पिछले कई वर्षों में लघुकथा विधा ने हिंदी साहित्य परिदृश्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। टू मिनट्स नूडल्स, इंस्टेंट कॉफी, इंस्टेंट लव की दुनिया में त्वरित संवेग एवं अभिव्यक्ति ही हमारे समय की आवश्यकता बन गए प्रतीत होते हैं । लघुकथा का 'चलन 'इतना अधिक हो गया है कि लघु कथा द्वारा कहानी एवं उपन्यास को अपदस्थ करने के अतिरंजित दावे भी किए जाने लगे हैं। इस विधा का भविष्य तो अभी समय के गर्भ में है किंतु समकालीन गद्य परिदृश्य में इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। सृजन के साथ ही समकालीन आलोचना में भी लघुकथा के मापदंडों एवं मानकों की चिंता एवं चर्चा पर फोकस आया है। ऐसे में अशोक भाटिया की यह विहंगावलोकनात्मक कृति एक स्वागतयोग्य प्रकाशन है।
उद्भावना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 48 पृष्ठों की इस पुस्तिका में लघुकथा में दर्ज प्रतिरोध के विविध राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आयामों का संक्षिप्त में अध्ययन प्रस्तुत है। कृति की प्रस्तावना एवं प्रथम प्रभाग लघु कथा की पृष्ठभूमि-विषयक ज़रूरी जानकारी उपलब्ध कराते हैं। भूमिका में अशोक भाटिया ने चित्रा मुद्गल, रमेश बतरा, भगीरथ, असगर वजाहत, उदय प्रकाश, बलराम, जगदीश कश्यप, अवधेश कुमार, चैतन्य त्रिवेदी, रविंदर वर्मा, मुकेश वर्मा, हरभगवान चावला द्वारा इस विधा को दिये योगदान का ज़िक्र किया है । अध्ययन में लेखक ने स्थापित कथाकारों के साथ नए कथाकारों को भी सम्मिलित किया है। हरभगवान चावला, बलराम, ज्ञानप्रकाश विवेक, कमल कपूर ,वीरेंद्र भाटिया ,बलराम अग्रवाल, महेश दर्पण, सतीश दुबे,अशोक भाटिया ,रमेश बतरा, अंजु दुआ जैमिनी, सुभाष नीरव, हरनाम शर्मा, शमीम शर्मा के अतिरिक्त कमल चोपड़ा, जोगिंदर पाल, कांता राय, कृष्ण भगत, सविता मिश्रा, शुभा रस्तोगी, अशोक लव, आशुतोष, पूरन सिंह, अरुण कुमार, संध्या तिवारी, राजकुमार निगत, जोगिंदर पाल, विजय अग्रवाल, सूरजपाल चौहान, पृथ्वीराज अरोड़ा, अंतरा करवड़े, जगदीश साहनी, जसबीर चावला, सीमा जैन, इंदु गुप्ता एवं अन्य कथाकारों की लघुकथाओं की चर्चा की गई है।
वर्तमान हिंदी आलोचना परिदृश्य एवं यह कृति-
1. आजकल अधिकतर आलोचक या तो आत्मकथा से पीड़ित नजर आते हैं अथवा किसी विशेष विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध जिससे आलोचना एवं साहित्य की बड़ी हानि हुई है।
2. एक अन्य चिंताजनक प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है कि आलोचना के केंद्र में कृति या कृतिकार ना होकर स्वयं आलोचक आ जाता है। 'क्रिएटिव क्रिटिसिज्म' के नाम पर वह अपने विचार / विचारधारा थोपता चलता है और अंत तक पाठक कृति कृतिकार से अधिक आलोचक की दर्शन एवं दृष्टि से परिचित होता है।
3. हिंदी आलोचना की प्रवृत्ति में verbose एवं repetitive होना सम्मिलित है जहां आलोचक एक छोटे से तथ्य और बात को अनेक प्रकार से घुमावदार ढंग से पुनः पुनः आख्यायित करते हैं जिससे पुस्तक का कलेवर अनावश्यक रूप से बढ़ जाता है-पर कई बार कुछ ठोस बहुत कम निकल पाता है।
इस पृष्ठभूमि में अशोक भाटिया की आलोचना-शैली एक सराहनीय प्रयास बनकर समक्ष आती है-गागर में सागर का सुखद अनुभव देती है जहां सटीक, टू द प्वाइंट बात की गई है और लेखक अनावश्यक विस्तार से बचा है। अकादमिक एवं शोधपरक दृष्टिकोण से यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय कृति है । इसकी सीमा इसका लघु आकार है ।अशोक भाटिया इसे विस्तृत फलक देकर एक पूर्ण आलोचना ग्रंथ में परिणत करेंगे-ऐसी कामना है।