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चित्र ; बलराम अग्रवाल |
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डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे |
हिंदी लघुकथा के तारतम्य में आलोचना के पक्ष को लेकर अपने मन में बड़ी वैचारिक उथल-पुथल का अनुभव कर रहा हूँ। सोचता हूँ, लघुकथा पर आलोचनाएँ तो आ रही हैं, मगर ज्यादातर आलोचनाएँ बेसिर-पैर वाली दिखाई देती हैं। सोचिए, ऐसी भी आलोचना किस काम की, जो आलोचना के नाम
पर आलोचना तो है, बाकी आलोचना में ऐसे तथ्यों की कमी है, जिन पर शोध प्रकट
दृष्टि डालकर उन बिन्दुओं की पड़ताल की जा सके, जिनके सहारे से लघुकथा की आलोचना के मूल्य खोजे जा सकें।
मेरे साथ अक्सर यह घटता रहा है कि जब कभी मैं किसी लघुकथाकार की लघुकथाओं पर लिखी गई आलोचना पढ़ता हूं ,और इत्तफाकन उस लघुकथाकार की लघुकथाएँ भी पढता हूँ, तब मुझे तदविषयक की हुई आलोचना के स्वरूप पर तरस आता है, 'भई, यह आलोचना हुई कि लघुकथाकार से तथाकथित आलोचक द्वारा दोस्ती का
निर्वहन-शर्म-संकोच-डर!
ऐसे में समझ नहीं पड़ता कि लघुकथाकार की लघुकथा बड़ी है कि लघुकथाकार के आगे आलोचक का कद छोटा है? मुखड़ा भाँपकर तिलक लगाने की बात लघुकथा के वुजूद को धक्का पहुँचा रही है । इस आधार पर आलोचक यह समझ ले कि वह आलोचना में पारंगत है तो यह अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने जैसा होगा!
वर्तमान में लघुकथा लेखन में जिस ढंग की रचनात्मक टूट-फूट देखने को मिल
रही है और जिस प्रकार से लघुकथा -लेखन-कार्य बेलगाम होता जा रहा है, इसकी
वजह यही है कि लघुकथा के पास निष्ठुर आलोचना का सर्वमान्य पारदर्शी दर्पण
नहीं है।
मैं मानता हूँ, किसी बँधे-बँधाए पर चलकर कोई मौलिक सृजन सम्भव नहीं हो सकता; लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं कि रचनात्मकता रसूख तोड़कर कोई रचना की जाय; और रचित-रचना के पक्ष में नया प्रयोग के ऐलान का फतवा जारी कर उस रचना को आलोचकों के प्रहारों से सुरक्षा की मांद में छुपा लिया जाये !
प्रयोगों के नाम पर लघुकथा लेखन का जो गैरजिम्मेदाराना चस्का सामने आ
रहा है, उस चस्के की हठधर्मिता लघुकथा लेखन के सही मायने को खारिज करती
दिशाहीन दिशा में लघुकथा के मौजूदा अस्तित्व को सुपुर्द-ए-खाक कर देगी ।
तकरीबन तीन हजार से अधिक लघुकथाओं को पढ़ चुकने का अथक माद्दा, लघुकथा
विषयक मेरी दिलचस्पी का निर्भीक गवाह है, ताहम भी मैं लघुकथा की आलोचना
के सिलसिले में अपना अनुभव थोपना नहीं चाहता हूँ। मगर लघुकथा के एक जागरूक पाठक के नाते लघुकथा के पक्ष में खड़े होकर लघुकथा की मान-प्रतिष्ठा पर बेबाकी से बोल तो सकता हूँ।
वर्तमान में लघुकथा पर चारों ओर से अपने-अपने अनुभवों की भट्टी से पकाकर
