ही उन्होंने कम और कभी-कभार लेखन किया है लेकिन जितना भी किया है वह अनेक दृष्टि से उल्लेखनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि लघुकथा के प्रति समर्पित भाव उनमें लगातार बना रहा है। उनके इस जुड़ाव के कारण ही पंजाबी का लघुकथा-संसार हिन्दी क्षेत्र के संपर्क में बहुलता से आना प्रारम्भ हुआ जिसे सौभाग्य से श्याम सुन्दर अग्रवाल सरीखे अन्य अनुवादकों का भी संबल हाथों-हाथ मिला। सुभाष की लघुकथाएं लघुकथा-लेखन के अनेक आयाम प्रस्तुत करती हैं और हिन्दी लघुकथा-साहित्य की सकारात्मक धारा को पुष्टि प्रदान करती हैं।बलराम अग्रवाल
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॥1॥ कबाड़
बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
            बेटा सीधे आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।
            दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-सँवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह!
            बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया,“देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंगरूम बनाऊँगा।
            रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।

॥2॥ चोर
मि. नायर ने जल्दी से पैग अपने गले से नीचे उतारा और खाली गिलास मेज पर रख बैठक में आ गये।
            सोफे पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ।
            “रामदीन तुम? यहाँ क्या करने आये हो?” मि. नायर उसे देखते ही क्रोधित हो उठे।
            “साहब, मुझे माफ कर दो, गलती हो गयी साहब... मुझे बचा लो साहब... मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं... मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब।रामदीन गिड़गिड़ाने लगा।
            “मुझे यह सब पसन्द नहीं है। तुम जाओ।मि. नायर सोफे में धंस-से गये और सिगरेट सुलगाकर धुआँ छोड़ते हुए बोले,”तुम्हारे केस में मैं कुछ नहीं कर सकता। सुबूत तुम्हारे खिलाफ हैं। तुम आफिस का सामान चुराकर बाहर बेचते रहे, सरकार की आँखों में धूल झोंकते रहे। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।
            “ऐसा मत कहिये साहब... आपके हाथ में सब-कुछ है।रामदीन फिर गिड़गिड़ाने लगा,“आप ही बचा सकते हैं साहब, यकीन दिलाता हूँ, अब ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा, मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब... मुझे बचा लीजिए... मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, सर।  कहते-कहते रामदीन मि. नायर के पैरों में लेट गया।
            “अरे-अरे, क्या करते हो। ठीक से वहाँ बैठो।
            रामदीन को साहब का स्वर कुछ नरम प्रतीत हुआ। वह उठकर उनके सामने वाले सोफे पर सिर झुकाकर बैठ गया।
            “यह काम तुम कब से कर रहे थे ?”
            “साहब, कसम खाकर कहता हूँ, पहली बार किया और पकड़ा गया। बच्चों के स्कूल की फीस देनी थी, पैसे नहीं थे। बच्चों का नाम कट जाने के डर से मुझसे यह गलत काम हो गया।
            इस बीच मि. नायर के दोनों बच्चे दौड़ते हुए आये और एक रजिस्टर उनके आगे बढ़ाते हुए बोले,“पापा पापा, ये सम ऐसे ही होगा न ?”  मि. नायर का चेहरा एकदम तमतमा उठा। दोनों बच्चों को थप्पड़ लगाकर लगभग चीख उठे,“जाओ अपने कमरे में बैठकर पढ़ो। देखते नहीं, किसी से बात कर रहे हैं, नानसेंस !
            बच्चे रुआँसे होकर तुरन्त अपने कमरे में लौट गये।
            “रामदीन, तुम अब जाओ। दफ्तर में मिलना। कहकर मि. नायर उठ खड़े हुए। रामदीन के चले जाने के बाद मि. नायर बच्चों के कमरे में गये और उन्हें डाँटने-फटकारने लगे। मिसेज नायर भी वहाँ आ गयीं। बोलीं,“ये अचानक बच्चों के पीछे क्यों पड़ गये? सवाल पूछने ही तो गये थे।
            “और वह भी यह रजिस्टर उठाये, आफिस के उस आदमी के सामने जो...कहते-कहते वह रुक गये। मिसेज नायर ने रजिस्टर पर दृष्टि डाली और मुस्कराकर कहा, ”मैं अभी इस रजिस्टर पर जिल्द चढ़ा देती हूँ।
            मि. नायर अपने कमरे में गये। टी.वी. पर समाचार आ रहे थे। देष में करोड़ों रुपये के घोटाले से संबंधित समाचार पढ़ा जा रहा था। मि. नायर ने एक लार्ज पैग बनाया, एक साँस में गटका और मुँह बनाते हुए रिमोट लेकर चैनल बदलने लगे।

