ओमप्रकाश
कश्यप
13 जनवरी 2019 को मैसेंजर पर
बलराम अग्रवाल के ‘तैरती हैं पत्तियाँ’ शीर्षक
से आए लघुकथा संग्रह का पीला मुखपृष्ठ देखकर लगा कि कवर बनाने में चूक हुई है।
पत्तियों का जिक्र है तो कवर को हरियाला होना चाहिए था। लेकिन पहली कहानी पढ़ते ही
संशय दूर हो गया। जिन पत्तियों को मनस् में रखकर शीर्षक का गठन किया गया है,
वे हरी न होकर अपना जीवन पूरा कर पीली हो, पेड़
से स्वतः छिटक गई पत्तियाँ हैं। छोटी-सी भूमिका में लेखक ने स्वयं कवित्वमय भाषा
में इसका उल्लेख किया है। लेकिन भूमिका से गुजरकर पाठक जैसे ही पहली लघुकथा तक
पहुँचता तो उसका रहा-सहा संशय भी गायब हो जाता है। संग्रह की पहली ही लघुकथा
‘समंदर: एक प्रेमकथा’ अद्भुत है। इस लघुकथा में भरपूर जीवन जी चुकी एक दादी है।
साथ में है उसकी पोती। दोनों के बीच संवाद है। भरपूर जीवन अनेक लोगों के लिए
पहेलीनुमा हो सकता है, लेकिन इस लघुकथा को पढ़ेंगे तो इस
पहेली का अर्थ भी समझ में आएगा और पीली हो चुकी पत्तियों के प्लावन का रहस्य भी।
यह वह अवस्था है जब आदमी उम्रदराज होकर भी बूढ़ा नहीं होता, पत्तियाँ
पीली होने, डाल से छूट जाने के बाद भी मिट्टी में नहीं
मिलतीं, उनमें उल्लास बना रहता है। इस कारण वे जलप्रवाह में
प्लावन करती नजर आती हैं। प्लेटो ने इसे जीवन की दार्शनिक अवस्था कहा है।
अध्यात्मवादी इसके दूसरे अर्थ भी निकाल सकते हैं, लेकिन मैं
बस इतना कहूँगा कि ‘समंदर: एक प्रेमकथा’ अनुभवसिद्ध कथा है। अभी संग्रह को पूरा
नहीं पढ़ा है। शुरुआत से मात्र पंद्रह-सोलह लघुकथाएँ ही पढ़ी हैं। इतनी कहानियों में
‘अपने-अपने आग्रह’, ‘अजंता में एक दिन’, ‘उजालों का मालिक’, ‘इमरान’, ‘अपने-अपने
मुहाने’, ‘अपूर्णता का त्रास’ अविस्मरणीय लघुकथाएँ हैं। इतनी
प्रभावी कि इनका असर कम न हो, इसलिए बाकी को छोड़ देना पड़ा।
‘अपने-अपने मुहाने’, ‘अपूर्णता का त्रास’, ‘उजालों का मालिक’ में कहानीपन के साथ-साथ प्रतीकात्मक भी है, वही इन्हें बेजोड़ बनाती है। प्रतीकात्मकता के बल पर ही किसी एक पात्र का
सच पूरे समाज का सच नजर आने लगा है। प्रतीकात्मकता की जरूरत व्यंग्य में भी पड़ती
है। मगर इन दिनों वह प्रतीकात्मकता से कटा है। इसलिए वह अवसान की ओर अग्रसर भी है।
बलराम अग्रवाल वरिष्ठ लघुकथाकार हैं। लघुकथा को समर्पित। यूँ तो बच्चों के नाटक और
बड़ों के लिए कहानियाँ भी लिखी हैं, लेकिन इन दिनों वे
लघुकथा-एक्टीविस्ट की तरह काम कर रहे हैं। अपनी विधा के प्रति ऐसा समर्पण विरलों
में ही देखा जाता है.... जैसा कि ऊपर बताया गया है, पुस्तक की
अभी कुछ ही लघुकथाएँ पढ़ी हैं। जैसे-जैसे पुस्तक आगे पढ़ी जाएगी, यह टिप्पणी भी विस्तार लेती जाएगी।
राजेश आहूजा
31 जनवरी
2019 को मैसेंजर पर
पुस्तक
मेले में तैरती हैं पत्तियाँ बलराम अग्रवाल जी के सामने ही ख़रीदी लेकिन न तो इनके
साथ चित्र खिंचवाया और न ही पुस्तक पर हस्ताक्षर लिए। चलिए कोई बात नहीं,
आशा करता हूँ भविष्य में भेंट होती रहेगी।
पुस्तकें
कम ही ख़रीदता हूँ। कारण यह कि अधिकतर को पढ़ने के बाद अफ़सोस होता है कि क्यों
