दोस्तो, 2011 अपना दायित्व निभाकर जा रहा है और 2012 का सूर्य नयी लालिमा से जगत को चमकाने के लिए आने को है। आइए, नवागत का खुले हृदय से स्वागत करें।
अनूशहर(जिला:बुलन्दशहर) की एक शाम चित्र:बलराम अग्रवाल
सन् 2002 में अपनी-अपनी सोच (संतोष गर्ग), अपने आसपास(मनु स्वामी), एक और एकलव्य (मदन लाल वर्मा), कागज़ के रिश्ते(राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’), कीलें (कालीचरण प्रेमी), गुस्ताखी माफ(सुदर्शन भाटिया), घोषणापत्र (जीवितराम सेतपाल), छँटता कोहरा(डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र), जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई (युगल), पश्चाताप की आग(सुदर्शन भाटिया), बदले हुए शब्द (भारती खुबालकर), ब्लैकबोर्ड (मधुकांत), मीमांसा (मथुरानाथ सिंह ‘रानीपुरी’), मेरा शहर और ये दंगे(डॉ॰ शैल रस्तौगी),यथार्थ के साये में (आलोक भारती), यह भी सच है(डॉ॰ शैल रस्तौगी), रोटी का निशान (सुखचैन सिंह भंडारी), लुटेरे छोटे-छोटे(सत्यप्रकाश भारद्वाज), शब्द साक्षी हैं (सतीश राठी), सरोवर में थिरकता सागर (वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज), सॉरी सर!(सुदर्शन भाटिया), सुरंगनी(कृष्णा भटनागर), स्याह सच(हृषीकेश पाठक), हजारों-हजार बीज (भगवान दास वैद्य ‘प्रखर’)कुल 25 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से जितने भी संग्रह मेरे पास उपलब्ध हैं उनमें से प्रस्तुत है एक-एक लघुकथा—
चिड़िया/सतीश राठी
उड़ती हुई चिड़िया सेठ करोड़ीमल की खिड़की पर जा बैठी और चहकने लगी। हिसाब-किताब कर रहे सेठ जी को उसका चहकना अपने काम में बाधक लगा। सेठ ने उठकर चिड़िया को उड़ा दिया और खिड़की बंद कर दी।
चिड़िया उड़कर एक कवि के दरवाज़े पर जा बैठी। कवि अपनी कविता रचने के रचनाक्रम में इतना तल्लीन था कि चिड़िया की चहकती हुई दस्तक उसकी तल्लीनता को भंग नहीं कर पाई।
तब चिड़िया उड़कर चित्रकार के कला-कक्ष में जा पहुँची। चित्रकार अपने मन की सारी कुंठाओं को केनवास पर अंकित कर रहा था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि चहकती चिड़िया को केनवास के किस कोने पर अंकित करे।
निराश चिड़िया उड़ती हुई एक नेता जी के दरबार में जा पहुँची। नेता जी ने चिड़िया को देखा तो उनकी बाँछें खिल गईं। जेब में हाथ डालकर उन्होंने चुग्गा निकाला और चिड़िया के आगे डाल दिया। चहकती हुई चिड़िया जैसे-ही नेता जी के पास पहुँची, उन्होंने उसे झपट्टा मारकर पकड़ लिया और चिड़िया की गरदन मरोड़ दी।
खानसामे ने उस दिन नेता जी के लिए अव्वल दर्जे का शोरबा बनाया।
दोस्तो, डॉ॰ रामकुमार घोटड़ के संपादन में वर्ष 2011 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है—‘भारत का हिन्दी लघुकथा संसार’। इसके बारे में ‘जनगाथा’ के जनवरी 2011 अंक में परिचयात्मक टिप्पणी लिखी जा चुकी है। इस पुस्तक के पृष्ठ 160 पर डॉ॰ रामकुमार घोटड़ का एक ब्यौरापरक लेख है—‘भारतीय हिन्दी लघुकथा साहित्य में शोध कार्य’। इसे मैं ‘ब्यौरा’ कह रहा हूँ क्योंकि इसमें दर्ज सूचनाओं के पीछे मुझे डॉ॰ घोटड़ की ‘हिन्दी लघुकथा के लिए कुछ करने की आकांक्षा’ तो नजर आती है, शोधवृत्ति नहीं। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में पी-एच॰ डी॰ की उपाधि हेतु नामांकित अथवा पी-एच॰ डी॰ उपाधि से सम्मानित ऐसे सभी विषयों को जिनमें ‘लघुकथा’ शब्द का प्रयोग हुआ है, सूचीबद्ध करके उन्होंने नि:संदेह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है, परंतु यह शोधपरक नहीं है।