॥3॥ सहयात्री
बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
            जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भाँति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
            अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी,‘कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती! एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ...।
            तभी, उसके मन ने कहा,‘क्यों कुढ़ रही है ?... क्या मालूम यह बीमार हो? अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ भूल गयी। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी,‘क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं?... दया-तरस नाम की तो कोई चीज रही ही नहीं।
            इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती,‘क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफर भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफर खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?’
            इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वंद। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। क्या पता बेचारी बीमार हो?.. शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को ! तो क्या हुआ?.. , न ! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।
            “माताजी, आप बैठो।आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, “तू भी आजा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।
 
सुभाष नीरव : संक्षिप्त परिचय
सुभाष नीरव(बायें) कथाकार सूर्यकांत नागर के साथ चित्र:बलराम अग्रवाल
27 दिसम्बर, 1953 को मुरादनगर (उत्तर प्रदेश)  में जन्मे सुभाष नीरव का अपने लेखन के बारे में कहना है कि—‘न् 1976 के आसपास से हिन्दी लेखन प्रारंभ किया। कहानी, कविता और लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद कार्य भी। अब तक तीन कहानी-संग्रह "दैत्य तथा अन्य कहानियाँ", "औरत होने का गुनाह" और "आख़िरी पड़ाव का दु:ख", दो कविता संग्रह "यत्किंचित" और "रोशनी की लकीर", एक बाल कहानी संग्रह "मेहनत की रोटी" प्रकाशित। इसके अलावा, लगभग एक दर्जन पुस्तकों का पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद जिनमें "काला दौर", "कथा पंजाब-2" "कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ","पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं", "छांग्या रुक्ख"(दलित आत्मकथा)और "रेत" (उपन्यास-हरजीत अटवाल) प्रमुख हैं। अनियतकालीन पत्रिका "प्रयास" का आठ वर्षों तक संचालन/संपादन। इन दिनों नेट पर ब्लागिंग।
पुरस्कार/सम्मान : हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए 'माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992' तथा 'मंच पुरस्कार, 2000' से सम्मानित।
निवास का पता : 372, टाइप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023
दूरभाष : 09810534373(मोबाइल),011-24104912(निवास)
ई मेल subh_neerav@yahoo.com

Tuesday, 26 October 2010

उन्नीसवाँ अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला(हरियाणा)

