Saturday, 27 August 2022

रामदेव धुरंधर (बेल ऐर, मारीशस ) की छः लघुकथायें

अंधकार

मैं स्वयं नहीं जानता, कब निराशा या विचलन जैसी दुर्भावनाएँ मुझे घेर बैठती हैं और मैं इनका इस तरह से कैदी हो जाता हूँ कि शायद इनसे बाहर निकलने के लिए मेरा अपना कोई विकल्प होता ही न हो। यह अनजाने में हो जाता हो, तो इस पर मेरा कोई वश हो नहीं सकता। परंतु इतना तय है कि मैं इनसे लड़ता हूँ। जीत तो इनकी अकसर होती है, लेकिन जीत मेरी भी होती है। जीत होने पर मैं गहन आत्मतोष का अनुभव करता हूँ। हार जाने पर मेरे कहने के लिए शेष इतना ही रह जाता है कि मनुष्य हूँ, निराशा और विचलन मेरे अस्तित्व के हिस्से हो सकते हैं। पर यह ज़हर होता नहीं है कि मैं मर जाऊँ। इसे जीने का एक नाम जीवन भी है।

उस दिन निराशा या विचलन जैसी कोई बात नहीं थी। सवाल था तो बस अंधकार का। मैं बड़े मनोयोग से अपने प्रकाश-वृत्त में खड़ा था कि देखा अंधकार का एक विशाल भभका मेरी ओर बढ़ता चला आ रहा था। मैं एक ही झटके में इस सोच पर पहुँच गया था कि यह अंधकार मुझे और मेरे प्रकाश को तो लील ही जायेगा। पर यह मेरी जल्दी की सोच हुई थी। यह अंधकार न मुझे लीलता और न मेरे प्रकाश को अस्त-व्यस्त करता, बल्कि यह अंधकार तो अपना प्रकाश ढूँढ़ रहा था।

अनचाही

धनवान चोर ने चोरी से जितना कुछ अपने यहाँ जमा कर रखा था, पागल होने पर वह सब उसके हाथ से निकलने लगा। वहाँ के लोग भी उस चोर की तरह धनवान ही थे। इन सबका धन विपुल था। पर सच कहते हैं, धन किसके वश में होता है। धनवानों के सुनने में जब आया कि धनवान चोर पागल हो गया है और उसके यहाँ से कुछ पाया जा सकता है, तो उन्होंने वहाँ के लिए कूच कर दिया। वहाँ से कोई सोना लेकर भागा और जिसे सोना न मिला, तो चाँदी लेकर जाने में उसने संतोष किया। पैसा तो लोग भर-भर जेबें ले गये। आंगन के फूल-पौधों की लूट के लिए मानी तूफानी कोलाहल मचा हुआ था। ढेर सारा सामान ले जाना था, तो धनवानों को लॉरी की आवश्यकता पड़ी।

धनवान चोर ने गरीबों के 'दुःख' नाम के गाँव से दुःख भी चुराये थे। इन दुःखों को कोई धनवान लूटने के लिए भूल से भी हाथ आगे न बढ़ाता, बल्कि वे लात मारकर दुःखों को यहीं छोड़ते। पर यहाँ रहने के लिए संभावना न होने से दुःखों को स्वयं जाना तो पड़ता। लूट के उस दौर में दुःखों को भागने का स्वतः रास्ता मिल गया। इन दुःखों ने भागने की प्रक्रिया में एक ही झटके में अपनी मंज़िल पा ली थी। ये 'दुःख' नाम के जिस गाँव से यहाँ चोरी में आये थे, उसी गाँव के लिए चल दिये।

राष्ट्रगीत 

वर्षों अंग्रेजों की ओर से देश संचालित होता रहा। लंबे संघर्ष के बाद अब देश आजाद हुआ था। एक तिथि निर्धारित हुई, देश का अपना झंडा आकाश में फहरता और अंग्रेजों का झंडा उतरता। मिस्टर सोहेल, जो देश का ख्यात कवि था, उससे राष्ट्रगीत लिखवाया जाता। इस सूचना ने उसे अभिभूत किया। उसके भीतर राष्ट्रप्रेम उमड़ आया। उसने सोच लिया, ऐसा भावभीना राष्ट्रगीत लिखेगा कि सदा रहने वाले देश में उसका नाम भी अमर रह जायेगा। इस काम के लिए उसके पास अग्रिम पैसा पहुँचने वाला था. लेकिन यहाँ से बात बिगड़ी। सोहेल अंग्रेजी भाषा का उपासक था। अंग्रेजी भाषा के होते उसने अंग्रेजों का यश भी तो बहुत गाया। उसकी अनेक ऐसी कविताएँ हुईं, जिनमें उसके अंग्रेज-परस्त विचार झिलमिल करते हों। इस बात को लेकर देश में लहर उठी और सोहेल को राष्ट्रगीत से अलग कर दिया गया। उसे बहुत क्रोध आया। उसने अपने राष्ट्रप्रेम की दुहाई देकर फोन से इधर-उधर पता लगाकर देख लिया, लेकिन राष्ट्रगीत लिखने का संयोग उसके हाथ से निकल जाने पर अब कुछ हो न पाया।

आजाद देश का राष्ट्रगीत लिखा गया। आजाद देश का झंडा आकाश में लहराया। राष्ट्रगीत से झंडे का अभिनन्दन किया गया। देश की इस भव्यता में मिस्टर सोहेल की कहीं भी परछाई दृष्टिगत नहीं हुई। वह राष्ट्रगीत को गाली देने के लिए अपने किसी कोने में पड़ा हुआ था। राष्ट्रप्रेम तो उससे और दूर पड़ गया था।

कान्हा वाली जाति

एक आदमी ने वेश्यावृत्ति के लिए एक घर किराये पर ले रखा था। औरतों को या तो वेश्या बनने के लिए मजबूर किया जाता था या वे स्वयं अपनी गरीबी के कारण वेश्या के रूप में उस वेश्याखाने से जुड़ जाती थीं।

सुनैना नाम की एक औरत इस धंधे में लगी हुई थी। उसने एक रात सोते वक्त एक सपना देखा। वह द्वापर युग के कान्हा की नृत्य-टोली की एक नर्तकी हुआ करती थी। उम्र बड़े प्यार से कट रही थी कि टोली टूट गई थी, क्योंकि कान्हा गोकुल छोड़कर मथुरा चला गया था। बाद में पता चला महाभारत का युद्ध लड़ा गया, जिसमें कान्हा की भूमिका सबसे ऊपर हुई। महाभारत के उस युद्ध में कान्हा इतना असाधारण हुआ कि उसे भगवान माना गया।

उसी जाति का काफिला द्वापर युग से चलते-चलते कलियुग में वेश्या का जीवन जीने वाली सुनैना के द्वार पर आ ठहरा था। उससे दुःखपूर्वक कहा जा रहा था कि तुम अपने को ऐसा बना लोगी, हम यह विश्वास नहीं कर सकते। सुनैना ने उन्हें सुनने पर कहा, "जो मैं हुई, यही तो मेरा पूरा सच हुआ। मैं न जानती थी कि हमारे लोगों की एक जाति हो गई है। अब मैं जान गई। कान्हा जो हमारी जाति का भगवान हुआ, उसे अब रोज़ पूजकर कहूँगी कि अगले जन्म में मुझे मेरी जाति का हिस्सा बना दे।"

सुनैना ने, इतना कहने के बाद भर आई आँखों से उन लोगों को विदा किया। उनके जाते ही वह अपने कमरे की ओर मुड़ने के लिए विवश हो गई। एक मंदिर का महंत उसके कमरे में सहवास के लिए उसका इन्तज़ार कर रहा था।

कंगाली के केन्द्र में

देश की ज़मीन ऊपजाऊ थी। किसान खेत जोतने में कुशल थे। मज़दूर कड़ी मेहनत करते थे। लोग मेहनत की रोटी खाते थे। बेईमानी से बचने की कोशिश की जाती थी। पर आश्चर्य कि इसके बावजूद देश पतन के गर्त में समाता चला जा रहा था।

लोगों ने पता लगाना आवश्यक माना, ऐसे समृद्ध देश की ऐसी हालत क्यों होती चली जा रही है? खोज से पता चला--राजा और रानी इसके अक्षम्य दोषी हैं। राजा ने देश की आय से करोड़ों का सोना खरीदकर अपने महल में छिपा रखा था। रानी साज-सिंगार की इतनी शौकीन थी कि देश की सालाना आय में से काफ़ी प्रतिशत अपने खर्च में उड़ा देती थी। विडंबना इससे भी आगे यह कि इन्होंने देश का करोड़ों पैसा अपने नाम से विदेशी बैंकों में जमा कर रखा था।

ऐसे आत्मकेन्द्रित राजा और रानी से लोग घृणा करने लगे। रानी को बंदी बना लिया गया और राजा को कहीं दूर समुद्री घाटी में काला पानी भुगतने के लिए भेज दिया गया।

गुणों से युक्त जिस आदमी को राजा बनाकर  गद्दी पर बिठाया गया, उसने अपनी ईमानदारी का सच्चा परिचय दिया। देश खुशहाल हुआ; लोगों का आत्मबल बढ़ा; लेकिन दुर्भाग्य कि यह सब कारगर न बन पाया। सत्ताच्युत राजा और रानी ने बेईमानी की जो बुनियाद रख छोड़ी थी, उसके परिणाम में किसान, मज़दूर सब फिसलते गये। देखते-देखते देश नये सिरे से कंगाल।

सच कहते हैं, मानवता, सभ्यता, संस्कृति और आचरण से कोई दूषित हो जाये और उस दूषण में विशेषकर राजा और रानी हों, तो उस देश को संभलने में युग लग जायें या ऐसा भी कि वह देश हमेशा के लिए खत्म हो जाए !

