[डॉ॰ रामकुमार घोटड़ द्वारा संपादित पुस्तक 'गुलाम भारत की लघुकथाएँ' की समीक्षा]
चित्र : के॰ रवीन्द्र |
डॉ॰
रामकुमार घोटड़ हिन्दी व राजस्थानी भाषा की लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर हैं। अभी तक
उनके 7 एकल लघुकथा संग्रह हिन्दी में, 2 राजस्थानी में, 10 संपादित लघुकथा आलोचना व
रचना के संकलन, 2 कहानी संग्रह, व्यंग्य संग्रह आदि बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं। मुख्यत: लघुकथा संपादन के क्षेत्र में उन्होंने काफी काम किया है जिसमें ‘दलित
समाज की लघुकथाएँ’ (2008); ‘भारतीय हिन्दी लघुकथाएँ’ (2010); ‘देश-विदेश की लघुकथाएँ’
(2010); ‘भारत का हिन्दी लघुकथा संसार’ (2011) आदि प्रमुख हैं। उनके द्वारा संपादित
‘गुलाम भारत की लघुकथाएँ’ में 53 पूर्ववर्ती कथाकारों की 73 लघुकथाएँ संकलित हैं। इस
पुस्तक को तैयार करते समय उन्हें जिनका सहयोग मिला उन अपने 23 लघुकथाकार साथियों के
नाम उन्होंने ‘गुलाम भारत की लघुकथाओं का सफरनामा’ शीर्षक अपनी भूमिका के अंत में लिखे
हैं। मुझ अकिंचन का नाम भी उनमें से एक है, इसके लिए मैं उनकी सदाशयता का आभारी हूँ;
लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा कि इस बारे में मैंने उनकी कोई मदद की होगी या उन्होंने
मुझसे कभी इसकी चर्चा भी की होगी।
लघुकथा
पर शोध सम्बन्धी संदर्भ-पुस्तक के तौर पर यह एक महत्वपूर्ण कृति बाज़ार में आई है; लेकिन
इसका नामकरण जिन पलों में हुआ, वे पल निश्चित ही अशुभ थे। डाक द्वारा मिले पैकेट को
खोलने के बाद पुस्तक का नाम पढ़ते ही मुझे अपनी औक़ात पता लगने जैसा आभास हुआ। लगा कि
किसी ने ऐसी गाली दे दी है, यथार्थत: सच होते हुए भी जिसे सुनने के हम अभ्यस्त नहीं
हैं और जिसका वाचन सभ्य समाज में नहीं किया जाता है। डॉ॰ घोटड़ को भी यह शब्द चुभा जरूर
होगा और इसका प्रयोग करते हुए वे आशंकित रहे होंगे कि इसके प्रयोग पर उन्हें विरोध
का सामना करना पड़ सकता है। आशंकित न रहे होते तो वे इसकी सफाई में न उतरते। अपनी स्थिति
स्पष्ट करते हुए डॉ॰ घोटड़ लिखते हैं—“पुस्तक का शीर्षक ‘गुलाम भारत की लघुकथाएँ’ में
‘गुलाम’ शब्द का उपयोग मैंने सकारात्मक मानसिकता से किया है। स्वतन्त्रता-पूर्व भारत,
पराधीन भारत, इसके पर्याय शब्द हैं। लेकिन ‘गुलाम’ शब्द सहज सुलभ होने के कारण शीर्षक
के साथ ले लिया। इससे पूर्व 2012 में मैंने ‘आज़ाद भारत की लघुकथाएँ’ शीर्षक से पुस्तक
प्रकाशित की है। अत: इस श्रृंखला को पूर्ण करने के लिए यह शीर्षक देना निहायत ज़रूरी
हो गया और मैं विद्वान साथियों से आशा करता हूँ कि इसे धनात्मक नजरिये से लेंगे।”
मुझे
लगता है कि ‘आज़ाद भारत की लघुकथाएँ’ शीर्षक से संपादित अपनी पुस्तक के नाम में ‘आज़ाद’
का विलोम उन्हें ‘गुलाम’ ही समझ आया और इसी को उन्हें चुनना पड़ा। उन्होंने लिखा है
कि ‘गुलाम शब्द सहज सुलभ है’। ‘सहज सुलभ’ से उनका तात्पर्य संभवत: सामान्यत: प्रचलित
होने से है; क्योंकि ‘सहज’ के अर्थ और तात्पर्य को जानना उनके लिए अभी बाकी है; और
सभी सुलभ शब्द अपनाने योग्य नहीं होते हैं। डॉ॰ घोटड़ स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ
हैं। वे राजस्थान के जिस इलाके में कार्यरत हैं, वहाँ उनका वास्ता मैं समझता हूँ कि
लगभग अनपढ़ स्त्रियों या उनके अनपढ़/अधपढ़ पतियों-बेटों-भाइयों से ही अधिक पड़ता होगा।
सभी तो ‘वैजाइना’ शब्द से परिचित नहीं रहते होंगे। इसके लिए हिन्दी के किसी शुद्ध शब्द
से भी वे शायद अपरिचित ही रहते हों। ऐसी हालत में डॉ॰ घोटड़ क्या उन्हें ‘वैजाइना’ के
लिए ‘सहज सुलभ’ शब्द के माध्यम से अपनी बातें समझाते हैं? क्या वे नहीं जानते कि प्रत्येक
शब्द का अपना चरित्र, मर्यादा और गरिमा होती है। ‘माँ’ को बाप की लुगाई या ‘पिता’ को