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पंचकुला(हरियाणा) में दिनांक 23 अक्टूबर, 2010 को लघुकथा सम्मेलन संपन्न हुआ है। प्रेषित प्रपत्र के अनुसारसम्मेलन के पहले सत्र में भाई भगीरथ परिहार का लेख लघुकथा के आईने में बालमन तथा डॉ अनूप सिंह मिन्नी कहानी(पंजाबी में लघुकथा के लिए यही नाम स्वीकार किया गया है) की पुख्तगी के बरक्स साऊ दिन शीर्षक अपनी पुस्तक पर आलेख पढ़ा। इन दोनों ही लेखों पर डॉ अशोक भाटिया, सुभाष नीरव और डॉ मक्खन सिंह के साथ मुझे भी चर्चा करने वालों में शामिल किया गया था। मेरा दुर्भाग्य कि इन दिनों मुझे बंगलौर आ जाना पड़ा और मैं सम्मेलन का हिस्सा न बन पाया। सम्मेलन के दूसरे सत्र में कुछ लघुकथाओं का पाठ उपस्थित लघुकथा-लेखकों द्वारा किया जाना तय था। इन लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रेषित सामग्री से श्रेष्ठता के आधार पर मिन्नी संस्था के कर्णधार श्रीयुत श्यामसुन्दर अग्रवाल व डॉ श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा हुआ। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने बताया था कि इस सम्मेलन के जुए का कुछ बोझ भाई रतन चंद 'रत्नेश' के कन्धों पर भी टिकाया गया है, काफी लघुकथाएँ उनके सौजन्य से भी प्राप्त हुई हैं। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने कुछ लघुकथाएँ इस आशय के साथ मुझे अग्रिम मेल की थीं कि मैं उन्हें पढ़ लूँ और यथानुसार अपनी टिप्पणी उन पर तैयार कर लूँ। चयनित लघुकथा का पाठ मिन्नी की परम्परा के अनुसार उसके लेखक द्वारा ही किया जाना होता है। पढ़ी जाने वाली लघुकथाओं पर चर्चा के लिए प्रपत्र में डॉ अनूप सिंह, डॉ कुलदीप सिंह दीप, डॉ अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, निरंजन बोहा के साथ मेरा भी नाम शामिल है। मैं सदेह पंचकुला सम्मेलन में अनुपस्थित रहा लेकिन मेरी मानसिक उपस्थिति वहाँ बनी रही। सम्मेलन की सफलता के साथ-साथ मैं भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा प्रेषित लघुकथाओं में से कुछ को अपनी टिप्पणी सहित जनगाथा के अक्टूबर 2010 अंक में दे रहा हूँ और इस तरह अपनी उपस्थिति वहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ।
21 अक्टूबर की शाम एक एसएमएस इस आशय का आया था कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 23 अक्तूबर 2010 को लघुकथा सम्मेलन है। इस बारे में किसी भी प्रकार की अन्य चर्चा न करके मैं उक्त सम्मेलन की भी सफलता की कामना हृदय से करता हूँ।
नोट: इस समूची सामग्री को 23 अक्टूबर, 2010 की सुबह ही पोस्ट कर दिया गया था, लेकिन कुछ मित्रों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए इसे विभक्त करके पोस्ट कर रहा हूँ। उपर्युक्त वक्तव्य भी इसीलिए संपादित हो गया है। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह हैबलराम अग्रवाल


॥लघुकथाएँ॥
॥1॥ वे दोनों/डॉ. शशि प्रभा
घर से भाग कर शादी कर ली थी उसने। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। पड़ोस की दुकान पर काम करने वाला राजेश उसे भा गया था। दिन-रात उसके ख्यालों में खोई रहती। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। राजेश भी उसका दीवाना हो गया था। आखिर, एक-दूसरे के प्रेम में पागल दोनों घर से भाग खड़े हुए और दूसरे शहर में जाकर मंदिर में शादी कर ली।
राजेश अभी काम पर नहीं लगा था। घर से भागते समय जो गहना, पैसा वह लाई थी, उसी से काम चल रहा था। आज दोनों मस्ती में घूमने आ गए थे। उसे चौथा महीना लग रहा था। राजेश ने प्यार से उसके पेट पर हाथ लगाते हुए पूछा, तुम्हें लड़की चाहिए या लड़का?
उस प्यार को अंदर तक उतारते और अपनी प्यार भरी नज़र से राजेश को नहलाते हुए उसने प्रतिप्रश्न किया, तुम्हें क्या चाहिए?
कुछ भी,अचानक नज़रें सामने टकराईं, एक दूसरी लड़की–फूला हुआ पेट, मैं अभी आया,कहकर हड़बड़ी में राजेश पार्क से बाहर निकल गया।
दूसरी लड़की ने पास आकर पूछा, वह तुम्हारा कौन था?
मेरा पति।
वह मेरा भी पति है।
और वे दोनों एक-दूसरी के पेट को देख रही थीं।-0-
संपर्क : 2532, सैक्टर-40-सी, चंडीगढ़

टिप्पणी : इसे सामयिक विषय की उद्बोधक लघुकथा कहा जा सकता है। फर्स्ट साइट लव और इन्स्टेंट मेरेज की हानियों की तरफ यह लघुकथा अत्यन्त मजबूती के साथ संकेत करती है। आज का समय असीम चारित्रिक गिरावट का समय है और इसमें भावुक हृदय लोगों विशेषत: स्त्रियों के लिए बहुत ही कम स्पेस है। माना कि स्त्री को स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन यह लघुकथा बताती है कि उससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि उसे व्यावहारिक होना चाहिए…छले जाने से बचने के गुर और सावधानियाँ आने चाहिएँ। यह लघुकथा उस ओर उसे एक सार्थक गुर प्रदान करती है।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)