अंधभक्ति

अकूत काले धन के मालिक चरित्रहीन स्वामी ईश्वरानन्द ने अपनी जीवनी में लिखवाया है कि कठोर तपस्या के बाद उसे भगवान के दर्शन हुए थे। भगवान ने उससे कहा था--आधा संसार मांगे, तो उसकी कठोर तपस्या को ध्यान में रखने से इतने बड़े वैभव का वह हकदार है; पर उसने भगवान से आधा संसार न लेकर अपने शरीर के लिए गज-भर ज़मीन ली। वह जहाँ जाये, इतनी-सी ज़मीन उसके साथ रहे। वह अपनी इतनी ही ज़मीन से हाथ बढ़ाकर जनसेवा में अपने को समर्पित रखेगा।

भगवान उसे यह वरदान देकर अंतर्धान हुआ। वह जनसेवा की भावना से चला जा रहा था कि एक आदमी उसके सामने आ खड़ा हुआ था। पर अंदरूनी बात यह थी, कि वह राक्षस था । उस राक्षस ने उसकी जासूसी करके पता लगा लिया था कि वह भगवान से वरदान पाकर लौट रहा है। उस राक्षस ने कहा, उसे काटकर अपने में समा लेगा और स्वयं ईश्वरदर्शी कहलायेगा। पर यह भगवान को स्वीकार न था। भगवान तो चाहता था कि ईश्वरानन्द संसार में तो एक ही हो। भगवान ने स्वयं आकर अपने परम भक्त ईश्वरानन्द को बचाया और उसे धर्म के आसन पर बिठाया।

अपने इस नाटकीय जीवन-चरित के बल पर आज संसार में ईश्वरानन्द के लाखों अनुयायी पाये जाते हैं।

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

रामदेव धुरंधर 

Tuesday, 23 August 2022

डॉ. दीपक मशाल (ओहायो, अमेरिका ) की चार लघुकथायें

।।1।।

कब तक

बहुत खिन्न मन से घर पहुँचा था वह। मैच हारने के बाद से लगातार बड़बड़ाए जा रहा था। गुस्से का एक बड़ा हिस्सा बल्ले पर भी उतारा गया था।

उसका ख्याल था कि, 'अगर वह खुद ऐन वक्त पर आउट ना होता तो उसकी टीम को जीतने से कोई नहीं रोक सकता था।' बाथरूम में फव्वारे के नीचे ठण्डा होते हुए भी कितनी बार दीवार पर घूंसे बरसाए !

नहाकर बाहर निकलते-निकलते अशांत मन दूसरों पर दोष मढ़ने लगा था। उसने तौलिए से बाल रगड़े और दाँत भींचकर कह उठा, "वही बॉल यार्कर डालनी थी उस मादर...।"

अचानक ठिठका वह, जब देखा कि माँ इस्तरी की हुई शर्ट उसे देने के लिए सामने खड़ी थीं। 

"सॉरी मॉम!" कहकर उसने नज़रें फेर लीं।

"कोई बात नहीं बेटा, हम माँ-बहनें और होती किसलिए हैं! किसी मैच में जब तुमने किसी बॉलर को टारगेट बनाया होगा, तो उसने भी घर जाकर हमें यूँ ही तो याद किया होगा।" कमरे से बाहर जाती माँ ने उदास और मद्धिम स्वर में  कहा।

।।2।।

औरों से बेहतर

मधुबाला को चीड़घर से घर पहुँचते-पहुँचते देर शाम हो गई थी। मगर सिर्फ कटा-फटा जिस्म था, रूह तो पिछली रात ही उसका साथ छोड़ गई थी। उसे इस तरह देखना बाकी सखियों के लिए जीवन में एक और नर्कगुफा से गुजरने का-सा था। यूँ तो पूरे कुनबे के लिए ये मुश्किल घड़ी थी, लेकिन परिवार की मुखिया होने के नाते डिम्पल और शबनम के लिए यह अग्नि परीक्षा का समय था।

हमेशा यही कहती थी मधुबाला, “बोलते रहें, जिसे जो बोलना है बहन, मैं तो हर जनम ऊपरवाले से यही अधूरी देह चाहूंगी।"

"ऐसे अपशकुन नहीं भांखते री, गैरज़रूरी होकर दुनिया में जीने का दर्द तू न जानती क्या!! क्यों बार-बार इसी जहन्नुम में आना चाहती है? 

और हर बार कोई न कोई ऐसा ही कुछ समझाता था उसे। वह जवाब में कुछ बड़बड़ाती तो थी, लेकिन क्या? यह साफ समझ नहीं आया कभी।

बीती रात बाहर वाले कमरे में सोई थी मधुबाला; और अचानक घर के पास वाले खंडहर से गूं-गूं की आती आवाज़ सुन उधर भागी गई थी। जाकर देखा तो चार साल की मासूम का मुँह दाबे एक शैतान अपने नापाक इरादों को अंजाम देने की फिराक में था। बच्ची को बचाने के लिए पास पड़ी आधी ईंट उस हैवान के सिर पर दे मारी थी उसने। दर्द से बिलबिलाकर दो पल को वह पीछे हुआ तो, पर अगले ही पल एक छुरा निकालकर मधु के पेट में घुसा दिया था।

चीख-पुकार सुन दूसरे हिजड़े भी दौड़े आए। लेकिन इतना लहू बह चुका था कि मधुबाला बच नहीं पाई। अब फिर से रात गहराने लगी, तो सारी सखियों ने विलाप करना आरम्भ कर दिया। रीति-रिवाज तो लाश को पीटते हुए 'दोबारा हिंजड़े की देह में मत आना' समझाने का था, परन्तु आज यह शुरू करता कौन!

सब एक-दूसरे से नजरें चुरा ही रहे थे कि तभी शबनम कह उठी, "ख़बरदार! कोई हाथ नहीं लगाएगा उसे।"

डिम्पल भी फफकते हुए बोल पड़ी, “हाँ, जाने दो... जाने दो उसे ऐसे ही। फिर इसी रूप में लौटने के लिए। बाकियों से तो यही... 

।।3।।

दास मलूका कह गए

सुबह ज़रा जल्दी अस्पताल पहुँचना पड़ा। सारी दस्तावेजी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थीं। मिस्टर पीटरसन की 'बॉडी' अब उनके पूर्व घरवालों के हवाले थी। पार्थिव देह को यहाँ से उनके हिस्से के शेष घर लौटाना था। कानूनी जटिलताओं और भावनाओं की आपस में अजब गुत्थम-गुत्थी हो रखी थी। मृतक की पत्नी, पत्नी होकर भी पत्नी नहीं थी और न बच्चे, बच्चे। 

चौदह-पंद्रह दिन पहले की एक शाम थी वह। मैं पेशेंट वार्ड में राउण्ड पर था। एक पलंग के पास से  गुजर रहा था कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं पलटा तो जाना कि यह आखिरी स्टेज के कैंसर से लड़ रहे मि. पीटरसन थे। 

"डॉक्टर,  तुम भारतीय किस्मतवाले होते हो।"

प्रशंसा सुन मैं 'थेंक्स' कहकर मुस्करा भर दिया था। फिर उनके हाथ पर हाथ रखकर कहा, "आप आराम कीजिए माइक, आपको इसकी जरूरत है।"

पर उन्होंने मेरा हाथ और ज़ोर से भींच लिया, आँखों में आँसू थे। मैं रुक गया। 

"मेरा डिवोर्स हो गया आज डॉक्टर! बत्तीस साल का रिश्ता बच्चे सब..." बाकी के शब्द निकले तो लेकिन धुएँ से। 

मुझे और भी मरीज़ों को देखना था, मगर दिल ने जैसे पैरों पर बर्फ मल दी हो। उन्होंने बोलना जारी रखा, "लेकिन वो बेचारे और करते भी क्या? मेरे सर कर्ज़ा भी तो इतना था। घर, कार, व्यापार के लोन और ऊपर से क्रेडिट कार्ड्स की देनदारी! अलग नहीं होता, तो मेरे बाद सब बीवी-बच्चों के सर आता।"

मैंने खामोशी से दूसरा हाथ उनके कंधे पर रख दिया। उन्होंने पनीली आँखों से मेरी तरफ देखते हुए कहा, "पर उसने वादा किया है कि जब तक मैं हूँ, तब तक तो वह साथ निभाएगी मेरा। बस, कानूनी कागजों में कोई रिश्ता नहीं।"

उन्होंने मेरे हाथ पर से पकड़ ढीली कर दी, जो दर्द बँट जाने का संकेत था। 

"आप अब आराम कीजिए!" कहकर मैं दूसरे कामों में उलझ गया था। 

और आज... आज मौत एक हुई थी, पर मुक्त कई हुए थे।

।।4।।

भावना संक्रमण

सुबह के आठ बजने को थे। मैं चाय छानकर कप में डाल ही रहा था कि तभी पीछे से पत्नी ने आकर पूछा, "मिस्टर कैनी का कोई मैसेज नहीं आया काफी समय से?"

