Tuesday, 30 March 2021

जीवंत व गतिशील विधा : लघुकथा-2 / डॉ॰ अशोक लव

 दिनांक 30-3-2021 के बाद दूसरी, समापन किश्त

लघुकथा सातवें दशक से उभरी और आठवें दशक में पूर्णतः स्थापित हो गई। हमनें इसी कालखंड में इस


विधा में गंभीरतापूर्वक लेखन किया और अन्य अनेक लेखकों ने भी इसी कालखंड में खूब लिखा। इनमें से कुछ आज सक्रिय और प्रतिष्ठित लघुकथाकार हैं। उस समय अनेक चर्चा गोष्ठियों हुईं। दिल्ली, कैथल, गुरुग्राम, रेवाड़ी, सिरसा, पटना, फरीदाबाद, भागलपुर, डाल्टनगंज, बरेली आदि अनेक स्थानों पर गोष्ठियाँ और लघुकथा-सम्मेलन हुए। सबने अपने-अपने ढंग से कार्यक्रम आयोजित किए। हमनें भी उनमें सक्रिय योगदान दिया। सन् 1991 के साहित्य सभा कैथल की ओर से मेरे लघुकथा संग्रह 'सलाम दिल्ली' पर चर्चा-गोष्ठी हुई। समय साहित्य सम्मेलन पुनसिया (भागलपुर) द्वारा इसी लघुकथा संग्रह पर चर्चा-गोष्ठी हुई जिसमें बिहार के प्रमुख साहित्यकारों ने भाग लिया था। हमनें दिल्ली दूरदर्शन पर पदमश्री चिरंजीत की अध्यक्षता में तीन-चार विस्तृत लघुकथा गोष्ठियाँ की जिनका आयोजन संचालन दूरदर्शन के अधिकारी विवेकानंद ने किया, जो लघुकथा पर पी-एचडी कर रहे थे। आकाशवाणी दिल्ली से लघुकथाओं का प्रसारण नहीं होता था। अधिकारियों को इस विधा के बारे में संतुष्ट किया। डॉ० उपेंद्रनाथ रैणा ने हमारी लघुकथा 'मृत्यु की आहट' की रिकॉर्डिंग की और यह आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित होने वाली प्रथम लघुकथा बन गई। इसके पश्चात् तो फिर सिलसिला चल पड़ा।

हमनें डॉ प्रभाकर माचवे, अवधनारायण मुद्गल, पदमश्री आचार्य क्षेमचंद्र सुमन, पदमश्री चिरंजीत, पदमश्री यशपाल जैन और डॉ विजेंद्र स्नातक आदि की अध्यक्षता में लघुकथा गोष्ठी आयोजित की। नागरी प्रचारिणी सभा के मंच से उनके प्रधानमंत्री डॉ. सुधाकर पांडेय के सानिध्य में डॉ० प्रभाकर माचवे की अध्यक्षता में गोष्ठी का आयोजन-संचालन किया।

लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर हमनें डॉ० कमलकिशोर गोयनका, डॉ सुंदरलाल कथूरिया और आचार्य क्षेमचंद्र सुमन के लिए साक्षात्कारों को सन् 1988 में प्रकाशित और स्वयं द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह में संकलित किया। लघुकथा के विकास पर उसके अंशों को दिया जा रहा है, जिससे इस विधा के उद्भव पर प्रकाशत पड़ता है।

डॉ० कमलकिशोर गोयनका के अनुसार—‘लघुकथा के जन्म के संबंध में कई विचार है। कुछ विद्वानों का विचार है कि हमारी प्राचीन बोधकथाओं, नीतिकथाओं की प्रेरणा से लघुकथा का जन्म हुआ। कुछ का विचार है कि पश्चिम से कहानी जब हिंदी में आई तो उसके कारण लघुकथा भी लिखी जाने लगी। मेरे विचार में लघुकथा का कहानी से गहरा संबंध है। दोनों एक ही कुल की हैं। लघुकथा में कथा की जो प्रमुखता है वह कहानी से आई है। यही कारण है कि कहानी केरचनाकाल से ही लघुकथा भी लिखी जाने लगी थी। मुंशी प्रेमचंद ने छह-सात लघुकथाएँ लिखी थीं। हाँ, लघुकथा का विशिष्ट रूप सातवें दशक में दिखाई देता है और अब तो यह प्रत्येक पत्रिका ने अपना दावा प्रस्तुत करती है। (बंद दरवाजों पर दस्तकें / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 11-12)

डॉ सुंदरलाल कथूरिया के अनुसार—‘लघुकथा के पूर्व रूप जातक कथाओं में खोजे जा सकते हैं। पंचतंत्र की कहानियों में एक सीमा तक बालबोध के लिए लिखी लघुकथाएँ हैं परंतु उनमें वह पैनापन नहीं है जो समकालीन लघुकथाओं में है। हिंदी गद्य साहित्य में इसने आठवें दशक से विशिष्ट रूप ग्रहण किया है।(बंद दरवाज़ों पर दस्तकें / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 13)