माँ का खसम संबोधित करना किस सभ्यता या मानसिक-चारित्रिक गिरावट का सूचक है, क्या यह
भी बताना पड़ेगा? 1857 के विद्रोह को अंग्रेज और उनके हिन्दुस्तानी पिट्ठू आज तक भी
‘म्यूटिनी’ यानी राजद्रोह कहते, प्रचारित करते हैं, वे उसे ‘ग़दर’ भी कहते हैं; लेकिन
हमने उसे हमेशा ही स्वाधीनता का पहला संग्राम माना और कहा है। यह अन्तर मानसिकता का
तो है ही, शब्द के गतिशील चरित्र तथा उसकी गरिमा से अपरिचय और दूरी का भी है। काफी
पहले डॉ॰ घोटड़ का एक प्रपत्र मिला था जिसमें उन्होंने समकालीन हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ
लेखकों को ‘तीसमार खाँ’ शीर्षक से पुस्तक रूप में संकलित करने की योजना का जिक्र किया
था। तब मैंने फोन करके उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि भाई, ‘तीसमार खाँ’ एक नकारात्मक
नाम है। तब उन्होंने उसी की टक्कर एक दूसरा नाम सुझाया था--संभवत: 'अत्ते खां'। मैंने माथा पीट लिया।
समझ गया कि डॉ॰ घोटड़ मन के साफ व्यक्ति हैं और अपने द्वारा संपादित संकलनों में मित्रभाव
से सभी को शामिल करते रहना चाहते हैं; लेकिन वे साहित्य के अध्येता नहीं हैं। कौन-सा
शब्द कब, कहाँ कितना स्फोटक होता है, वे नहीं जानते। कौन-सा शब्द कब गाली बन जाता है,
कब आक्षेप, कब व्यंग्य, कब सांत्वना और कब लोहा—इसका अध्ययन वे नहीं करना चाहते। असलियत
यह है कि बहुत-से शब्दों के सही अर्थ से भी वे परिचित नहीं हैं। वे बस महत्वाकांक्षी
हैं। ऐसा ही आभास मुझे दिल्ली में लोकार्पित उनके एक संकलन का नाम ‘अपठित लघुकथाएँ’
देखकर भी हुआ था। वह हमारी पहली मुलाकात थी। लेकिन तब से अब तक काफी लघुकथा संग्रह,
संकलन और आलोचना पुस्तकें आ चुकी हैं। उन्हें विचार करना चाहिए था कि डॉ॰ अशोक भाटिया
द्वारा संपादित ‘नींव के नायक’ का नाम ‘गुलाम भारत के लघुकथाकार’ क्यों नहीं हो सकता
था।
‘गुलाम
भारत की लघुकथाएँ’ की सभी लघुकथाएँ पढ़ जाने के बाद मैं यही सोच रहा हूँ कि वह कैसी
गुलामी थी जिसमें जीते हुए भारतेंदु हरिश्चन्द्र, माधवराव सप्रे या प्रेमचंद सरीखे
एकाध अन्य कथाकार के सिवा किसी के भी स्वर में गुलाम होने की पीड़ा नजर नहीं आती है!
वे दार्शिनकता ही बघारते क्यों नजर आते हैं? अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह का दबा-ढका
भारतेंदु-जैसा स्वर भी किसी के पास क्यों नहीं है? इन सभी साहित्यिकों की रचनाओं के
आधार पर क्या यही सोचा जाय कि जीवन का यथार्थ साहित्य के यथार्थ से भिन्न होता है;
या समाज में गुलामी की पीड़ा को उन साहित्यिकों ने अपने-अपने दार्शनिक और भावपूर्ण विचारों
के जरिए शांत रखने का यत्न किया था! या साहित्य सृजन एक अलग तरह की विलासिता है और
देश की आज़ादी के लिए लड़ना अलग तरह की!! ‘जब
महाप्राण बापू देश के दौरे पर निकले और मैं चन्दे को चला अपनी जन्मभूमि में…’ कहकर
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर अपने-आप को स्वाधीनता-संग्राम का सक्रिय कार्यकर्ता प्रतिष्ठित
करने का ही यत्न करते अधिक प्रतीत होते हैं। अपनी रचनाओं में वे स्वाधीनता के लिए लड़ते
नहीं दिखाई देते। डॉ॰ घोटड़ को इन बिन्दुओं पर भी अपने संपादकीय में दो-चार लाइनें अवश्य
लिखनी चाहिए थी। इन बिन्दुओं पर अन्य आलोचकों को भी अपने विचार अवश्य प्रकट करने चाहिए।
इस दृष्टि से लघुकथा का विवेचन करने के लिए पहले अकेली ‘नींव के नायक’ हमारे पास थी;
अब यह पुस्तक भी उपलब्ध है।
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पुस्तक
: गुलाम भारत की लघुकथाएँ; संपादक : डॉ॰ रामकुमार घोटड़; प्रकाशक : सजना
प्रकाशन, 83, शिव कॉलोनी, राजगढ़ रोड, पिलानी-333031 (राज॰); संस्करण : 2014;
मूल्य : रु॰ 250/-
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समीक्षक संपर्क
: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032