Sunday, 1 December 2024

एक पहलू:आत्म-शक्ति / बलराम अग्रवाल

 
यह लेख महात्मा गांधी के जन्म शताब्दि वर्ष 1969 के उपलक्ष्य में विशेष रूप से लिखा गया था जोकि मेरे द्वारा लिखा गया सम्भवतः दूसरा लेख है क्योंकि 'अहिंसा' शीर्षक से लिखे एक लेख की जुलाई 1969 में प्रकाशित प्रति भी मिली है। डी. ए. वी. इंटर कालेज, बुलंदशहर की योजना अक्टूबर 1969 में गांधी जी पर विशेष पुस्तिका प्रकाशित करने की थी; अतः निश्चित रूप से इसे जुलाई या अगस्त 1969 में लिखा गया होगा। बाद में, या तो फंड्स की कमी के कारण या समुचित सामग्री न मिलने के कारण विद्यालय प्रबंधन द्वारा पुस्तिका प्रकाशित न करके वार्षिक पत्रिका के 1970 अंक में ही समस्त सामग्री को स्थान दिया गया था।  


मैं अनुभव करता हूँ कि किसी अत्याचार अथवा अत्याचारी भावना को समाज से निकालने के लिए शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त दृढ़-प्रतिज्ञ तथा आत्म शक्ति का विकास होना भी अत्यन्त आवश्यक है और अपने उस अत्याचार-विरोधी आन्दोलन में शारीरिक शक्ति का उतना महत्व नहीं जितना आत्म-शक्ति का । किसी कार्य को पूर्ण रूप से सफल होने का सर्वाधिक श्रेयः आत्म-विश्वास, अपनी उस आत्म-शक्ति को है, जिसने हमें उस कार्य के प्रति जागरूक रखा ।

"अरे, यह कार्य कैसे प्रारम्भ हो ? साधन ही कोई नहीं है और यदि साधन हो भी जाय तो क्या आवश्यक है कि इस कार्य में हमें सफलता ही मिलेगी ?" आदि कितने मूर्खतापूर्ण विचारों का समन्वय हमारे अन्दर हो जाता है। गीतानाथ प्रश्न करते हैं--"क्या हमें कर्म ही नहीं करना चाहिए?" केवल फल (परिणाम) की इच्छा को ही हमें अग्रसर रखना है? इनके उत्तर में मैं तो कहता हूँ कि फलेच्छा से कर्म करने वाले को कभी सफलता नहीं मिलती। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये गये कर्म के प्रति आत्म-शक्ति के द्वारा जाग रूक रहने से और उसमें आत्म-विश्वास उत्पन्न करने से सफलता मिलती है, कर्मशील व्यक्ति के लिए समस्त साधन उपलब्ध हैं, ध्येयरत मनुष्य के सफलता पैर चूमती है।" इसमें लेशमात्र भी असत्य नहीं। कोई कार्य यदि करना ही है तो लीन होकर क्यों न किया जाय, परिणाम की आसक्ति फिर क्यों ? ध्येय तक जाने के लिए कुछ लुटाना नहीं पड़ता बल्कि, स्वयं लुटना पड़ता है। उद्देश्य और परिणाम दोनों किसी भी दशा में एक नहीं हैं, विचार करने पर ये परस्पर विरोधी भावनायें हैं।

कर्म करने के लिए आत्मनिर्भर होना अति आवश्यक है। जो व्यक्ति आत्म-निर्भर नहीं हैं, वे भला कर्म क्या करेंगे? आत्मशक्ति जिनकी विकसित है, वे न तो किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर होते हैं और न किसी को कोई कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न-मात्र ही करते हैं। अहिंसक भी केवल वे ही व्यक्ति हैं जो बुद्धि विवेक के बल पर प्रत्येक समस्या का उचित समाधान करने की क्षमता रखते हैं। कर्मण्यता, आत्म-शक्ति, आत्म- निर्भरता एवं विवेक शक्ति आदि सम्पूर्ण गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान हों उसे हम क्या कहेंगे? उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है।

ऐसी ही एक शक्ति पुनः पुन्य-भूमि भारत पर प्रकट हुई और उस दानवीय शक्ति से मुक्ति दिलाई जो अपनी नीति-विद्या में पारंगत थी। जिसने दो भाइयों के बीच झगड़ा कराकर दोनों के अधिकार हड़प लेना अपना व्यवसाय बना लिया था। दीन-हीन, अभागे किसान मजदूरों की दशा को न निहार, अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए, आँगन में किलकते बच्चों सहित उनकी कुटिया को भस्म कर दिया उनके दिलों को तोड़ दिया, उनके अविकसित अरमानों की चिता पर जिसने अपना खाना पकाया। ऐसी वह कौनसी शक्ति थी जिसने भारत की क्रान्तिकारी भावना को बढ़ा दिया, सम्पूर्ण विश्व में जिसने नया प्रकाश फैला दिया ? कोई न जान सका, न जाने वह कौन सी शक्ति थी जो सदैव के लिए प्राणीमाल के लिए एक प्रेरणा बन कर रह गयी। आज तक जो भी उसे जानने के लिए तत्पर हुआ वह उसी का होकर उसी में लीन हो गया। शक्ति तो जो कुछ भी थी, वह थी ही, परन्तु उसे प्रकट करने का माध्यम एक ऐसा प्राणी था जो स्वभाव से डरपोक परन्तु आत्माभिमानी था। शारीरिक शक्ति न होते हुए भी जिसने आत्म- शक्ति के बल पर, हिंसा, बुद्धि और विवेकशक्ति के आधार पर एक ऐसे समाज की स्थापना की जिसने सदैव के लिए भारत की दासता पर पानी फेर दिया। कुचल दिया उस घमन्डी का सिर जो प्रह्लाद का पिता बन बैठा था। उस विभूति को प्राणी समाज ने युग पुरुष, बापू, राष्ट्रपिता आदि विशिष्ट नामों से स्वीकार किया ।