चर्चाएँ सामने आ रही हैं, गोकि लगने लगा है कि एक गहरा असंतोष लघुकथाओं
के तारतम्य में पसरा हुआ है जो लघुकथा के तरण-तारण का सवाल बनकर लघुकथा
के प्रति हमदर्दी रखने वालों की छाती पर मूँग दल रहा है । अतएव आज सभी इस बात के लिए आतुर प्रतीत हैं कि 'बस लघुकथा का वुजूद येन-केन-प्रकारेण बचा रहे।
सवाल लघुकथा की आलोचना को मुखर करने बाबत था । लघुकथा के प्रति आलोचना की मुखरता का यह तिलिस्म मात्र 'खुलजा सिम सिम' जैसे मिथकीय उवाच से संभव नहीं हो सकेगा प्रत्युत् लघुकथा के हितग्राहियों को
सलाह-मशविरा के लिए एक जाज़म पर आना होगा । लघुकथा - लेखन समान रूप से
हिन्दी और हिंदीतर प्रान्तों से आ रहा है, फलतः लघुकथा और लघुकथा -आलोचना
पर बहस-मुबाहिसा का दायरा बढ़ा हुआ है यानी लघुकथा और लघुकथा -आलोचना पर ' टाॅस ' करने सरीखी स्थिति कदापि नहीं है।
अब यह भी मिथ्या बात होगी कि आज जब लघुकथाएँ ढेरों से लिखी जा रही हैं, फिर लघुकथा पर आलोचना का सवाल क्योंकर ?
ऐसे सवाल का जवाब भी यही है कि लघुकथा - लेखन में लघुकथाकारों की
आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती भीड़ और तादाद में लघुकथा की आमद लघुकथा पर एक जरूरी
आलोचना की दरकार की मुन्तजिर है। मैं यह भी नहीं कहता हूं कि लघुकथा पर
आलोचना के मापदंड लघुकथा - लेखन प्रतियोगिता पर अंकुश लगाने में अपनी
कारगुजारी से लघुकथा की आमद को ही रोक देंगे; प्रत्युत् मेरे कहने का मतलब
यह है कि लघुकथा पर आलोचना के तेवर की ग्राह्यता जितनी बढ़ेगी, लघुकथा का
लेखन सौष्ठव सटीक और विश्वसनीय भूमिका में दिखाई देने लगेगा ।
लघुकथा
की बेहतरी के लिए एक मशविरा यह भी देना चाहता हूँ कि आने वाले समय में
जिसके जो भी लघुकथा - संकलन आएँ, अपने संकलन के प्रस्तोता अपने संकलनों की
बतौर भूमिका में अपने चिंतन से पगाए गए अपनी जारी होने वाली लघुकथाओं के
तारतम्य में आलोचना के कतिपय बिन्दु पर विचार - प्रेषण अवश्य करें।
गो
कि उसका लघुकथा - लेखन उसके लघुकथा लेखन के तई किन-किन बिन्दुओं पर
समीक्षकों का ध्यान चाहता है , उसकी समीक्षकों से इस ढंग की आग्रहशीलता ही
समीक्षा का जरूरी मापदंड पैदा करने की पहल करेंगी ।मतलब यह है कि
लघुकथाकार समझता है कि उसने अपनी लिखी लघुकथा में एक पृथक प्रकार का कथ्य
उठाया है ,जो लघुकथा का 'प्लाट' भी कहा जा सकता है,उसके द्वारा
अपेक्षित लघुकथा की बिन्दुवार आलोचना बहुत संभव है लघुकथा लेखन विषयक
आवश्यक मापदंड का मसौदा तैयार करने में हाजिर मिलेगी ।
साहित्यिक
विधाएँ अनेक हैं, बावजूद इसके नानाविध विधाओं की आलोचना का रूप बहुतेरे
आलोचनात्मक कथ्यों के मुआमलों में यकसां मिलेगा । बात अलबत्ता पेंचदार है, लेकिन इस मुद्दे पर गहन मनन के बाद एक जगह पर आकर मतैक्य का होना निश्चित सिद्ध होगा ।
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