॥2॥ जंग/डॉ. राजेन्द्र कुमार कनौजिया
सीमा पर दोनों ओर की सेनाएँ डटी हैं। अभी थोड़ी देर से गोलीबारी बंद है। एक ओर सौनिकों में से एक ने अपनी बंदूक वहीँ पास के पेड़ से टिका दी, थोड़ी चैन की साँस लेते हैं…
क्यों करते हैं ये जंग? क्या मिलेगा उनको और क्या पायेगा वो? वही दो वक्त की रोटी। धत्!–उसने आसपास देखा, पास के खेतों में सरसों के फूल निकले हैं। एक जंगली फूल भी खिला है। एक तितली न जाने कहाँ से आई है और मंडराने लगी है। बंदूक की नली के आसपास शायद कुछ लगा है। तितली खूबसूरत है। गहरे चटक पीले फूल में लाल तितली। बिल्कुल उसकी नन्हीं बेटी जैसी।
कितना अच्छा हो, अगर जंग खत्म हो और वह घर जाए।
वह आसमान की तरफ अपलक देखता रहा।
अचानक ‘साँय़’ से एक गोली सीमा के उस पार से चली और वह बाल-बाल बच गया।
तुरंत उसने भी पोजीशन ले ली और गोलियाँ दाग दी थीं।
थोड़ी देर बाद गोलीबारी बंद हो गई थी। वह सैनिक वहीं ढ़ेर हो गया था। बंदूक वहीं पड़ी थी। उससे निकलता धुआँ शांत हो गया था।
तितली अब भी उस पर मँडरा रही थी।-0-
संपर्क : म.न.-7, आफ्टा डुप्लैक्स,गोल्डन सिटी, मुंडी खरड़ (पंजाब)

टिप्पणी : इस लघुकथा की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। इसलिए नहीं कि यह जंग की मानसिकता के खिलाफ कुछ कहना चाहती है, बल्कि इसलिए कि समकालीन लघुकथा में प्रकृति को कथानक का हिस्सा बनाने की जो दूरी पनप चुकी है, यह उस दूरी को पाटने की पहल करती-सी दिखाई देती है। सारा घटनाचक्र बिना किसी ऐसे तनाव के जो कथाकार को अपने उद्देश्य की ओर जाने की शीघ्रता के कारण रचना में नजर आने लगता है, आगे बढ़ता है और समापन को प्राप्त होता है। एक विशेष बात जो मैं कहना चाहूँगा वो यह कि समस्त लघुकथाओं में हमें स्थूलत: नहीं उतर जाना चाहिए। लघुकथा एक विशेष कथा-विधा है। संकेत इसका महत्वपूर्ण अवयव है। कुछ सक्षम लघुकथाएँ मानवीय वृत्तियों को मानव-पात्रों के रूप में प्रस्तुत करती हैं और सामान्य घटनाचक्र की तुलना में कुछ असामान्य घटित होने की छूट पाना उनका अधिकार होता है। नि:संदेह श्रेष्ठ रचनाएँ सामान्य पाठक और सुधी आलोचक दोनों को समान रूप से प्रभावित करती हैं; लेकिन मेरा मानना है कि प्रत्येक लघुकथा को सामान्य पाठक की दृष्टि आकलित कर ले, यह सम्भव नहीं है। कुछ लघुकथाओं को आकलित करने का दायित्व आलोचकों को निभाना पड़ता है। उनके द्वारा आकलित होने के बाद ही वे सामान्य पाठक के उपयोग की श्रेष्ठ रचना सिद्ध हो पाती हैं।