दुबले-पतले साधारण शरीर पर वस्त्र केवल नाम मात्र को था । लाठी के सहारे चलने वाला वह शरीर स्वयं औरों का सहारा था। फिर भी वह किसलिए प्रत्येक मनुष्य के आकर्षण का विषय बन गया ? यह उसकी अपनी विशेषताएँ थीं। जिनके द्वारा संपूर्ण भारत ने विदेशी राज्य को हिलाकर रख दिया गया यह उसकी प्रबल आत्म-शक्ति का परिचायक एवं अपूर्व प्रमाण था। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए उसने नये-नये अनौखे उदाहरणों को संसार में सदैव के लिए छोड़ दिया। उसने सभी प्राणियों को एकत्रित कर, अपने सुगठित, सुविचारों से परिपक्व कर अपने विश्व-व्यापी आन्दोलन का श्री-गणेश किया । समस्त प्राणियों में समन्वय की भावना का संचार कर दिया। परिणाम की ओर ध्यान न देकर सबके साथ अनेकानेक रुकावटों का निर्भयता-पूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य की ओर चला गया। न जाने कितने दीन-हीन और समाज द्वारा निष्कासित लोग उसकी शरण आये और उसने धैर्यपूर्वक उनको गले से लगाकर नवीन मार्ग में बढ़ने की प्रेरणा दी। तो क्या ऐसा करने पर समाज ने उसकी भर्त्सना की? नहीं, यह उनके बस की बात नहीं थी, फिर तो समाज के लोगों में एक नवीनता चमकी और ऊँच-नीच का भेद जानने वाले स्वयं उसकी छत्रछाया में नीच जाति को गले लगाने के लिए दौड़ पड़े और जिन लोगों ने उसकी भत्सना की, उनकी चिन्ता न कर वह ध्येय की ओर बढ़ता चला गया ।

समाज ने उसमें किसी नई शक्ति का अनुभव किया, प्रातःकालीन सूर्य की भांति, समस्त चराचर जातियाँ उसको नमस्कार कर स्वयं को धन्य अनुभव करती हैं। जैसे अब उसके प्रकाश में ही जगत् के सारे कार्य पूर्ण हो रहे हों। उसके प्रकाश में सज्जनों का मार्ग आलोकित हुआ और दुर्व्यसनों में फंसे अज्ञानियों को भय लगा। उन्होंने छुटकारा पाना चाहा, परन्तु हाय ! सूर्य केवल प्रकाश ही दे सकता है। उसके आगमन की सूचक प्रातः कालीन लालिमा ही होती है, संध्या का अन्धकार नहीं। प्रत्येक भारतीय में देशत्व का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो गया। कोटि-कोटि मस्तक उसके आदर हेतु झुक गये, परन्तु वह तो जैसे सागर था, जिसका अथाह जल कभी छलकता नहीं, उसे अभिमान की बू नहीं थी। अपने शरीर, अपने मन और मस्तिष्क पर उसका पूर्णतः नियंलण था। उसका प्रत्येक कार्य समस्त समाज के लिए था, परन्तु फिर भी वह न जाने कितने लोगों की आँखों का काँटा बनकर खटकने लगा, न जाने क्या-क्या भावनाएँ उत्पन्न हुईं उस आत्मसम्मान की मूर्ति के अपमान के लिए। अन्धकार में कार्य करने वाले सदैव प्रकाश से डरते रहे हैं, प्रकाश उनकी मृत्यु का संदेश होता है। परन्तु क्या कितने भी प्रयत्न करने से प्रकाश समाप्त हो जायगा ? प्रकाश कभी समाप्त नहीं होता । एक दीपक, अनेकानेक दीपकों को प्रज्ज्वलित कर अपना प्रकाश संसार में छोड़ ही जाता है। महापुरुषों के कार्य में सदैव ही अन्धकार-प्रिय लोगों ने बाधाएँ उत्पन्न की हैं परन्तु वे उनको ध्येय तक पहुँचने से न रोक सके। अनेकों बार उनका असम्मान करने का प्रयत्न किया गया किन्तु ज्ञानकोष में सम्मान अथवा असम्मान नाम का कोई शब्द ही नहीं था। अपने विचार में तो वह "समाज से प्रकट हुआ और समाज में लीन होऊँ" के भाव सँजोए था। शायद यही होना था और यही हुआ, परन्तु 'उसके दीप अभी तक जल रहे हैं औरों के दिलों में।' उसका कहना था--