"अरे हाँ, आज सुबह ही तो किया उन्होंने। मैं चाय बनाने में लग गया, तो देखा नहीं।" मैंने कप थमाते हुए कहा। 

पेशे से वकील मिस्टर विल्सन कैनी इस सुदूर देश में हमारे शुरुआती स्थानीय दोस्तों में से एक हैं। हम में एक पीढ़ी का अंतर होने के कारण हम उन्हें पीछे से मि. कैनी ही कहते हैं और सामने से विल्सन। वह और उनकी लेखिका पत्नी हमारे लिए मित्र और अभिभावक दोनों थे। कोरोना ने करीबी रिश्तों को भी अछूत न बना दिया होता, तो इस आधी गर्मी बीत जाने तक हम  सात-आठ बार तो मिल ही चुके होते। अभी सिर्फ संदेशों के माध्यम  से अपनी-अपनी कुशल क्षेम की सूचना देते हैं।

मिसेज कैथी एक दुर्लभ कैंसर के अंतिम स्टेज में हैं। आज मैसेज से मालूम हुआ कि कोविड-19 ने उनकी कीमोथेरेपी के शेड्यूल को बिगाड़ दिया था। यूँ भी ऐसे समय में, बारह-तेरह घंटे कार चलाकर बोस्टन शहर जाना पेंसठ पार इस जोड़े के लिए आसान नहीं था। ऊपर से इस भयावह समय में कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले व्यक्ति के लिए बाहर निकलना, फिर हस्पताल जाना 'आ बैल मुझे मार' जैसा ही था।

उनके बेटे और बहू अमेरिका के ही एक ऐसे प्रदेश में थे, जहाँ से सिर्फ हवाई जहाज से जल्दी पहुंचा सकता था; और ऐसे में हवाई यात्रा भी जोखिम का काम थी।

चाय ख़त्म करते-करते मैंने वापसी के सन्देश में उनको बोस्टन ले जाने का प्रस्ताव रखा। उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया।

लगभग दो घंटे बाद हमारे घर के सामने एक एम्बुलेंस आकर रुकी। खिड़की से बाहर झाँकते हुए हमने जाना कि उसमें मि. कैनी थे। उनके कॉल करने से पहले मैं मास्क हाथ में ले बाहर की ओर भागा।

"आप लोग ठीक तो हैं ना, विल्सन ?"

वह मुस्कुरा रहे थे, देखा तो साथ में मिसेज कैनी भी हाथ हिला रही थीं। मि. कैनी ने एक ठण्डा-सा डिब्बा मुझे थमाते हुए कहा, "इसमें जिंजर आइसक्रीम है, जो तुम्हें पसंद है। कल रात ही बनाई हम बोस्टन के लिए निकल रहे हैं। एक जज मित्र ने इस एम्बुलेंस का इंतज़ाम कर दिया।"

तनिक ठहरकर फिर बोले, "शुक्रिया! पर साथ लेजाकर तुम्हें जोखिम में नहीं डाल सकते। तुम दोनों दुनिया का विस्तार हो हमारे लिए, वह जो अब अमेरिका से भारत तक फैल चुकी है। अपना ख्याल रखना। लौटकर मिलते हैं।" 

उन दोनों की आँखों में आंसू थे.... जिनका कुछ हिस्सा हमारी आँखों से भी आ निकला। ■

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

दीपक मशाल 

ई-मेल : mashal.com@gmail.com 

Friday, 19 August 2022

डॉ. भावना कुँअर (सिडनी, आस्ट्रेलिया) की पाँच लघुकथायें

मुखौटे

आज मकान मालिक के घर में पूजा थी, ठीक पिछले साल की तरह । किरायेदार मालती को लगा कि चाची कल कहना भूल गई होंगी. आज ही बुला लेंगी। दरवाजे पर खड़ी आने जाने वाली औरतों के पैर छूने में मशगूल थी... छोटी जो थी सबसे। कॉलोनी की सभी औरतें पहचानती जो थीं मालती को और प्यार भी बहुत करती थीं। सभी औरतें तकरीबन अन्दर आ चुकी थी; पर मालती को किसी ने अन्दर आने को नहीं कहा। मालती समझ नहीं पाई कि क्या बात है?

तभी उसके कानों में पूजा के शुरू होने के स्वर गूंजे। वो मन में हजारों सवाल लिए अपने कमरे में चली गई, जाने कैसे दिल पर लगी थी कि अगले दिन भी मालती बाहर नहीं निकली। दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने चाचीजी खड़ी थी। मालती ने उनके पैर छूए पर कोई हाथ आशीर्वाद में न उठा न ही कोई शब्द कानों में पड़ा। जो सुना वह ये था--"मालती,  तुम्हें लगा तो होगा कि कल की पूजा में मैंने तुम्हें नहीं बुलाया, जबकि पिछले साल बुलाया था। मैंने तुम्हें जानबूझकर नहीं बुलाया क्योंकि पिछले साल तुम पति के साथ थीं। अभी मैंने किसी से सुना है कि तुमने पति से अलग होने की अर्जी दे रखी है। हाँ, मैंने ही तुम्हें बताया था कि तुम्हारे पीछे तुम्हारा पति किसी लड़की के साथ यहाँ पूरे दो हफ्ते रहा है। मैं जानती हूँ कि वह चरित्रहीन है, पर ये समाज है ना, चरित्रहीन पुरुष को तो स्वीकारता है; पर औरत सच्ची और सही भी हो तो दोषी उसे ही बताता है। कॉलानी में तुम्हारे बारे में लोग भला-बुरा कह रहे हैं। मैं जानती हूँ  'तुम बहुत अच्छी हो, पर मैं मज़बूर थी ये पूजा सुहागिनों की थी और अब तो तुम सुहागिन नहीं हो ना बेटा!"

सारी बातें मालती के कानों में पिछले शीशे -सी चुभ रही थीं, पर चेहरे पर एक अजीब सी कसैली मुस्कान थी, यही सोचकर कि चलो देर से ही सही, पर पता तो चला कि लोग किस-किस तरह से क्या-क्या सोचते हैं। कितनी आसानी से लोग दो-दो मुखौटे पहनकर घूमते हैं।

।।मदद।।

राहुल सड़क पर बेहोशी की अवस्था में पड़ा था, हैलमेट का चूरा-चूरा हो गया था, स्कूटर दूर कहीं छितरा पड़ा था। शायद कोई टक्कर मारकर चला गया था पुष्पिता का मन आज सुबह से ही बहुत मन रहा था। उसने पति को फोन किया। फोन किमी अजनवी ने उठाया, तब ये सारा हाल पुष्पिता को पता चला। भला इंसान था कोई, जो मदद कर रहा था। पुष्पिता के लिए वो किसी फरिश्ते से कम नहीं था। पुष्पिता ने उसको वहीं रुके रहने की प्रार्थना की और राहुल के बॉस को फोन पर सब बातें बता दीं। आँसुओं का बाँध नहीं रुक रहा था, पर संयम बनाए हुए थी। राहुल दिल्ली अपने बॉस से ही मिलने जा रहा था। बॉस तुरंत गाड़ी लेकर आए और राहुल को अपने साथ ले गये। वह फरिश्ता तब तक वहीं रुका रहा। हजारों दुआएँ दे डाली थीं पुष्पिता ने वरना आजकल कौन झंझट में पड़ता है पुलिस आदि के। साल भर पहला यह चित्र राहुल की आँखों के सामने ताज़ा हो उठा।

सामने पलटी हुई गाड़ी को देखा। भीड़ अब भी तमाशबीन बनी खड़ी थी। लोग अनदेखा करके चले जा रहे थे। उसे एयरपोर्ट जाना था। मुम्बई में बहुत जरूरी ऑफिशियल मीटिंग थी। घड़ी देखी, अगर वह यहाँ दस-पंद्रह मिनट भी रुकता है, तो फ़्लाइट छूटने का डर है। वह गाड़ी से उतरा। उसने एक-एक कर सभी को गाड़ी से बाहर निकाला। पूरा परिवार था; साथ में माँ-बाप, बच्चे। राहुल ने सबको अपनी कार में बिठाया। कोई खून से लथपथ था, तो किसी की हड्डी टूटी लगती थी।

हॉस्पिटल में भर्ती कराया और तब तक रुका, जब तक कि सबके सुरक्षित होने का आश्वासन डॉक्टर से नहीं मिल गया। उनके परिवार के रिश्तेदारों को फोन करके ख़बर कर दी। फ्लाइट का समय निकल गया था। हेड ऑफिस से लताड़ तो पड़ेगी ही, यह सोचकर भी उसके होठों पर सुकूनभरी मुस्कान बिखर गई।

।। बोझ।।

रीमा ने बड़े ऑपरेशन से बेटी को जन्म दिया था। बड़ी बेटी अब आठ साल की हो चुकी थी। बड़ी मन्नतों से आज उसके चमन में फिर से ये फूल खिला था। कैसे कैसे समय काटा इस बच्ची के वक़्त, सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है। जाने कितनी बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा। हर बार डॉक्टर बस यही कहती कि पूरी कोशिश करेंगी इस बच्चे को बचाने की।

रीमा ने पूरा समय बिस्तर पर ही बिताया तब जाकर आज ये दिन नसीब हुआ। अब भी बच्ची समय से पहले ही इस दुनिया में लानी पड़ी: वरना ये फूल भी खिलने से पहले ही मुरझा जाता। इस बीच एक बेटा भी हुआ था; जो डॉक्टर की कमी के कारण इस दुनिया को इस माँ को देखे बिना ही चला गया। कितना मासूम था उसका चेहरा जैसे कह रहा हो क्या कसूर था मेरा और मेरी माँ का जो ये मिलन अधूरा रहा?