॥3॥ ठसक/आचार्य भगवान देव ‘चैतन्य’
पत्नी के देहांत के बाद गांव को अलविदा कहकर राम प्रकाश अपने पुत्र और पुत्र-वधू के पास शहर ही में आ गया था। हालांकि जीवनभर उसका साधु-स्वभाव ही रहा था, मगर अब बढ़ती आयु के साथ-साथ वह और-भी अधिक सहज और सरल हो गया था। जो मिला, जैसा मिला पहन लिया। जब मिला, जैसा मिला चुपचाप खा लिया। फिर भी बहू कुछ-न-कुछ कहने-सुनने को निकाल ही लिया करती थी।
एक दिन दोपहर का भोजन करके राम प्रकाश धूप में लेटा हुआ था। थोड़ी देर बाद उसका बेटा रमेश आकर भोजन करने लगा तो पहला कौर मुंह में डालते ही वह अपनी पत्नी पर क्रोधित होकर बोला,नाजो, तुम्हें इतने दिन खाना बनाते हो गए, मगर अब तक भी अंदाजा नहीं हुआ कि दाल या सब्जी में कितना नमक डालना है…
ज्यादा हो गया क्या…?
ज्यादा? मुझे तो लगता है कि तुमने दो बार नमक डाल दिया है। लो मुझसे ऐसा खाना नहीं खाया जाता…।रमेश गुस्से में आकर उठ गया और वाश-बेसन पर हाथ धोने लगा।
नाजो राम प्रकाश की ओर देखते हुए तुनक कर बोली,अब मैं भी क्या करूँ, यहाँ तो कोई इतना तक बताने वाला भी नहीं है कि नमक कम है या ज्यादा। चुपचाप खाकर टांगें पसार लेते हैं।
राम प्रकाश समझ गया कि बहू यह सब उसे ही सुना रही है, मगर अपने स्वभाव के अनुसार वह चुपचाप लेटा रहा। जब वह रात का भोजन करने लगा तो उसे दाल में नमक कुछ कम लगा। उसे दिन वाली घटना याद आ गई, इसलिए बोला, बेटी, मुझे दाल में नमक कुछ कम लग रहा है। मेरा तो कुछ नहीं, मगर रमेश आकर…
अच्छा अब चुप भी रहो…बहू तुनक पड़ी, जैसा मिले चुपचाप खा लिया करो। कुछ लोगों को कुछ-न-कुछ कहने की ठसक होती ही है…
राम प्रकाश हाथ धोकर चुपचाप अपने कमरे में चला गया। -0-
संपर्क : महादेव, सुन्दर नगर-174401 (हि,प्र.)

टिप्पणी : सामान्य पाठक की दृष्टि से देखा जाय तो ठसक में आधुनिक परिवार में बुजुर्गों की दुर्दशा को तो आसानी से चिह्नित किया ही जा सकता है, लेकिन मेरी दृष्टि में यह विभिन्न मानसिकताओं के, मनोवृत्तियों के चित्रण की कथा अधिक है। प्रत्येक मनुष्य में दो प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैंपहली, सफलता का श्रेय लूटने की। इसका उदाहरण है राम वनवास के उपरान्त अयोध्या लौटे भरत से कैकेयी का यह कहना कि—‘तात बात मैं सकल सँवारी। अर्थात् राम को निष्कासित करके मैंने अकेले अपने दम पर तुम्हारे राजा बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। और दूसरी असफलता का आरोपण करने की।  इसका उदाहरण भी कैकेई ही है। भरत को राजा बनाने का श्रेय जिस अभिमान के साथ वह लूटती है उसी के साथ दशरथ की मृत्यु का कारण बनने का आरोप वह ईश्वर पर मँढ़ देती है—‘छुक काज बिधि बीच बिगारेउ। अत: ठसक दो व्यक्तियों के स्वभाव चित्रण की लघुकथा है। यद्यपि लेखक ने सिद्धांत-विशेष को ध्यान में रखकर चरित्रो को नहीं रचा है, तथापि इसमें पुत्र-वधू और राम प्रकाश के चरित्रों को मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करके देखने की आवश्यकता है।

उन्नीसवाँ अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला(हरियाणा)/ शेष रचनाएँ

॥4॥ क्या हम भी…/सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
कितनी बार कहा है कि जब कमरे में नहीं बैठना हो तो कमरे से बाहर आते समय ‘लाईट’ व पंखे को बंद कर दिया करो। लेकिन मेरी सुनता कौन है? लो अब भुगतो! पूरा 2850/- रुपये का बिजली का बिल आया है, अबकी बार।श्रीमती शर्मा ने बिल अपने पति महोदय को पकड़ाते हुए कहा।
शर्मा जी बिल को देखते हुए बोले, बुब्बू की माँ, पंखे व लाईटें बंद करने से कुछ नहीं होगा। आज ही मैं वो जो प्रकाश का साला है ना बिजली के दफ्तर में, उसके पास जाता हूँ। ले लेगा पाँच-सात सौ रुपये, लेकिन मीटर का ऐसा इंतज़ाम कर देगा कि बिल आगे से आधे से भी कम आएगा।
किंतु पापा, यह तो चोरी हुई न!बातें सुन रहे उनके चौदह वर्षीय बेटे बुब्बू ने कहा।
चोरी क्यों बेटे? सभी तो ऐसा करते हैं!
सभी तो बहुत कुछ करते हैं पापा। क्या हम भी…? वो प्रताप अंकल का बेटा दीप्ति को लेकर…सुना है न आपने पापा…!
पापा ने बेटे की आँखों में घूर कर देखना चाहा, मगर साहस नहीं कर सके। अगले ही पल उनकी नज़रें नीची हो गईं। वे इतना ही कह पाए, वो देख! अंदर वाले कमरे में कोई नहीं है और पंखा चल रहा है। जा, जाकर बंद कर दे!-0-
संपर्क : 1461-बी, सैक्टर 37-बी, चंडीगढ़-160 036
                                              
