"आप हिन्दी में उत्तर क्यों दे रहे हैं, जबकि हम आपसे प्रश्न अंग्रेज़ी में पूछ रहे हैं साक्षात्कार करने वाले ने पूछा। "हमने विदेश से आपको हिन्दी बोलने के लिए नहीं बुलाया।" साक्षात्कार बोर्ड के दूसरे सदस्य ने कहा।
"श्रीमान आप मेरा जिस पद के लिए साक्षात्कार ले रहे हैं, वह ग्रामीण विकास योजना के अंतर्गत आता है। उसके लिए मुझे ग्रामीणों से सीधा संवाद करना होगा। यह संवाद में अंग्रेज़ी में तो नहीं करूँगा, ग्रामीणों की भाषा में ही करूंगा और जिस राज्य के पद के लिए आपने मुझे बुलाया है, वहाँ के लोग हिन्दी बोलते हैं।" डॉ. कुमार श्रीवास्तव ने अत्यधिक विनम्रता से उत्तर दिया।
"मिस्टर श्रीवास्तव आप हमें क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं? रूल इज़ रूल। आपको इंटरव्यू इंग्लिश में ही देना पड़ेगा। हिन्दी का ज्ञान विदेशियों के लिए रखें। वहाँ इसकी ज़रूरत है।" सामने वाले ने रुखाई और अभद्रता से उत्तर दिया।
“भद्रजन जहाँ से आया हूँ, अंग्रेज़ी तो मैं वहाँ हर समय बोलता हूँ। अपनी विशेषज्ञता देशवासियों के साथ बाँटकर देश के लिए कुछ करना चाहता था। सोचता था, शायद कुछ बदलाव ला सकूँ। स्वदेश लौटकर अपने लोगों में अपनी भाषा में काम करने के लिए इस पद को स्वीकार करना चाहता था। अब समझ में आया कि ग्रामीण योजनाएँ क्यों इतनी सफल नहीं हो रही हैं और कैसे आप जैसे लोग सुफल प्राप्त कर रहे हैं। ऐसी कार्यप्रणाली में एग्रीकल्चर और लघुग्राम उद्योग की मेरी विशेषता भी कोई सहायता नहीं कर पाएगी।" कहकर डॉ. कुमार श्रीवास्तव ने अपना ब्रीफकेस उठाया, राष्ट्रप्रेम उसमें बंद किया और कमरे से बाहर चले गए।
बेख़बर
स्कूल की मार्गदर्शक परामर्शदाता ने, किंडरगार्टन के छोटे-छोटे बच्चों को चरित्र-निर्माण का ज्ञान देते हुए समझाया कि तुम्हारे गुप्तांगों को कोई हाथ लगाए, तुम्हें डाँटे, तुम्हारे साथ कोई अनुचित हरकत करे, जो तुम्हें अच्छी न लगे या तुम्हें कोई शारीरिक चोट पहुँचाए, चाहे वे माँ-बाप ही क्यों न हों, तो पुलिस को फोन करो या टीचर से बात करो। छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग़ बड़ी-बड़ी बातों से बोझिल हो गए। विचार उलझे बालों से उलझ गए। बाल-बुद्धि ने यह ज्ञान अपने हिसाब से ग्रहण किया। पापा ने कल उसे थप्पड़ मारे थे, उसने टीचर को बता दिया। उसी का परिणाम घर में हंगामा हो रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता उनका एक-एक कमरा ख़ासकर बच्चे का कमरा बार-बार देख रही है। ढूँढ़ रही है कि कहीं कोई ऐसा सुराग मिल जाए, ताकि माँ-बाप दोषी साबित हो सकें। बच्चे को परिवार से अलग करने की बात कही जा रही है और माँ दिल पर हाथ रखकर रो रही है। पापा भरी-भरी आँखों से अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। कार्यकर्ता की बातें सुन बच्चा रुआँसा हो गया है। वह एक तरफ डरा-सहमा दुबका बैठा सोच रहा है कि शिकायत करने के बाद उसे माँ-बाप से अलग कर पोषक-गृह में भेज दिया जाएगा। ऐसा तो गाइडेंस काउंसलर ने नहीं बताया था। बालबुद्धि और उलझ गई। माँ-बाप से अलग होना पड़ेगा, सुनकर बेचैन हो गया। टीचर पर बहुत गुस्सा आया, मैडम ने और लोगों को क्यों बता दिया? उसके माँ-बाप तो बहुत अच्छे हैं। उसे बहुत प्यार करते हैं। वह उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएगा। वह कई दिनों से होमवर्क नहीं कर रहा था, तभी तो पापा ने गुस्से में एक थप्पड़ मारा था। उसने झूठ बोला था कि पापा ने कई थप्पड़ मारे थे और पापा रोज मरते हैं। वह तो चाहता था कि टीचर उसके पापा को डांटे और पापा उसे होमवर्क के लिए न कहें। माँ रोते-रोते बेहोश होने लगी। समाज सेविका पानी लेने दौड़ी। बच्चे को लगा कि उसकी माँ मर रही है। वह उसके बिना कैसे रहेगा ? रात को कैसे सोएगा उसकी माँ उसे हर बात पर चूमती है, कहानियाँ सुनाती हैं। पापा उसे ढेरों खिलौने लेकर देते हैं। उसके साथ फिशिंग, बॉलिंग, साइकिलिंग के लिए जाते हैं। वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए चिल्लाने लगा, “मेरे मम्मी-पापा को छोड़ दें। मैंने टीचर को झूठ बोला था। मेरे पापा ने मुझे थप्पड़ नहीं मारे थे।" कहकर वह भागकर माँ से लिपट गया।
समाज सेविका बच्चे का रोना देख पसीज गई। उसके अपने बच्चे उसकी आँखों के सामने घूम गए।
"बच्चे इस उम्र में परिणाम से बेखबर अनजाने में कई बार झूठ बोल देते हैं।" खुली फाइल को बंद करते हुए वह यह कहकर घर से बाहर निकल गई।
मूक भाषा
उसने घर के पिछवाड़े की खिड़की खोलकर देखा। नौकरानी ने ठीक कहा था, सुअरी ने बच्चों को जन्म दिया है और वह अधमरी पड़ी है। कई दिनों से उसने खिड़की बंद की हुई थी। नए घर बन रहे थे और एक कोने में बिल्डर ने फालतू सामान का ढेर लगा रखा था। उस ढेर पर आस-पास के घरों का कचरा भी इकट्ठा होने लगा था और साथ ही कुत्तों, सूअरों का जमावड़ा भी बढ़ गया था। वह खिड़की से बाहर देखते ही चिड़चिड़ी हो जाती। उसने खिड़की को बंद रखना ही उचित समझा।
