Wednesday, 1 October 2008

जनगाथा अक्टूबर, 2008

हरियाणा का हिंदी लघुकथा-लेखन
डा अशोक भाटिया
सितम्बर, 2008 से आगे का अंश…
हरियाणा-आधारित कथाकारों के लघुकथा-संग्रह
सन 2008 तक हरियाणा के लघुकथाकारों के लगभग 70 लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। लघुकथा के संग्रह प्रकाशन का यह सिलसिला 1963 में प्रतिनिधि साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के लघुकथा-संग्रह जीवन पराग के प्रकाशन से प्रारंभ होता है। इसके पश्चात सन 1966 में सुगनचंद मुक्तेश की 66 लघुकथाओं का संग्रह स्वाति बूँद आया। यद्यपि इसी संग्रह का संशोधित संस्करण सन 1996 में आया, तथापि चौंकाने वाला एक सच यह भी है कि हरियाणा के कथाकारों द्वारा लगातार लिखी जाने के बावजूद भी सन 1967 से 1981 तक यानी 15 वर्षों की लम्बी कालावधि में हरियाणा के कथाकारों का कोई भी एकल या संपादित लघुकथा-संग्रह देखने में नहीं आता है। सन 1966 के बाद सीधे सन 1982 में पूरन मुद्गल का लघुकथा-संग्रह निरंतर इतिहास प्रकाशित हुआ। 1982 में ही रामनिवास मानव व दर्शन दीप के संयुक्त प्रयास के रूप में ताकि सनद रहे प्रकाश में आया जिसमें दोनों कथाकारों की बारह-बारह लघुकथाएँ शामिल थीं; और यहीं से हरियाणा-आधारित कथाकारों के एकल व संपादित लघुकथा-संग्रहों के लगातार प्रकाशित होते रहने का जैसे श्रीगणेश हो जाता है। इसके बाद सन 1983 में विष्णु प्रभाकर का दूसरा लघुकथा-संग्रह आपकी कृपा है तथा सुरेन्द्र वर्मा का लघुकथा-संग्रह दो टाँगोंवाला जानवर प्रकाश में आये। अगले ही वर्ष सन 1984 में कमलेश भारतीय का मस्तराम जिंदाबाद और मधुकांत का तरकश संग्रह प्रकाश में आये। सन 1985 में अनिल शूर आजाद का लघुकथा-संग्रह सरहद के इस ओर प्रकाशित हुआ। सन 1988 में सुरेन्द्र वर्मा का दूसरा लघुकथा-संग्रह आदमी से आदमी तक तथा रामनिवास मानव का घर लौटते कदम छपे। सन 1989 में विष्णु प्रभाकर के तीसरे लघुकथा-संग्रह कौन जीता कौन हारा के अतिरिक्त, प्रेमसिंह बरनालवी का बहुत बड़ा सवाल और सुरेश जांगिड़ उदय का यहीं कहीं प्रकाशित हुए। सन 1990 में अशोक भाटिया का जंगल में आदमी और रूप देवगुण का दूसरा सच लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए, जो खासे चचित रहे । सन 1991 में मधुदीप का हिस्से का दूध व बीजेंद्र कुमार जैमिनी का प्रात:काल; सन 1992 में कमलेश भारतीय का दूसरा लघुकथा-संग्रह इस बार व रूप देवगुण का दूसरा लघुकथा-संग्रह कटा हुआ सूरज प्रकाशित हुए। सन 1993 में हरियाणा के चार कथाकारों के लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आएरामकुमार आत्रेय का इक्कीस जूते, प्रेमसिंह बरनालवी का देवता बीमार है, अनिल शूर आज़ाद का क्रान्ति मर गया तथा दर्शनलाल कपूर का पर्दे के पीछे। इनमें प्रेमसिंह बरनालवी और अनिल शूर आज़ाद के ये दूसरे लघुकथा-संग्रह थे। सन 1994 में विकेश निझावन का दुपट्टा और प्रभुलाल मंढ़इया विकल का तरकश संग्रह प्रकाशित हुए। सन 1995 में हरियाणा के किसी भी कथाकार के किसी लघुकथा-संग्रह के प्रकाशित होने का प्रमाण नहीं मिला; अलबत्ता अगले ही वर्ष सन 1996 में रामनिवास मानव का दूसरा लघुकथा-संग्रह इतिहास गवाह है प्रकाश में आया। सन 1997 में हरियाणा के एक और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज अरोड़ा का तीन न तेरह और सुश्री इंदिरा खुराना का औरत होने का दर्द लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए; जबकि 1998 पुन: जैसे तैयारियों में ही चला गया। परन्तु इसकी खानापूर्ति सन 1999 में आए पूरे 5 लघुकथा-संग्रहों ने कर दी। ये थेरामकुमार आत्रेय का दूसरा संग्रह आँखों वाले अंधे, सत्यवीर मानव का केक्टस की छाँव तले, रोहित यादव का सब चुप हैं, कृष्णलता यादव का अमूल्य धरोहर तथा मधुदीप का मेरी बात तेरी बात। सन 2000 में बंसीराम शर्मा का खेल ही खेल में और रमेश सिद्धार्थ का कालचक्र लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए।