अपने बेटे के चले जाने के बाद जैसे-तैसे सँभाला था रीमा खुद को। डॉक्टर ने हिदायत दी, "एक साल के अन्दर बच्चा ने होता है; तो रीमा की जान को खतरा है और एक साल से ज़्यादा देर करने पर शायद इस आँगन में फिर कभी फूल ही न खिले ।"

ठीक एक साल बाद इस नन्ही परी का जन्म हुआ। खुशी से आँखें भर आई थीं रीमा की सब कह रहे थे "गुलाबी परी उतरी है ज़मीन पर बहुत प्यारी !!" "बहुत प्यारी है" हर तरफ से ये ही आवाज कानों में गूँज रही थी। बच्ची को अभी रीमा को नहीं दिया गया था। बच्ची को वेन्टीलेटर पर रखा गया था। एक तो बच्ची पंद्रह दिन पहले पैदा हुई थी, ऊपर से कमज़ोर और कई बीमारियों से घिरी थी, पंद्रह दिन उसको वेन्टीलेटर पर ही रखना था।

डॉक्टर ने कहा, “चाहें तो माँ को घर ले जाएँ और माँ आती रहे बच्ची से मिलने, पर बच्ची को यहीं रखना होगा।" रीमा को ये बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। वह इन्हीं ख़्यालों में घिरी थी कि पति की आवाज़ सुनकर तन्द्रा टूटी।

वह कह रहे थे- “बहुत आराम हो गया ! अब उठो कल से ही अपनी जॉब पर जाना शुरू कर दो। दूसरी लड़की आ गई है, अब ज़िम्मेदारी और बोझ और ज्यादा बढ़ गया है।"

यह सब सुनकर रीमा भपकी आँखें छलक गईं। मन सिसकियाँ भरने लगा। भला ये नन्हीं सी जान क्या किसी पर बोझ बन सकती है?

।।ओहदा।।

आज कॉलेज में फंक्शन था। रोमी सुबह से ही तैयारी में लगी थी। खूब मेहनत की थी उसने। पढ़ाई में भी बहुत होशियार थी रोमी। पढ़-लिखकर एक मुकाम हासिल करना था उसको और अपने माता-पिता का सपना भी साकार करना था।

स्टेज पर उसका नाम बोला गया। उसने एक शानदार नृत्य प्रस्तुत किया। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सभी ने उसको बहुत बधाइयाँ दीं। रोमी की खुशी का ठिकाना न था, कॉलेज में उसका ये आखिरी साल था। प्रिंसिपल ने भी पास आकर ढेरों बधाइयाँ दे डालीं, फूली नहीं समाई थी रोमी इतने बड़े ओहदे वाले इतने प्रतिष्ठित व्यक्ति से प्रशंसा पाकर कोई भी होता।

परीक्षा पास थी। प्रिंसिपल साहब रोमी के पास आए और बोले, "इतने सालों से तुम इस कॉलेज में हो, पर हमें पता नहीं था कि तुम इतना अच्छा नृत्य भी करती हो। पढ़ने में भी होशियार हो। मैं चाहता हूँ कि तुम बी. एड. में भी टॉप करो। मैं तुम्हारी मदद करूँगा। तुम कल से मेरे पास पढ़ने आना।"

"जी ज़रूर, शुक्रिया।"

रोमी अगले दिन निर्धारित समय पर पहुँच गई। प्रिंसिपल ने काम दिया और खुद उठकर बाहर चले गये। रोमी लिखने में मशगूल थी, तभी किसी को बहुत करीब महसूस किया। चौंककर घबराकर उठी, "सर आप यहाँ?" 

इससे पहले कि वह कुछ और कहती, प्रिंसिपल ने उसे अपनी ओर खींचने की कोशिश की। रोमी ने एक जोरदार थप्पड़ उनके मुँह पर रसीद किया और धक्का देकर तेज़ी से दरवाजे से बाहर निकल गई।

प्रिंसिपल साहब अपना गाल सहलाते हुए दरवाजे को घूरते रह गए। 

।।संस्कार।।

भाभी पहली बार अपनी ननद के यहाँ खाने पर गई थी। लाज और संकोच में सिमटी चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी। थोड़ी देर बाद ननद का देवर कमरे में आया और बोला- “खाना सटक लिया?" उसे समझ नहीं आया कि वो क्या और किससे कह रहा है।

तभी ननद के देवर को अपनी ओर मुखातिब पाया। वह बोला, "मैं तुमसे कह रहा हूँ?” 

"जी माफ कीजिए मैं सुन नहीं पाई, अब फिर से कह दीजिए।"

“मैं कह रहा हूँ कि क्या तुमने खाना सटक लिया?" भाभी ये सब सुनकर सन्न रह गई कि वो ऐसे कैसे बात कर रहा है! फिर भी खुद को संयत रखकर वो बोली, "जी मैंने तो खा लिया, क्या आपने खाया?"

जवाब में 'हाँ' आया।

सब लोग अपने घर लौट गए। दो दिन बाद ननद घर आई और अपनी माँ से कहने लगी, “माँ, भाभी की तमीज़ देखो। जब यह मेरी ससुराल में आई थीं, तो मेरे देवर को जिनको हम भैया भैया कहकर नहीं थकते, उनको भाभी ने कहा, 'क्या तुमने खाना सटक लिया।' माँ, मजाल है कि हम जरा भी उनको उल्टा-सीधा बोल दें। हम उनको आँख उठाकर भी नहीं देखते, इतना मान-सम्मान करते हैं उनका और एक ये महारानी हैं, जो हमारे इतने संस्कारी, इतने बड़े इज्ज़तदार लोगों के बीच आयीं और उनको अपने फटीचर घरवालों के दिए संस्कार दिखाकर आईं हैं... और हाँ, सुनो--खबरदार! जो अब कभी भी मेरे ससुराल में कदम रखा तो... नहीं चाहिए हमें ऐसी कुसंस्कारी... ।"

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

डॉ. भावना कुँवर  

ई-मेल  : bhawnak2002@gmail.com 

Wednesday, 17 August 2022

डॉ. शैलजा सक्सेना (ओरंटो, कनाडा) की तीन लघुकथायें

भूख

आलू की बोरी के जैसे वह धड़ाम से गिरी थीं, सड़क पर उसे इस तरह से धक्का देकर फेंक देने वाली कार, सैकेंडों में आगे !!" निकल चुकी थी। कुछ देर ऐसे ही अचेत पड़ी रही। थोड़े मैले-कुचैले से कपड़े, धूल की परतों में लिपटा हुआ चेहरा, हाथों और गर्दन पर कुछ खरोंचों के निशान। आस-पास के लोगों ने चौंककर जाती हुई कार को देखा, फिर सड़क पर पड़ी हुई उस भिखारन जैसी औरत को भी देखा और एक क्षण के बाद ही अपनी हैरानी पर काबू पाकर वापस अपने-अपने कामों में लग गए। किसी के पास उस औरत को देने के लिए दो मिनट का समय या फिक्र नहीं थी। और फिर औकात भी तो चाहिए इस फ़िक्र को पाने के लिए! कोई अच्छे घर की साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए औरत वहाँ गिरती, तो उनकी चिंता का, ख़बर का या उनके समय का हिस्सा बनती। इस भिखारन जैसी औरत को वे अपनी चिंता समय भीख में नहीं दे पाए।

जाने कितनी देर ऐसे ही अचेत पड़ी रही वह जब होश आया, तो पहले तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया कि वह कहाँ है, फिर धीरे-धीरे अपने चोट खाए बदन को संभालती वह उठी। हाथ और चेहरे की मिट्टी को झाड़ते हुए उसने आस-पास देखा और जाना कि वह बाजार की सड़क पर पड़ी है। चेहरा साफ करते हुए, उसके होठों और जीभ ने आधे खाए डबल को याद किया, जिसे दिखाकर वे लोग उसे गाड़ी में बिठा ले गए थे। अपनी थेगली लगी धोती को समेटकर वह खड़ी हो गई। कमर और नीचे बहुत दर्द था। उसे अपने साथ हुई कोई बात याद नहीं आ रही थी, आँखों के सामने केवल वह खाना था जिसे वह पूरा खा नहीं पाई थी, अगर वह मिल जाता तो...! तीखी भूख मुँह से पेट तक खिंची, पेट खरौंच रही थी। चार-पाँच कदम चली, तो अपना फटा झोला भी दिखाई दिया। साथ ही, कागज में लिपटा डबल भी, जो खुलकर आधा सड़क पर आ गिरा था। उसने लगभग लपककर पहले डबल और फिर झोला उठाया और डबल से धूल झाड़ती, फुटपाथ के किनारे बैठकर उसे खाने को हुई। होंठ तक बर्गर लाने के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी के नीचे से सिर के ऊपरी नोक तक दर्द की तेज़ लहर बदन में फैल गई, तो वह तड़प उठी। हाथ में पकड़ें बर्गर को उसने फिर धूल में फेंक दिया और अपने गर्दन को  दोनों हाथों से पकड़ कर रीढ़ की हड्डी को दबाने लगी। उसने बर्गर को नफरत से देखते हुए मुँह घुमाकर थूक दिया और बुदबुदाई "मुझको खाकर मुझे खाना देने की हिम्मत करते हैं भुक्खड़ ! नीच!!"