द्मश्री आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने इस विषय पर विस्तारपूर्वक अपने विचार प्रकट किए—‘लघुकथा की उत्पत्ति तो आदि युगों से है, वैदिक युग से है और अनेक रूप से है। उपनिषद काल युग से है। यह तो परिवेश बदलता है। जैसा परिवेश होता है वैसे ही परिवेश की कथाएँ उसमें आती-जाती हैं। हैं ये वही। आज के परिपेक्ष पर आप कोई चीज़ लिख देंगे तो वह लघुकथा है; उससे पहले आप बोधकथा कह देंगे। हिंदी साहित्य में लघुकथाएँ छायावाद से शुरू हो गई थीं। उस जमाने में जनार्दन प्रसाद झा थे। यह होंगे सन् 1924-25 के आसपास। नंदकिशोर तिवारी थे और बाद में जगदीशचंद्र शास्त्री हुए। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने भी कुछ लघुकथाएँ लिखीं। उसके बाद सन् 1938 में रावी ने लिखीं। रावी के बाद हरिशंकर परसाई ने लिखीं।’ (बंद दरवाजों पर दस्तकें' / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 10)

साहित्य के क्षेत्र में सक्रियता से जुड़े हमें पचास वर्ष से अधिक हो गए हैं। हमनें लघुकथा ही नहीं अन्य साहित्यिक स्थितियों को तेजी के साथ परिवर्तित होते देखा है । वर्तमान में साहित्य समाज की मुख्यधारा में नहीं है। राजनीति और उससे संबंधित गतिविधियों ने सब कुछ लील लिया है। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों का दायित्त्व बढ़ गया है । वे जिस विधा में लिखें उसके रचना-विधान, शास्त्र के अनुसार लिखें। नए लघुकथाकारों को वरिष्ठ लेखकों की श्रेष्ठ लघुकथाओं को पढ़ना चाहिए। लघुकथाएँ लिखते समय भाषा की शुद्धता का ध्यान तो रखना ही चाहिए शब्दचयन भी सतर्कता से करना चाहिए। पांडित्य प्रदर्शन के लिए क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करने से बचना चाहिए। लघुकथा का एक-एक वाक्य महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए वाक्य-विन्यास सुगठित होना चाहिए। लघुकथा की कसावट उसकी श्रेष्ठता की परिचायक है। लघुकथा के एक-एक वाक्य का उतना ही महत्त्व होता है जितना माला के एक-एक मनके का। अत: लघुकथा लिखने के पश्चात् उसे परिमार्जित करते समय अनावश्यक वाक्य हटा देने चाहिए।

लघुकथा लिखने से पूर्व उसके उद्देश्य अथवा अभीष्ट को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। मानवीय संबंधों, जीवन की जटिलताओं, सामाजिक विसंगतियों, मानवीय मूल्यों के ह्रास आदि जिन भी विषयों का चयन करें उसके तथ्यों के निर्वहन और अभीष्ट को स्पष्ट करने के प्रति सतर्क रहना चाहिए। लघुकथा लेखन में शैली महत्त्वपूर्ण होती है। यह तलवार की धार से पैनी होनी चाहिए। लघुकथा को पढ़कर पाठक तिलमिलाए, कसकसाए या हल्के-से मुस्कुराए; यह शैली पर ही निर्भर है। व्यंग्य प्रधान शैली से लघुकथा की मारक शक्ति और क्षमता में वृद्धि होती है।

लघुकथा के संबंध में सर्तकता की चर्चा करते समय सहसा 'दैनिक ट्रिब्यून' के साहित्य संपादक (अब स्वर्गीय) मित्रवर श्री वेद प्रकाश बंसल का स्मरण हो आया। उन्होंने अपने लेख 'लघुकथा की विकास यात्रा: कुछ ख़तरे कुछ सावधानियाँ में लिखा था—‘ऐसे लोग जिनके पास साहित्य की किसी भी विधा में लिखने के लिए पर्याप्त विचार, संवेदना और शिल्प नहीं होता वे लघुकथा का शॉर्टकट अपनाकर रातों-रात लेखक होने की घोषणा कर देते हैं, वे लघुकथाओं के नाम पर चाहे कचरा ही परोसें। एक दैनिक समाचारपत्र के साहित्य संपादक के रूप में ऐसा बहुत सा कचरा मुझे झेलना पड़ता है। इसकी सड़ांध और कड़वाहट साहित्य संपादकों को भी चखनी पड़ती है। तब उसकी स्थिति शबरी जैसी होती है जो कड़वाहट को स्वयं झेलता है और मीठे बेरों के रूप में सशक्त और सार्थक रचनाएँ राम रूपी पाठकों तक पहुँचाता है।('बंद दरवाजों पर दस्तकें' / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 10)। वेद प्रकाश बंसल का कथन आज भी पूर्ण सत्य है क्योंकि आज भी ऐसी लघुकथाएँ बहुलता से लिखी जा रही है।

लघुकथा की उपलब्धियों की चर्चा करना भी आवश्यक है। इस विधा पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से अनेक पी-एचडी. और एम.फिल. हो चुकी है और हो रही हैं। हमारे द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'खिड़कियों पर टंगे लोग' (प्रकाशन 2009) कर्नाटक विश्वविद्यालय के एम.फिल. के पाठ्यक्रम में वर्ष 2019 से पढ़ाई जा रही है। लघुकथा के सैंकड़ों एकल और साझा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। सातवें-आठवें दशक में जिस विधा की यात्रा का श्रीगणेश हुआ था, वह आज शिखरों का स्पर्श कर रही है। सृजन की यह निरंतर प्रवाहित होने वाली प्रक्रिया है।