इस प्रकार समकालीन हिंदी लघुकथा के सृजन की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाने वाले सन 1971 से सन 2000 यानी बीसवीं सदी के अवसान-वर्ष के अंत तक हिंदी लघुकथा साहित्य को अकेले हरियाणा ने लगभग 34 लघुकथा-संग्रहों का योगदान किया। प्रसन्नता और संतोष की बात यह है कि हरियाणा के कई कथाकारों ने संख्यापरक-लेखन की बजाय गुणात्मक-लेखन पर लगातार अपना ध्यान केन्द्रित रखा है और वे इसमें सफल भी रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी में भी हरियाणा-आधारित कथाकारों के लघुकथा-संग्रह सन 2001 से ही लगातार प्रकाश में आ रहे हैं और सन 2008 तक ही लगभग 14 लघुकथा-संग्रहों की सूचि हमें प्राप्त होती है। इनके नाम हैं—‘सलीब पर टँगे चेहरे(सुरेन्द्र कुमार अंशुल, 2001), इधर उधर से(बीजेन्द्र कुमार जैमिनी, 2001), अपनी अपनी सोच(संतोष गर्ग, 2001), लुटेरे छोटे छोटे(सत्यप्रकाश भारद्वाज, 2002), ब्लैक बोर्ड(मधुकांत, 2002), रोटी का निशान(सुखचैन सिंह भंडारी, 2002), एक और एकलव्य(मदनलाल वर्मा, 2002), लघुदंश(प्रद्युम्न भल्ला, 2003), यह मत पूछो(रूप देवगुण, 2003), सफेद होता खून(प्रदीप शर्मा स्नेही, 2004), उसी पगडंडी पर पाँव(शील कौशिक, 2004) तथा अपना अपना दुख(शिवनाथ राय, 2004)। संख्यात्मक दृष्टि से सन 2005, 2006 और 2007 के वर्ष अलग से उभरकर आते हैं। 2005 में आस्था के फूल(कमल कपूर), फूल मत तोड़ो(रघुवीर अनाम), प्रसाद(सुरेन्द्र गुप्त), आज का सच(जितेन्द्र सूद), हवा के खिलाफ(सुरेन्द्र कुमार अंशुल), रोशनी की किरचें(सुधा जैन) और बेदर्द माँ(विनोद खनगवाल) यानी कुल 7 संग्रह आए; जबकि 2006 में छोटी-सी बात(रामकुमार आत्रेय), बाज़ार(अरुण कुमार), कानून के फूल(पवन चौधरी मनमौजी), गुलाब के काँटे(अशोक माधव), सुख की साँस(शिवनाथ राय) और मानस गंध(रमेश सिद्धार्थ) सहित कुल 6 संग्रह प्रकाशित हुए। सन 2007 में आओ इंसान बनाएँ(पृथ्वीराज अरोड़ा), अपने देश में(हरनाम शर्मा), शुद्धिपत्र(सुशील शील), भविष्य से साक्षात्कार(इन्दु गुप्ता), नाविक के तीर(श्याम सखा श्याम), गांधारी की पीड़ा(इंदिरा खुराना), चेतना के रंग(कृष्णलता यादव), मेरी प्रिय लघुकथाएँ(सुरेन्द्र कृष्ण), पागल कौन(सुशील डाबर साथी)कुल 9 लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए। सन 2008 में सितम्बर के अंत तक, नींद टूटने के बाद(मधुकांत), किरचें(प्रदीप शर्मा स्नेही), चुप मत रहो(भारत नरेश) तथा दृष्टि(उर्मि कृष्ण) प्रकाश में आ चुके थे।
हरियाणा के सत्यपाल सक्सेना, यश खन्ना नीर, अमृतलाल मदान, महावीर प्रसाद जैन, तरुण जैन, राजकुमार निजात, भगवान प्रियभाषी, तारा पांचाल, कमला चमोला आदि बहुत-से अन्य कथाकार भी लघुकथाएँ लिखते रहे हैं, जिनके एकल लघुकथा-संग्रह अभी तक प्रतीक्षित हैं।
यद्यपि, संख्यात्मक दृष्टि से बहुत-से संग्रहों का आ जाना, किसी साहित्यिक विधा की उपलब्धि नहीं होती; तथापि उपर्युक्त सूचि हरियाणा में लघुकथा-साहित्य के प्रति नवयुवा वर्ग का आकर्षण तो जाहिर करती ही है।
हरियाणा से संपादित प्रमुख लघुकथा-संकलन
लघुकथा-क्षेत्र में लेखन के साथ-साथ हरियाणा राज्य से अखिल भारतीय स्तर पर कुछ ऐसे संकलनों का संपादन भी किया गया, जिन्होंने हिंदी लघुकथा के स्वरूप को निर्धारित करने में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाई
इस क्रम में, सर्वप्रथम, सुशील राजेश द्वारा सन 1981 में संपादित अक्षरों का विद्रोह का नाम लिया जा सकता है। इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता हैरचनाओं का सजगता से चयन और हरियाणा-राज्य के कथाकारों को प्राथमिकता देना। पृथ्वीराज अरोड़ा, महावीर प्रसाद जैन, अशोक जैन, भगवान प्रियभाषी, मधुकांत, अशोक भारती, हरनाम शर्मा, अशोक भाटिया, मधुदीप आदि हरियाणा के अनेक कथाकारों को इस संकलन में प्रमुखता से छापा गया है।
लघुकथा संबंधी अपने शोध-हेतु सामग्री जुटाने के क्रम में शमीम शर्मा द्वारा सन 1982 में लघुकथा-संकलन हस्ताक्षर का संपादन किया गया। अपनी काया में यह संकलनरचना, आलोचना और कोशतीनों आयामों को समेटे हुए है। इसमें जहाँ 194 कथाकारों की लघुकथाएँ संकलित हैं, वहीं डा पुष्पा बंसल व शमीम शर्मा के उपयोगी लेख भी हैं। इसके परिशिष्टों में 620 लघुकथा-लेखकों की सूचि उनकी एक-एक प्रतिनिधि-लघुकथा के उल्लेख के साथ दर्ज है। इसमें 1982 तक प्रकाशित लघुकथा-संग्रहों की सूचि के साथ-साथ 330 ऐसी पत्रिकाओं की सूचि भी है, जिनमें लघुकथाएँ छपती रही हों।
सन 1988 में रूप देवगुण व राजकुमार निजात के संपादन में हरियाणा का लघुकथा-संसार नामक लघुकथा का बहु-आयामी ग्रंथ प्रकाशित हुआ। दस आलेखों, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों, प्रतिनिधि व पुरस्कृत लघुकथाओं से सुसज्जित यह संकलन हरियाणा में लघुकथा-लेखन को शिद्दत से रेखांकित करता अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
वर्ष 1993 में मुकेश शर्मा द्वारा संपादित लघुकथा : रचना और समीक्षा-दृष्टि प्रकाशित हुआ। इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता हैलघुकथा पर विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय, डा कमल किशोर गोयनका व डा हरिश्चंद्र वर्मा जैसे उच्च-स्तरीय लेखकों-आलोचकों से संपादक द्वारा लिया गया साक्षात्कार। रचना-स्तर पर इस संकलन में हरियाणा का प्रतिनिधित्व महावीर प्रसाद जैन, पृथ्वीराज अरोड़ा, कमलेश भारतीय, अशोक भाटिया व मुकेश शर्मा ने किया है।
वर्ष 2005 में अशोक भाटिया द्वारा संपादित निर्वाचित लघुकथाएँ संकलन प्रकाशित हुआ। इसमें सन 1876 से 2003 तक के 110 हिंदी कथाकारों की 150 प्रतिनिधि लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। रचना-चयन का आधार, संपादक के शब्दों में—‘उस(रचना) का विज़न, संघर्ष और विडंबनाओं के उभार की उसकी क्षमता रहा है। पूरे संकलन की रचनाओं को—‘नींव के नायक, झूठी औरत, कोई अकेला नहीं और खुलता बंद घर’—कुल चार उपशीर्षकों में विभक्त रखा गया है।
अन्य प्रमुख लघुकथा-संकलनों में—‘कितनी आवाज़ें(सं विकेश निझावन व हीरालाल नागर, 1982), पड़ाव और पड़ताल(सं मधुदीप, 1988), पेंसठ हिंदी लघुकथाएँ(सं अशोक भाटिया, 2001) को गिनाया जा सकता है।
(शेष आगामी अंक में)………
लघुकथाएँ
जेबकतरा
ज्ञानप्रकाश विवेक
बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था किमेरी नौकरी छूट गई है; अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था।
नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।
कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।…लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था—“बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!…पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।
मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा?
कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थींआड़ी-तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है। फिकर न करना।…माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे?…तुम्हाराजेबकतरा!
हाथ वाले
महावीर प्रसाद जैन
शो शुरू होने में अभी देर है; और इस तरह के खाली समय का उपयोग भी वह सार्थक ढंग से करता है यानीफुटपाथ पर बिखरी किताबों के ढेरों को देखना-टटोलना। उसका अनुभव है कि इन फुटपाथी ढेरों में कभी-कभार बड़ी उम्दा किस्म की किताबें हाथ लग जाती हैं। उसके कदम उस परिचित दुकान पर जाकर रुक गए। यह बहुत पुरानी फुटपाथी दुकान है…और इसके मालिक के दोनों हाथ कटे हुए हैं।
दुकानदार उसे देखकर हल्के-से मुसकराया और उसने एक तरफ इशारा किया, जिसका मतलब था कि इस ढेर से आपको कुछ न कुछ मिल जाएगा। वह किताबें देखने लगा। तभी उसकी बगल में एक युवक आकर खड़ा हो गया। उसने उसे एक नजर देखा। वह युवक किताबें छाँटने में लग गया। कुछ देर बाद उसकी नजरें फिर उस युवक की ओर उठीं, और उसने देखा कि एक किताब को बगल में दबाए वह अभी-भी किताबों को उलट-पलट रहा था।
दुकानदार अन्य ग्राहकों को निपटाने में लगा हुआ था कि वह युवक चल दिया। उसने देखाउसकी बगल में पुस्तक दबी है। बिन पैसे दिये…यानी…ऐसे ही…चोरी? और उसके मुँह से निकल पड़ा—“वह तुम्हारी किताब ले गया है…बिना पैसे दिये…! उसने जाते युवक की ओर इशारा भी किया।
मुझे मालूम है भैयाजी…!
यार, बड़े अहमक हो!…जब मालूम है, तो रोका क्यों नहीं?
कुछ देर वह चुप रहा और फिर उसके सवाल का जवाब देते हुए बोला,हाथ वाले ही तो चोरी कर सकते हैं भैयाजी!
हिस्से का दूध
मधुदीप
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब जाकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
सो गया मुन्ना?
जी,…लो, दूध पी लो। सिल्वर(एल्यूमीनियम) का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो… वह गिलास को माप रहा था।
मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी। वह आश्वस्त थी।
पगली, बीड़ी के ऊपर दूध नहीं पीते। तू पी ले। उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी, बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों में टकराया।
उसकी आँखें खूँटी पर टँगे कुर्ते की खाली जेब में घुस गईं।
सुनो, जरा चाय रख देना। पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
बू
रामकुमार आत्रेय
एक बात पूछूँ? युवक ने युवती से पूछा।
पूछो। युवती ने उत्तर दिया।
बुरा मत मानना।
नहीं।
तुम मुझसे प्यार करती हो न?
हाँ, करती हूँ। मगर, यही प्रश्न न जाने कितनी बार तुम मुझसे पूछ चुके हो। क्या तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं होता?
होता तो है, पर…
पर क्या? साफ-साफ कहो न।
तुमने आज तक, कभी मुझे प्यार से राजा नहीं कहा। यही बात मुझे परेशान करती है।
राजा! मैं समझी नहीं? युवती ने जानना चाहा।
हाँ-हाँ, राजा। जैसे हर लड़की अपने प्रेमी को मेरे राजा कहकर बुलाया करती है। युवक भावुक हो उठा था।
क्या तुम्हारे पूर्वज किसी रियासत की राजगद्दी के मालिक थे,जिनसे उत्तराधिकार के रूप में वहाँ की गद्दी तुम्हें मिल गई हो? युवती की भौहें कमान का रूप धारण कर चुकी थीं। उसके स्वर में व्यंग्य था।
नहीं तो; लेकिन, तुम्हारे दिल की रियासत का राजा तो हूँ ही न। मैंने तुम्हें कभी भी रानी से कम नहीं माना। समझी?