पास खड़े खाए-अघाए, भुक्खड़ लोगों की निगाहें शर्म से झुक गईं।

ज्ञान

“लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का यही नतीजा होता है भाभी।" बाहर बैठके में डॉक्टर चाचा के मुँह से यह बात सुनकर वह विश्वास नहीं कर पाई थी। घर के सब से ज़्यादा पढ़े-लिखे, सब से समझदार, अगली पीढ़ी के लिए प्रेरणा माने जाने वाले चाचा यह क्या कह रहे थे? वह एक क्षण को तो सनाके में रह गई। प्रसंग उसी का है, उसने शादी से मना जो कर दिया था। उसे अभी कॉलेज पूरा कर के पीएचडी करनी है। चाचाजी के लाये रिश्ते को मना कर दिया था, तो क्या? सीधे-साधे माँ-बाबूजी को यह बरगलायेंगे ऐसे और हम बैठ के सुनेंगे! वह झटके से उठी। कहीं कम पढ़े-लिखे बाबूजी अपने डॉक्टर भाई के कहे या रौब में आ गये, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।

रसोई से आधी कटी सब्जी छोड़कर, लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाती वह बाहर आई। उसके बोलने से पहले उसे बाबूजी की ऊँची आवाज़ सुनाई दी, “छोटे, हमें तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी । तुम तो पढ़े-लिखे हो, हम तो सोचते थे कि तुम उसे बढ़ावा दोगे, पर तुम तो उसकी पढ़ाई पर दोष लगा रहे हो। ज्ञान कब से दोषी हो गया? ज्ञान पाने वाला कब से सजा पाने वाला हो गया ?"

चाचाजी, बाबूजी की प्रतिक्रिया देखकर हैरान होकर बोले, "भाई साहब, हम तो व्यवहार की बात बता रहे हैं। आपको, पीएचडी की क्या ज़रूरत है, कॉलेज कर तो रही है। ज़्यादा पढ़ने वाली लड़कियाँ घर की नहीं रहतीं और यह गाँव है, शहर नहीं। बताये दे रहे हैं, कोई शादी नहीं करेगा!”

बाबूजी की नाराज़ आवाज़ घर में गूँज गई, "बस अब चुप रहो, हमने जब सबके खिलाफ जाकर तुम्हारी पढ़ाई की इच्छा पूरी की, तब तो तुमने मना नहीं किया था? ज़्यादा पढ़ने से लड़कों की कीमत बढ़ती है और लड़कियों की कीमत घटती है? तो ठीक है, तुम जाकर अपनी बड़ी बोली लगवा लो, मैं अपनी बेटी की बोली वैसे भी नहीं लगवाना चाहता।"

खंबे के पास उसे खड़ी देख वह उसके पास आये और प्यार से सिर सहलाकर बोले, "हम तो मन लगा नहीं पाते थे पढ़ाई में, तुम्हारे मन को चाहने के लिए ही हमने पहले मना किया था पढ़ने को, पर तुम लगन से पढ़ती जा रही हो, तो हमें क्या आपत्ति होगी। बेटी ? रही घर में और बाहर विरोध करने वालों की बात, तो मेरा नाम है रामभरोसे, तो मैं हूँ ही राम भरोसे, शादी की बात भी राम भरोसे ही छोड़ता हूँ। कोई न कोई तो मिलेगा ज्ञान का मान करने वाला और न मिले तो न सही खुद पढ़ाई नहीं कर सका, तो क्या हुआ, तुम्हारी लगन को नहीं तोडूंगा।" फिर चाचाजी की ओर देखकर बोले, "मुझे दुःख है छोटे कि बाबूजी का इतना पैसा खर्च कर के तुम में तुम । शिक्षित भले ही बन गये हो पर ज्ञान नहीं आ पाया।

चाचाजी ने अपने बड़े भाई का यह रूप और ऊँची आवाज़ आज पहली बार सुनी थी, अतः भौंचक्के खड़े रह गये। दीपा के चेहरे की खुशी उसके माँ और पिता के चेहरे पर जगमगा रही थी। आज उसके पिता ने अपने ज्यादा पढ़े-लिखे भाई को जो ज्ञान दिया था, वह किसी भी पढ़ाई से कहीं ऊंचा था।

खाली आँख

पड़ोस का कल्लू पुलिस वाले के साथ लगभग भागता हुआ-सा आ रहा था, जब रामरती ने उसे देखा। "ये ही है जी किसना मजूर की बीवी ।" पुलिस वाले ने अजीब निगाहों से उसके लाल मुँह को देखा। आँख के नीचे सुबह की मार का कालापन मौजूद था, गाल पर किसना के हाथ की अंगुलियों की छाप जैसे अभी भी मौजूद थी। उसके हाथ बर्तन माँजते माँजते रुक गये। मन का कसैलापन होठों तक उमड़ने को था, “अब क्या कर दिया मुए ने?"

सिपाही ने रामरती की प्रश्नवाचक निगाहों के उत्तर में केवल इतना कहा, "थाने चलना होगा, अभी हमारे साथ।" हाथ धोकर जब तक वह झुग्गी से बाहर आई औरतों, बच्चों और काम पर जाने से पीछे छूट जाने वाले छह-सात मर्दों का एक छोटा-सा हुजूम वहाँ जमा हो गया था। कल्लू किसी के कान में फुसफुसाकर कुछ कह रहा था। रामरती जब चली, तो तरस खाने वाली निगाहों से देखते हुए उसके साथ कई लोग चल पड़े। वह कुछ घबरा तो गई थी, पर उसे यही लगा कि पैसों के लिए उसकी कुटाई करके जब किसना निकला होगा, तो भिड़ गया होगा किसी से, अब बंद पड़ा होगा हवालात में उसका बस चले, तो कभी न छुड़ा कर लाये।

सुबह की बकी गालियाँ उसकी जुबान पर लौटने लगीं। चार साल हो गये उसकी शादी को और इतने ही साल हुए उसे लात-घूंसे खाते हुए आज तो बाहर निकलने से पहले ही पीटना शुरू कर दिया था, और जब किसना ने नाभि के नीचे उसे लात मारी थी, तो वह चंडी बन गई थी, गालियाँ देती जब वह उसकी तरफ झपटी, तो किसना झुग्गी से तीर की तरह निकल गया था, लगभग भागते हुए पर रामरती की ऊँची आवाज़ ने उसका पीछा किया था, "तू मर क्यों नहीं जाता, साला हरामी ।" और नाभि के नीचे अपने बढ़े हुए हर्निया को पकड़ कर वह दस मिनट तक कराहती रही थी। 

और जब थाने में आकर थानेदार ने यांत्रिक ढंग से उठकर बेंच पर पड़े किसी सामान के ऊपर से कपड़ा हटाया, तो उसे झुरझुरी आ गई। सामने ट्रेन से कटी, खून में लिथड़ी किसना की लाश पड़ी थी। मिनट तक वह सुध भूलकर भौंचक्की-सी उसे ताकती रही। ज़िंदगीभर वह भगवान से अपने और अपने घरवालों के लिए कुछ न कुछ माँगती रही, कभी माई के लिए दवाई, तो कभी बापू के लिए रिक्शा खींचने की ताकत, कभी छोटे भाई के लिए क्लास पास करने के लिए नम्बर! फिर जब शादी हुई तब भी कल्लू के शराब पीकर उसे मारने पर वह भगवान से उसे सुधारने के लिए कभी व्रत रखती, तो कभी मनौतियाँ माँगती। उसने हर रोज़ प्रार्थनाएं कीं। आज तक उसकी कोई बात पूरी नहीं हुई। उसकी कही कोई बात न फली, तो आज उसकी गालियाँ कैसे फल गई? कैसे? उसे मारने-पीटने वाला खुद कटा-पिटा सा ! उसे लगा उसका सिर घूम जायेगा।