ध्येय की ओर चलो, ध्येय की ओर बढ़ो। 

ध्येय को लेकर चलो, ध्येय को लेकर बढ़ो।। •••

सम्पर्क  : 8826499115

Saturday, 26 October 2024

साहित्य की अद्भुत विधा है लघुकथा : राजेन्द्र नागर 'निरन्तर'

[भोपाल (म.प्र.) से प्रकाशित 'दैनिक सुबह प्रकाश' (शनिवार, 26 अक्टूबर 2024) के साप्ताहिक परिशिष्ट 'साहित्य प्रकाश' (पृष्ठ 4) पर प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार राजेन्द्र नागर 'निरन्तर' का संग्रहणीय लेख, उनके ही सौजन्य से प्राप्त]

राजेन्द्र नागर 'निरन्तर'
लघुकथा साहित्य की एक विशेष विधा है, जिसमें कम शब्दों में अधिक अर्थ को व्यक्त करने का प्रयास किया जाता है। या यूं कहें कि यह एक ऐसी छोटी कहानी होती है जो पाठक को थोड़े ही शब्दों में गहरा संदेश देती है। कुछ लघुकथाकार इसे अणु की संज्ञा भी देते हैं। पाठक के पास पढ़ने का कम समय होने के बावजूद भी वह लघुकथा को पढ़कर संतुष्टि पा सकता है। जैसा कि आजकल देखने में आ रहा है कि लगातार अखबार और पत्र पत्रिकाएं भी लघुकथा को एक महत्वपूर्ण स्थान दे रही हैं लेकिन कुछ लघुकथाकार, लघुकथा का सही अर्थ ना समझते हुए चुटकुलों के रूप में लेखन करते हैं या बड़ी कहानी के रूप में ले लेते हैं। मैं इसी संदर्भ में आज अपने कुछ विचार आपके साथ साझा करना चाहता हूं। 


मालवा के वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राठी के शब्दों में यदि कहूं तो 'लघुकथा बहुत ही साधना और सोच विचार के साथ लिखने वाली कथा शैली है, जिसमें हमें अपने आसपास के परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए लिखना होता है। विषय को प्रस्तुति के समय प्रामाणिक बनाना पड़ता है। लघुकथा के छोटे से आकार में हमें उसके सारे संदर्भ बिंदु समेटना होते हैं। अपेक्षित कथा विस्तार जरूरी होता है, लेकिन अनावश्यक विस्तार से बचना होता है। यह किसी बड़े पत्थर को छेनी-हथोड़ा लेकर तराशने जैसा काम होता है। उसके प्रत्येक अंग को तराशना होता है। कुल मिलाकर लघुकथा घने बादलों में कौंधती हुई बिजली के समान होती है जो एक क्षण में अपनी चमक से पाठक को चमत्कृत कर देती है।' 

लघुकथा में कम शब्दों में अधिक अर्थ के साथ साथ अंत बड़ा ही रोचक होता है। मेरे विचार से लघुकथा में तीन प्रमुख तत्व होना चाहिए। पहला संक्षिप्तता, दूसरा प्रतीकात्मकता और तीसरा पैनापन। हालांकि लघुकथा के आकार के बारे में तमाम लघुकथाकारों के अपने-अपने मत हैं। उज्जैन के लघुकथाकार संतोष सुपेकर के अनुसार 'घटना-प्रधान लघुकथा में शब्द सीमा का ध्यान रखना आवश्यक है। लेकिन लघुकथा यदि मनोवैज्ञानिक तथ्य पर केन्द्रित हो, उसमें एकालाप हो, विचार प्रधान हो तो इसकी शब्द सीमा बढ़ सकती है। मुख्य बात है पाठकीय सम्प्रेषण की। अतः लचीलापन तो हमें लघुकथा में रखना ही होगा।' लेकिन मैं जहाँ तक सोचता हूँ, लघुकथा यदि एक सौ शब्दों से ऊपर की सीमा को क्रॉस करती है तो फिर वह लघुकथा, लघुकथा ना होकर लघु कथा या कहानी का रूप ले लेती है। कतिपय लेखक आजकल लघुकथा के नाम पर चुटकुले और संस्मरण तक का सहारा ले लेते हैं लेकिन यह गलत है। इस चीज से बचा जाना चाहिए। लेखन के बाद लेखक को छपने या सोशल मीडिया पर वायरल करने की जल्दबाजी से भी बचना चाहिए। मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि लघुकथा को लिखने के बाद कम से कम आठ दिनों तक अपने पास रखकर रोज उसे पढ़ना चाहिए ताकि जब लघुकथा संपादक तक पहुँच  तो वह पूर्ण परिपक्व हो। लघुकथा में शब्दों की पुनरावृत्ति से भी बचा जाना चाहिए। इससे लघुकथा के आकार को कम किया जा सकता है। लघुकथा का अंत भी विस्फोटक तरीके से होना चाहिए ना कि उसे अनावश्यक विस्तार दिया जाए। लघुकथा में पात्र, संदेश और संवाद भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रतीकात्मकता के साथ जब पात्र प्रस्तुत होता है तो वह अपना एक अलग प्रभाव छोड़ता है। 