अनेक लघुकथाकार और पत्रिकाओं के संपादक नि:स्वार्थ भाव से समर्पित होकर इस विधा के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। इसी क्रम में 'लघुकथा कलश' का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है। हमें लगता है कि इस पत्रिका रूपी ग्रंथ की चर्चा किए बिना यह लेख अपूर्ण होगा। हम नि:संकोच कह सकते हैं कि लघुकथा विधा के इतिहास में इस स्तर पर व्यापक कार्य किसी पत्रिका में नहीं हुआ है। श्रेष्ठ कार्यों की प्रशंसा सर्वत्र होती है और होनी भी चाहिए। संपादक द्वययोगराज प्रभाकर और रवि प्रभाकर का इस विधा के लिए किया जा रहा कार्य सदैव रेखांकित किया जाएगा। 'लघुकथा कलश' के उल्लेख के बिना लघुकथा इतिहास अपूर्ण रहेगा।

लघुकथा के आरंभिक काल में अनेक पत्रिकाएँ, फोल्डर, साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हैं। सीमित साधनों के कारण अनेक लघुकथाकारों और संपादकों-प्रकाशकों ने लघु आकार की पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। उनका योगदान भी अभूतपूर्व था। उन सबकी नींव पर वर्तमान में लघुकथा कलश प्रकाश-स्तंभ के समान इस विधा को प्रकाशमय कर रहा है। यह लघुकथा विधा की उपलब्धि है।

संपर्क : डॉ अशोक लवफ़्लैट 363-, सूर्य नगर अपार्टमेंट, प्लॉट नं. 14, सेक्टर-6, द्वारका, दिल्ली-110 075

चलभाष: 9971010063

ई-मेल: kumarl1641@gmail.com

‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) से साभार

जीवंत व गतिशील विधा : लघुकथा-1 / डॉ॰ अशोक लव

             दो किश्तों में समाप्य लेख की पहली कड़ी                                                                                                            लघुकथा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। असंख्य पाठकों और सैकड़ों लेखकों ने इसे लोकप्रियता प्रदान की है। यह स्थिति दशकों से शनै:- शनै: विकसित हुई है।

डॉ॰ अशोक लव
    लघुकथा, कथा साहित्य की अन्य विधाओं यथा कहानी और उपन्यास के समान ही एक विधा है। कहानियों और उपन्यासों के विषय असीमित और विविधता लिए होते हैं, वही स्थिति लघुकथा की है। लघुकथा के कथ्य का कोई भी विषय हो सकता है। यह लेखक पर निर्भर है कि वह किसका चयन करता है। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि लघुकथाएँ इन विषयों पर ही लिखी जा सकती हैं।

लघुकथा नकारात्मक सोच की विधा नहीं है। सामाजिक स्थितियों, विसंगतियों, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, मानवीय भावनाओं, संबंधों, विचारों; धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों पर साहित्य की अन्य विधाओं में भी लिखा जाता है; उन पर कटाक्ष भी किया जाता है; लघुकथा में भी ऐसा ही किया जाता है। इसलिए लघुकथा को नकारात्मक विधा कहना उचित नहीं है। लघुकथा का सकारात्मक अकाश उतना ही व्यापक है, जितना अन्य विधाओं का है।

प्रत्येक विधा का अपना व्याकरण होता है, अपना शास्त्र होता है; अपनी संरचना के मूलभूत स्वरूप के कारण उसकी विशेषता होती है। कहानी न तो उपन्यास है और व्यंग्य कहानी नहीं है। प्रत्येक विधा की संरचना उसके शास्त्रीय तत्त्वों के आधार पर होती है। कहानी में व्यंग्य हो सकता है, लघुकथा में भी व्यंग्य हो सकता है। इस आधार पर यह व्यंग्य विधा नहीं हो जाती। दोनों स्वतंत्र विधाएँ हैं। उनका अपना विशिष्ट संरचनात्मक स्वरूप है। कहानी और लघुकथा 'कथा' परिवार की विधाएँ तो है परंतु उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। कहानी, लंबी या छोटी हो सकती है। परंतु छोटी कहानी लघुकथा नहीं बन जाती।

लघुकथा अपने आकारगत रूप के कारण लघुकथा कहलाई। इसलिए लघु होना, इसका महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका निर्वाह अत्यंत आवश्यक होता है। लघुकथा का स्वरूप कितना लागू होगा, यह उसके कथ्य पर निर्भर है। लघुकथा पाँच-छह वाक्यों की हो सकती है तो सौ से दो सौ वाक्यों अथवा शब्दों की भी हो सकती है। यह लघुकथाकार की क्षमता और लेखकीय कौशल पर निर्भर है कि वह उसे कितना विस्तार देना चाहता है। वस्तुत: लघुकथा, लघुकथाकार की सामर्थ्य की पर्याय । उसके लेखन कौशल की परीक्षक है। एक ही विषय पर कहानी भी लिखी जा सकती है और लघुकथा भी। परिवार में वृद्धों की स्थिति पर अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं और लघुकथाएँ भी लिखी गई है।