आज वह फैली गंदगी को नहीं बस सुअरी को देख रही थी। एक जच्चा अधमरी पड़ी थी। उसने फटाफट दूध में ब्रेड डाली और बाहर की ओर चल दी। नौकरानी ने रोका- "मैडम सुअरी ने पाँच बच्चों को जन्म दिया था। सिर्फ एक बच्चा बचा है अब उसके साथ चार बच्चों का पता नहीं कहाँ चले गए। इस हालत में अपने बच्चे को बचाने के लिए सुअरी हमला कर सकती है। आप मत जाएँ।"
पर वह जल्दी-जल्दी वहाँ पहुँची। सुअरी ने थूथन उठाकर ने दयनीय दृष्टि से उसे देखा। जिस बर्तन में वह दूध और ब्रेड भिगोकर आई थी, उसने सुअरी की ओर सरका दिया। बड़ी कठिनाई से उसने वह खाया। सुअरी के पास उसका बच्चा माँ की तरह ही निढाल पड़ा था। वह उसके सूखे स्तनों से दूध नहीं पी पाया था। कुछ दिन वह सुअरी को खिलाती रही। उसके हाथ से बनाया खाना खाकर सुअरी सेहतमंद हो गई और उसका बच्चा भी उसका दूध पीने लग गया।
उस दिन वह सुअरी के लिए हलवा लेकर गई, तो सुअरी उसे देखते ही पूँछ हिलाने लगी और उसको इशारों-इशारों से अपने पीछे ले गई। थोड़ी दूर जाकर उसने ज़मीन खोदी। उसके चार बच्चे वहीं मरे पड़े थे। सुअरी की आँखों से पानी की धार बहने लगी। ऐसा लगा, एक माँ दूसरी माँ को अपना दर्द बता रही है। मूक माँ के आँसू भाषा बन गए थे- “काश, आप पहले आतीं, तो मेरे बच्चे बच जाते।
दौड़
मैं अपने बेटे को निहार रही थी। वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के अँगूठे को मुँह में डालना चाहता था और मैं उसके नन्हे नन्हे हाथों से पाँव का अँगूठा छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। उस कोशिश में वह मेरी अंगुली पकड़ कर मुँह में डालना चाहता था।
चेहरे पर चंचलता, आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे गडे, अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था और मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल लीलाओं का आनंद मना रही थी कि वह मेरे पास आकर बैठ गई। मुझे पता ही नहीं चला। मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी कि यशोदा मैया ने बाल गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा।
उसने मुझे पुकारा, मैंने सुना नहीं। उसने मुझे कंधे पर थपथपाया, तभी मैंने चौंककर देखा, हँसती, मुस्कराती, सुखी, शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे सामने खड़ी थी। बोली, “पहचाना नहीं? मैं भारत की ज़िन्दगी हूँ।" मैं सोच में पड़ गई। भारत में भ्रष्टाचार है, बेईमानी है, धोखा है, फरेब है, फिर भी ज़िन्दगी खुश है। मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली, “पराये देश, पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़ लगाते हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई।" मैं फिर सोचने लगी- भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है, फिर ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है ? ज़िन्दगी ने मुझे पकड़ लिया और बोली “भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती, अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह, नाते-रिश्तों में पलती है। तुम लोग औपचारिक धरती पर स्थापित होने की दौड़, नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और परायों से आगे बढ़ने की दौड़ ...।" मैंने उसकी बात अनसुनी करनी चाही, पर वह बोलती गई- “कभी सोचा, आने वाली पीढ़ी को तुम क्या ज़िन्दगी दोगी?" इस बात पर मैंने अपने बेटे को उठाया, सीने से लगाया और दौड़ पड़ी।
उसका कहकहा गूँजा - "सच कड़वा लगा। दौड़ ले, जितना दौड़ना है, कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी तो सोचेगी- क्या ज़िन्दगी दोगी तुम अपने बच्चे को ? अब भी समय है, लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में।" मैं और तेज़ दौड़ने लगी, उसकी आवाज़ की पहुँच से परे जाने के लिए। वह चिल्लाई- "कहीं देर न हो जाए, लौट चल।" मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी आवाज़ मेरे तक नहीं पहुँचती। पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रही हूँ?■
(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)
सुधा ओम धींगरा
4 comments:
चारों लघुकथाएँ मार्मिक हैं ।
बहुत भावुक कथा थी।मन के हर कोने को भिगो गई।बहुत सुंदर ।सच्चाई है ये सब समाज की
चारों लघुकथाएं उम्दा श्रेणी की हैं।लेखिका को हार्दिक बधाई।
बहुत अच्छी लघुकथाएँ।
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