प्राचीन समय के लघुकथाकारों में प्रेमचंद, मंटो, शरद जोशी, परसाई आदि को लिया जाता है लेकिन आज के जो लघुकथाकार हैं, मैं जहाँ तक समझता हूँ, बेहतर संभावनाओं के साथ लिख रहे हैं। थोड़ा-सा उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है जो तमाम वरिष्ठ लघुकथाकार समय-समय पर दे सकते हैं। श्रीमती कांता राय और बलराम अग्रवाल भी इस क्षेत्र में सक्रियता के साथ काम कर रहे है। 

अंत में, मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि लघुकथा अब अपने पूर्ण यौवन के साथ अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पा रही है जो कि समय की माँग भी है। लघुकथाकार इस पर मेहनत करते हुए काम करें ना कि सिर्फ दिखावे के नाम पर कुछ भी लिख दें।

लेखक सम्पर्क : +91 94259 16606

Saturday, 21 September 2024

भवभूति मिश्र की चुनी हुई लघुकथाएँ

कथाकार भवभूति मिश्र के कथा-संग्रह 'बची खुची सम्पत्ति' (1954) से चुनी हुई सात लघुकथाएँ :

।।1।।

बची खुची संपत्ति

"अनन्त सौन्दर्य और अखण्ड रूप-माधुरी लेकर भी तुम भीख माँगने चली हो सुन्दरी !" कहते हुए धनी युवा की सतृष्ण आँखें उसके मुख-मण्डल पर जम गईं। वह मुस्कुराने लगा और साथ ही साथ विचित्र भाव-भङ्गिमा भी दिखलाने लगा । युवती के कोमल कपोल रोष और लज्जा से लाल-लाल हो उठे । उसकी आँखें पैरों के नीचे, भूमि में छिपे किसी सत्य के अन्वेषण में लग गई ।

युवक ने पूछा - "भीख माँगने में क्या मिलेगा ? पैसा, दो पैसे, या चार पैसे; इतना ही न ? क्या तुम इतने से ही अपने पति को टी० बी० से मुक्त कर लोगी ? याद रक्खो, यह राज-रोग है और इसकी चिकित्सा के लिये चाहिये रुपया, काफी रुपये; हाँ !"

"तो फिर और क्या करू बाबूजी ?" - दबे स्वर में युवती ने पूछा। युवक ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा - "और क्या करोगी? मुझ ही से पूछती हो ? यह सरस अधर, सुरीला कण्ठ-स्वर, कोमल बाँह, किस दिन ये काम देंगे ? कहता हूँ; हाथ फैलाओगी तो ताँबे के टुकड़े पाओगी और बाँह फैलाओगी तो पाओगी हीरे, जवाहर !" इतना कहकर युवक ने अपनी तिजोरी खोल दी ।

उस रमणी ने उन्हें देखा। आँखें उनके झिलमिल प्रकाश में न ठहर सकीं। वह चुप रह गई । उसका सारा शरीर पीला पड़ गया। उसे ऐसा लग रहा था, मानों उसके ये शब्द सदा से अपरिचित हों ।

कुछ देर तक वह इसी प्रकार स्तब्ध. भीत-सी खड़ी रह गई । अन्त में अपने बिखरे साहस को समेटकर उसने उत्तर दिया - "बाबू जी, इसी हिन्दुस्तान में आने के लिये अपनी सारी सम्पत्ति तो पाकिस्तान में गँवा आई हूँ । क्या हिन्दुस्तान पहुँचकर भी अपनी बची खुची सम्पत्ति को गँवा दूँ ? नहीं बाबू, यह नहीं होने का। माफ कीजिये, यह बहुत बड़ा देश है। एक-एक पैसा तो मिल जायगा ? - यही बहुत है।" - कहती हुई वह नारी बहुत शीघ्रता से बाहर निकल गई ।

-::-

।।2।।

मूर्ति और प्रतिमूर्ति

भूमि पर गीली मिट्टी के लोंदे इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। हाथ में बाँस की हल्की और पतली खुरपी है। वह आधी धोती ओढ़े, आधी पहने है। बाल बिखरे हैं अस्त-व्यस्त से । सूरज आसमान में बहुत ऊपर तक चढ़ आया है, पर उसने अब तक जल की एक घूँट भी नहीं पी है। इस ओर उसका ध्यान लेशमात्र भी नहीं है।

वह मूर्ति बनाने में लीन है। आँखें मूर्ति के चेहरे पर टिक गई हैं। हाथ-पाँव, मुह-नाक, अंग-अंग सुघट और सुडौल उतरे हैं। वह देखता है, कुछ क्षण ध्यानमग्न-सा हो जाता है। ओह, मुख कितना सुन्दर उतरा है ! मन में प्रसन्नता उठती है अवश्य; लेकिन न जानें, क्यों वह चुप है ? सब-कुछ ठीक होने पर भी लगता है, जैसे कुछ भी नहीं हुआ है। वह कुछ देर रुकता है, कुछ सोचता है और फिर काम में लग जाता है।

शाम तक पूरे दो मास हो जायेंगे । मूर्ति बनकर भी अधूरी ही है। उसने सोमा से कह दिया है कि आज वह जरूर पूरी हो जायगी । आज उसे अधूरी नहीं छोड़ेगा। नहीं तो वह लड़की, न जाने, क्या-क्या सोचने लग जायगी ?वह ध्यान में लीन है, क्योंकि आज उसे पूरी करके ही छोड़ना है।

सोमा कब से उसके पीछे खड़ी है, इसका उसे पता तक नहीं। वह भी एकटक देख रही है; कभी मूर्तिकार को, कभी मिट्टी की प्रतिमा को । ओह ! यह तो उसी की प्रतिच्छवि है। मूर्तिकार अपने भावों में विभोर है और यह उसकी भाव-विभोरता में । सोमा सोच रही है"मूर्ति कितनी सुन्दर है ?"