फिर उसका मन हुआ कि वह हँसे और हँसती चली जाये, जब तक कि हँसते-हँसते उसकी छाती और पेट में दर्द न होने लगे एकाएक जैसे वह होश में आ गई। कल्लू नहीं रहा। वह अकेली रह गई है, अकेली! साथ आये लोग ज़ोर-ज़ोर से रोने और बोलने लगे थे "हाय हाय" का-सा शोर ! इन सबके बीच जाने कैसे वह भीतर से एकदम खाली और हल्का-सा महसूस करने लगी। इतना हल्का जैसे उसका हर्निया कटकर निकल गया हो। फिर इसी हल्केपन से चौंककर वह नाक से अचानक वह आये पानी को पोंछने लगी और पल्लू से खाली आँखें मसलती धम्-से ज़मीन पर बैठ गई। ■

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

डॉ. शैलजा सक्सेना

शिक्षा: एम ए, (हिंदी), एम फिल, पी.एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली), मानव संसाधन डिप्लोमा (ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट; मैक मास्टर यूनिवर्सिटी, हैमिल्टन, कनाडा)

प्रकाशन : प्रवासी कथाकार श्रृंखला-कहानी संग्रह- लेबनॉन की एक रात-२०२२-प्रलेक प्रकाशन।अनेक संग्रहों में कविता, कहानी, शोधालेख आदि प्रकाशित।

सह-संपादन : 'सपनों का आकाश’ (कैनेडा के ४१ कवियों का संग्रह- २०२०), 'संभावनाओं की धरती' (कैनेडा के २१ गद्यकारों का गद्य संकलन- २०२०), वर्ष २०२० में साहित्यकुंज के चार विशेषांकों का संपादन (सुषम बेदी, तेजेन्द्र शर्मा, दलित, फीजी का हिन्दी साहित्य, कैनेडा का हिंदी साहित्य), 'काव्योत्पल' (कैनेडा के कवियों का काव्य संग्रह-२००९)।

नाटक निर्देशन : अंधायुग, रश्मिरथी, मित्रो मरजानी, संत सूरदास-जीवन, संत जनाबाई, दूसरी दुनिया

अभिनय : अंधायुग, अपनी-अपनी पसंद, उनकी चिठ्ठियाँ (तुम्हारी अमृता का संक्षिप्त रूप), आई एम स्टिल मी, उधार का सुख आदि नाटकों में मुख्य भूमिकाएँ।

अंतरर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रस्तुति : २०१४ और २०१५ में न्यूयार्क और न्यू जर्सी के 'अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन' में कैनेडा का प्रतिनिधित्व; अंतरराष्ट्रीय कविता और कहानी सभा में सहभागिता।

उपलब्धियाँ : इंडो कैनेडियन आर्ट्स एंड कल्चर इनिशिएटिव द्वारा २०२१ 'वुमैन हीरो अवार्ड’,  विश्वरंग २०२० में 'कैनेडा विश्वरंग’ कार्यक्रम का अयोजन, इंडीड कैनेडा द्वारा २०१८ 'मिरेकिल मॉम’ अवार्ड, टोरोंटो की संस्था 'डांसिग डैमसैल्स' के माध्यम से प्राविंशियल सरकार द्वारा 'वूमैन अचीवर अवार्ड-२०१८' की प्राप्ति ।

काउंसलेट ऑफ इंडिया ऑफिस तथा हिन्दी की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मान।

संप्रति : स्वतंत्र लेखन।

E-mail : shailjasaksena@gmail.com Phone no. 1-905-580-7341

Monday, 15 August 2022

सुधा ओम ढींगरा (नॉर्थ कैरोलिना, अमेरिका ) की चार लघुकथायें

ब्रीफकेस में राष्ट्रप्रेम 

"आप हिन्दी में उत्तर क्यों दे रहे हैं, जबकि हम आपसे प्रश्न अंग्रेज़ी में पूछ रहे हैं साक्षात्कार करने वाले ने पूछा। "हमने विदेश से आपको हिन्दी बोलने के लिए नहीं बुलाया।" साक्षात्कार बोर्ड के दूसरे सदस्य ने कहा।

"श्रीमान आप मेरा जिस पद के लिए साक्षात्कार ले रहे हैं, वह ग्रामीण विकास योजना के अंतर्गत आता है। उसके लिए मुझे ग्रामीणों से सीधा संवाद करना होगा। यह संवाद में अंग्रेज़ी में तो नहीं करूँगा, ग्रामीणों की भाषा में ही करूंगा और जिस राज्य के पद के लिए आपने मुझे बुलाया है, वहाँ के लोग हिन्दी बोलते हैं।" डॉ. कुमार श्रीवास्तव ने अत्यधिक विनम्रता से उत्तर दिया।

"मिस्टर श्रीवास्तव आप हमें क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं? रूल इज़ रूल। आपको इंटरव्यू इंग्लिश में ही देना पड़ेगा। हिन्दी का ज्ञान विदेशियों के लिए रखें। वहाँ इसकी ज़रूरत है।" सामने वाले ने रुखाई और अभद्रता से उत्तर दिया।

“भद्रजन जहाँ से आया हूँ, अंग्रेज़ी तो मैं वहाँ हर समय बोलता हूँ। अपनी विशेषज्ञता देशवासियों के साथ बाँटकर देश के लिए कुछ करना चाहता था। सोचता था, शायद कुछ बदलाव ला सकूँ। स्वदेश लौटकर अपने लोगों में अपनी भाषा में काम करने के लिए इस पद को स्वीकार करना चाहता था। अब समझ में आया कि ग्रामीण योजनाएँ क्यों इतनी सफल नहीं हो रही हैं और कैसे आप जैसे लोग सुफल प्राप्त कर रहे हैं। ऐसी कार्यप्रणाली में एग्रीकल्चर और लघुग्राम उद्योग की मेरी विशेषता भी कोई सहायता नहीं कर पाएगी।" कहकर डॉ. कुमार श्रीवास्तव ने अपना ब्रीफकेस उठाया, राष्ट्रप्रेम उसमें बंद किया और कमरे से बाहर चले गए।

बेख़बर

स्कूल की मार्गदर्शक परामर्शदाता ने, किंडरगार्टन के छोटे-छोटे बच्चों को चरित्र-निर्माण का ज्ञान देते हुए समझाया कि तुम्हारे गुप्तांगों को कोई हाथ लगाए, तुम्हें डाँटे, तुम्हारे साथ कोई अनुचित हरकत करे, जो तुम्हें अच्छी न लगे या तुम्हें कोई शारीरिक चोट पहुँचाए, चाहे वे माँ-बाप ही क्यों न हों, तो पुलिस को फोन करो या टीचर से बात करो। छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग़ बड़ी-बड़ी बातों से बोझिल हो गए। विचार उलझे बालों से उलझ गए। बाल-बुद्धि ने यह ज्ञान अपने हिसाब से ग्रहण किया। पापा ने कल उसे थप्पड़ मारे थे, उसने टीचर को बता दिया। उसी का परिणाम घर में हंगामा हो रहा है।   

सामाजिक कार्यकर्ता उनका एक-एक कमरा ख़ासकर बच्चे का कमरा बार-बार देख रही है। ढूँढ़ रही है कि कहीं कोई ऐसा सुराग मिल जाए, ताकि माँ-बाप दोषी साबित हो सकें। बच्चे को परिवार से अलग करने की बात कही जा रही है और माँ दिल पर हाथ रखकर रो रही है। पापा भरी-भरी आँखों से अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। कार्यकर्ता की बातें सुन बच्चा रुआँसा हो गया है। वह एक तरफ डरा-सहमा दुबका बैठा सोच रहा है कि शिकायत करने के बाद उसे माँ-बाप से अलग कर पोषक-गृह में भेज दिया जाएगा। ऐसा तो गाइडेंस काउंसलर ने नहीं बताया था। बालबुद्धि और उलझ गई। माँ-बाप से अलग होना पड़ेगा, सुनकर बेचैन हो गया। टीचर पर बहुत गुस्सा आया, मैडम ने और लोगों को क्यों बता दिया? उसके माँ-बाप तो बहुत अच्छे हैं। उसे बहुत प्यार करते हैं। वह उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएगा। वह कई दिनों से होमवर्क नहीं कर रहा था, तभी तो पापा ने गुस्से में एक थप्पड़ मारा था। उसने झूठ बोला था कि पापा ने कई थप्पड़ मारे थे और पापा रोज मरते हैं। वह तो चाहता था कि टीचर उसके पापा को डांटे और पापा उसे होमवर्क के लिए न कहें। माँ रोते-रोते बेहोश होने लगी। समाज सेविका पानी लेने दौड़ी। बच्चे को लगा कि उसकी माँ मर रही है। वह उसके बिना कैसे रहेगा ? रात को कैसे सोएगा उसकी माँ उसे हर बात पर चूमती है, कहानियाँ सुनाती हैं। पापा उसे ढेरों खिलौने लेकर देते हैं। उसके साथ फिशिंग, बॉलिंग, साइकिलिंग के लिए जाते हैं। वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए चिल्लाने लगा, “मेरे मम्मी-पापा को छोड़ दें। मैंने टीचर को झूठ बोला था। मेरे पापा ने मुझे थप्पड़ नहीं मारे थे।" कहकर वह भागकर माँ से लिपट गया।

समाज सेविका बच्चे का रोना देख पसीज गई। उसके अपने बच्चे उसकी आँखों के सामने घूम गए।

