दिनांक 30-3-2021 के बाद दूसरी, समापन किश्त
लघुकथा सातवें दशक से उभरी और आठवें दशक में पूर्णतः स्थापित हो गई। हमनें इसी कालखंड में इस
हमनें डॉ प्रभाकर माचवे, अवधनारायण मुद्गल, पदमश्री आचार्य क्षेमचंद्र सुमन, पदमश्री
चिरंजीत, पदमश्री यशपाल जैन और डॉ विजेंद्र स्नातक आदि की
अध्यक्षता में लघुकथा गोष्ठी आयोजित की। नागरी प्रचारिणी सभा के मंच से उनके
प्रधानमंत्री डॉ. सुधाकर पांडेय के सानिध्य में डॉ० प्रभाकर माचवे की अध्यक्षता
में गोष्ठी का आयोजन-संचालन किया।
लघुकथा के विभिन्न
पक्षों पर हमनें डॉ० कमलकिशोर गोयनका, डॉ सुंदरलाल कथूरिया और आचार्य क्षेमचंद्र
सुमन के लिए साक्षात्कारों को सन् 1988 में प्रकाशित और
स्वयं द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह में संकलित किया। लघुकथा के विकास पर उसके
अंशों को दिया जा रहा है, जिससे इस विधा के उद्भव पर
प्रकाशत पड़ता है।
डॉ० कमलकिशोर
गोयनका के अनुसार—‘लघुकथा के जन्म के संबंध में कई विचार है। कुछ विद्वानों का
विचार है कि हमारी प्राचीन बोधकथाओं, नीतिकथाओं की प्रेरणा से लघुकथा का जन्म हुआ।
कुछ का विचार है कि पश्चिम से कहानी जब हिंदी में आई तो उसके कारण लघुकथा भी लिखी
जाने लगी। मेरे विचार में लघुकथा का कहानी से गहरा संबंध है। दोनों एक ही कुल की
हैं। लघुकथा में कथा की जो प्रमुखता है वह कहानी से आई है। यही कारण है कि कहानी
केरचनाकाल से ही लघुकथा भी लिखी जाने लगी थी। मुंशी प्रेमचंद ने छह-सात लघुकथाएँ
लिखी थीं। हाँ, लघुकथा का विशिष्ट रूप सातवें दशक में
दिखाई देता है और अब तो यह प्रत्येक पत्रिका ने अपना दावा प्रस्तुत करती है।’ (बंद दरवाजों पर दस्तकें / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 11-12)
डॉ सुंदरलाल कथूरिया
के अनुसार—‘लघुकथा के पूर्व रूप जातक कथाओं में खोजे जा सकते हैं। पंचतंत्र
की कहानियों में एक सीमा तक बालबोध के लिए लिखी लघुकथाएँ हैं परंतु उनमें वह
पैनापन नहीं है जो समकालीन लघुकथाओं में है। हिंदी गद्य साहित्य में इसने आठवें
दशक से विशिष्ट रूप ग्रहण किया है।’ (बंद दरवाज़ों पर दस्तकें / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 13)
पद्मश्री आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने इस विषय पर
विस्तारपूर्वक अपने विचार प्रकट किए—‘लघुकथा की उत्पत्ति तो आदि युगों से है, वैदिक युग से है और अनेक रूप
से है। उपनिषद काल युग से है। यह तो परिवेश बदलता है। जैसा परिवेश होता है वैसे ही
परिवेश की कथाएँ उसमें आती-जाती हैं। हैं ये वही। आज के परिपेक्ष पर आप कोई चीज़
लिख देंगे तो वह लघुकथा है; उससे पहले आप बोधकथा कह
देंगे। हिंदी साहित्य में लघुकथाएँ छायावाद से शुरू हो गई थीं। उस जमाने में
जनार्दन प्रसाद झा थे। यह होंगे सन् 1924-25 के आसपास।
नंदकिशोर तिवारी थे और बाद में जगदीशचंद्र शास्त्री हुए। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर
ने भी कुछ लघुकथाएँ लिखीं। उसके बाद सन् 1938 में रावी ने
लिखीं। रावी के बाद हरिशंकर परसाई ने लिखीं।’ (‘बंद दरवाजों पर दस्तकें' / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 10)
साहित्य के
क्षेत्र में सक्रियता से जुड़े हमें पचास वर्ष से अधिक हो गए हैं। हमनें लघुकथा ही
नहीं अन्य साहित्यिक स्थितियों को तेजी के साथ परिवर्तित होते देखा है । वर्तमान
में साहित्य समाज की मुख्यधारा में नहीं है। राजनीति और उससे संबंधित गतिविधियों
ने सब कुछ लील लिया है। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों का दायित्त्व बढ़ गया है । वे
जिस विधा में लिखें उसके रचना-विधान, शास्त्र के अनुसार लिखें। नए लघुकथाकारों को
वरिष्ठ लेखकों की श्रेष्ठ लघुकथाओं को पढ़ना चाहिए। लघुकथाएँ लिखते समय भाषा की
शुद्धता का ध्यान तो रखना ही चाहिए शब्दचयन भी सतर्कता से करना चाहिए। पांडित्य
प्रदर्शन के लिए क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करने से बचना चाहिए। लघुकथा का एक-एक
वाक्य महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए वाक्य-विन्यास सुगठित होना चाहिए। लघुकथा की