समसामयिक स्थितियों पर लघुकथाएँ अधिक लिखी जाती हैं। इसका कारण है कि लघुकथा किसी घटना के सूक्ष्म बिंदु पर केंद्रित रहती है। वह सूक्ष्मतम बिंदु अनावश्यक विस्तार नहीं चाहता। सामयिक घटना तुरंत घटती है और लघुकथा उसके मूल पर केंद्रित रहती हैं। इसमें विस्तार की संभावनाएँ रहती ही नहीं है। कुशल लेखक उसी सूक्ष्मतम मूल बिंदु को लेकर लघुकथा का ताना-बाना बुनता है। वह अल्प शब्दों में अपना उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। किसी व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करने के लिए कालखंड का ध्यान रखना होता है। लघुकथा उस कालखंड में व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करती है। विषय कोई हों, लघुकथा कथ्य के चारों और ही भ्रमण करती है। इसलिए वह विस्तार से बचती है। जहाँ अनावश्यक विस्तार हुआ लघुकथा के बिखर जाने की संभावना बढ़ जाती है। अनावश्यक विस्तार के कारण उसके कहानी बन जाने की आशंका रहती है।

लघुकथा त्वरित गति की विधा है। लघुकथा विशाल नदी का मंद-मंद बेहतर प्रवाह नहीं अपितु निर्झर के उछलते जल का तीव्र प्रवाह है। लघुकथा की यात्रा कम-से-कम शब्दों की होती है। इसी लघु आकार में लघुकथाकार बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और अलंकारों द्वारा इसके सौंदर्य को सजाता-सँवारता है।

लघुकथा, कथा साहित्य की समर्थ विधा है। इसके लघु स्वरूप में जीवन के विविध स्वरूपों, परिदृश्यों आदि को समाहित कर लेने की क्षमता है। लघुकथा सेल्फी द्वारा खींचा फोटोग्राफ़ है. सीमित और आवश्यक वस्तुओं का चित्र! यह सागर की गहराई और आकाश के विस्तार को अपने लघु स्वरूप में समा लेती है।

मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली रचनाएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं, श्रेष्ठता लिए रहती हैं। लघुकथा जहाँ तीख व्यंग्यों द्वारा हृदय को बेधने की क्षमता रखती है, वहीं अपनी संवेदना सामर्थ्य के कारण हृदय के मर्म का स्पर्श करने में सक्षम होती है। सातवें-आठवें दशक के आरंभिक कालखंड की अधिकांश लघुकथाएँ व्यवस्था और विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य करती थी; शनै:-शनै उनमें मानवीय संवेदनाओं का पक्ष प्रबल होता गया और मानवीय संबंधों की लघुकथाएँ प्रचुर मात्रा में लिखी जाने लगीं। गत दो दशकों में इन की प्रधानता हो गई है। लघुकथा की लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस विधा के प्रसार के साथ लेखकों की भीड़ जुड़ती चली गई। इनमें से अधिकांश ने इस विधा के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और छोटे-छोटे प्रसंगों, चुटकुलों, गप्प-गोष्ठियों के किस्सों को लघुकथा का नाम देकर छपवाना आरंभ कर दिया। वर्तमान में लघुकथा के नाम पर ऐसी रचनाओं का अंबार लग गया है। यह स्थिति चिंताजनक है। केवल प्रकाशित हो जाने के मोह से लिखने वाले लघुकथा विधा का अहित कर रहे हैं। उन्हें न अपनी छवि की चिंता है न ही विधा की।

श्रेष्ठ लघुकथाओं को बार-बार पढ़ने का मन होता है। उन्हें जितनी बार पढें, वह उतना ही अद्भुत आनंद देती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सैकड़ों लघुकथाएँ लिखी जाएँ, जितनी भी लिखें उनका लघुकथा होना आवश्यक होता है।

श्रेष्ठ लेखक अपनी रचनाओं का प्रथम समीक्षक होता है। वह अपनी रचना को बार-बार पढ़ता है, उसे परिमार्जित करता है। वरिष्ठ और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपने अनुभवों में इसका वर्णन किया है। इसलिए सर्वप्रथम लघुकथाकारों को स्वयं ही अपनी लघुकथाओं का मूल्यांकन करना चाहिए।

लघुकथा की एक विशेषता है इसकी व्यंजना शक्ति। जिस तरह कविता में सपाटबयानी दोष मानी जाती है। उसी प्रकार 'आँखों देखा हाल' वर्णन करने वाली अभिधा शक्ति की लघुकथाओं को श्रेष्ठ नहीं समझा जाता। साहित्यकार अपने अनुभवों, अभ्यास और साधना के द्वारा श्रेष्ठ सृजन करते हैं।