"बच्चे इस उम्र में परिणाम से बेखबर अनजाने में कई बार झूठ बोल देते हैं।" खुली फाइल को बंद करते हुए वह यह कहकर घर से बाहर निकल गई।

मूक भाषा

उसने घर के पिछवाड़े की खिड़की खोलकर देखा। नौकरानी ने ठीक कहा था, सुअरी ने बच्चों को जन्म दिया है और वह अधमरी पड़ी है। कई दिनों से उसने खिड़की बंद की हुई थी। नए घर बन रहे थे और एक कोने में बिल्डर ने फालतू सामान का ढेर लगा रखा था। उस ढेर पर आस-पास के घरों का कचरा भी इकट्ठा होने लगा था और साथ ही कुत्तों, सूअरों का जमावड़ा भी बढ़ गया था। वह खिड़की से बाहर देखते ही चिड़चिड़ी हो जाती। उसने खिड़की को बंद रखना ही उचित समझा।

आज वह फैली गंदगी को नहीं बस सुअरी को देख रही थी। एक जच्चा अधमरी पड़ी थी। उसने फटाफट दूध में ब्रेड डाली और बाहर की ओर चल दी। नौकरानी ने रोका- "मैडम सुअरी ने पाँच बच्चों को जन्म दिया था। सिर्फ एक बच्चा बचा है अब उसके साथ चार बच्चों का पता नहीं कहाँ चले गए। इस हालत में अपने बच्चे को बचाने के लिए सुअरी हमला कर सकती है। आप मत जाएँ।"

पर वह जल्दी-जल्दी वहाँ पहुँची। सुअरी ने थूथन उठाकर ने दयनीय दृष्टि से उसे देखा। जिस बर्तन में वह दूध और ब्रेड भिगोकर आई थी, उसने सुअरी की ओर सरका दिया। बड़ी कठिनाई से उसने वह खाया। सुअरी के पास उसका बच्चा माँ की तरह ही निढाल पड़ा था। वह उसके सूखे स्तनों से दूध नहीं पी पाया था। कुछ दिन वह सुअरी को खिलाती रही। उसके हाथ से बनाया खाना खाकर सुअरी सेहतमंद हो गई और उसका बच्चा भी उसका दूध पीने लग गया।

उस दिन वह सुअरी के लिए हलवा लेकर गई, तो सुअरी उसे देखते ही पूँछ हिलाने लगी और उसको इशारों-इशारों से अपने पीछे ले गई। थोड़ी दूर जाकर उसने ज़मीन खोदी। उसके चार बच्चे वहीं मरे पड़े थे। सुअरी की आँखों से पानी की धार बहने लगी। ऐसा लगा, एक माँ दूसरी माँ को अपना दर्द बता रही है। मूक माँ के आँसू भाषा बन गए थे- “काश, आप पहले आतीं, तो मेरे बच्चे बच जाते।

दौड़

मैं अपने बेटे को निहार रही थी। वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के अँगूठे को मुँह में डालना चाहता था और मैं उसके नन्हे नन्हे हाथों से पाँव का अँगूठा छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। उस कोशिश में वह मेरी अंगुली पकड़ कर मुँह में डालना चाहता था।

चेहरे पर चंचलता, आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे गडे, अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था और मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल लीलाओं का आनंद मना रही थी कि वह मेरे पास आकर बैठ गई। मुझे पता ही नहीं चला। मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी कि यशोदा मैया ने बाल गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा।

उसने मुझे पुकारा, मैंने सुना नहीं। उसने मुझे कंधे पर थपथपाया, तभी मैंने चौंककर देखा, हँसती, मुस्कराती, सुखी, शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे सामने खड़ी थी। बोली, “पहचाना नहीं? मैं भारत की ज़िन्दगी हूँ।" मैं सोच में पड़ गई। भारत में भ्रष्टाचार है, बेईमानी है, धोखा है, फरेब है, फिर भी ज़िन्दगी खुश है। मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली, “पराये देश, पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़ लगाते हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई।" मैं फिर सोचने लगी- भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है, फिर ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है ? ज़िन्दगी ने मुझे पकड़ लिया और बोली “भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती, अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह, नाते-रिश्तों में पलती है। तुम लोग औपचारिक धरती पर स्थापित होने की दौड़, नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और परायों से आगे बढ़ने की दौड़ ...।" मैंने उसकी बात अनसुनी करनी चाही, पर वह बोलती गई- “कभी सोचा, आने वाली पीढ़ी को तुम क्या ज़िन्दगी दोगी?" इस बात पर मैंने अपने बेटे को उठाया, सीने से लगाया और दौड़ पड़ी।

उसका कहकहा गूँजा - "सच कड़वा लगा। दौड़ ले, जितना दौड़ना है, कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी तो सोचेगी- क्या ज़िन्दगी दोगी तुम अपने बच्चे को ? अब भी समय है, लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में।" मैं और तेज़ दौड़ने लगी, उसकी आवाज़ की पहुँच से परे जाने के लिए। वह चिल्लाई- "कहीं देर न हो जाए, लौट चल।" मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी आवाज़ मेरे तक नहीं पहुँचती। पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रही हूँ?■

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

सुधा ओम धींगरा

Saturday, 13 August 2022

रोहित कुमार 'हैप्पी' (ऑकलैंड, न्यूजीलैंड) की पाँच लघुकथाएँ

दूसरा रुख

"चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरण हटाकर देखा, तो निहायत खुशी हुई। तस्वीर भारत माता की थी। माँ-सी सुन्दर, भोली सूरत, अधरों पर मुस्कान, कंठ में सुशोभित जेवरात, मस्तक को और ऊँचा करता हुआ मुकुट और हाथ में तिरंगा। मैं लगातार उस तस्वीर को देखता रहा। तभी क्या देखता हूँ कि तस्वीर में से एक और औरत निकली। अधेड़ उम्र, अस्त-व्यस्त दशा, आँखों से छलकते आँसू उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताजे घाव, कुछ घावों के निशान मैंने पूछा, "तुम कौन हो?" 

वह बोली, "मैं तुम्हारी माँ हूँ, भारत माँ!"

मैंने हैरत से पूछा, "भारत माँ? पर तुम्हारी यह दशा! चित्रकार ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी! तुम्हारा मुकुट कहाँ है? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश, मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र नहीं, तुम भारत माता नहीं हो सकती!" मैंने अविश्वास प्रकट किया।

वह कहने लगी, “तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बंदी थी। फिर बंधन से तो छूट गई, पर अब घावों से ग्रस्त हूँ। कुछ घाव गैरों ने दिए हैं, तो कुछ अपने ही बच्चों ने। रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की, उनमें से कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कपूतों ने बेच खाए। इसीलिए रो रही हूँ। सैकड़ों वर्षों से रो रही हूँ। पहले गैरों के बंधन पर रोती थी, अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।"

उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रुख देख, मेरी खुशी धीरे-धीरे खत्म होने लगी और आँख का पानी बन छलक उठी

संवाद

पिंजरे में बंद दो सफेद कबूतरों को जब भारी भरकम लोगों की भीड़ के बीच लाया गया, तो वे पिंज़रे की सलाखों में सहमकर दुबकते जा रहे थे। फिर दो हाथों ने, एक कबूतर को जोर से पकड़कर, पिंज़रे से बाहर निकालते हुए दूसरे हाथों को सौंप दिया। मारे दहशत के कबूतर ने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली थीं। समारोह के मुख्य अतिथि ने बारी-बारी से दोनों कबूतर उड़ाकर समारोह की शुरुआत की। तालियों की गड़गड़ाहट ज़ोरों पर थी।

एक झटका सा लगा, फिर उस कबूतर को अहसास हुआ कि उसे तो पुनः उन्मुक्त गगन में उड़ने का अवसर मिल रहा है | वह गिरते-गिरते संभलकर जैसे-तैसे उड़ चला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब बगल में देखा कि दूसरा साथी कबूतर भी उड़कर उसके साथ आ मिला था। दोनों कबूतर अभी तक सहमें हुए थे। उनकी उड़ान सामान्य नहीं थी।

थोड़ी देर में सामान्य होने पर उड़ान लेते-लेते एक ने दूसरे से कहा, "आदमी को समझना बहुत मुश्किल हैं। पहले हमें पकड़ा, फिर छोड़ दिया! यदि हमें उड़ने को छोड़ना ही था, तो पकड़कर इतनी यातना क्यों दी? मैं तो मारे डर के बस मर ही चला था।" "चुप, बच गए न आदमी से बस उड़ चल!"

