Saturday 26 October, 2024

साहित्य की अद्भुत विधा है लघुकथा : राजेन्द्र नागर 'निरन्तर'

[भोपाल (म.प्र.) से प्रकाशित 'दैनिक सुबह प्रकाश' (शनिवार, 26 अक्टूबर 2024) के साप्ताहिक परिशिष्ट 'साहित्य प्रकाश' (पृष्ठ 4) पर प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार राजेन्द्र नागर 'निरन्तर' का संग्रहणीय लेख, उनके ही सौजन्य से प्राप्त]

राजेन्द्र नागर 'निरन्तर'
लघुकथा साहित्य की एक विशेष विधा है, जिसमें कम शब्दों में अधिक अर्थ को व्यक्त करने का प्रयास किया जाता है। या यूं कहें कि यह एक ऐसी छोटी कहानी होती है जो पाठक को थोड़े ही शब्दों में गहरा संदेश देती है। कुछ लघुकथाकार इसे अणु की संज्ञा भी देते हैं। पाठक के पास पढ़ने का कम समय होने के बावजूद भी वह लघुकथा को पढ़कर संतुष्टि पा सकता है। जैसा कि आजकल देखने में आ रहा है कि लगातार अखबार और पत्र पत्रिकाएं भी लघुकथा को एक महत्वपूर्ण स्थान दे रही हैं लेकिन कुछ लघुकथाकार, लघुकथा का सही अर्थ ना समझते हुए चुटकुलों के रूप में लेखन करते हैं या बड़ी कहानी के रूप में ले लेते हैं। मैं इसी संदर्भ में आज अपने कुछ विचार आपके साथ साझा करना चाहता हूं। 


मालवा के वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राठी के शब्दों में यदि कहूं तो 'लघुकथा बहुत ही साधना और सोच विचार के साथ लिखने वाली कथा शैली है, जिसमें हमें अपने आसपास के परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए लिखना होता है। विषय को प्रस्तुति के समय प्रामाणिक बनाना पड़ता है। लघुकथा के छोटे से आकार में हमें उसके सारे संदर्भ बिंदु समेटना होते हैं। अपेक्षित कथा विस्तार जरूरी होता है, लेकिन अनावश्यक विस्तार से बचना होता है। यह किसी बड़े पत्थर को छेनी-हथोड़ा लेकर तराशने जैसा काम होता है। उसके प्रत्येक अंग को तराशना होता है। कुल मिलाकर लघुकथा घने बादलों में कौंधती हुई बिजली के समान होती है जो एक क्षण में अपनी चमक से पाठक को चमत्कृत कर देती है।' 

लघुकथा में कम शब्दों में अधिक अर्थ के साथ साथ अंत बड़ा ही रोचक होता है। मेरे विचार से लघुकथा में तीन प्रमुख तत्व होना चाहिए। पहला संक्षिप्तता, दूसरा प्रतीकात्मकता और तीसरा पैनापन। हालांकि लघुकथा के आकार के बारे में तमाम लघुकथाकारों के अपने-अपने मत हैं। उज्जैन के लघुकथाकार संतोष सुपेकर के अनुसार 'घटना-प्रधान लघुकथा में शब्द सीमा का ध्यान रखना आवश्यक है। लेकिन लघुकथा यदि मनोवैज्ञानिक तथ्य पर केन्द्रित हो, उसमें एकालाप हो, विचार प्रधान हो तो इसकी शब्द सीमा बढ़ सकती है। मुख्य बात है पाठकीय सम्प्रेषण की। अतः लचीलापन तो हमें लघुकथा में रखना ही होगा।' लेकिन मैं जहाँ तक सोचता हूँ, लघुकथा यदि एक सौ शब्दों से ऊपर की सीमा को क्रॉस करती है तो फिर वह लघुकथा, लघुकथा ना होकर लघु कथा या कहानी का रूप ले लेती है। कतिपय लेखक आजकल लघुकथा के नाम पर चुटकुले और संस्मरण तक का सहारा ले लेते हैं लेकिन यह गलत है। इस चीज से बचा जाना चाहिए। लेखन के बाद लेखक को छपने या सोशल मीडिया पर वायरल करने की जल्दबाजी से भी बचना चाहिए। मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि लघुकथा को लिखने के बाद कम से कम आठ दिनों तक अपने पास रखकर रोज उसे पढ़ना चाहिए ताकि जब लघुकथा संपादक तक पहुँच  तो वह पूर्ण परिपक्व हो। लघुकथा में शब्दों की पुनरावृत्ति से भी बचा जाना चाहिए। इससे लघुकथा के आकार को कम किया जा सकता है। लघुकथा का अंत भी विस्फोटक तरीके से होना चाहिए ना कि उसे अनावश्यक विस्तार दिया जाए। लघुकथा में पात्र, संदेश और संवाद भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रतीकात्मकता के साथ जब पात्र प्रस्तुत होता है तो वह अपना एक अलग प्रभाव छोड़ता है। 

प्राचीन समय के लघुकथाकारों में प्रेमचंद, मंटो, शरद जोशी, परसाई आदि को लिया जाता है लेकिन आज के जो लघुकथाकार हैं, मैं जहाँ तक समझता हूँ, बेहतर संभावनाओं के साथ लिख रहे हैं। थोड़ा-सा उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है जो तमाम वरिष्ठ लघुकथाकार समय-समय पर दे सकते हैं। श्रीमती कांता राय और बलराम अग्रवाल भी इस क्षेत्र में सक्रियता के साथ काम कर रहे है। 

अंत में, मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि लघुकथा अब अपने पूर्ण यौवन के साथ अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पा रही है जो कि समय की माँग भी है। लघुकथाकार इस पर मेहनत करते हुए काम करें ना कि सिर्फ दिखावे के नाम पर कुछ भी लिख दें।

लेखक सम्पर्क : +91 94259 16606