मैं स्वयं पी-एच॰ डी॰ उपाधि हेतु शोधार्थी रहा हूँ। नामांकन से पूर्व मुझे भ्रम था कि मैं ‘शोध’ करूँगा लेकिन वह मैं कर नहीं पाया। मैंने भी ब्यौरे ही इकट्ठे किए और ‘शोध’ के नाम पर उन्हें विश्वविद्यालय में जमा करा दिया। नामांकन कराए बिना मैं शायद बेहतर कार्य कर सकता था। मेरे शोध-निदेशक ने, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय के लिपिकों ने, महाविद्यालय के प्रधानाचार्य ने, हिन्दी प्रवक्ताओं ने, यहाँ तक कि चपरासियों ने भी लगातार मुझे जिस दृष्टि से देखा, मैं यही महसूस करता रहा कि—आब गई, आदर गया, नैनन गया सनेह…। परंतु इस पत्र का विषय यह नहीं है, दूसरा है।
दोस्तो, बीसवीं सदी के प्रारम्भिक पहले वर्ष यानी सन् 2001 में, मेरी जानकारी के अनुसार कुल 10 हिन्दी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए—अन्यथा (कमल चोपड़ा), अभिमन्यु की जीत(राजेन्द्र वर्मा), इधर उधर से(बीजेन्द्र कुमार जैमिनी) केक्टस (मोइनुद्दीन अतहर), जंगल की आग (सी॰ रा॰ प्रसाद), सच्चा सुख (आशा मेहता), तरकश का आखिरी तीर (अतुल मोहन प्रसाद), दो सौ ग्यारह लघुकथाएँ (उषा जैन शीरीं), राजा नंगा हो गया(सुनीता सिंह) तथा सलीब पर टँगे चेहरे(सुरेन्द्र कुमार अंशुल)। इनमें से मेरे पास पास केवल तीन संग्रह ही उपलब्ध थे—अन्यथा, अभिमन्यु की जीत तथा राजा नंगा हो गया। उनमें से प्रस्तुत हैं निम्नलिखित चार लघुकथाएँ—
उनकी सज़ा/कमल चोपड़ा
ऐसा नहीं था कि कभी कोई कार नहीं देखी था; पर इतनी लंबी और चमचमाती कार उसने पहली बार देखी थी। उसने कार के चारों तरफ एक चक्कर लगाया तो उसे लगा जैसे वह कार नहीं किसी दूसरे ग्रह से आया कोई जादुई उड़न-खटोला है।
उसने कार पर हाथ फिराया; शीशों और लाइटों को छूकर देखा। उस अजीब-से सुख से उसका मन खुशी से नाच उठा।
ज्योंही उसने कार के दरवाज़े के हैंडिल को खींचा, दरवाज़ा खटाक-से खुल गया। कार का मालिक शायद दरवाज़े को लॉक करना भूल गया था। छोटू को लगा जैसे किसी स्वर्ग का दरवाजा उसके सामने खुला पड़ा है। थोड़ा झिझकते-सहमते हुए वह कार में ड्राइवरवाली सीट पर जा बैठा। अंदर ए॰सी॰ ऑन नहीं था पर ठंडक अभी बाकी थी। उसने इधर-उधर लगे बटनों से छेड़छाड़ शुरू कर दी। स्टीरियो ऑन हुआ तो धीमे, पर इतने मधुर संगीत ने जैसे उसकी सुध-बुध ही हर ली। उसको लगा जैसे वह इस स्वर्ग का बादशाह है।
अचानक उसकी नज़र साइड में लगे कार के शीशे पर पड़ी। उसने देखा—सामने बिल्डिंग से एक सूट-बूट और काले चश्मेवाला आदमी चला आ रहा है। यह होगा मालिक। वह झट से निकला। दरवाज़ा बंद कर भागने को ही था कि उस आदमी ने उसे पकड़ लिया और तड़ाक से उसके एक थप्पड़ जड़ दिया,“क्या चुरा रहा था साले, बोल? क्या चुरा रहा था?”
ज्योंही कारवाला आदमी कार के अंदर झांककर देखने लगा कि सारी चीजें सही-सलामत हैं या नहीं, छोटू अपनी बाँह छुड़ाकर दूर जा खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ में बोला,“चोर नहीं हूँ मैं…मैं तो यहाँ बैठकर भुने हुए चने बेचता हूँ जहाँ तुमने ये कार खड़ी कर दी। मेरा जो नुकसान हुआ वो…? हम घर के सारे लोग सारा दिन काम करते हैं, तब भी हमारे तो खर्चे पूरे नहीं होते, तुम कार कहाँ से ले आए? मैं तो दो मिनट कार को देख रहा था कि तुमने मुझे थप्पड़ मार दिया! तुम जो सारा दिन इसका मज़ा लेते हो, तुम्हें क्या सज़ा होनी चाहिए?”