ख़रीदी। इस पुस्तक को देख कर कुछ निराशा ज़रूर हुई कि पूरा कवर पीला क्यों बना
दिया। लेकिन जब पढ़ना शुरू किया तो अहसास हुआ कि कवर भले ही केवल पीला है लेकिन अंदर तरह-तरह के रंग बिखरे हुए हैं।
फ़ेसबुक पर बलराम जी द्वार पोस्ट की गई ओमप्रकाश जी की प्रतिक्रिया को पढ़ रहा था
तो उसमें पीले कवर की बात आई और मुझे लगा कि अब रहस्योद्घाटन होने लगा है। मैंने
तुरंत उस प्रतिक्रिया को पढ़ना बंद कर दिया।
किताब अगर कहानियों, कविताओं या लघुकथाओं
की हो तो मैं उसे शुरूआत से पढ़ना प्रारंभ नहीं करता। कभी कोई पन्ना खोल लेता हूँ,
कभी कोई। पत्तियों को मैंने अंत से पढ़ना शुरू किया। अब तक बीस से
अधिक लघुकथाएँ पढ़ी हैं और उन्हें खरा पाया है। उम्मीद तो यही है कि अंत तक,
या यूँ कहिए की शुरूआत तक सभी लघुकथाएँ इसी स्तर की होंगी। यानी यह
पुस्तक मुझे बलराम जी की दूसरी पुस्तक ख़रीदने पर विवश कर देगी। लेकिन दूसरी तभी
ख़रीदूँगा जब वे सामने होंगे ताकि उसके पहले पन्ने पर अपने लिए कुछ लिखवा सकूँ।
सुधा भार्गव
31 जनवरी
2019 को अपनी फेसबुक वॉल पर
मित्रो, बलराम अग्रवाल जी का नया लघुकथा संग्रह है—'तैरती
हैं पत्तियाँ’। इन दिनों यह चर्चा में है। जैसे-जैसे इसकी रचनाओं के बारे में
सुनती या पढ़ती इस संग्रह को पढ़ने की लालसा बलवती होती गई। बलराम भाई जी ने अंतत: मुझे
भी इसे उपलब्ध करा ही दिया। इसके लिए मैं उनकी आभारी हूँ।
संग्रह
की भूमिका सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी है। उनकी इस बात
से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि इस संग्रह की लघुकथाएँ जीवन को आधुनिक व्यापक
दृष्टि से देखने वाले कथाकार की रचनाएँ हैं। इन पत्तियों को पढ़कर हम कहानी नहीं,
जीवन पढ़ते हैं। बलराम जी ने भी अपने मन की
बात इस संग्रह में बड़ी बेबाकी से लिखी है, “आने
वाले समय में कहानी ‘कहानीपरक लघुकथा’ की तरफ खिंच जाएगी। ‘कहानी’ आकार बढ़ाने के
लिए रेत-सा बिखरना छोड़ देगी और ‘लघुकथा’ आकार को संकुचित रखने की शास्त्रीय शर्तों
से विद्रोह कर देगी।”
थोड़ी-बहुत
मैं भी कहानियाँ लिखती रहती हूँ। मैंने अनुभव किया है कि समय की रफ्तार और समकालीन
परिस्थितियों के कारण बड़ा कथानक, लंबे-लंबे संवाद
और पात्रों की भीड़ देखकर पाठक जल्दी-जल्दी पृष्ठ पलटते हुए अंत जानने की कोशिश में
रहता है। धैर्य से खुद को कहानी से जोड़ने में वह अपने को असमर्थ पाता है। इसलिए
कहानी के फैलाव को रोकना ही होगा। ऐसा मेरा भी सोचना है।
लघुकथा
संग्रह मिलते ही मैंने पढ़ना तो शुरू कर दिया; पर पहली लघुकथा पर ही अटककर रह गई हूँ।
वह है ही ऐसी! पहले आप भी उसे पढ़ लीजिये फिर मैंने उस पर जो कहा है, वह पढ़िए—
समंदर
: एक प्रेमकथा
“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं… ”
दादी
ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही…… एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
“लंबे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”
यों
कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।
बच्ची
ने पूछा—“फिर?”