लघुकथा विधा में समीक्षकों का संकट आरंभ से है । कुछ हैं जो स्वयं लघुकथाकार है, श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं पर लघुकथा के मापदंडों से अनभिज्ञ होने के कारण मनचाही समीक्षाएँ कर रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार और समालोचक डॉ० ब्रजकिशोर पाठक ने इस विषय में लिखा है—‘लघुकथा यदि साहित्य रचना विधान है तो इसमें भी ध्वन्यात्मकता होगी ही। प्रतीक, मिथक और अभिव्यक्ति की वक्रता को आम आदमी कैसे पचा सकता है? आम आदमी क्या. सहृदय समीक्षक के लिए भी कवि-साहित्यकार की संवेदना, अनुभूति और लेखक की मुद्रा को पकड़ना कठिन होता है। इसलिए समीक्षा वैयक्तिक होती है। आलोचक की वैयक्तिकता का प्रभाव पड़ने के कारण ही एक ही कृति को कई रूपों में विश्लेषित होना पड़ता है। इसलिए लघुकथा स्वातंत्रयोत्तर भारत की उपजी अनास्था और समाधानरहित समस्याओं से जुड़ी होने के बाद लोकप्रिय' नहीं हुई बल्कि इसे सहज विधा रचना मानकर रचनाधर्मियों ने भीड़ पैदा की है। इनमें अनावश्यक हंगामे में मूल्यांकन की दिशाहीनता भी देखने को मिली क्योंकि साहित्यिक रचनाधर्मिता से सीधा लगाव न होने के कारण शास्त्रविहीन लोग ही मूल्यांकनकर्ता बन गए। (साहित्यकार अशोक लव बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 18-19, वर्ष 2004)

इसी क्रम में डॉ ब्रजकिशोर पाठक का मानना है—‘...इन लोगों ने नाटक, उपन्यास और कहानी के तत्त्वों को लघुकथा पर आरोपित किया था और कथानक, चरित्र चित्रण, कथोपकथन आदि बातें लघुकथा पर आरोपित करके वस्तुतः साहित्यकारों को धर्मसंकट में डाल दिया था। यदि लघुकथा की आलोचना की जाए तो कहानी की समीक्षा हो जाएगी। लघुकथा की लकड़ी के बोटे से आरी चलाकर पटरी निकालना बेवकूफ़ी है। आलोचना को 'कथाकथ्य' (कथ्य और अकथ्य) की स्थिति में डालकर देना ही लघुकथा की सफलता है। यह 'कथाकथ्थय' (कथा और कथ्य) बहुत प्रचलित हुआ और 'कथाकथ्य' (कथा और कथ्य) के रूप में प्रयुक्त होने लगा। मेरे विचार से लघुकथा में 'कथानक' नहीं हो सकता। यहाँ एक प्रमुख स्थिति या घटना होती है। और उसी से अन्य छोटी-छोटी प्रासंगिक घटनाएँ और स्थितियाँ होती है। लघुकथा में चरित्र चित्रण नहीं होता; पात्र-योजना होती है। कथोपकथन नहीं होता संवाद होते हैं। कथानक के बदले 'घटना' लघुकथा में आकर 'कथाभास' के रूप में प्रयुक्त होती है। इस सूक्ष्म भेद के न जानने के कारण ही कुछ लघुकथाकार छोटी कहानी जैसी चीज़ लघुकथा के नाम पर लिखते रहे हैं।(साहित्यकार अशोक लव : बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 21-22, वर्ष 2004)

इसी तरह लघुकथा और कहानी में अंतर एकदम स्पष्ट हो जाता है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कहानी का कथानक लघुकथा की घटना की अपेक्षा व्यापकता लिए रहता है। उसकी शैली लघुकथा से भिन्न होती है। उसका विकास लघुकथा की भाँति नहीं होता। लघुकथा की गति और प्रवाह भिन्न होता है। लघुकथा का आरंभ उत्सुकता लिए रहता है, विकास इसे और बढ़ाता है और उसके कथ्य को गति प्रदान करता है। चरमसीमा पर वह लघुकथा का अंत हो जाता है। यहीं लघुकथा का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

शेष आगामी अंक में…

‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) से साभार

Sunday, 28 March 2021

राजस्थान की लघुकथा:पृष्ठभूमि और परिदृश्य-3 / माधव नागदा

दिनांक 27-3-2021 से आगे तीसरी  समापन किस्त


लघुकथा प्रतियोगिताएँराजस्थान लघुकथा प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाने में सिरमौर रहा है । यों प्रदेश से बाहर होने वाली लघुकथा प्रतियोगिताओं में भी राजस्थान के लघुकथाकार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं । कैथल दर्पण (हरियाणा) द्वारा 1978 में आयोजित देश की प्रथम लघुकथा प्रतियोगिता में डॉ.सतीश दुबे और जगदीश कश्यप के साथ अजमेर की शकुंतला किरण भी पुरस्कृत हुई थी । 1980 में साहित्य-संगम इंदौर द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में ब्यावर के रामप्रसाद कुमावत आदमी-दर-आदमी लघुकथा के लिए द्वितीय आए थे तथा जयपुर की आभासिंह को अभिशप्ता के लिए विशेष पुरस्कार दिया गया था । इसी प्रकार जन संसार (कलकत्ता) द्वारा 1985 में आयोजित प्रतियोगिता में माधव नागदा की लघुकथा आग प्रथम रही थी । बैंकिंग साहित्यिक संस्था जयपुर द्वारा 1994 में आयोजित जयपुर अंतर्बेंकीय लघुकथा प्रतियोगिता में श्रीमती अनूप घई की लघुकथा गुलाब का फूल पुरस्कृत हुई थी ।

 डॉ. रामकुमार घोटड़ के अनुसार राजस्थान या राजस्थान से बाहर आयोजित लघुकथा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होने वाले राजस्थान के लघुकथाकारों की संख्या लगभग तीन दर्जन रही है ।