पत्रिका:सरस्वती सुमन(लघुकथा विशेषांक, सितम्बर 2011), संपादक:कुँवर विक्रमादित्य सिंह, अतिथि संपादक:कृष्ण कुमार यादव, पत्राचार कार्यालय : ‘सारस्वतम्’, 1-छिब्बर मार्ग(आर्यनगर), देहरादून-248001(उत्तराखंड) अंक पर मूल्य अंकित नहीं है।
‘सरस्वती सुमन’ के प्रस्तुत लघुकथा विशेषांक में ‘अतिथि संपादक की कलम से…’ लिखा गया है कि—‘इस अंक हेतु कुल 482 लोगों ने लघुकथाएँ/लेख भिजवाए, पर सभी को शामिल करना हमारे लिए संभव भी न था। इस स्नेह और विश्वास के लिए उन सभी का आभार अवश्य व्यक्त करना चाहूँगा। फिलहाल, 126 लघुकथाओं और 10 सारगर्भित लेखों को समेटे इस अंक में स्थापित एवं नवोदित लघुकथाकारों दोनों को समान रूप से स्थान दिया गया है, आखिर आज के ‘नवोदित’ ही तो कल के ‘स्थापित’ होंगे।’
तथ्य यह है कि अंक में 126 लघुकथाएँ नहीं, लघुकथाकार(न कि लघु-कथाकार) सम्मिलित हैं और लघुकथाओं की कुल संख्या है—276। जब संपादकीय के प्रूफ का यह हाल है तो अंदर की सामग्री के प्रूफ का हाल बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
रचनाकारों को उनके नामों के अनुरूप अकारादि क्रम में स्थान दिया गया है। रचना की स्तरीयता और रचनाकार की वरिष्टता—दोनों के दम्भ से बचने का संपादक के पास यह सरलतम अस्त्र है।
रचनाओं और रचनाकारों की गणनात्मक प्रस्तुति के कारण ही नहीं बृहद आकार और ध्यानाकर्षक वज़न के कारण भी इस अंक को ‘लघुकथा महाविशेषांक’ की संज्ञा दी जा सकती है।
विशेषांक के आवरण पर कलासिद्ध संदीप राशिनकर की कृति का उपयोग किया है। क्या ही अच्छा होता कि उनसे ‘पर्यावरण’ की बजाय ‘लघुकथा’ की थीम पर ही चित्र बनवाया जाता।
-->दोस्तो, अपरिहार्य कारणों से ‘जनगाथा’ के मई, जून व जुलाई 2011 अंक पोस्ट नहीं किये जा सके। कारण दिनांक 7 अगस्त, 2011 को पोस्ट अपने ब्लॉग ‘अपना दौर’ (http://apnadaur.blogspot.com) में व्यक्त कर चुका हूँ अत: यहाँ भी उसे दोहराने का औचित्य नहीं है। इस बीच कुछ पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक तथा कुछ कथाकारों के लघुकथा संग्रह भी प्राप्त हुए हैं। संबंधित संपादकों व लेखकों से क्षमाप्रार्थी हूँ कि उन पत्रिकाओं-संग्रहों पर अभी तक मैं कुछ नहीं लिख सका। दरअसल, मैं उन्हें पढ़ने का समय न निकाल सका।
आज अपने प्रिय दोस्त डॉ॰ भ॰ प्र॰ निदारिया से मिलने नई दिल्ली के रामाकृष्णापुरम गया था। बाइत्तेफाक़ लंच के समय पहुँचा और वे अपनी सीट पर नहीं मिले। कुछ समय उनके कार्यालय में पड़ी कुर्सियों में से एक में बैठकर इंतजार किया तत्पश्चात बाहर निकल आया। घूमता-घामता पुरानी किताबों की एक दुकान पर जा पहुँचा। वहाँ मेरी नजर भाई जसबीर चावला का लघुकथा संग्रह ‘आतंकवादी’(2006), कृष्ण लता यादव का लघुकथा संग्रह ‘भोर होने तक’(2005), युगल के लघुकथा संग्रह ‘गर्म रेत’ तथा ‘फूलों वाली दूब’ पर पड़ी। इनमें से प्रथम दो को मैं खरीद लाया, शेष दो मेरे पास पहले से थे। तभी मुझे ‘कश्मीरी की प्रतिनिधि कहानियाँ’(सं॰ शिब्बनकृष्ण रैना, संस्करण 1990) भी दिखाई पड़ी। पन्ने पलटे तो उसमें कुछ लघुकथाएँ भी संकलित मिलीं। 45 रुपये छपे मूल्य वाली उस पुस्तक को मैं 25 रुपये देकर खरीद लाया, केवल उन कश्मीरी लघुकथाओं को आप तक पहुँचाने की खातिर। बहुत संभव है कि इन सबको या इनमें से कुछ को किन्हीं सज्जन ने पहले भी कहीं पढ़ रखा हो, लेकिन मेरा साक्षात्कार इनसे पहली बार हुआ है इसलिए इन्हें ‘जनगाथा’ के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत करने का लोभ संवरण कर नहीं पा रहा हूँ।ये लघुकथाएँ जिनसे मिलने जाने के कारण मिल पाई हैं, ‘जनगाथा’ का यह अंक उन डॉ॰ निदारिया को ही समर्पित है।प्रस्तुत हैं ‘कश्मीरी’ भाषा की 4 लघुकथाएँ—