“फिर क्या! बीच में समंदर होता था—गहरा और काला…।”
“समंदर!”
“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”
“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”
“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
“ओ…s…आप भी?”
“…और तेरे दादा भी।”
“फिर?”
“फिर, इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
“सारा समंदर!! कैसे?”
“कैसे क्या…s…जवान थे भई, एक
क्या सात समंदर पी सकते थे!”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
अब मुझे भी कहना है कुछ…
प्रेम
शिखा हमेशा प्रज़्जलित रहती है चाहे वह अतीत हो या वर्तमान। भविष्य में भी इसकी
कड़ियाँ जुड़ी रहेगी इसका अहसास जब शिराओं में स्पंदित होता है तो अंग-अंग उजाले से
भर उठता है। और प्रेम… दुगुन वेग से महकने लगता है। तभी तो दादी मुग्धा की तरह
पोती के सामने अपना दिल खोल बैठी- “लंबे
कदम बढ़ाते, करीब भागते-से, हम एक दूसरे
की ओर बढ़ते—बड़ा रोमांच होता था।… बीच में समंदर होता था—गहरा और काला…। …इधर से
मैं समंदर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा
समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
‘समंदर’ शब्द में भी कितना गूढ रहस्य छिपा है। यह समंदर नदियों के विलयन
वाला नील समंदर नहीं, बल्कि प्रेमियों के बीच लहराता गहरा काला दिल । काला दिल !
चौंकाने वाली बात ! इससे पर्दा उठाते हुए दादी की जुबान से ही सुनिए—“चोर रहता था
न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे।”
बहुत
ही खूबसूरती से काले दिल को परिभाषित किया है। अति मर्यादित रूप में युवावस्था के
प्रेम की असीम शक्ति को उजागर करते उसे एक ही वाक्य में सांकेतिक भाषा में पिरो
दिया गया है जब बच्ची ने आश्चर्य से पूछा—“सारा समंदर !! कैसे?”
“जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे।”
इसका
मतलब पूछने पर दादी सुनहरे अतीत की घाटियों में अवश्य प्रेम, प्रणय और समर्पण की स्निग्ध बौछारों में भीग गई होगी। तभी तो उससे केवल
इतना कहते बना—“तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।”
अपने
कथ्य, भाषा, गठन और संप्रेषण की दृष्टि से प्रेमकथाओं में
यह एक श्रेष्ठ लघुकथा है। इसमें निहित गूढ़ संवादों ने इसका कद बहुत ऊँचा कर दिया
है। बलराम जी ने एक-एक शब्द का सावधानी से चयन कर लघुकथा की दीवार पर सुंदरता से
उन्हें टंकित किया है। न कहीं अनर्गल अलाप न अनावश्यक विस्तार। लघुकथा के अंतिम
छोर पर पहुँचते-पहुँचते तो लगा—इर्द-गिर्द प्यार भरी फूल की पत्तियाँ झरझरा कर झर
रही हैं।
सुभाष नीरव
04 फरवरी 2019 को अपनी फेसबुक वॉल पर
मित्र बलराम अग्रवाल का सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह ' तैरती हैं पत्तियाँ '
कल देर रात तक पढ़ता रहा। मैं तो कहीं भी नहीं खड़ा हूं। मैंने तो इसके
पासंग भर भी नहीं लिखा। यार बलराम, मुझे तुमसे ईर्ष्या हो रही है, इस
संग्रह की एक एक लघुकथा तुम्हारी सोच और रचनात्मकता की गवाही तो भर ही रही
है, बल्कि लघुकथा में प्रभाव की अन्विति क्या होती है, ये लघुकथाएं उसका
उदाहरण हैं।
बधाई तुम्हें !