टिप्पणी : कथ्य के स्तर पर इसे साधारण आदर्शवादी लघुकथा कहा जा सकता है। इसमें एक तथ्यात्मक त्रुटि भी है जिसके कारण इसका घटनात्मक परिवेश आज नहीं तो कल कमजोर…या यह भी कह सकते हैं कि अव्यावहारिक सिद्ध हो जाना निश्चित है। बिजली के मीटर अब अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से युक्त हैं। महानगरों में तो उनकी मॉनीटरिंग की भी व्यवस्था है। घरेलू या व्यावसायिक किसी भी प्रकार के मीटर के साथ की गई छेड़छाड़ मॉनीटर में दर्ज हो जाती है। यही नहीं, अब मीटर-रीडिंग भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से दर्ज होती है अर्थात् मानवीय हस्तक्षेप अब उतना आसान नहीं रहा जितना पहले कभी था। इस लघुकथा में उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि जो सब करते हैं वही करना हमारे लिए भी कितना उचित अथवा अनुचित है? इस तथ्य को नई पीढ़ी भी समझ रही है। और न केवल समझ रही है, बल्कि पूर्व-पीढ़ी को समझा भी रही है। अत: इस बिन्दु तक लघुकथा को लाने के लिए कथाकार ने जिस तथ्य को चुना है, उसकी कमजोरी अथवा अल्पकालिकता को ध्यान में रखते हुए किसी अन्य दीर्घकालिक एवं शाश्वत तथ्य को चुनकर इसे रिवाइज़ कर लेना चाहिए। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह हैबलराम अग्रवाल
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)


॥5॥ अपंग मसीहा/डॉ. राम कुमार घोटड़
बहुत देर इंतजार के बाद, पति-पत्नी ने बच्चे की अंगुली पकड़े सड़क पार करने की कोशिश की। जल्दबाजी व भागमभाग की स्थिति में बच्चे की अंगुली छूट गई। बच्चा  वह भयभीत-सा सड़क के बीच बस के तेज होर्न की आवाज से घबराकर रोने लगा। इतने में ही न जाने कहाँ से लंगड़ाकर भागता हुआ एक युवक आया और उसने बच्चे को एक ओर धक्का देकर हटा दिया। बच्चा तो बच गया, लेकिन वह स्वयं न बच सका। बस उसकी टाँगों को कुचलती हुई आगे जाकर रुक गई। बस की सवारियाँ और आसपास की भीड़, इस हादसे को देखकर उस युवक के आसपास इकट्ठी हो गई।
 युवक के चेहरे पर दर्द की बजाय मुस्कराहट थी। वह कहने लगा, साथियो, चिंता की कोई बात नहीं। मैं स्वस्थ हूँ, ये मेरी टाँगें ही गई हैं। वर्षों पहले जब मैं छोटा था, इसी तरह सड़क पार करते समय मेरी टाँगें कुचली गईं थी। मैं तो बच गया, लेकिन मेरी टाँगें इतनी बुरी तरह कुचली गईं कि काटनी पड़ीं। तब से मैं ये नकली टाँगें लगाकर चला-फिरा करता हूँ। आज जो कुचली हैं वो ये नकली टाँगें हैं, फिर लग जायेंगी; लेकिन मुझे खुशी है कि आज एक बच्चा अपंग होने से बच गया।
उस युवक के चेहरे पर आत्म संतुष्टि के भाव थे।-0-
संपर्क : द्वारा मुरारका मैडीकल स्टोर,  सादुलपुर-331 023 (जिला:चुरू), राजस्थान