अकस्मात् मूर्तिकार झल्ला उठा"क्या आज भी यह मूत्ति पूरी न होगी ? दे दूँ एक झटका ? यह चूर-चूर हो जाय ! जब तक इसे फिर नये सिरे से नहीं बनाता, यह नहीं पूरी होने की । रोज-रोज सुधार-सँवार करते-करते थक तो गया हूँ।" वह क्रुद्ध हो उठा । भवें तन गई । आँखें लाल हो उठीं। दाहिने हाथ की मुट्ठी को कसकर बाँधा और चलाना ही चाहता था कि सोमा ने पीछे से उसे अपनी कोमल बाँहों में जकड़ लिया"यह क्या कर रहे हो पागल ?" 

सुनकर मूर्तिकार का मुख पीछे की ओर फिरा । उसने देखा, सोमा हैरत और परेशानी से उसकी ओर देख रही है। दोनों कुछ क्षण उसी स्थिति में मौन बने रहे ।

मूर्तिकार ने ही मौन भङ्ग किया"छोड़ो सोमा, यह तूने क्या कर दिया ? मूर्ति अपूर्ण थी, मैं उसे पूरी करना चाहता था।" 

सोमा उसे छोड़ बगल में खिसक गई। उसके मुख-मण्डल पर लज्जा की पहली लाली झलक रही थी। उसकी आँखें भूमि पर झुकी हुई थीं ।

मूर्तिकार स्थिर नहीं कर सकादोनों में कौन अधिक सुन्दर है ? सोमा की मूर्ति या उसकी प्रतिमूर्ति ?

-::-

।।3।।

भेद की बात

अपने शहर में उन दिनों उस नाटक-मण्डली की काफी धूम थी । उसके एक-एक अभिनय में प्राण था और था सम्मोहन, साथ ही साथ स्वाभाविकता भी थी। पुरुष-पात्रों के स्थान पर पुरुष और स्त्री-पात्रों के स्थान पर स्त्रियाँ ही काम करती थीं। इस प्रकार अभिनय को कृत्रिमता से बचाने के लिये निर्देशक अधिक से अधिक सचेष्ट रहा करते थे। दर्शकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही थी । इसलिये आय की वृद्धि भी होती चली जा रही थी । घर-घर बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की चर्चा का विषय, उन दिनों, यह नाटक-मण्डली थी ।

इधर दो-तीन दिनों से रामायण के उत्तरकाण्ड का अभिनय हो रहा था। इसमें इस मण्डली को अधिक से अधिक यश मिला और पैसे भी ।

हँसी में एक दिन वेदना ने दीपक से कह दिया"दीपक जी, आप राम ही बन सकते हैं, बनिये। सीता का अभिनय आपको करना पड़े तो आप समझेंगे कि यह अभिनय कितना कठिन है।"

दीपक को बहुत बुरा लगा। उसने व्यंग्य में कहा"जी हाँ देवी जी, आप लोग सीता बनने के लिये ही बनाई गई हैं, राम बनने के लिये नहीं । राम का काम भी तो आप नहीं ही कर सकेंगी।"

दोनों को परस्पर बातें लग गई। अन्य पात्रों की हँसी ने उनके घातों का महत्व बढ़ा दिया। दोनों ने अपने-अपने मन में निश्चय कर लिया कि अच्छा अवसर मिलने पर ही इसका निर्णय हो सकेगा ।

संयोगवश एक दिन निर्देशक जी को किसी काम से बाहर चला जाना पड़ा । अपना सारा कार्य-भार वे दीपक को सौंप गये । वेदना ने दीपक से कहा"अच्छा अवसर है। हम दोनों आज ही उस दिन की बात का निर्णय करा लें। लेकिन, यह काम चुपके से हो । जनता निर्णय करे ।" निदान, दीपक ने सीता का अभिनय करना स्वीकार कर लिया और वेदना ने राम का ।

नाटक का आरम्भ हुआ । दर्शक जड़ की भाँति बैठे रह गये । अन्य दिनों की अपेक्षा नाटक और अधिक सफल रहा। उस दिन के नाटक की और भी अधिक सराहना हुई। लोगों के मन में यह बात जम गई कि आज का अभिनय सर्वश्रेष्ठ है ।

पर, रास्ते में जाते हुए कुछ लोग चर्चा करते जा रहे थे कि न जाने क्यों, सीता-परित्याग के समय राम के अभिनय में और धरती-प्रवेश के समय सीता के अभिनय में कुछ खास त्रुटि मालूम पड़ रही थी ।

-::-

।।4।।

दरद न जाने कोय

तो, नृत्य का आरम्भ हो गया। मीरा का अभिनयपूर्ण नृत्य शुरू हुआ । "मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय !" - गाती हुई मीरा स्टेज पर आई। पाँवों में घुंघरू, दोनों हाथों में करताल, खुले बिखरे बाल, राजपूताना घुँघरा और उस पर ओढ़नी । न आभूषण और न साज-सज्जा । फिर भी सबल, मधुर आकर्षण । भावों में विभोर दर्द-दीवानी मीरा नाचने लगी, नाचने लगी । रंगमंच के पीछे से बेला का स्वर, स्वरों का आरोहावरोह । ताल धीमा, पर बहुत संयत। दर्शक मंत्र-मुग्ध हो गये । "मेरा दरद न जाने कोय"- ओह, कितना दर्द है ! वेदना की एक टीस अव्यक्त रूप में फैलती गई, फैलती गई। प्रत्येक के मर्म से आवाज निकली - "मेरा दरद न जाने कोय !"