दोराहा

मैं दोराहे के बीच खड़ा था और वे दोनों मुझे डसने को तैयार थे। एक तरफ साँप था और दूसरी तरफ आदमी।

मैंने ज्यादा विचारना उचित नहीं समझा। सोचा- साँप शायद ज़हरीला न हो या शायद उसका डंक चूक जाए, लेकिन आदमी से तो मैं भली-भाँति परिचित था । और मैं साँप वाले रास्ते की ओर बढ़ गया।

बलि का बकरा

समारोह में साहित्यकार को एक नन्हा सा पौधा देकर आयोजकों ने उसका अभिनंदन किया। पौधा लेते-देते की सुंदर फोटो खींची गई। फिर जैसा कि आजकल होता है, फोटो मोबाइल के जरिये फेसबुक पर अपलोड हो गई।

साहित्यकार की फेसबुक वॉल पर उनके चहेतों ने बधाई देने का सिलसिला छेड़ दिया। उधर आयोजकों के चहेते भी उन्हें बधाई दे रहे थे। दोनों पक्ष मोबाइलों पर अपने चहेतों के 'लाइक' देख-देखकर आत्म-मुग्ध थे ।

इसी बीच जल-पान का न्योता आ चुका था। नन्हा पौध समारोह में मेज़ पर कहीं पीछे छूट गया था। समारोह में जलपान चल रहा था। लेखकों, कवियों और पत्रकारों का अच्छा-खासा जमावाड़ा लगा था। पौधे वाली फोटो कई फेसबुक दीवारों की शोभा बनी हुई थी शुभकामनाएं और बधाइयाँ अभी भी आ-जा रही थीं। उधर बलि का बकरा बना पौधा अपनी मूल मिट्टी से जुदा हुआ मुरझा चला था।

परिणाम

उस शानदार महल की दीवारों पर लगे सफेद चमकीले पत्थरों का सौंदर्य देखते ही बनता था। दर्शक उन पत्थरों की सराहना किए बिना नहीं रह सकते थे सुंदर चमकीले पत्थर लोगों से अपनी 1 प्रशंसा सुन फूले नहीं समाते थे। आलीशान महल की दीवारों पर लगे शानदार पत्थरों ने एक दिन नींव के पत्थरों से कहा, "तुम्हें कौन जानता है? हमें देखो, हमें कितनी सराहना मिलती है ?" नींव के पत्थरों ने झुंझलाकर घोड़े अशांत मन से उत्तर दिया, "हमें शांत पड़े रहने दो शांति भंग मत करो।"

सफेद चमकीले पत्थरों ने इस बार जब व्यंग्यात्मक मुसकान बिखेरी तो यह शायद नींव के पत्थरों की कहीं गहरे जा चुभी वे अशांत होकर झुंझला उठे। नींव के पत्थरों की झुंझलाहट और थोड़ी-सी अशांति के फलस्वरूप महल की कई दीवारें हिल गई और उनमें लगे कई आत्ममुग्ध सुंदर पत्थर अब जमीन पर गिर धूल चाट रहे थे।

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

रोहित कुमार 'हैप्पी'

editor@bharatdarshan.co.nz

Thursday, 11 August 2022

राही रैंकिंग-2022

राही रैंकिंग: हिंदी के वर्तमान 100 बड़े रचनाकार - 2022

(नोट :  कभी न कभी लघुकथा रचना अथवा/तथा लघुकथा आलोचना से जुड़े साहित्यकारों के  उक्त सूची में दर्ज नाम 'जनगाथा' की ओर से बोल्ड और ब्राउन इंगित किए गए हैं। जिनके नाम इंगित  करने से  छूट गए हों, कृपया टिप्पणी में लिखें।)

1. Chitra Mudgal चित्रा मुद्गल

2. Mamta Kalia ममता कालिया

3. Mridula Garg मृदुला गर्ग

4. Kashinath काशीनाथ

5. Surya Bala सूर्यबाला

6. Govind Mishra गोविंद मिश्र

7. Tejendra Sharma तेजेंद्र शर्मा

8. Neerja Madhav नीरजा माधव

9. Ramesh Chandra Shah रमेशचंद्र शाह

10. Nasira Sharma नासिरा शर्मा

11. Ramdarash Mishra रामदरश मिश्र

12. Prem Janmejay प्रेम जनमेजय

13. Maitreyi Pushpa मैत्रेयी पुष्पा

14. Ashtbhuja Shukla अष्टभुजा शुक्ल

15. Gyanranjan ज्ञानरंजन

16. Kamal Kishore Goyanka कमल किशोर गोयनका

17. Mrinal Panday मृणाल पांडे

18. Ratnakumar Sambhariya रत्नकुमार सांभरिया

19. Dhirendra Asthana धीरेंद्र अस्थाना

20. Damodar Khadse(Dr.) दामोदर खड़से (डॉ)

21. Vinod Kumar Shukla विनोद कुमार शुक्ल

22. Sanjeev Kumar (Dr.) संजीव कुमार (डॉ)

23. Nand Bhardwaj नंद भारद्वाज

24. Suraj Prakash सूरज प्रकाश
25. Vibhuti Narayan Ray विभूति नारायण राय
26. Ashok Vajpayee अशोक वाजपेयी
27. Ramdev Dhurandhar रामदेव धुरंधर
28. Pratap Sehgal प्रताप सहगल
29. Balram Agrawal बलराम अग्रवाल
30. Raji Seth राजी सेठ
31. Manisha Kulshreshtha मनीषा कुलश्रेष्ठ
32. Anjana Sandheer(Dr.) अंजना संधीर (डॉ)
33. Lalitya Lalit लालित्य ललित
34. Santosh Shrivastav संतोष श्रीवास्तव
35. Sudha Arora सुधा अरोड़ा
36. Anamika अनामिका
37. Sudha Om Dhingra सुधा ओम ढींगरा
38. Asgar Wajahat असगर वजाहत

39. Uday Prakash उदय प्रकाश

40. Pranav Bharti (Dr.) प्रणव भारती (डॉ)
41. Vishvnath Sachdev विश्वनाथ सचदेव
42. Pushpita Awasthi पुष्पिता अवस्थी
43. Rameshwar Kamboj "Himanshu" रामेश्वर कांबोज "हिमांशु"
44. Leeladhar Jagudi लीलाधर जगूड़ी
45. Vishvnath Tewari विश्वनाथ तिवारी
46. Rajesh Joshi राजेश जोशी
47. Madhu Kankariya मधु कांकरिया
48. Alok Dhanwa आलोक धन्वा
49. Harish Nawal हरीश नवल
50. Gopal Chaturvedi गोपाल चतुर्वेदी

51. Sukesh Sahni सुकेश साहनी

52. Gyan Chaturvedi ज्ञान चतुर्वेदी

53. Pratap Narayan Singh प्रताप नारायण सिंह

54. Anurag Sharma "Smart Indian"अनुराग शर्मा स्मार्ट इंडियन"

55. Mathuresh Nandan Kulshreshtha मथुरेश नंदन कुलश्रेष्ठ

56. Vishvnath Tripathi विश्वनाथ त्रिपाठी

57. Malti Joshi मालती जोशी

58. Balram बलराम

59. Neelam Kulshreshtha नीलम कुलश्रेष्ठ

60. Leeladhar Mandloi लीलाधर मंडलोई

61. Subhash Chandar सुभाष चंदर

62. Satyanarayan सत्यनारायण

63. Yograj Prabhakar योगराज प्रभाकर

64. Vijay Kumar विजय कुमार

65. Harish Pathak हरीश पाठक

66. Urmikrishna उर्मि कृष्ण

67. Siddheshwar सिद्धेश्वर

68. Shyam Behari Shyamal श्याम बिहारी श्यामल

69. Buddhinath Mishra बुद्धिनाथ मिश्र

70. Ramkishor Mehta रामकिशोर मेहता

71. Kusum Khemani कुसुम खेमानी

72. Urmila Shirish उर्मिला शिरीष

73. Naresh Saxena नरेश सक्सेना

74. Usha Raje Saxena उषा राजे सक्सेना

75. Rajani Morwal रजनी मोरवाल

76. Hariram Meena हरिराम मीणा

77. Ahilya Mishra अहिल्या मिश्र

78. Divik Ramesh दिविक रमेश

79. B L Aachchha बी एल आच्छा

80. Girish Pankaj गिरीश पंकज

81. Preeti Agyat प्रीति अज्ञात

82. Kanta Ray कांता रॉय

83. Usha Rani Rao उषा रानी राव

84. Pankaj Subeer पंकज सुबीर

85. Arvind Tewari अरविंद तिवारी

86. Meethesh Nirmohi मीठेश निर्मोही

87. Durga Prasad Agrawal दुर्गा प्रसाद अग्रवाल

88. Savita Chaddha सविता चड्ढा

89. Bhagirath Parihar भागीरथ परिहार

90. Alka Saraogi अलका सरावगी

91. Krishna Agnihotri कृष्णा अग्निहोत्री

92. Pankaj Trivedi पंकज त्रिवेदी

93. Subhash Pant सुभाष पंत

94. Indira Dangi इंदिरा डांगी

95. Hariprakash Rathi हरिप्रकाश राठी

96. Faruk Afridi फारूक आफरीदी

97. Devendra Joshi देवेंद्र जोशी

98. Rajesh Kumar राजेश कुमार

99. Ashok Bhatia अशोक भाटिया

100.Akanksha Pare आकांक्षा पारे

( नोट: संस्थान हिंदी के हर रचनाकार को सम्मानित मानते हुए सभी के सृजन को महत्वपूर्ण मानता है। उक्त सूची सर्वेक्षण आधारित है।)

(दिनांक 11-8-2022 को प्राप्त ई-मेल में प्राप्त  सूची)

प्रबोध कुमार गोविल : संयोजक


I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India