संंध्या तिवारी
अपनी फेसबुक वॉल पर 08-02-2019 को
आदरणीय डॉ बलराम अग्रवाल सर के सौजन्य से मुझे उनका लघुकथा संग्रह 'तैरती हैं पत्तियाँ ' दिनांक 05/02/19 को प्राप्त हुआ, समयाभाव के चलते मैं इसकी कुछ ही लघुकथाएं अभी पढ़ पाई हूँ परंतु 'इन पत्तियों में जीवन है' आदरणीय 'विश्वनाथ त्रिपाठी जी' एवं 'ये पत्तियाँ ' 'डॉ बलराम अग्रवाल जी' के द्वारा लिखे आमुख मैंने सबसे पहले पढ़े। और इन दोनों महानुभावों की बातों से मैं काफी हद तक इत्तेफाक रखती हूँ।
अब बात करते हैं किताब के आवरण की, किताब का पीला आवरण और पीली कत्थई पत्तियाँ यूं तो पतझड़ तथा जर्जरता का एहसास कराती हैं परन्तु रंगो का अपना विज्ञान है और उसमें पीला रंग आशा विश्वास का प्रतीक हैं तथा ये टूटी हवा में तैरती पत्तियाँ मानो - "हवा पे रखे सूखे पत्ते, पांव ज़मी पर रखते ही उड़ लेते हैं दोबारा" वाली बात कहती ज्यादा प्रतीत होती हैं।
बलराम अग्रवाल सर ने अपनी भूमिका में खुद ही कहा है कि उनकी कुछेक लघुकथाएं कहानी के कलेवर में लिपटी हुई हैं और मैं भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ।
- "तैरती हैं पत्तियाँ" लघुकथा संग्रह की अभी मैंने जितनी लघुकथाएं पढ़ीं हैं उन को देखते हुए मैं कहना चाहती हूं कि अभी तक संग्रह की एक भी कथा अभिधात्मक शैली की नहीं मिली। लक्षणा और व्यंजना से पूरित कोमलकांत पदावली सी लघुकथाएं अन्तस्थल में ऐसे धस जातीं हैं जैसे सीमेंटेड दीवार में ड्रिल मशीन।
अभी के लिए बस इतना ही कहना चाहूंगी कि ये कथायें जैसे स्वतःस्फूर्त होकर नया आसमान खोज रही हों लेकिन यह तो समय पर छोड़ना ही पड़ेगा कि कितनी सफलता मिली।
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वरिष्ठ साहित्यकार, पूर्व संपादक 'गगनांचल' और वर्तमान संपादक/प्रकाशक
'समहुत' बड़े भाई अमरेन्द्र मिश्र की नजर में 'तैरती हैं पत्तियाँ' ।
15 मार्च 2019 को अपनी फेसबुक वॉल पर
लघुकथा की कथा
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हिंदी कथा-साहित्य में जब कभी किसी विधा ने आंदोलन का रूप लिया है तो उसने
महज़ महत्वाकांक्षा की पूर्ति और स्वकेंद्रित प्रचार-प्रसार और
आत्ममुग्धता के अलावा रचे जा रहे साहित्य के लिए कोई सार्थक योगदान नहीं
दिया है। हिंदी भाषा स्वयं भी किसी आंदोलन की उपज नहीं है।यह देश-विदेश में
जहां-जहां भी पहुंची है वह आपसी प्यार और सद्भाव के द्वारा ही पहुंची है।
लेकिन हिंदी में लिखने वाले विभिन्न गुटों में बंटकर बेमतलब का
वाद-प्रतिवाद करते रहे जिससे साहित्य का तो कोई भला नहीं हुआ,उनका कुछ भला
हुआ या नहीं यह तो उनका लेखन ही बता सकता है। साहित्य में कथा और लघुकथा का
वर्चस्व बस इतना सा है कि वह हिंदी के पाठकों तक सहज-सुलभ रूप में पहुंचती
रहे और इस तरह सृजन कार्य चलता रहे।यह सहजता स्वाभाविक रूप से सृजेता के
लेखकीय व्यक्तित्व को भी प्रतिबिंबित करे तो रचना और अधिक उम्दा बनती है।
