बुलन्दशहर की ऐसी अनेक बातें तथा तथ्य एक जनपद होने के कारण तथा राजधानियों और राजपथ से दूर और उपेक्षित होने के कारण वहाँ आज भी इसी प्रकार का जीवन चल रहा है और साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने वाले चार-पाँच लेखकों से अधिक नहीं हैं। इस समय बुलन्दशहर के सुधा गोयल, मुकेश निर्विकार, निर्देश निधि, देवेंद्र मिर्जापुरी, प्रसून, अनूप सिंह आदि लेखकों ने हिन्दी-संसार में अपनी पहचान बनाई है और विख्यात भाषाविद् डॉ. महावीर सरन जैन तो सेवानिवृत्ति के बाद वहीं रह रहे हैं और साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में डॉ. किरन पाल सिंह की पुस्तक 'बुलन्दशहर के दिवंगत साहित्यकार' इस ओर एक नई रोशनी डालती है और वे बुलन्दशहर के दिवंगत लगभग सौ साहित्यकारों का एक प्रकार से परिचयात्मक कोश ही प्रस्तुत कर रहे हैं। बुलन्दशहर के पहले साहित्यकार सेनापति थे, जिनका जीवन काल 1584 से 1688 के लगभग तक रहा। 2022 में दिवंगत हुए साहित्यकारों में मेरे अभित्र मित्र डॉ. रमाकांत शुक्ल भी हैं, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर थे और संस्कृत भाषा के प्रकांड पंडित थे तथा इमर्जेसी काल में वे मेरे साथ दिल्ली की तिहाड़ जेल में थे। इस पुस्तक के लेखक डॉ. किरन पाल सिंह ने बुलन्दशहर के 108 दिवंगत साहित्यकारों की सूची दी है, जिनमें अधिकांश अपने जनपद तक ही सीमित रहे और उनमें से काफी साहित्यकारों ने यश की कामना नहीं की और साहित्य-साधना करके ही संतुष्ट रहे। इनमें कुछ ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होने बुलन्दशहर की सीमा से निकल कर अपने साहित्य के द्वारा प्रांत के साथ कुछ राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई। इनमें आचार्य चतुरसेन शास्त्री, डॉ. रामदत्त भारद्वाज, दयानिधि शर्मा वैद्य, डॉ. कृष्णचंद्र शर्मा 'चंद्र', विश्वंभर मानव, पंडित नरेंद्र शर्मा, कैप्टिन भगवान सिंह, जगदीशचंद्र माथुर, सरस्वती कुमार 'दीपक', डॉ. शंकरदेव अवतरे, डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, डॉ. हरीन्द्र शास्त्री, राधेश्याम प्रगल्भ, जयपाल 'तरंग', शिशुपाल सिंह 'निर्धन', रमेश कौशिक, डॉ. रत्नलाल शर्मा, सरला अग्रवाल, रत्नप्रकाश 'शील', डॉ. कृष्णचंद्र गुप्त, डॉ. रमाकांत शुक्ल, डॉ. श्याम निर्मम आदि से मेरा परिचय रहा, संपर्क रहा और साहित्य के नाते कभी-कभी भेंट तथा वार्ता हुई और इसमें बुलन्दशहर के होने की मधुरता भी मिली-जुली रहती और इनमें से कुछ तो ऐसे भी रहे, जिनसे अक्सर फोन पर बातचीत होती रहती थी। ये बुलन्दशहर के वे साहित्यकार थे, जिन्होंने बुलन्दशहर को जनपद की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया और अपनी मातृभूमि तथा कर्मभूमि के संस्कार तथा परिवेश से अनुभूति-जन्य साहित्य की रचना करके प्रतिष्ठित हुए। यह ठीक है कि बुलन्दशहर प्रयाग, वाराणसी के समान साहित्य में प्रतिष्ठित नहीं हो सका, लेकिन जो परंपरा इन दिवंगत साहित्यकारों ने स्थापित की है, वह अवश्य ही एक दिन ऐसे कालजयी साहित्यकार को जन्म देगी जो इस नगर को भी साहित्य के नक्शे पर अपनी शोभा दिखाने का अवसर देगा।
Friday, 21 February 2025
बुलन्दशहर के दिवंगत साहित्यकार/डाॅ. किरन पाल सिंह (लेखक-संपादक)
बुलन्दशहर की ऐसी अनेक बातें तथा तथ्य एक जनपद होने के कारण तथा राजधानियों और राजपथ से दूर और उपेक्षित होने के कारण वहाँ आज भी इसी प्रकार का जीवन चल रहा है और साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने वाले चार-पाँच लेखकों से अधिक नहीं हैं। इस समय बुलन्दशहर के सुधा गोयल, मुकेश निर्विकार, निर्देश निधि, देवेंद्र मिर्जापुरी, प्रसून, अनूप सिंह आदि लेखकों ने हिन्दी-संसार में अपनी पहचान बनाई है और विख्यात भाषाविद् डॉ. महावीर सरन जैन तो सेवानिवृत्ति के बाद वहीं रह रहे हैं और साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में डॉ. किरन पाल सिंह की पुस्तक 'बुलन्दशहर के दिवंगत साहित्यकार' इस ओर एक नई रोशनी डालती है और वे बुलन्दशहर के दिवंगत लगभग सौ साहित्यकारों का एक प्रकार से परिचयात्मक कोश ही प्रस्तुत कर रहे हैं। बुलन्दशहर के पहले साहित्यकार सेनापति थे, जिनका जीवन काल 1584 से 1688 के लगभग तक रहा। 