उस नृत्य के लिये केवल सात मिनटों का समय दिया गया था । पर नृत्य की सफलता ने सभापति को भी तन्मय कर दिया । अतः वे समय पर सूचना देना भी भूल गये । लगभग आध घण्टे तक वह चलता रहा। मीरा नाचती रही। जब नाचती हुई वह चली गई, तब लोगों को होश हुआ। करतल- ध्वनि से कॉलेज का सभा-भवन गूँज गया। सभापति के अथक प्रयत्नों से शान्ति हुई । सभापति ने अपने भाषण के अन्त में कहा - "मैं छात्राओं के इस परिश्रम और कला-प्रियता की सराहना किये बिना नहीं रह सकता। कला को सप्राण बनाने वाली ये महिलायें भौतिक विज्ञान से प्रभावित शुष्क जीवन को सरस और मधुर बनाकर उनमें पुनः नवजीवन का संचार कर सकेंगी, ऐसी मेरी आशा है। आज के वार्षिकोत्सव सम्बन्धी कार्यों में सर्वप्रथम स्थान पाने वाली कुमारी मीरा बी० ए० (अन्तिम वर्ष) हैं, जो अपने सफल नृत्य के कारण स्वर्णपदक से सम्मानित की जा रही हैं। आशा है, हमारा यह प्रोत्साहन उनके कला-प्रेम को भावी जीवन में अधिक जागरूक रख सकेगा ।"

सभा की समाप्ति हुई। दर्शक अपने-अपने स्थान की ओर लौट चले ।

लौटते समय राह में सभापति प्रसाद की धर्मपत्नी ने कहा - "कुमारी मीरा, प्रसाद की छठी कन्या है। रिटायर्ड दारोगा मि० कृष्णमोहन, सब का विवाह तो बेचारे ने कर दिया है, यही तो अभी कुमारी है। साँवलिया भी इसी वर्ष एम० ए० हो जायगा । लड़की अच्छी है। तुम कुछ लेना भी नहीं चाहते और वे मुँहमाँगा दे भी नहीं सकते हैं। प्रस्ताव करो, विवाह हो जाय तो बड़ी अच्छी दुलहिन घर आ जायगी ।”

निदान, मि० प्रसाद ने प्रस्ताव किया। एक महीने के भीतर हो विवाह भी हो गया। विवाह में सम्मिलित लोग “टी पार्टी” के समय नव-वधू की कला-प्रियता की सराहना जिस समय कर रहे थे, उसी समय साँवलिया की बहन अपनी गोद में अपने बच्चे को लिये हुए बोल उठी - "ना भाभी, अब मैं तुझे  नाचने न दूँगी । तुम बहुत नाच चुकीं। आओ, घर में चलो । मुझे भय है कि कहीं तुम मीरा ही न बन जाओ ।”

सब हँस पड़े । नव-दम्पति मौन एक दूसरे को देखने लग गये ।

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।।5।।

विज्ञान के प्रयोग


दो वैज्ञानिक थे । दोनों थे बचपन के साथी। दोनों ने साथ ही साथ पढ़ने में प्रगति की। दोनों ही अच्छे वैज्ञानिक निकले । अन्वेषण के कार्य में दोनों की अभिरुचि थी। संयोगवश एक ही वैज्ञानिक प्रयोगशाला में दोनों की नियुक्ति भी हो गई ।

एक दिन एक ने दूसरे से कहा - "भाई, मानव-संहार के लिये जितने तत्त्वों या अस्त्रों का आविष्कार अब तक हुआ है, उसमें प्रयोग के लिये जड़-यंत्रों की ही अपेक्षा रहती है। मैंने एक ऐसे तत्त्व का आविष्कार किया है, जिसका प्रयोग मन पर अवलम्बित है। मैं समझता हूँ, सम्भवतः यह ऐसा संहारक भी होगा, जैसा अब तक का कोई भी आविष्कार नहीं हुआ है।"

दूसरे ने आश्चर्य से कहा - "सच ? मैं भी तुझसे क्या छिपाऊँ ? मेरा प्रयोग भी ठीक तुम्हारी तरह है। परन्तु, मैं अपने उस नव-आविष्कार को ऐसे प्रयोग में लाना चाहता हूँ जिससे मानव को अमरत्व प्राप्त हो । आज ही बारह बजे रात को अपने ऊपर ही प्रयोग करने जा रहा हूँ।"

पहला वैज्ञानिक कुछ क्षण तक किसी विचार में लीन रहा । फिर बोला, "विज्ञान सत्यान्वेषी, सत्यद्रष्टा है। सत्य का जीवन से अच्छेद्य सम्बन्ध है । अच्छा, आज ठीक उसी समय मैं भी अपने ऊपर प्रयोग करता हूँ।"