टिप्पणी : यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर के किसी भी अंग को प्राकृतिक कारण से अथवा किसी दुर्घटनावश खो देने की पीड़ा उम्रभर व्यक्ति को सालती है और वह इस सकारात्मक सोच के साथ जीता है कि किसी अन्य को ऐसे शारीरिक कष्ट से नहीं गुजरने देना है। मनोविज्ञान कहता है कि इसी मानसिकता के चलते शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे चिकित्सा व्यवसाय की ओर उन्मुख होते हैं। रचना में शैल्पिक दृष्टि से कुछ कमजोरियाँ हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)

॥6॥ ससुर/ऊषा मेहता दीपा
अमीर चंद ने अपने बेटे से शिकायत की, तुम्हारी पत्नी ने तो मुझे घर का नौकर समझ लिया है। सुबह से शाम हो जाती है, उसके हुक्म की गुलामी करते-करते। समझा देना उसे, मैं उसके बाप का नौकर नहीं हूँ, ससुर हूँ, ससुर।
बाथरूम में घुसी सविता ने सब सुन लिया था। उसने बड़े संयम से काम लेते हुए, धीरे-धीरे ससुर जी से कोई भी काम लेना बंद कर दिया। अमीर चंद जी को ज़िंदगी उबाऊ और बोझिल लगने लगी। दिन बिताए नहीं बीतता और रात करवट बदलते गुज़रती। नींद का नामोनिशान नहीं रहा। पुरानी यादें सीना छलनी करने लगीं।
वे एक दिन बहू से बोले, बेटी सविता, मैं तो अपंग ही हो गया हूँ। जीवन बोझ-सा बन गया है। बेटी, तुमने तो मुझे घर का आदमी समझना ही छोड़ दिया। सभी काम खुद करने लगी हो। बेटी, मुझे भी घर का सदस्य समझो। मुझे भी कोई काम बताया करो
सविता अवाक-सी ससुर का मुँह ताक रही थी। उसकी जीभ तालु से चिपक गई थी।-0-
 संपर्क : गाँव व डाक: डुगली-176319 जिला: चम्बा (हि.प्र.)

टिप्पणी : भारतीय पुरुषवादी मानसिकता को इस लघुकथा में बहुत ही खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है। भारतीय परिवेश में कन्या का पिता होना महान अपमानजनक घटना हैऐसा महर्षि वाल्मीकि का भी मानना है:सम्मान की इच्छा रखनेवाले सभी लोगों के लिए कन्या का पिता होना दु:ख का ही कारण होता है।* उसके विपरीत वर का पिता होने का अभिमान वर्णन से परे है। इस बात के प्रमाणस्वरूप किसी सद्ग्रंथ की किसी उक्ति को उद्धृत करने की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी दिनचर्या में स्वयंसिद्ध है। ससुर लघुकथा का अमीर चन्द ऐसा ही पुरातनपंथी वर का पिता है जो बहू के बाप का नौकर नहीं है। लेकिन बहू समझदारी से काम लेती है और ससुर से संवादहीनता की स्थिति बना लेती है। स्पष्ट है कि अभिमानी पुरुष अपनी उपेक्षा भी सहन नहीं कर पाता है क्योंकि यह उसके लिए सबसे बड़ी सज़ा होती है।
इस लघुकथा के शीर्षक पर पुनर्विचार किया जा सकता है।

·        वाल्मीकि रामायण:उत्तरकाण्ड:नवम् सर्ग:नवाँ श्लोक।

॥7॥ अहमाम द हमाम/जसबीर चावला
राजा निकले तो लोगों की आँखें फटी रह गईं–श्वेत सफ्फाफ लकझक करते वस्त्रों में झंकारते (नारमली इतने बेदाग होते नहीं, राजकीय परिधान)! फिर निकले वज़ीरे खानखाना तो वह भी मुस्कुराते सफेद लुंगी-हवाई शर्ट में! कोई धब्बा नहीं! वजीरे खज़ाना निकले तो अद्भुत छवि प्रस्तुत हुई–दूधिया उल्लू पर मानो सफेद साड़ी में लक्ष्मी! वजीरे खारजा को देख जनता अश्-अश् कर उठी–चमकदार सफेद जहाज से निकल उज्ज्वल भविष्य-से पसरते हवा में डालरों के सफेद बंडल! उच्च शिक्षा के मंत्री तो धवल कमल सदृश पुण्यवान् प्रतापी…
खुसुर-पुसुर होने लगी– कौन कह रहा था, हमाम में सब नंगे हैं? यहाँ तो एक से बढ़कर एक नामी नैतिकता के पहरेदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सफेद से सफेदतर! पीछे भी ढाकाई मलमल-से कोमल, धुले कपड़ों में ही निकल रहे हैं, मानवता के पक्षधर!
आखिर चक्कर क्या है? हमारे नेताओं में रातों-रात फेरबदल कैसे हो गया है?
यह हमाम ही है न भई?संतरी से पूछ ही लिया हिम्मत कर किसी अविश्वासी ने।
नहीं यह अहमाम है!
और भी है का? कि यही एक ही हमाम है?
नहीं…नहीं, इसके पीछे द हमाम भी है!संतरी ने खुलासा किया।-0-
संपर्क : 123/1, सैक्टर-55, चंडीगढ़-160 055