समझ गई। आज सब-कुछ समझ गई। मुझे तुम्हारे पास आते ही, एक विशेष प्रकार की बू आने लगती थी; लेकिन वह बू किस चीज की है, समझ नहीं पा रही थी। अब मालूम हुआ कि बू तुम्हारे भीतर बैठे निरंकुश स्वामित्व के विचार की है!
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम क्या कह रही हो? अबकी बार युवक उलझन में था।
सुनो, पुरुष आज भी उसी सामन्ती-युग में जी रहा है, जहाँ वह हर वस्तु पर अपना एकमात्र अधिकार समझता था। औरत भी उसके लिए एक वस्तु-मात्र होती थी। इसलिए प्यार के मामले में वह अपने आपको राजा कहलाना पसंद करता था। औरत को रानी कहकर लूटता रहता था। मैं तुम्हें ऐसे पुरुषों से भिन्न समझती थी, लेकिन मेरे लिए न तो कोई राजा है, और न ही मैं किसी की रानी हूँ। सभी बूओं में यदि कोई खतरनाक है, तो वह हैसब-कुछ पर स्वामित्व पा लेने की बू।… मैं तो इस बू को कभी सहन नहीं कर सकती।
युवक हतप्रभ-सा वहीं बैठ गया। युवती अपने घर लौट चुकी थी।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
अशोक भाटिया
उसके पिता ने उसे पढ़ाया नहीं था।
उसने सोचामैं अपने बच्चों को जरूर पढ़ाऊँगा।
उसने अपने बच्चे को स्कूल में प्रवेश दिलाया।
एक दिन बच्चे ने किताबों की माँग की।
दूसरे दिन बच्चे ने स्कूल-ड्रेस की माँग की।
तीसरे दिन बच्चे ने फीस की माँग की।
वे फसल की कटाई के दिन थे। पिता ने कहाबेटा, फसल मंडी में बिकेगी, तभी मजूरी मिल पायेगी।
मजबूर बेटा पिता का हाथ बँटाने लगा।
एक दिन पाठ याद न होने पर बच्चे को सज़ा मिली।
दूसरे दिन स्कूल-ड्रेस न होने पर बच्चे को घर भेज दिया गया।
तीसरे दिन फीस न भरने पर उसका नाम काट दिया गया।
वह बच्चा फिर कभी स्कूल नहीं गया।
जब वह बड़ा हुआ, तो उसने सोचामैं अपने बच्चों को जरूर पढ़ाऊँगा।
डर
अशोक जैन
वह कभी काफी सालिड रहा है, किन्तु अब?
दिल्ली महानगर:
भीड़-भरे इलाके के चौराहे पर जब तीन ओर से आ रही बसों से कुचले जाने का उसका प्रयास असफल रहा, तो वह बौखला उठा। उसने मौत को एक भद्दी-सी गाली दी थीहरामजादी! जिसे जरूरत है, उसके पास फटकती नहीं; और जो इसके साये से दूर-दूर रहता है, उसे खट-से दबोच लेती है।
अगले रोज़:
अखबार में, शहर में चल रही सर्कस का विज्ञापन पढ़कर उसे लगा कि अब वह मर सकेगा। विज्ञापन थामौत के कुएँ में मोटर-साइकिल चलाने के लिए ट्रेनीज़ की आवश्यकता है।
…आज वह एक सिद्धहस्त चालक माना जाने लगा है। कई कम्पनियों ने उसे पुरस्कृत भी किया है। वह अब मरना नहीं चाहता। मौत उसकी दहलीज़ पर डेरा डाले बैठी है।
वह डरा-डरा-सा रहने लगा है।
कराहटें
विकेश निझावन
बूढ़ी सास बार-बार कराह रही थी—“अरे, कोई है…एक गिलास पानी ही दे दो…।
सास की आवाज़ को अनसुना कर बहू ने बेटे को पढ़ाना शुरू कर दिया—“टू वन्ज़ आर टू, टू टूज़ आर फ़ोर…।
सास के कराहने की आवाज़ पुन: आई तो बहू ने अपना स्वर और ऊँचा कर लिया—“टू वन्ज़ आर टू, टू टूज़ आर फ़ोर!
बार-बार दादी की कराहटें सुन पोता बोल उठा,मम्मी, दादी…!
तो तुम्हारा ध्यान टेबल्ज़ की तरफ़ है ही नहीं! अगर इस बार तेरे नाइन्टी परसेंट नम्बर न आए तो देख…मैं तेरी जान ले लूँगी। कहते हुए मम्मी ने कसकर उसका कान मरोड़ा।
पोते की चीख सुनकर दादी ने कराहना बंद कर दिया था।