॥1॥राम का नाम/ हरिकृष्ण कौल
फोटो: आदित्य अग्रवाल
इन्जेक्शन लग जाने पर उसकी पीड़ा कुछ कम हुई और उसने दाएँ-बाएँ नजर डाली। सभी के चेहरे लटक गये थे।
पति ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा—“अब तू भगवान की स्मरण कर, राम का नाम ले।”
पत्नी बिलख पड़ी—“लगता है डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। तुम सब शायद मेरे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो।”
“पाँच मिनट के लिए मान लो वही बात है। एक-न-एक दिन मरना तो सबको है। और फिर, तुमने अपनी सारी जिम्मेदारियाँ भी तो पूरी कर ली हैं। तुम्हें तो भगवद्भजन से अपार आनन्द मिलता था। याद है, रोज़ दो घण्टे तक कीर्तन-भजन किया करती थीं।”
“राम का नाम मैं नहीं लूँगी। मैं मरना नहीं चाहती।” और वह सिर पटकने लगी।
ठाकुरसाहब के घर औरतों का जमघट था। ढोलकी की थाप पर लोकगीत गूँज रहे थे। ठाकुर साहब के घर में पहली बार लड़का पैदा हुआ था। अत: हर तरफ हर्षोल्लास का आलम था। पास ही से गुजरती गंगादेई ने यह-सब देखा तो चौखट के अन्दर धँसते हुए पूछा—“अरी चमेली! क्या हुआ है री ठकुराइन को?”
फोटो:आदित्य अग्रवाल
“अरी कुँअर साहब आए हैं,” चमेली खिलकर बोली,“बोत सोणी सकल-सूरत है…बिल्कुल ठाकुर साहब पर गए हैं…सपूत हैं एकदम सपूत…”
सहसा गंगादेई को ध्यान आया।
“अरी, और कुछ सुना है…हरिया चमार की बहू के छोरा पैदा हुआ है या छोरी?”
“होता क्या, कलुआ हुआ है,” हाथ नचाते हुए चमेली बोली,“उस करमजले के मारे हरिया फूला फिर रहा है।”
अब वे दोनों नाक सिकोड़ने लगी थीं।
(रूपसिंह चन्देल द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन ‘प्रकारांतर’(1991) से)
मौत को धता बताते हुए कैंसर वार्ड में भी लिखते-पढ़ते रहे प्रेमी जी फोटो:बलराम अग्रवाल
15 जुलाई, 1962 को गाजियाबाद(उ॰प्र॰) के गाँव मोरटा के एक निर्धन दलित परिवार में जन्मे कालीचरण ने बेरोजगारी के दिनों में, सम्भवत: बी॰ए॰ पास करने के तुरन्त बाद सन् 1978 में क्रेडिट एंड थ्रिफ्ट किस्म की किसी प्राइवेट कम्पनी में ज्वाइन कर लिया था। उक्त कम्पनी ने उन्हें अपने बुलन्दशहर कार्यालय का प्रभारी बनाया। वस्तुत: तो कार्यालय नामधारी छोटी-सी वह अंधेरी कोठरी ही उनकी शरणस्थली भी थी। सिवा इस तसल्ली के कि वह ‘नौकरी’ पा गये थे, कोई अन्य सुख बुलन्दशहर में रहते हुए उन्हें नहीं था। यह नौकरी उन्हें कुछ ही माह खपा पाई, बहुत जल्द छूट गई। स्वभाव से कालीचरण अपने अन्तस तक मृदुल थे और सम्भवत: इसी कारण अपना उपनाम उन्होंने ‘प्रेमी’ चुना जो उनकी प्रकृति से शतश: मेल खाता था। मैं उन दिनों प्रधान डाकघर, बुलन्दशहर में कार्यरत था। कालीचरण ने किसी दिन शायद वहीं पर मुझसे भेंट की और अपना परिचय दिया। मुझे लगता है कि उन्हीं दिनों उन्होंने लघुकथाएँ लिखना भी प्रारम्भ कर दिया था। ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूँ कि उनकी एक प्रारम्भिक लघुकथा पर मैंने भीष्म साहनी की एक कहानी ‘मेड इन इटली’ की छाया महसूस की थी। मेरे यह बताने का मन्तव्य न समझकर जगदीश कश्यप ने ‘मिनीयुग’ के किसी अंक में उनका जिक्र इसी आधार पर ‘चोर लेखक’ के रूप में कर दिया था। बाद में, बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि यह किस्सा बी॰ ए॰ की कक्षा लेते हुए उनके अध्यापक डॉ॰ कुँअर बेचैन ने किसी दिन सुनाया था जिसे उन्होंने लघुकथा का रूप देकर एक पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया, उन्हें इस किस्से की वास्तविकता का पता नहीं था। कालीचरण प्रेमी की स्पष्टवादिता और स्वीकारोक्ति का यह एक ही प्रसंग नहीं है, अनेक अन्य भी हैं।