टिप्पणी : लघुकथा में क्लिष्टता है। बिम्ब-विधान कुछ क्लिष्ट शब्दों का खुलासा कर दिये जाने पर शायद स्पष्ट हो जाए। आपको याद होगा, ऐसे ही क्लिष्ट बिम्ब-विधान की एक लघुकथा छुरियाँ मैंने डलहौजी सम्मेलन में सुनाई थी और वह इसी आधार पर अंशत: नकारी भी गई थी कि बिम्ब को क्लिष्ट नहीं होना चाहिए। मैं इस विचार से सहमत हूँ।
कुल मिलाकर यह जसवीर चावला की चिर-परिचित शैली में लिखी गई एक व्यंग्य-प्रधान या कहें कि कटाक्ष-प्रधान लघुकथा है।

॥8॥ चप्पल/रतन चंद निर्झर
सुन्दर ट्रेन से अम्बाला जा रहा था। खिड़की के पास डिब्बे में सीट मिल गई। देखते-देखते रेल प्लेटफार्म से आगे चल पड़ी और रेलवे स्टेशन से आगे निकलते ही तीव्रगति से चल पड़ी। उसने गति पकड़ ली। वह खिड़की से सुबह के मनोरम दृश्यों का अवलोकन करता रहा। सुबह-सवेरे की दिनचर्या में लगे, लोग सड़कों पर साइकिलों पर आते-जाते लोगों को देखने में खोया रहा। एक छोटे-से स्टेशन पर गाड़ी दो मिनट के लिए रुकी। गाड़ी में सवार होने वाले मुसाफिरों की धक्कमपेल में उतरने वाले मुसाफिर उलझते रहे थे। तभी सुन्दर की नज़र एक प्रवासी मजदूर पर पड़ी। वह तेजी से धीरे-धीरे सरक रही गाड़ी में चढ़ने का प्रयास कर रहा था। इस प्रयास में उसकी एक चप्पल पटरी के किनारे पड़ी रोड़ी में फिसल गई, पर वह डिब्बे के दरवाजे का हैंडल पकड़ने में कामयाब कहा।
भैया, तुम्हारी एक चप्पल तो उस पार रेल लाइन में रह गई। सुन्दर ने उस प्रवासी मजदूर से कहा।
अपनी फूली सांसों पर काबू पा, हांफते हुए मजदूर ने कहा, चप्पल छूट गई तो क्या हुआ, रेलगाड़ी तो न छूटी। आज यह रेलगाड़ी न मिल पाती तो मैं अपनी माँ की अर्थी को कँधा न दे पाता। कहते-कहते उसका स्वर रुंध गया। -0-
संपर्क : म.न.-210, रोडा, सैक्टर-2, बिलासपुर-174001 (हि.प्र.)

टिप्पणी : चप्पल सांसारिक दायित्व और सांस्कारिक दायित्व के बीच सांस्कारिक दायित्व का चुनाव करने की सार्थक चेतना से युक्त लघुकथा है। आज का समय घोर भौतिकवादी रुझान का समय है। यह अर्थ-प्रधान समय है। इसमें माँ की अर्थी को कंधा देने जाने के लिए चलती ट्रेन में चढ़ने का खतरा मोल वही ले सकता है जो सांस्कृतिक चेतना से युक्त है और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की चिन्ता जिसके लिए दोयम है। इस लघुकथा में आदर्शवादिता की बजाय मूल्यपरकता के दर्शन अधिक होते हैं।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)