Saturday, 20 March 2010

पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ


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करनाल से भाई अशोक भाटिया ने बातचीत के दौरान सूचना दी थी कि श्रीयुत पृथ्वीराज अरोड़ा के मस्तिष्क के किसी हिस्से में फ्लूड्स के रिसाव की वजह से उनके दायें अंगों पर आंशिक पक्षाघात का आक्रमण हुआ था और 18 मार्च को उनका ऑप्रेशन भी करना पड़ा। आज 20 मार्च को आदरणीया भाभीजी से बात करके पता चला कि हॉस्पिटल से रिलीव होकर वे आज ही घर पहुँचे हैं और डॉक्टर ने अधिक बात करने के लिए मना किया है। फिर भी, अरोड़ा जी ने शायद जिद करके मोबाइल उनसे माँगा और मुझसे बात की। मुझे अच्छा लगा कि वे इस सब के बावजूद भी दिलेर रवैया अपनाये हुए हैं। उनके शीघ्र स्वस्थ होने शुभकामनाओं के साथ इस माह भी प्रस्तुत हैं उनकी तीन लघुकथाएँ



शिकार
काश बादलों से ढँका था। पहले टुपुर-टापर बूँदें गिर रही थीं, फिर उन्होंने विकराल रूप ले लिया था। ऐसे में स्ट्रीट लाइटें धुँधली-धुँधली रोशनी दे रही थीं। चोरी के लिए सही समय समझते हुए दोनों पॉलिथीन की बरसातियाँ सिर पर ओढ़े खोलियों से निकल पड़े।
पहला चौकस था,तूने सभी औजार ले लिए हैं न ?
दूसरा आश्वस्त था,हाँ, और तुमने?
पहला भी आश्वस्त लगा,मैंने भी।
थोड़ी दूर चलने के बाद दूसरा रुक गया।
पहले ने पूछा,रुक क्यों गये?
मन में उठ रहे बवंडर को उसने उगल दिया,मन नहीं मानता।
पहले को उपहास सूझा,डर गए क्या?
डर! कभी डरा हूँ मैं ? उसने अपने अंदाज़ में उत्तर दिया।
पहला चौंका,फिर!
दूसरा आहत-सा बोला,हमारा शिकार हमेशा गरीब या कम पैसे वाला ही रहा है। कहीं न कहीं हम अमीर आदमी पर हाथ डालते डरते नहीं हैं क्या?
यह कड़वा सच पहले को गंभीर बना गया,हाँ, तुम सही कह रहे हो।
अचानक दूसरा बोला,तो लौट चलें?
हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ। हमें किसी मोटी मुर्गी पर हाथ डालना चाहिए। चलो, सोचते हैं।
सचमुच दोनों लौट पड़े
-->हाथों में हाथ डाले।

प्रश्न
ब उनके अति गोपनीय सेलफोन की घंटी घनघनायी तो वे तत्काल उस विवाहोत्सव के गहमागहमी-भरे माहौल को छोड़ एक एकांत कोने की ओर लपके—“यस सर!
उधर से स्वर था,पांडे, तुम फौरन अपने घर से होते हुए मेरे पास पहुँचो।
यस सर।
वह जानते हैं कि डी आई जी ऐसे आदेश उस समय ही देते हैं जब मामला अत्यन्त गंभीर हो। बिना वक्त गँवाए अपनी ओर देख रहे सिपाही को संकेत से बुलाया और कहा,तुम मेम साहिबा को ढूँढकर बता दो कि साहिब किसी जरूरी काम के लिए चले गए हैं। सिपाही सल्यूट मारकर मेम-साहिबा को संदेश देने के लिए आगे बढ़ गया।
वह बाहर निकले। उन्हें देखते ही ड्राईवर गाड़ी लेकर उनके समीप आ गया। गाड़ी चलते ही उनके पीछे-पीछे पुलिस-वैन भी चल पड़ी। कोठी पर पहुँचते ही उन्होंने देखा किपुलिस से घिरा, हथकड़ियों से जकड़ा उनका घरेलू नौकर सिर झुकाए जमीण पर बैठा था।
एस एच ओ भागकर उनकी गाड़ी के समीप आया। उनके गाड़ी से बाहर निकलते ही सल्यूट मारकर उनके कान में कुछ फुसफुसाया। और फिर, एक कागज पर हस्ताक्षर करवा, नौकर को गाड़ी में बैठा चला गया।
कपड़े बदलते हुए उनका ध्यान बार-बार विश्वसनीय नौकर को लेकर उचट जाता था। यह कैसे संभव है कि एक एस पी के घरेलू नौकर के तार उग्रवादियों के साथ जुड़े हों? सद्भावनापूरित उनकी आशंका बार-बार बलवती हो उठती किकहीं वह अपनी गरीबी से इतना त्रस्त तो नहीं था कि किसी बड़े प्रलोभन में आकर कुछ-भी करने को तैयार हो गया हो?
गाड़ी में बैठते हुए वे लगातार यह सोच रहे थे किवे डी आई जी को यह दलील कैसे दे पाएँगे…कैसे?

बुनियाद
से दुख हुआ कि पढ़ी-लिखी, समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहाक्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
जब उसका बेटा कार्यालय के लिए चला गया और पत्नी स्नान करने के लिए, तब उपयुक्त समय समझते हुए उसने पुत्रवधू को बुलाया।
वह आई,जी, पापा!
उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया। वह बैठ गई। उसने कहा,तुमसे एक बात पूछनी थी।
पूछिए पापा।
झिझकना नहीं।
पहले कभी झिझकी हूँ! आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।
थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मैंने तो अभी नाश्ता करना है! तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही? उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
उसका झूठ पकड़ा गया है, उसने अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली,पापा, हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माँएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े इसलिए हमें ऐसी ही सीख देती हैं। वह थोड़ा रुकी। भूत को दोहराया,भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक्त पर न हो पाया हो तो झूठ का सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक्त हो गया था। ये नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवाने की वजह से देर हो जाने की बात कह डाली। आपका जिक्र आते ही ये चुप हो गये। उसने विराम लिया। फिर निगाह उठाकर ससुर को देखा और कहा,सुबह-सुबह कलह होने से बच गई।…और मैं क्या करती पापा?
ससुर मुस्कुराए। उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले,अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।
वह भी किंचित मुस्कराई,आभी लायी।
पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ साँस ली।


पृथ्वीराज अरोड़ा: संक्षिप्त परिचय

जन्म: 10 अक्टूबर, 1939 को बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान में)

प्रकाशित कृतियाँ:तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह), प्यासे पंछी(उपन्यास), पूजा(कहानी संग्रह), आओ इंसान बनाएँ(कहानी संग्रह)

सम्पर्क:द्वारा डॉ सीमा दुआ, 854-3, शहीद विक्रम मार्ग, सुभाष कॉलोनी, करनाल-132001 (हरियाणा)

मोबाइल नं:09255921912