दोस्तो,पश्चिम बंगाल के सलुवा जिले से प्रकाशित होने वाले हिंदी मासिक पत्र ‘नई दिशा’ ने मार्च 2011 के अंक67 को अपने पहले लघुकथा-अंक के रूप में प्रकाशित किया है। साप्ताहिक आकार के 12 पृष्ठीय इस पत्र में देशभर के 25 कथाकारों की 30 लघुकथाएँ और ‘लघुकथा:इतिहास के झरोखे से’ शीर्षक एक लेख को स्थान दिया गया है। लघुकथाओं में बेचैनी(हीरालाल मिश्र), अमानुषता(विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’), सुसमाचार(माला वर्मा), तूतारी(मुरलीधर वैष्णव), कोख का जाया, सम्बन्ध(डॉ॰ सुधाकर आशावादी), रसीद(प्रभात दुबे), जिंदा मछली(डॉ॰ पंकज साहा), झूठी हँसी(महेन्द्र महतो), चिरंजीवी(खदीजा खान), हाजिरी(अनिल शर्मा ‘अनिल’), हाड़-मांस की सीढ़ी(आनंद बिल्थरे) को उल्लेखनीयमाना जा सकता है।
'' माँ! कितना अच्छा होता कि हम भी धनी होते। हमारे भी यूँ ही नौकर-चाकर होते। ऐशो-आराम होता।''
'' सब किस्मत की बात है।चल फटाफट बर्तन साफ़ कर।और भी बहुत-सा काम अभी करने को पड़ा है! ''
'' माँ ! इस घर की सेठानी थुलथुली कितनी है! और बहुओंको देखो—हर समयबनी-ठनी घूमती रहती हैं।पतला रहने के लिए कसरतें करती हैं…!! भला घर की साफ-सफाई करें, रसोई का काम करें, बर्तन-भाँड़े माँझे, रगड़-रगड़ कर कपड़े धोयें तो कसरत करने की ज़रूरत हीना पड़े…है ना माँ ?
''बात तो तेरी ठीक है बेटी। लेकिन, हमें भूखों मरना पड़ जाएगा बस।"
॥2॥ रोग
''साहब! मैंने ऐसा क्या कर दिया जो आपने मुझे बर्खास्त कर दिया?'' साहब के कमरे में जाकर वृद्ध चपरासी ने परेशान स्वर में पूछा।
"तुमने ‘कर्तव्य-पालन’ को रोग बना लिया है न रामदीन, इसलिए।'' अधिकारी बोला।
'' कर्तव्य-पालन को रोग…? साहब! मैं समझा नहीं!''
'' देखो रामदीन! ना तुम कई दिनों से भीगकर ख़राब हो रहे ऑफिस-फर्नीचर को बारिश से बचाकर सुरक्षितजगह पर रखते और ना ही नया फर्नीचर खरीदने की सरकारी-स्वीकृति निरस्तहोती।” अधिकारी ने शान्त-स्वर में कहा और अपने काम में लगा रहा।
॥3॥ नई कास्टयूम
सभागार में मौजूद भीड़ में बेहद उत्सुकता थी। भीड़ में चर्चा का विषय था—चर्चित फैशन डिजाइनर की आज नई फीमेल कास्टयूमका प्रर्दशन होना। हाई सोसायटी वाली महिलाएँ अपने बदन-दिखाऊ भड़कीले कपड़ेपहने ज्यादा उत्साहित थीं। कुछ समय पश्चात् अपनी नई डिजाइन्ड कास्टयूमपहनाई महिला मॉडल के साथ कैटवॉक करता डिजाइनर मंच पर आ गया। पूरा सभागारभौंचक रह गया। तालियाँ आघी-अधूरी बजकर रह गईं। कैमरों की फ्लैशें एकबारगी थम-सी गईं। सभागार में कानाफूसियाँ होने लगीं। ये क्या नई कास्टयूमहै, ऐसी क्या हमारी सोसायटी में पहनते है, क्या इसकी बुद्धि सठिया गई है? पबपार्टियों में क्या ये कास्टयूम पहनकर जाएँगे हम लोग? वे महिलाएं आपस मेंबड़बड़ाती हुई सभागार से बाहर निकलने लगीं।
पारम्परिक कॉस्ट्यूम—सलवार सूट पहने, चुन्नी से माथा ढके, नजरें नीची किए मॉडल के साथ डिजाइनरअभिवादन मुद्रा में गेट पर खड़ा था।
॥4॥ चुनाव
गृहमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में एक कुख्यात अपराधी-गुट और पुलिस-दल के बीच जबरदस्त गोलीबारी हुई। इस गोलीबारी में गुट के कुछ साथियों के साथ गुट का सरगना व कुछ पुलिसवाले भी मारे गए। टी.वी. पर खबर देख गृहमन्त्री बेहद व्यथित हो गए, खाना बीच में छोड़ दिया।