   राजस्थान प्रांत से लघुकथा प्रतियोगिताओं का आरंभ नौवें दशक से आरंभ होता है । इन प्रतियोगिताओं का श्रेय पूरी तरह से महेंद्रसिंह महलान(स्व.) को जाता है । उनके दिशा निर्देशन में 1981 से लेकर 1986 तक लगातार लघुकथा प्रतियोगिताएँ आयोजित होती रही तथा प्रतियोगिता में सम्मिलित  पुरस्कृत तथा स्तरीय लघुकथाओं को लेकर स्तरीय संकलन भी प्रकाशित किए गए । युवा रचनाकार समिति, फैफाना (श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़) द्वारा 1981 से 1983 तक आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत एवं स्तरीय लघुकथाओं का एक संकलन 1984 में महेंद्रसिंह महलान और मोहन योगी के सम्पादन में सबूत-दर-सबूत शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इसी प्रकार 1984 से 1986 तक युवा समिति, अलवर द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत तथा देश भर में अन्य पुरस्कृत लघुकथाओं का संकलन महेंद्रसिंह महलान और अंजना अनिल के सम्पादन में संघर्ष’ (1987) नाम से प्रकाशित हुआ ।

    इसी प्रकार समय-समय पर लघुकथा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत व स्तरीय लघुकथाओं के जो संकलन/पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाशित हुए वे निम्न प्रकार हैं

    सम्बोधन त्रैमासिक, लघुकथा प्रतियोगिता विशेषांक,1982 । संपादक-क़मर मेवाड़ी | (सम्बोधन के संपादक क़मर मेवाड़ी सदैव लघुकथा के पक्षधर रहे हैं । उन्होने सम्बोधन के तीन लघुकथा विशेषांक निकाले-1982, 1983 और 1986 में ।)

    प्रेरणा’, संपादक-डॉ.अमर सिंह और नन्द किशोर नन्द’ । प्रतियोगिता आयोजक-आदर्श भारतीय साहित्यकार परिषद, जयपुर, प्रकाशन वर्ष-1982 ।

   कर्मचिंतन’ (मासिक पत्रिका, जयपुर), विशेषांक, 1983 । आयोजक कर्मचिंतन मासिक पत्रिका ।

   यथार्थ’, संपादक-मोहन सोनी अनन्तसागर और प्रकाश पंकज । प्रतियोगिता आयोजक-गुलदस्ता मंच, लोढसर(सुजानगढ़, चूरू) । प्रतियोगिता आयोजन 1987 में, पुस्तक प्रकाशन 1988 में ।

   वतन के लिए’, संपादक-डॉ.आनंदप्रकाश त्रिपाठी, प्रकाशन वर्ष 2009, आयोजक-जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनू (नागौर), आयोजन वर्ष-2005-06 । यह प्रतियोगिता केवल विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए थी ।

  पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाएँराजस्थान से प्रकाशित होने वाली कई पत्र-पत्रिकाएँ सम्मानपूर्वक लघुकथाएँ प्रकाशित करती रही हैं । इनमें से प्रमुख हैंसम्बोधन, लहर, सृजन कुंज, एक और अंतरीप, अक्सर, अभिनव सम्बोधन, मधुमती, तनिमा, शबनम ज्योति, अदबी उड़ान, शेष, चर्चा, निकष, तटस्थ, वातायन, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति, जय राजस्थान, राष्ट्रदूत, जलते दीप, युगपक्ष, दैनिक प्रताप केसरी, सीमा संदेश, पवित्रा, दैनिक न्याय, विवेक विकास, अग्रगामी, इतवारी पत्रिका, कर्मचिंतन, अनुकृति, जयवर्द्धन, राजस्थान साहित्यिकी, स्नेहिल संदेश, लोकमत, रसमुग्धा, कथा मंजरी, सौगात, जगमग दीप ज्योति, शिविरा, शब्द सामयिकी, साहित्यांचाल, राजस्थान सुजस, साहित्य समर्था, अनुकृति, स्नेहिल संदेश, मरूक्षेत्र, रसमुग्धा, कंचनलता, सौगात, टाबर टोली, विचार टाइम्स, राजस्थान शिक्षक, राजस्थान विकास, लोकसम्पर्क, डॉ.अंबेडकर और बहुजन, अभयदीप, बाल वाटिका आदि | राजस्थान शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर ने भी माध्यमिक स्तर पर अपने पाठ्यक्रम में लघुकथाएँ सम्मिलित कर इस विधा को गरिमा प्रदान की है ।

शोध कार्यलघु आकार वाली तथा खास शिल्प वाली कथा रचनाओं  लिए लघुकथा संज्ञा का सर्वप्रथम प्रयोग बुद्धिनाथ झा कैरव ने 1942 में किया था । 1960 आते-आते कई लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके थे । यह विधा ध्यान आकर्षित करने लगी थी । पिछली शताब्दी के छठे दशक से ही इस विधा में शोध कार्य आरंभ हो गए थे । डॉ.रामकुमार घोटड़ के अनुसार लघुकथा विधा में सर्वप्रथम शोध कार्य करने का श्रेय राजस्थान को ही जाता है ।

   इस विधा में शोधोपाधि (पीएच.डी.) प्राप्त करने वाले राजस्थान के शोधार्थी हैं

   डॉ. सीता हाण्डा-1959 (राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से), डॉ.शकुंतला किरण, अजमेर-1982 (राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से) डॉ. (श्रीमती) नवनीत, बीकानेर-1996 (महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर से), किरण भटनागर,उदयपुर-2000 (राजस्थान विद्यापीठ, डीम्ड विश्वविद्यालय, उदयपुर से) ।

