॥1॥ नुमाइंदे
शहर के लगभग बाहर पत्थर
तोड़ने वालों की बस्ती में मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर उनके बीच कुछ काम करने
की इच्छा हुई।
*
बस्ती के हमउम्र
लड़के और उनसे छोटे बच्चे मेरी बातें रुचि और ध्यान से सुन रहे थे। शायद कुछ कल्पनाओं
में अपने आपको फुटबाल,व्हालीबॉल खेलते हुए,पढ़ते हुए भी देखने लगे थे। उनकी सपनीली आंखों में मुझे भी वह सब नजर आ
रहा था।
तभी पीछे वाले झोपड़े
से एक अधेड़ निकल आया।
‘सबरा शहर मर गवा है
का। यिहां आये हो फिटबाल, बिलीबाल खिलान। इन
मोड़ा-मोडि़न का पढ़इएके का कलीक्टर बनाई दोगे। कछु नहीं हुइए यिहां। ...
भैया से पूछों हे तुमने? बस घुस आए।’
मैं हतप्रभ रह गया।
मैंने कहा, ‘मैं जो कुछ करना चाहता हूं, उसके लिए......भैया मना नहीं करेंगे।’
‘कछ़ु नहीं।
पेलें.....भैया से पूंछ के आओ।’
सामने बैठे युवक से
रहा नहीं गया। बोला, ‘हलकू दादा,ये
यहां हमें पढ़ाएंगे। अच्छी बातें बताएंगे। एकाध घंटा कुछ खेल खिलाकर मन बहला दिया
करेंगे। कोई चकलाघर तो खोलेंगे नहीं।’
उसके पास शायद इससे
बेहतर तुलनात्मक उदाहरण नहीं था।
‘ ...भैया कहियें
तो चकलाघर भी खुलिहे।’ यह हलकू दादा का स्वर था।
*
भैया उस बस्ती के
वार्ड मेम्बर हैं।
॥2॥
भ्रष्टाचार
अन्ना ने बहुत बुरा
किया।
-हां यार सचमुच।
-अब कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार
इस देश से।
-उनसे ही कुछ उम्मीद
थी।
दोनों राज्य परिवहन
की बस में सवार थे। टिकट टिकट.... कंडक्टर ने आवाज लगाई।
-दो टिकट कोदंडराम
नगर।
-चौदह रूपए।
पहले ने बीस का नोट
आगे किया।
कंडक्टर ने दस का नोट
वापस किया और आगे बढ़ गया।
-भाई साहब टिकट..।
-अरे छोड़ो न यार,क्या करोगे।...कंडक्टर मुस्कराया।
और दोनों फिर से चर्चा
में डूब गए।
-बहुत भ्रष्टाचार है
इस देश में।...पहला बड़बड़ाया।
-कैसे जाएगा ये।...दूसरे
ने फिर चिंता जताई।
॥3॥ अहसान
पठानकोट एक्सप्रेस का साधारण कम्पार्टमेंट। दरवाजे पर खड़े दो नौजवान।
एक-दूसरे से अपरिचित। लेकिन एक, दूसरे की अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर।
‘टिकट दिखाइए।’ एक आवाज गूंजी।
दूसरे ही क्षण रामपुरी सामने था। यह पहले का टिकट था। वह आगे कुछ करता,
इससे पहले ही दूसरे ने तुरंत चाकू छीनकर जेब के हवाले किया और रसीद किए दो हाथ।
टिकट चेकर की आंखों में कृतज्ञता झलक आई। दूसरे ने एक नजर पहले को देखा और
फिर टिकट चेकर को दूसरे दरवाजे की ओर ले जाकर धीरे से कहा, ‘बाबूजी,टिकट तो मेरे
पास भी नहीं है।’
(बम्बई यानी आज की मुम्बई से रामवतार चेतन के संपादन में प्रकाशित होने
वाली पत्रिका रंग-चकल्लस के नवम्बर-दिसम्बर,1981 अंक में प्रकाशित।)
॥4॥ इंतजाम
वह बूढ़ी अम्मां जब भी अपना लकडि़यों का गट्ठर बेचती,दो चार लकडि़यां बचा
लेती।
एक दिन मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया, ‘अम्मां अपने चूल्हे
के लिए तो तुम एकाध गट्ठा ही घर पटक लेती होगी?’
अपने गट्ठर के पैसे धोती के छोर में बांधती हुई बोली, ‘हां
बेटा।’
‘तो फिर ये हर बार गट्ठर में से दो-चार लकडि़यां क्यों बचा लेती हो?’ मैंने फिर पूछा।
बचाई हुई लकडि़यों को उठाती हुई वह बोली, ‘अरे बेटा,जिसे अपनी
दो रोटियों की चिंता खुद करनी पड़ती हो,उसकी चिता में दो-तीन मन लकडि़यां कौन
लगाएगा?’
(कमलेश्वर द्वारा संपादित पत्रिका ‘कथायात्रा’ के जून 1980
अंक में प्रकाशित।)
॥5॥ विकल्प
‘डॉक्टर साहब!’
‘हूं।’
‘क्या आपको ऐसा कोई अधिकार नहीं है ?’
‘कैसा? ’ डॉक्टर ने इंजेक्शन लगाते हुए पूछा।
‘कि आप मुझे दिसम्बर के पहले मार डालें।’
डॉक्टर ने अचकचा कर रामलाल की ओर देखा।
वह रोज-रोज ऐसे उल्टे-सीधे सवालों से डॉक्टर को उलझन में डाल देता है। आजकल उसका
मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। पर आज दिसम्बर शब्द जोड़कर रामलाल ने बात को रहस्यमय
बना दिया है।
झल्लाकर डॉक्टर ने पूछा, ‘आखिर रामलाल तुम जीना क्यों नहीं चाहते हो ?’