कसावट उसकी श्रेष्ठता की परिचायक है। लघुकथा के एक-एक वाक्य का उतना ही महत्त्व
होता है जितना माला के एक-एक मनके का। अत: लघुकथा लिखने के पश्चात् उसे परिमार्जित
करते समय अनावश्यक वाक्य हटा देने चाहिए।
लघुकथा लिखने से
पूर्व उसके उद्देश्य अथवा अभीष्ट को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। मानवीय संबंधों, जीवन की जटिलताओं, सामाजिक विसंगतियों, मानवीय मूल्यों के ह्रास
आदि जिन भी विषयों का चयन करें उसके तथ्यों के निर्वहन और अभीष्ट को स्पष्ट करने
के प्रति सतर्क रहना चाहिए। लघुकथा लेखन में शैली महत्त्वपूर्ण होती है। यह तलवार
की धार से पैनी होनी चाहिए। लघुकथा को पढ़कर पाठक तिलमिलाए, कसकसाए या हल्के-से मुस्कुराए; यह शैली पर ही
निर्भर है। व्यंग्य प्रधान शैली से लघुकथा की मारक शक्ति और क्षमता में वृद्धि
होती है।
लघुकथा के संबंध में सर्तकता की चर्चा करते समय सहसा 'दैनिक ट्रिब्यून' के साहित्य संपादक (अब स्वर्गीय) मित्रवर श्री वेद प्रकाश बंसल का स्मरण हो आया। उन्होंने अपने लेख 'लघुकथा की विकास यात्रा: कुछ ख़तरे कुछ सावधानियाँ में लिखा था—‘ऐसे लोग जिनके पास साहित्य की किसी भी विधा में लिखने के लिए पर्याप्त विचार, संवेदना और शिल्प नहीं होता वे लघुकथा का शॉर्टकट अपनाकर रातों-रात लेखक होने की घोषणा कर देते हैं, वे लघुकथाओं के नाम पर चाहे कचरा ही परोसें। एक दैनिक समाचारपत्र के साहित्य संपादक के रूप में ऐसा बहुत सा कचरा मुझे झेलना पड़ता है। इसकी सड़ांध और कड़वाहट साहित्य संपादकों को भी चखनी पड़ती है। तब उसकी स्थिति शबरी जैसी होती है जो कड़वाहट को स्वयं झेलता है और मीठे बेरों के रूप में सशक्त और सार्थक रचनाएँ राम रूपी पाठकों तक पहुँचाता है।’ ('बंद दरवाजों पर दस्तकें' / संपादक:अशोक लव, पृष्ठ 10)। वेद प्रकाश बंसल का कथन आज भी पूर्ण सत्य है क्योंकि आज भी ऐसी लघुकथाएँ बहुलता से लिखी जा रही है।
लघुकथा की
उपलब्धियों की चर्चा करना भी आवश्यक है। इस विधा पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से
अनेक पी-एचडी. और एम.फिल. हो चुकी है और हो रही हैं। हमारे द्वारा संपादित लघुकथा
संग्रह 'खिड़कियों पर टंगे लोग'
(प्रकाशन 2009) कर्नाटक विश्वविद्यालय
के एम.फिल. के पाठ्यक्रम में वर्ष 2019 से पढ़ाई जा रही
है। लघुकथा के सैंकड़ों एकल और साझा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। सातवें-आठवें
दशक में जिस विधा की यात्रा का श्रीगणेश हुआ था, वह आज
शिखरों का स्पर्श कर रही है। सृजन की यह निरंतर प्रवाहित होने वाली प्रक्रिया है।
अनेक लघुकथाकार और
पत्रिकाओं के संपादक नि:स्वार्थ भाव से समर्पित होकर इस विधा के विकास में अपना
योगदान दे रहे हैं। इसी क्रम में 'लघुकथा कलश' का
उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है। हमें लगता है कि इस पत्रिका रूपी ग्रंथ की चर्चा
किए बिना यह लेख अपूर्ण होगा। हम नि:संकोच कह सकते हैं कि लघुकथा विधा के इतिहास
में इस स्तर पर व्यापक कार्य किसी पत्रिका में नहीं हुआ है। श्रेष्ठ कार्यों की
प्रशंसा सर्वत्र होती है और होनी भी चाहिए। संपादक द्वय—योगराज प्रभाकर और रवि प्रभाकर का इस विधा के लिए
किया जा रहा कार्य सदैव रेखांकित किया जाएगा। 'लघुकथा कलश' के
उल्लेख के बिना लघुकथा इतिहास अपूर्ण रहेगा।
लघुकथा के आरंभिक
काल में अनेक पत्रिकाएँ, फोल्डर, साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिकाएँ प्रकाशित
हुई हैं। सीमित साधनों के कारण अनेक लघुकथाकारों और संपादकों-प्रकाशकों ने लघु
आकार की पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। उनका योगदान भी अभूतपूर्व था। उन सबकी नींव पर
वर्तमान में ‘लघुकथा कलश’ प्रकाश-स्तंभ के समान इस विधा को प्रकाशमय कर
रहा है। यह लघुकथा विधा की उपलब्धि है।
संपर्क : डॉ॰ अशोक लव, फ़्लैट 363-ए,
सूर्य नगर अपार्टमेंट, प्लॉट नं. 14,
सेक्टर-6, द्वारका, दिल्ली-110 075
चलभाष:
9971010063
ई-मेल: kumarl1641@gmail.com
‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) से साभार