राजस्थान के लघुकथाकारों के व्यक्तिगत लघुकथा साहित्य पर जो शोध कार्य हुआ है वह निम्न प्रकार है

   कैलाश नारायण (मध्यप्रदेश), 2009-पारस दासोत के लघुकथा साहित्य पर ।

   संतोष कुमार शर्मा (अलीगढ़), 2012-13-डॉ.रामकुमार घोटड़ के लघुकथा साहित्य पर ।

  लघु शोध उपाधि(एम.फिल.)लघुकथा में एम.फिल. करने वाले शोधार्थी निम्न हैं :

अभिजीत कुमावत (ब्यावर)-2003, संजय कोटनीश (बीकानेर)-2008, श्रीमती शर्मीला (श्रीडूंगरगढ़)-2008, त्रिलोकसिंह रेगर (झुंझनू)-2009, सुश्री अंजना गुप्ता (कोटा)-2009, नरेश कुमार (राजगढ़, चूरू)-2010 एवं श्रीमती रजनेश (राजगढ़ चूरू)-2011 आदि ।

राजस्थान के लघुकथा साहित्य पर एम.फिल. करने वाले प्रांत से बाहर के शोधार्थी निम्न प्रकार हैं—

राजकुमार (कुरुक्षेत्र, हरियाणा)-1998, राजेन्द्र सिंह राजपूत (भोपाल)-2004, विनोद सक्सेना (भोपाल)-2004, सुश्री शिव रजनी महपति (भोपाल)-2004, बलकार सिंह (कुरुक्षेत्र)-2011 आदि ।

राजस्थान के लघुकथाकारों की कतिपय महत्वपूर्ण लघुकथाएँ—

राजस्थान के लघुकथाकारों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता है । वे समकालीन सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करते हुए कभी कारुणिक हो उठते हैं तो कभी निर्मम । उनकी लघुकथाओं में संवेदनाओं और आक्रोश का संतुलित मेल होता है | हम यहाँ राजस्थान के लघुकथाकारों की कतिपय ऐसी लघुकथाओं का उल्लेख करेंगे जो प्रांत के बाहर भी प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल हुई हैं ।

निम्न और श्रमिक वर्ग के प्रति करुणा—पेंट की सिलाई, रोटी की गंध (डॉ. रामकुमार घोटड़), पेट सबके हैं (भागीरथ), गर्मी (बुलाकी शर्मा), आटे की पुड़िया (रत्नकुमार सांभरिया), लोहा-लक्कड़ (अंजना अनिल), मिड डे मील (कृष्णा भटनागर), भारत (पारस दासोत), माफी (मुरलीधर वैष्णव), साथीड़ा (राधेश्याम मेहर), व्यथा (माणक तुलसीराम गौड़), गाँव बुआ (गोपालप्रसाद मुद्गल) आदि ।

पारिवारिक रिश्ते—सोते वक्त (भगीरथ), माँ (प्रबोधकुमार गोविल), राधा नाचेगी (गोविंद गौड़), मोतियाबिंद, शंकित पल (डॉ.रामकुमार घोटड़), माँ हो तुम (यादवेन्द्र शर्मा चंद्र’), आफत (योगेन्द्र दवे), कोहरा (शकुंतला किरण), चुग्गा (मुरलीधर वैष्णव), बेबसी (पुष्पलता कश्यप), अनुत्तरित प्रश्न (महेन्द्रसिंह महलान), दूर होती दुनिया (गोविंद शर्मा), पश्चाताप (चंद्रेशकुमार छतलानी), बहन का लिफाफा (सत्यनारायण सत्य’), माँ की तस्वीर (माणक तुलसीराम गौड़), बबूल का पेड़ (मनोहरसिंह राठौड़),लेक्चर (अब्दुल समद राही), जायदाद (गोविंद भारद्वाज), बाबूजी का श्राद्ध (रेणु चंद्रा), सपूत (पूर्णिमा मित्रा), राखी की चमक (कविता मुखर), अपने(संजय पुरोहित) आदि ।

भ्रष्ट व्यवस्था—एंटीकरप्शन (मोहन राजेश), दृष्टिकोण (अंजना अनिल), समस्या और समाधान (मदन केवलिया), स्पष्टीकरण (गोविंद गौड़), सरकारी (घनश्यामनाथ कच्छावा), उपवास (माधव नागदा), रेशम का कीड़ा (अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता’), एडजस्टमेंट (दिनेश विजयवर्गीय), भयभीत दर्पण (चंद्रेशकुमार छतलानी), कितना कारावास (मुरलीधर वैष्णव), जनहित (गोविंद शर्मा), खुदा (गोविंद भारद्वाज) आदि ।

मध्य वर्ग की मजबूरियाँ और विरोधाभास—मितव्ययता (प्रकाश तातेड़), नौकरीपेशा (पारस दासोत), इज्जत (सत्य शुचि), अमरबेल (मोहन राजेश), अलगाव (रमेश जैन), अप्रत्याशित (शकुंतला किरण), निन्यानवे का दंश (मुरलीधर वैष्णव), रोशनी (नरेंद्र सिंह), क्रेडिट कार्ड (भगीरथ परिहार), स्मृतियों में पिता (रघुनंदन त्रिवेदी), बादशाह (आभा सिंह) आदि |