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दूसरे ने उसे कई प्रकार से, इस दुष्प्रयोग से रोकने के लिये, समझाया । पर, वह अपने निश्चय पर अटल रहा ।

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पहले वैज्ञानिक ने अपनी डायरी लिखी। जिसे जो कुछ लिखकर रख देना था, लिख दिया। अब बारह बजने में केवल पाँच मिनटों की ही देर थी। वह सोचने लगा-   "ओह ! मैं खुद मरने चला हूँ ? मैं तो पागल हूँ न ? दुनियाँ जीना चाहती है, जो उसके पथ में रोड़े बिछाना चाहता है, उसे ही पहले वह साफ करती है। अपने को नष्ट कर सचाई की जाँच करना निरी मूर्खता है।........आदि !" सोचते-सोचते बारह बज गये । वह घबरा उठा । उसने अपना प्रयोग स्थगित कर दिया । कुछ स्मृति सजग हुई । फिर उसने विचार क्रिया - "मेरे मित्र ने तो अब तक अमृत-तत्त्व का प्रयोग अपने ऊपर कर लिया होगा ! उसका अन्वेषण कभी भी असफल नहीं रहा है। यह निश्चित है कि मेरे प्रयोग की सच्ची परीक्षा उसी पर हो सकेगी ।" निदान, उसने अपने मित्र पर प्रयोग कर दिया ।

ठीक उसी समय उसका मित्र सोच रहा था - "मैं कितना अधिक स्वार्थी हूँ ? इतना अमूल्य आविष्कार और उसका पहला प्रयोग अपने ही ऊपर ? दूसरों को जीवन-दान देने में जो सुख है, वह सर्वाधिक गुरु है। तो, क्यों न इसका पहला प्रयोग मैं दूसरे पर ही करू ? जल्दबाजी क्या है? प्रयोग सत्य निकला तो अपने ऊपर भी कर ही लूँगा ।"

निदान, उसने अपना प्रयोग स्थगित कर देना चाहा। पर, उसे अपने मित्र की स्मृति हो आई - "ओह वह कितना अधिक मूर्ख है ? मरने जा रहा है। देखें, वह मरता है या जीवित रहता है ?" अपने मित्र पर उसने प्रयोग कर दिया । 

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सवेरा हुआ, अमरतत्त्व के अन्वेषक वैज्ञानिक की लाश कमरे में पाई गई । मृत्यु-तत्त्व का आविष्कारक वैज्ञानिक अब तक जोवित है। इसलिए, निश्चित रूप से निर्णय नहीं हो पाया है कि वह अमर हुआ या नहीं ?

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।।6।।

भोग और त्याग

'वत्स, तुमने अच्छी तरह से समझ लिया है कि संसार में दुःखों का नाश, भोग से नहीं, त्याग से होता है।" - कहते हुए गुरु की मुख मुद्रा गम्भीर हो उठी ।

"हाँ महात्मन् !” शिष्य ने कहा, "पर क्या संसार में रहकर सांसारिक सुखों का परित्याग नहीं किया जा सकता ?"

गुरु की गम्भीर आकृति पर मन्दस्मिति की रेखा चमक उठी - "नहीं वत्स, असम्भव तो नहीं, पर, दुष्कर अवश्य है।"

"तो क्या आप समझते हैं कि अमृत तत्त्व की प्राप्ति के लिये मेरे लिये प्रव्रज्या-ग्रहण ही आवश्यक है ?" - शिष्य ने दबे हुए स्त्रर में पूछा। गुरु कुछ क्षण मौन रह गये । फिर बोले - "अवश्य ।"

युवा शिष्य एकदम गम्भीर हो उठा । अतीत की सुखद या दुःखद, सभी स्मृतियाँ उसके मस्तिष्क में सजीव हो उठीं। भविष्य का दुर्गम पथ उसकी दृष्टि में नाचने लगा । दरिद्रता में पले बचपन से लेकर अब तक के एक-एक क्षण बहुत ही मधुर ज्ञात होने लगे । जिन दुःखों, अभावों से पिसकर उनसे त्राण पाने के मार्ग को ढूंढ़ने वह यहाँ तक आया था, वे ही अब मधुर ज्ञात होने लगे । रह-रह कर उसका मन दो बड़ी-बड़ी मादक आँखों से उलझ जाता था। वह मन को बलात् रोककर अपना पथ सुनिश्चित करने लग गया। परन्तु उसने अनुभव किया कि दो कोमल बाँहें उसे अपने आलिङ्गन-पाश में जकड़ लेना चाहती हैं। वह छूटना चाहता है, पर छूट नहीं पाता। आँखों से अविरल जल-धारा प्रवाहित होने लगीं। उस प्रवाह से सिक्त अपने वक्षस्थल को वह आँसुओं से रिक्त नहीं कर सका। कोई मौन वाणी रह-रह कर उसके कानों में गूंजने लगी--"क्षमा करो नाथ, मैं अब तुझे कभी कष्ट न दूँगी। जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहूँगी । तुम लौट जाओ।" वह सहसा काँप उठा। उसका कलेजा धक् धक् करने लग गया ।