‘‘क्या हुआ अचानक आपको, जो निवालाभी छोड़ दिया? राज्य में आज से पहले भी ऐसी कई बार घटनाएँ हुई हैं, जिन्हें कभीआपने इतने मन से नहीं लिया।''पत्नी बोली।
‘‘ऐसी घटना भी तो मेरे साथ पहली बार हुई है।''
‘‘मैं समझी नहीं।''
‘‘जो सरगना मरा है, उसी के दम पे तो अब तक मैं चुनाव जीतता आया हूँ।'' गृहमन्त्री जी हाथ धोते बोले।
दोस्तो! गत दिनों तीन लघुकथा संग्रह—'घाव करे गम्भीर'(कथाकार : राज हीरामन), 'बूँद से समुद्र तक'(कथाकर : सतीश दुबे) तथा 'मेरी मानवेतर लघुकथाएँ'(कथाकार : पारस दासोत) व एक आलोचना पुस्तक 'भारत का हिंदी लघुकथा संसार('संपादक : डॉ॰ रामकुमार घोटड़) प्राप्त हुई है। प्रस्तुत है चारों पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय व लघुकथाएँ—
॥1॥ भारत का हिंदी लघुकथा संसार(संस्करण : 2011)
डॉ॰ रामकुमार घोटड़ द्वारा संपादित ‘भारत का हिंदी लघुकथा संसार’ को शोधोपयोगी पुस्तक कहा जा सकता है। इसमें कुल 16 लेख हैं जो भारत के राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, हिमाचलप्रदेश, पंजाब, गुजरात तथा महाराष्ट्र में प्रारम्भ से लेकर आज तक हुए हिंदी लघुकथा लेखन, शोध, आलोचना, प्रकाशन, सम्मेलन, मंचन आदि समस्त कार्यों व गतिविधियों का लेखा प्रस्तुत करते हैं। नि:संदेह इन लेखों को डॉ॰ रामकुमार घोटड़, सतीशराज पुष्करणा, रामयतन यादव, मालती बसंत, प्रो॰ रूप देवगुण, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, हरनाम शर्मा, डॉ॰ राजेन्द्र सोनी, डॉ॰ अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज़’, रतनचन्द ‘रत्नेश’, श्याम सुन्दर अग्रवाल, प्रो॰ मुकेश रावल ने परिश्रमपूर्वक लिखा है। हिंदी लघुकथा पर शोध करने वालों के लिए जहाँ यह अनेक तथ्य प्रदान करने वाली उपयोगी पुस्तक है, वहीं इसमें वर्णित कुछ तथ्य शोध की माँग करते-से लगते हैं। डॉ॰ घोटड़ ने ‘लघुकथा’ शब्द-मात्र को ही लघुकथा मानकर अपने लेख ‘भारतीय हिन्दी लघुकथा साहित्य में शोधकार्य’ के अन्तर्गत कुछ उन शोधों को भी गिना दिया लगता है जिनमें ‘लघुकथा’ शब्द से तात्पर्य सम्भवत: ‘कहानी’ है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केन्द्र व अनेक राज्यों के हिंदी अनुवादक आज भी कहानी के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द ‘शॉर्ट स्टोरी’ का अनुवाद ‘लघुकथा’ कर रहे हैं। केन्द्रीय सचिवालय ग्रंथागार, नई दिल्ली में आज भी ‘कहानी’ से संबंधित समस्त हिन्दी पुस्तकों को ‘लघुकथा’ श्रेणी में चिह्नित किया हुआ है। ‘कन्नड़ लघुकथाएँ’ शीर्षक से साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने अब से चार दशक पहले कहानी संकलन प्रकाशित किया था।
॥2॥ मेरी मानवेतर लघुकथाएँ(प्रथम संस्करण : 2011)
यह वरिष्ठ चित्रकार, मूर्तिकार, हाइकूकार व कथाकार पारस दासोत की 146 लघुकथाओं का संग्रह है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें उनके द्वारा रचित मानवेतर पात्रों वाली लघुकथाएँ ही संग्रहीत हैं। ये सभी लघुकथाएँ सन् 1982 से सन् 2010 तक के 28 वर्ष लम्बे लेखन-काल में लिखित हैं। हिंदी में पारस दासोत लघुकथा कहने की ‘गद्यगीत शैली’ के सम्भवत: अकेले ही प्रस्तोता हैं। इनकी लघुकथाओं पर शोधस्वरूप दो शोधार्थियों को पी-एच॰डी॰ तथा छ: शोधार्थियों को एम॰फिल॰ की उपाधि मिल चुकी है। यहाँ प्रस्तुत है उक्त संग्रह से एक लघुकथा:
इंकलाब ज़िन्दाबाद
पन्द्रह अगस्त की सुबह,
पिंजरे में बैठी चिड़िया, अपने चूजों को जगाती हुई बोली—
“उठो मेरे बेटो, उठो! आज पन्द्रह अगस्त है!”