नारी विमर्शफूली, भाग शिल्पा भाग (भगीरथ), लड़की बोध, बुढ़ापे का सहारा (रामकुमार घोटड़), परिचय, वह चली क्यों गई (माधव नागदा), प्रति प्रहार (मुकुट सक्सेना), बावड़ी का दुख (कृष्णकुमार आशु’), अभिशप्ता, (आभा सिंह), वर्चस्व (विभा रश्मि), कामवालियाँ (डॉ.संगीता सक्सेना), अदालत (संजय पुरोहित) आदि |

दलित विमर्शवजूद, अहसास (रत्नकुमार सांभरिया), खामोशी (भगीरथ), पुरस्कार(महेंद्रसिंह महलान), आड़ी जात (अनिता वर्मा), हरिजन (दुर्गेश), अल्फ्रेड (पुष्पलता कश्यप), अछूत (मोहन राजेश), एक युद्ध यह भी (रामकुमार घोटड़), जात (कृष्णकुमार आशु’), रीति-रिवाज (त्रिलोक सिंह ठकुरेला) और इन पंक्तियों के लेखक (माधव नागदा) की डेड’, ‘रूपला कहाँ जाए आदि |

सांप्रदायिकता की समस्याबांग (रत्नकुमार सांभरिया), ज़िंदगी और इमारतें (मदन अरोड़ा), वही लड़की (सत्य शुचि), मजहब (पुष्पलता कश्यप), पागल (हसन जमाल), बीच का दिन (अंबिकदत्त), तुम कौन हो (पारस दासोत), आतंक (भगीरथ), खौफ़, आग (माधव नागदा), धर्म प्रदूषण, मारते कंकाल (चंद्रेशकुमार छतलानी), रोटी का सवाल (रवि पुरोहित) आदि |

कन्या भ्रूण हत्यानिर्णायक क़दम (पुष्पलता कश्यप), भ्रूण हत्या पर (महेंद्रसिंह महलान), उपाय (त्रिलोक सिंह ठकुरेला), गर्भपात (गोविंद भारद्वाज), नाखून (विभा रश्मि), पश्चाताप (चंद्रेशकुमार छतलानी), हम हैं न (माधव नागदा) आदि | उल्लेखनीय है कि भ्रूण हत्या जैसे संवेदनशील विषय को लेकर डॉ.रामकुमार घोटड़ ने एक लघुकथा संग्रह कुखी पुकारे का सम्पादन किया है |

कुछ अन्य विषयदर्पण का अक्स (आभा सिंह)-इन्टरनेट की आभासी दुनिया, संवेदना (नदीम अहमद नदीम’)-मीडिया की संवेदनहीनता, लुटेरे (हनुमानसिंह तमनाशक), तिलक और दहेज (दिलीप भाटिया)-दहेज की मनोवृत्ति, स्वर्ग का मार्ग (रत्नकुमार सांभरिया)-बगुला भक्तों का पाखंड, उधार की ज़िंदगी (हरदर्शन सहगल), घोडा ना बनो राजा (ओमप्रकाश भाटिया), नेटवर्क मार्केटिंग (घनश्याम नाथ कच्छावा)-उपभोक्तावाद और आर्थिक उदारीकरण, आशादीप (आभा सिंह), सपना (गोविंद शर्मा)-बाल मनोविज्ञान, फिर से मत आना (डॉ.रामकुमार घोटड़), विक्षिप्त किन्नर (अंजीम अंजुम), अखिलेश पालरिया (किन्नर), इंसान (गोविंद शर्मा), नपुंसक (नीना छिब्बर), तुमको नमन (पारस दासोत), मुक्ति (विभा रश्मि)सभी किन्नर समाज की लघुकथाएँ ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थान की हिन्दी लघुकथा का पृदृश्य बहुत आश्वस्तकारी है। यहाँ के लघुकथाकार हर क्षेत्र में कार्य करते हुए लघुकथा को निरंतर ऊँचाइयों पर पहुँचा रहे हैं । संख्यात्मक दृष्टि से ही नहीं, गुणात्मक दृष्टि से भी यहाँ लिखी जा रही लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं । कहना न होगा कि यहाँ का लघुकथाकार समय के साथ क़दम से क़दम मिलाते हुए आगे बढ़ रहा है ।

 

संदर्भ :

1-   राजस्थान के लघुकथाकार, संपादक : डॉ.रामकुमार घोटड़

2-   राजस्थान की चर्चित लघुकथाएँ / संपादक : भगीरथ

3-   राजस्थान की लघुकथाएँ/संपादक:डॉ.अनिल शूर आज़ाद, भूमिका:(डॉ.रामकुमार घोटड़)

4-   मधुमती, अक्तूबर 2013, अतिथि संपादक/डॉ.रामकुमार घोटड़

5-      समकालीन हिन्दी लघुकथा और आज का यथार्थ/माधव नागदा

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      संपर्क : माधव नागदा, लाल मादड़ी (वाया नाथद्वारा)-313301 (राजस्थान)

मोबाइल-9829588494

'लघुकथा कलशआलेख महाविशेषांक-1 (सं॰ योगराज प्रभाकर से साभार)