गुरु उसकी मुखाकृति और भाव-भङ्गिमा का अपलक अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने बहुत ही संयत स्वर में कहा - "प्रिय वत्स, प्रव्रज्या-ग्रहण का नियम है कि तुम्हें सबसे पहली भिक्षा उसी से मांगनी होगी, जिसे तुमने अपने जीवन में सबसे अधिक प्यार किया है।"

युवा एकदम विचलित हो उठा। गुरु के चरणों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा--"क्षमा करें गुरुदेव, मैं संसार का परित्याग करने में सर्वथा अक्षम हूँ ।"

गुरु ने उठाकर उसे हृदय से लगा लिया। प्यार से उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा- "वत्स, सुखी रह । अपनी निर्बलता की सच्ची परख करने वाला और उसे सच्चाई से व्यक्त कर सकने वाला व्यक्ति ही संसार में रहकर भी संसार से अलग रह सकता है । तुझमें यह शक्ति है, तू अक्षम नहीं। जा, अमृत-तत्त्व के खजाने का द्वार तुझ जैसे ही व्यक्तियों के लिये खुला है।

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।।7।।

कला की कीमत


भूमि ऊसर थी, उजाड़, झंखाड़ ! माली आया। दिन-रात में वह केवल छः घण्टे विश्राम कर लेता था, सोने के नाम पर । अपने मन से वह लगा रहता था। न कोई उसे आज्ञा देने वाला था और न कोई पथ दिखलाने वाला। कोई यह भी तो कहने वाला नहीं था कि 'बहुत थक गये हो, विश्राम कर लो।' माली ने जी खोलकर परिश्रम किया। निदान, केवल दो वर्षों के परिश्रम से ही वहाँ सुन्दर वाटिका बन गई ।

यद्यपि वह स्थान शहर से दूर था। कोई उस ओर पहल्ले घूमने भी नहीं आता था । पर, अकस्मात् उस वाटिका ने, वाटिका की सुन्दरता ने, लोगों का मन इस तरह अपनी ओर खींचा कि शाम हुई और वे घूमते-घामते वाटिका की ओर चले आये । भीड़ बढ़ने लगी। बैठने के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं बना हुआ था, फिर भी लोग आते और कहीं घासों पर, नन्हीं- नन्हीं, हरी-हरी दूबों पर ही बैठ जाते। कोई किसी वृक्ष की झुरमुट में जा बैठता । घण्टों बैठे रहने पर भी किसी का मन नहीं ऊबता था । लोग कहते, यह धरती का स्वर्ग है। उधमी लड़के पके मौसिमी फलों को तोड़-तोड़ कर खा जाते । पर, माली को अपने काम से फुर्सत कहाँ कि वह किसी को रोके ? उसके सिर पर तो भूमि को उर्वर बनाने की सनक सवार थी ।

उसी शहर में एक व्यापारी था। करोड़ों रुपयों का उसका व्यापार चलता था, रहने के लिये अच्छे-अच्छे भवन थे। किसी बात की उसे कमी नहीं थी। पर, लगभग दस वर्षों से उसे उन्निद्रा की बीमारी थी। लाखों रुपये खर्च हुए, दवा हुई, फिर भी उसे नींद नहीं आई ! दिनों-दिन वह क्षीण ही होता जा रहा था । एक तरह से वह अपने जीवन से निराश हो गया । अब उसका मन काम-काज में नहीं लगने लगा ।

एक दिन घूमता हुआ वह अकस्मात् उस वाटिका की ओर जा निकला । एक कोने में घास पर बैठ गया । कुछ देर तक स्थिर रहने पर उसका मन आत्म-चिन्तन में लग गया। आत्म-चिन्तन में भी, जीवन और मृत्यु के विषय के गम्भीर चिन्तन में वह लग गया। बहुत सुखद हवा बह रही थी । न जानें, कब और कैसे, उसे नींद आ गई। जब उसकी नींद खुली तो उसने देखा, सबेरा हो गया है, सूरज आसमान में बहुत ऊपर चढ़ आया है। वह उठा और उसने ऐसे आनन्द का अनुभव किया, जैसा आनन्द उसे बचपन में सोकर उठने के बाद मिला करता था ।

व्यापारी ने सोचा - 'जिस वाटिका से मेरा रोग दूर हुआ है, उस वाटिका को मैं क्यों न अधिक सुन्दर और आरामदेह बना दूँ ? लोग आयें तो अधिक से अधिक सुविधायें प्राप्त कर सकें ।' निदान, उसने अच्छे-अच्छे कारीगरों को बुलाया। उन्हें काम में लगाया । बहुत रुपये खर्च हुए । वाटिका बहुत अच्छी बन गई । माली के लिये भी एक घर बना दिया गया। उसके खाने-पीने आदि की व्यवस्था व्यापारी की ओर से कर दी गई। माली की जीवन-यात्रा के लिये ऐसा समुचित प्रबन्ध कर दिया गया कि जिसमें उसे वाटिका को छोड़कर और किसी बात की चिन्ता न रहे ।

सुनते हैं, आजकल उसमें शहर के बड़े-बड़े लोग घूमने के लिये शाम को जाते हैं। पर, पहले की नाईं अब उसमें उतनी अधिक भीड़ नहीं रहती। लोगों का कहना है कि न मालूम, क्यों अब उस वाटिका में पहले की तरह आनन्द नहीं मिलता ?

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