“मम्मी, हम तो परतन्त्र हैं!”
चूजा अपनी करवट बदलते हुए बोला।
“पन्द्रह अगस्त, काहे का पन्द्रह अगस्त!”
दूसरे ने अपनी आँखें मलीं।
“मम्मी! क्या आज स्वतन्त्रता दिवस है?”
तीसरे ने अपने नन्हे-नन्हे पंख फड़फड़ा जिज्ञासा जताई।
अब
इससे पहले, चिड़िया अपने प्यारे चूजे को उत्तर में हाँ बोलती, चूजे ने पिंजरे के फाटक को टोंच-टोंच कर, अपने को लहूलुहान कर लिया।
चिड़िया बोली—“महात्मा गाँधी! जिंदाबाद!”
पहला चूजा बोला—“भगतसिंह, जिंदाबाद!”
दूसरा बोला—“सुभाषचन्द्र बोस, जिंदाबाद!”
फाटक के पास पड़ा घायल चूजा अपनी अन्तिम साँस लेकर बोला—
“इंकलाब!”
सभी मिल बोले—“जिंदाबाद!”
॥3॥ बूँद से समुद्र तक(संस्करण : 2011)
हिंदी लघुकथा में डॉ॰ सतीश दुबे गत 45 वर्षों से निरन्तर रचनारत हैं; न केवल रचनारत बल्कि विचाररत भी। प्रस्तुत संग्रह को उन्होंने हिंदी लघुकथा के शोधार्थियों की सुविधा के मद्देनजर संपादित/प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने विगत तीन वर्षों अर्थात् सन् 2008, 2009 व 2010 में रचित अपनी 104 लघुकथाओं के साथ-साथ फरवरी 1974 में प्रकाशित अपने लघुकथा संग्रह 'सिसकता उजास'से अठारह प्रतिनिधि लघुकथाएँ उसके मुखपृष्ठ की प्रतिकृति सहित, 'सरिता' आदि पत्रिकाओं में 1965-66 में प्रकाशित बारह लघुकथाएँ तथा प्रकाशित लघुकथा संग्रहों ‘सिसकता उजास’, ‘भीड़ में खोया आदमी’, ‘राजा भी लाचार है’, ‘प्रेक्षागृह’ तथा ‘समकालीन सौ लघुकथाओं’ में प्रकाशित रचनाओं पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, डॉ॰ श्रीराम परिहार, डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे, बसंत निरगुणे, श्याम सुन्दर अग्रवाल, प्रतापसिंह सोढ़ी, मधुदीप, रामयतन यादव, खुदेजा खान, श्याम गोविंद के आलोचनात्मक लेख तथा कथाकार व शोधार्थी जितेन्द्र ‘जीतू’ द्वारा लिया हुआ प्रश्न-साक्षात्कार को सम्मिलित किया है। इस संग्रह से न केवल सतीश दुबे की रचनाशीलता बल्कि उनके द्वारा लघुकथा-विधा को उत्तरोत्तर उत्कृष्ट करते जाने पर भी यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत है ‘बूँद से समुद्र तक’ लघुकथा-संग्रह से सतीश दुबे की एक लघुकथा:
थके पाँवों का सफर
दाएँ कन्धे से बाईं ओर लटकाए शोल्डर-बैग तथा तीन-चार फीट का डंडा थामे वृद्ध को सहारा देकर बस में चढ़ाने वाला अधेड़ व्यक्ति टिकट पर सीट का नम्बर देखते हुए सत्येन्द्र के निकट पहुँचकर बोला—“भाईसाहब, आपके पासवाली सीट का नम्बर हमें मिला है, क्या आप चाचाजी को विंडो-सीट दे सकते हैं, इन्हें उस तरफ आराम रहेगा…।” सत्येन्द्र बिना कुछ बोले खड़ा हो गया और चाचाजी के व्यवस्थित हो जाने पर दाईं ओर बैठ गया।
वृद्ध चाचाजी के साथ आया व्यक्ति उनसे विदा लेकर सत्येन्द्र से आग्रह कर गया कि वह अपने हमसफर का ध्यान रखे।
पाँच-दस मिनट मौन रहने के बाद सत्येन्द्र ने चाचाजी को मुखर करने की दृष्टि से पूछा—“चाचाजी, ये जो बैठाने आए थे, आपके भतीजे थे?”