2022 में दिवंगत हुए साहित्यकारों में मेरे अभित्र मित्र डॉ. रमाकांत शुक्ल भी हैं, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर थे और संस्कृत भाषा के प्रकांड पंडित थे तथा इमर्जेसी काल में वे मेरे साथ दिल्ली की तिहाड़ जेल में थे। इस पुस्तक के लेखक डॉ. किरन पाल सिंह ने बुलन्दशहर के 108 दिवंगत साहित्यकारों की सूची दी है, जिनमें अधिकांश अपने जनपद तक ही सीमित रहे और उनमें से काफी साहित्यकारों ने यश की कामना नहीं की और साहित्य-साधना करके ही संतुष्ट रहे। इनमें कुछ ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होने बुलन्दशहर की सीमा से निकल कर अपने साहित्य के द्वारा प्रांत के साथ कुछ राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई। इनमें आचार्य चतुरसेन शास्त्री, डॉ. रामदत्त भारद्वाज, दयानिधि शर्मा वैद्य, डॉ. कृष्णचंद्र शर्मा 'चंद्र', विश्वंभर मानव, पंडित नरेंद्र शर्मा, कैप्टिन भगवान सिंह, जगदीशचंद्र माथुर, सरस्वती कुमार 'दीपक', डॉ. शंकरदेव अवतरे, डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, डॉ. हरीन्द्र शास्त्री, राधेश्याम प्रगल्भ, जयपाल 'तरंग', शिशुपाल सिंह 'निर्धन', रमेश कौशिक, डॉ. रत्नलाल शर्मा, सरला अग्रवाल, रत्नप्रकाश 'शील', डॉ. कृष्णचंद्र गुप्त, डॉ. रमाकांत शुक्ल, डॉ. श्याम निर्मम आदि से मेरा परिचय रहा, संपर्क रहा और साहित्य के नाते कभी-कभी भेंट तथा वार्ता हुई और इसमें बुलन्दशहर के होने की मधुरता भी मिली-जुली रहती और इनमें से कुछ तो ऐसे भी रहे, जिनसे अक्सर फोन पर बातचीत होती रहती थी। ये बुलन्दशहर के वे साहित्यकार थे, जिन्होंने बुलन्दशहर को जनपद की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया और अपनी मातृभूमि तथा कर्मभूमि के संस्कार तथा परिवेश से अनुभूति-जन्य साहित्य की रचना करके प्रतिष्ठित हुए। यह ठीक है कि बुलन्दशहर प्रयाग, वाराणसी के समान साहित्य में प्रतिष्ठित नहीं हो सका, लेकिन जो परंपरा इन दिवंगत साहित्यकारों ने स्थापित की है, वह अवश्य ही एक दिन ऐसे कालजयी साहित्यकार को जन्म देगी जो इस नगर को भी साहित्य के नक्शे पर अपनी शोभा दिखाने का अवसर देगा।
Tuesday, 11 February 2025
कमलेश्वर और लघुकथा / डाॅ. सतीश दुबे
(27 जनवरी 2007 को कथाकार कमलेश्वर के जाने ने डाॅ. सतीश दुबे को कितना व्यथित किया था, इसे दर्शाता 29 जनवरी 2007 को लिखा एक पत्र।)
डॉ. सतीश दुबे
766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009
दूरभाष : (0731) 2482314
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इन्दौर, दिनांक : 29/1/07
आत्मीय बलराम भाई
नमस्कार।
कमलेश्वरजी के चले जाने से लग रहा है जैसे लघुकथा के आसपास मंडराने वाला साया एकदम लुप्त हो गया है। कहानी के साथ लघुकथा को "सारिका" के माध्यम से चर्चित कर जो नये आयाम रचे, उसे कथा-इतिहास भुला नहीं पायेगा। मुझे जितना भी सानिध्य-लाभ मिला, उसके साक्ष्य पर मैंने पाया कि वे एक श्रेष्ठ इंसान थे।
लघुकथा की वर्तमान स्थितियों पर आपकी चिंता से उद्भूत परिचर्चा पर अपनी बात कहने की कोशिश की है। आपकी प्रतिक्रिया की तत्संबंधी प्रतीक्षा रहेगी।
विलम्ब की वजह केवल यही रही कि जिस शलाका-पुरुष ने लघुकथा लिखी ही नहीं, उसकी रचनाओं को कटघरे मे खड़ा कर, उस पर चर्चा करना क्या उचित होगा? फोन पर आपने द्वारा की गई स्पष्ट-साफगोई के बाद मन बन पाया।
दिग्गज समालोचक/चिंतकों के साथ आपने मेरी उपस्थिति ज़रूरी समझी, आभारी हूँ। विश्वास है, यह आत्मीयता प्राप्त होती रहेगी।
"समकालीन सौ लघुकथाएँ" के पृष्ठ पलटने के लिए श्रीमती अग्रवाल, बहू-भाभी से कहें तथा बताएँ कि ये रचनाएँ उन्हीं टेड़ी-मेड़ी उंगलियों से तराशी गई हैं जिन्हें प्रत्यक्ष देखकर उन्होंने चिंता तथा सहानुभूति व्यक्त कर हौसला बढ़ाया था।
शेष यथावत ।
याद करते रहेंगे तो शक्ति मिलेगी।
आपका
(हस्ताक्षर सतीश दुबे)
सदा सा
#यहां से प्रकाशित दैनिक 'नई दुनिया' के साप्ताहिक साहित्यिक 'कथाकविता' के संपादक श्री सरोज कुमार ने अंक में लघुकथाएँ नियमित देने का निर्णय लिया है। इस हेतु उन्होंने दस श्रेष्ठ लघुकथाओं में मैने आपकी 'जहर की जड़ें' को सम्मिलित किया है। प्रकाशित होने पर अंक तथा मानदेय आप तक सीधे प्रेस कार्यालय से पहुँचेगा।