हिंदी कथा-साहित्य में लघुकथा एक विशिष्ट विधा है और यह विधा,सच पूछिए तो
एक कलात्मक शिल्प की मांग करती है।
लघुकथा,जो पाठक को अपने मूल
कथानक से कहीं भटकाये नहीं.. एक छोटी सी कहानी में वह सबकुछ आ जाये जिसे
शुरू में लेकर कथाकार चला था।यह अपने मूल थीम से शुरू होकर एक ऐसे निष्कर्ष
पर छोड़ जाये जो पाठक को अपील करे।इस रूप में लघुकथा लेखन एक कठिन रचना
कर्म है जिसमें रचनात्मक अनुशासन अपरिहार्य होता है। एक समय जब हम प्रेमचंद
शताब्दी वर्ष मना रहे थे,तब एक पत्रिका की तैयारी के सिलसिले में मैंने
अमृत राय जी से एक साक्षात्कार के दौरान पूछा था कि-"आप प्रेमचंद के
रचनाकार के किस रूप को अधिक पसंद करते हैं ?"बिना पलक झपकाये अमृत राय ने
तपाक से जवाब दिया-"मैं प्रेमचंद के कहानीकार रूप को श्रेष्ठ मानता
हूं।छोटी कहानियों के प्रणेता के रूप में प्रेमचंद श्रेष्ठ हैं।"
बलराम अग्रवाल का लघुकथा संग्रह 'तैरती हैं पत्तियां'कुल एक सौ तीन लघु
कथाओं का संग्रह है और इस किताब की सभी लघुकथाएं मैंने देख ली हैं... बलराम
का लेखन पिछले चालीस वर्षों से निरंतर चलता रहा है और परिमार्जित होता रहा
है। उनके सीधे सादे अंतर्मुखी व्यक्तित्व की झलक उनकी कहानियों में भी
स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।उन कहानियों के पात्र भी कुछ वैसे ही होते
हैं... घटनाएं और कथा की अन्विति भी। बलराम लघुकथा के सुपरिचित लेखक हैं
जिसके प्रमाण के लिए किसी 'बडे़ साहित्यकार या आलोचक' की संस्तुति या
प्रशंसा की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि रचनाकार की रचना ही उसे चर्चित-अचर्चित
बनाती है।इस प्रकरण में बलराम की 'उजालों का मालिक', 'इमरान', 'गांव अभी
भी', 'अपने-अपने मुहाने', 'अजंता में एक दिन', 'आदाब', 'समंदर: एक
प्रेमकथा', 'रेगिस्तान', 'अपने-अपने सुकून' जैसी कहानियां ली जा सकती हैं और
ऐसा शायद इसलिए भी है क्योंकि बलराम उन वरिष्ठ लेखक की उस अमूल्य सलाह को
हमेशा याद रखते हैं जिन्होंने एक बार उनसे कहा था-
"साहित्य के क्षेत्र में किसी प्रकार का दावा करने से बचा करो।"
और संभवतः शायद इसलिए भी बलराम अग्रवाल बिलकुल शांत मन से लिखते हुए अपनी
एक ख़ास पहचान बना चुके हैं। और यही कारण है कि उनका रचनाकार किसी
पब्लिसिटी,महत्वाकांक्षा और बड़बोलेपन का शिकार नहीं। इन्हीं कुछ विशेषताओं
की वज़ह से उन्होंने ख़ुद को बचाये रखा है।
'तैरती हैं पत्तियां' शीर्षक से कोई कहानी इस संग्रह में नहीं है। इसका शीर्षक अगर 'तैरती पत्तियां' भी होता तब भी अच्छा ही लगता।
यह संग्रह लघुकथा रचने वाले लेखकों को जरूर पढ़ना चाहिए-खासतौर पर उन
लघुकथाकारों को जो लिखना तो ठीक शुरू करते हैं लेकिन निष्कर्ष पर भटक जाते
हैं !
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'तैरती हैं पत्तियां', बलराम अग्रवाल, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली-32,पृ.160, दिल्ली-32
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