‘जीना।’ रामलाल ने एक फीकी हंसी हंसते हुए कहा-‘डाक्टर साहब
कैंसर का रोगी भी कभी बचता है। आठ महीने हो गए,यहां पड़े-पड़े। घर किस तरह चलता
होगा,भगवान ही जाने। बड़ा लड़का एमए पास करके मारा-मारा घूम रहा है, आप जानते हैं
न? ’
‘जानता हूं।’
‘दो लड़कियों की शादी होना है।’
‘वह भी जानता हूं।’ डॉक्टर ने कहा, ‘पर क्या दिसम्बर के
पहले मर जाने से तुम्हारे लड़के की नौकरी लग जाएगी या लड़कियों की शादी हो जाएगी? ’
‘हां,डॉक्टर साहब।’
डॉक्टर चौंक गया। उसे स्वीकारात्मक
उत्तर की आशा नहीं थी। वह रामलाल के अगले वाक्य का इंतजार करने लगा।
‘डॉक्टर साहब मुझे दिसम्बर में रिटायर होना है। अगर दिसम्बर
के पहले मर गया तो मेरे बदले मेरे बेटे को नौकरी....।’
(कमलेश्वर द्वारा संपादित पत्रिका ‘कथायात्रा’ के जून 1980
अंक में प्रकाशित।)
॥6॥ चमत्कार
गली के मुहाने पर खाली प्लाट था।
मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के लिए कचरा डालने
का एक ठिकाना। प्लाट मालिक कहीं और रहता था। बेचना चाहता था। मुहाने पर था सो अच्छी
कीमत का इंतजार कर रहा था। कहते हैं न कि घूरे के भी दिन फिरते हैं। सो वह दिन आ
ही गया। प्लाट बिक गया। जल्दी ही उस पर एक नया घर भी बनने लगा। कहते हैं कि आदत
आसानी से नहीं जाती। कुछ लोग अब भी वहीं कचरा डाल रहे थे।
मकान मालिक परेशान-हैरान थे। सब उपाय करके देख
लिए थे। वहां लिख दिया था अंग्रेजी में भी और स्थानीय भाषा में भी कि, ‘यहां कचरा
डालना मना है।’ पर हर जगह की तरह वहां भी पढ़े-लिखे गंवारों की संख्या अधिक थी।
लोग थे कि बाज ही नहीं आ रहे थे।
एक सुबह चमत्कार हो गया। कचरे की बजबजाती
दुंर्गध की जगह चंदन की सुगंध ने ले ली थी। अब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने
वहां आ रहे थे।
मकान मालिक ने रातों-रात अपने किसी आराध्य को
पहरेदारी के लिए एक छोटी-सी मडि़या में वहां बिठा दिया था।
॥7॥ अनुयायी
वह आकर्षक व्यक्तित्व
का मालिक था। बहुत सारे अनुयायी थे उसके। कुछ पक्के सिद्धांतवादी और कुछ कोरे
अंध-भक्त। वे सब उसकी एक आवाज पर मर मिटने को तैयार रहते।
वह
कहता,‘.......।।.........।।’
सब हाथ उठाकर उसका समर्थन करते।
***
उन
सबकी यानी उसकी प्रगति में की राह में एक खाई थी। मंजिल पर पहुंचने के लिए उस खाई को पाटना जरूरी था।
उसने
अपने अनुयायीयों से कहा, ‘यह खाई हमारी प्रगति में बाधा नहीं बन सकती। हमारी हिम्मत
और दृढ़ निश्चय के आगे यह टिक नहीं सकेगी। साथियो, देखते क्या हो आगे बढ़ो।’
देखते
ही देखते वे सब उस खाई में समा गए।
उसने
मुस्कराकर एक नजर लाशों से पटी खाई पर डाली और फिर उन पर चलते हुए अपनी मंजिल की
ओर बढ़ गया।
(प्रज्ञा,साहित्यिक
संस्था, रोहतक द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 1980-81 में पुरस्कृत।
प्रज्ञा द्वारा प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘स्वरों का आक्रोश’ में संकलित।)
राजेश उत्साही
Ø मध्यप्रदेश
की अग्रणी शैक्षिक संस्था एकलव्य में 1982 से 2008 तक
कार्य। संस्था की बाल विज्ञान पत्रिका चकमक का 17 साल तक
संपादन। संस्था की अन्य पत्रिकाओं में संपादन तथा प्रबंधन सहयोग। एकलव्य के
प्रकाशन कार्यक्रम में योगदान।
Ø मप्र शिक्षा विभाग की पत्रिका गुल्लक तथा पलाश का संपादन।
नालंदा,रुम टू रीड तथा मप्रशिक्षा विभाग के लिए बच्चों के लिए साहित्य निमार्ण
कार्यशालाओं में स्रोतव्यक्ति। कविताएं, कहानी, व्यंग्य लेखन खासकर बच्चों के
लिए साहित्य निमार्ण, संपादन तथा समीक्षा में गहरी रुचि। रूम टू रीड से पांच बाल
कविता पोस्टर तथा अन्य किताबें प्रकाशित। एक कविता संग्रह ‘वह, जो शेष है..’
प्रकाशित।
Ø आजकल बंगलौर में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के शिक्षक पोर्टल टीचर्स ऑफ इंडिया
में हिन्दी संपादक। लर्निंग कर्व के हिन्दी संस्करण का
संपादन। विद्याभवन सोसायटी,उदयपुर तथा
अज़ीमप्रेमजी विश्वविद्यालय की संयुक्त शैक्षिक पत्रिका ‘खोजें और जानें’ की संपादकीय टीम
के सदस्य।
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