“घर के पास रहते हैं, टाइम-बेटाइम मदद कर देते हैं।”
“आपके बेटे नहीं हैं क्या?”
“ऐसा मत बोलो, भगवान के दिए चार बेटे हैं, चारों होनहार…अच्छी और बड़ी नौकरी वाले…”
“बहुएँ कैसी हैं?”
“बड़े और सम्पन्न घर की बेटियाँ हैं, बेटों से दस गुना होनहार।”
“इधर कहाँ तक जाएँगे आप?”
“जौनपुर।”
“किस बेटे के पास?”
“नहीं, निकट के रिश्तेदार के घर, बड़े प्रेम से बुलाया है, बस पर लिवाने को आ जाएँगे।” कहकर चाचाजी चुप हो गए। उनकी सूनी आँखें और निस्तेज चेहरे की ओर गौर से देखते हुए सत्येन्द्र कुछ-और प्रश्न करे, उससे पूर्व ही चाचाजी अस्फुट शब्दों में बोले—“अब और-कुछ पूछना मत, ज्यादह बोलने से मुझे तकलीफ होती है…”
सत्येन्द्र ने देखा—यह कहते हुए चाचाजी ने पैर लम्बे तथा सिर सीट के सहारे लगाकर बूँदे टपकाने का प्रयास कर रही छोटी-छोटी आँखों को जोरों से भींच लिया।
॥4॥ …घाव करे गम्भीर(संस्करण : 2009)
हिंदी पत्रकारिता एवं संपादन से जुड़े मॉरीशसवासी राज हीरामन मूलत: कवि हैं और लघुकथा की विधा को उन्होंने बहुत बाद में यानी इस सदी के पहले दशक में अपनाया है। ‘…घाव करे गम्भीर’ उनकी 140 लघुकथाओं का दूसरा संग्रह है। पहला लघुकथा संग्रह ‘कथा संवाद’ सन् 2008 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिका रामदेव धुरंधर ने लिखी है जो स्वयं भी सिद्धहस्त लघुकथा-लेखक हैं और जिनकी लघुकथाओं का संग्रह गत सदी के अंतिम दशक में प्रकाशित हो चुका है। लघुकथा-लेखन को अपनाने पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए राज हीरामन ने लिखा है—‘मूलत: मैं कवि हूँ, पर बाद में मैंने ‘लघुकथा’ विधा अपनाई। लघुकथा लिखने में क्या मज़ा आता है। वाह! ये छोटी-छोटी, बौनी-बौनी-सी तो रहती हैं। फैलाव तनिक भी नहीं, पर लम्बे वाक्य का प्रावधान छोड़ देती हैं। आदमी को हिला देने और झकझोर देने की ताकत भी रखती हैं। लघुकथा-लेखन मुझे भी ताकतवर बना देता है।’ संग्रह की लघुकथाओं का यदि भाषा-संपादन करा लिया जाता तो आम हिंदी पाठक के लिए वे अधिक ग्राह्य बन सकती थीं। आइए पढ़ते हैं राज हीरामन की एक उत्कृष्ट लघुकथा:
गिरजाघर की व्यस्तता
यहाँ के गिरजाघर में प्रत्येक रविवार को प्रार्थना के लिए ठेला-ठेली रहती है। सुबह चार बजे से शाम छह बजे तक पादरी एसेम्ली लगाते-लगाते, बोलते-बोलते थक जाते हैं। पर हब्शी किश्च्यन, गोरे क्रिश्च्यन तथा चीनी क्रिश्च्यनों की प्रार्थना-सभाएँ अलग-अलग क्यों लगती थीं—यह हब्शियों की समझ से बाहर की बात थी। फिर भी सब इसे रंगभेद ही मानते थे। गोरे सवेरे तड़के चार बजे की प्रार्थना-सभा में ही आते। तब आते हब्शी भक्त और शाम में चीनी आते।
पादरी को इस प्रश्न का उत्तर सूझता ही नहीं था, क्योंकि पादरी भी गोरा था, ने समझाया—
“गोरों के पास कारें हैं इसलिए वे सवेरे तड़के ही आ जाते हैं। आप लोग बस से सफर करके आते हैं और बसों के चलने का तो समय होता है! हमारे चीनी भाई दिनभर अपनी दुकान में काम करते हैं फिर जब आधे दिन दुकानें बंद होती हैं, तो वे तैयार होकर आते हैं!”