उपन्यासकार व कहानीकार विजय ने हिन्दी लघुकथाओं की सम्प्रेषण क्षमता से प्रेरित होकर सन् 2004-05 में लघुकथा लिखना प्रारम्भ किया। अब तक उनकी लघुकथाएँ वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाबिंब, हरिगंधा(लघुकथा-विशेषांक), सनद, संरचना(लघुकथा वार्षिकी) आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘जनगाथा’ के जून 2009 अंक में प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चर्चित लघुकथाएँ—
आदर्श गाँव
कुछ ही दिनों में गाँव का नक्शा बदल गया। लाला की छोटी-सी दुकान जिसमें जरूरत की हर चीज मौजूद रहती थी, बड़े-से डिपार्टमेंटल-स्टोर में बदल गई। निर्मल सिंह का मुख्य सड़क के साथ खड़ा खोखा जहाँ सर्दियों में चाय और पकौड़े थाल में रखे रहते थे व गर्मियों में हंडिया में मथनी से मथकर लस्सी भी पिला दी जाती थी, वहाँ पक्की दुकान बन गई। चाय-कॉफी की मशीन लग गई और कोल्ड-ड्रिंक के क्रेट्स आने लगे। कंपनी फ्रिज भी लगा गई। मैला राम की पान की टोकरी, जिसमें घर की बनी खैनी भी रहती थी, अब एक दुकान में बदल गई। दुकान में जाने कितनी तरह के शीशे लटके रहने लगे। एक बैंक ने भी अपनी छोटी-सी शाखा पंचायत की इमारत में खोल दी थी। सरपंच के दस्तखत करते ही उधार मिल जाता था, आसान किश्तों पर।
किसान और उसके बीवी-बच्चे, जो कभी नीम और कभी बबूल की डालियाँ तोड़कर दातुन कर लेते थे, अब हर महीने टी वी पर विज्ञापन देखकर अपना ब्रश और पेस्ट बदलने लगे। बिजली की सप्लाई अच्छी न होने पर भी कई घरों में वॉशिंग मशीनें आ गईं। एक डेरी खुल गई। आमदनी कुछ ही घरों की बढ़ी, मगर जरूरत हर घर में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। अब लोगों ने मेहमानों को आने पर दूध, मट्ठा देना बंद कर दिया, क्योंकि जरूरतों की आपूर्ति में वे पूरा दूध डेरी पर पहुँचाने लगे थे। अब मेहमान आता तो कोल्ड-ड्रिंक मँगा देते या चाय के साथ पैकिटों में आने वाला नमकीन रख देते।
कई खेत-मजदूरों के परिवार गाँव छोड़कर शहर चले गए क्योंकि जब शहरी की तरह रहना है, तो शहर में रहना ही ठीक रहेगा। वहाँ काम भी पूरे साल रहता है। गाँव में रहकर क्या करेंगे, जब मट्ठा भी किसी घर में न मिले।
चुनाव के समय उस क्षेत्र के एम एल ए ने गाँव को आदर्श गाँव करार देते हुए कहा,“यह हमारी सरकार की उदार-नीति की वजह से ही संभव हुआ। अब हमारे ग्रामीण भाइयों को काम के लिए भागना नहीं पड़ता, बैंक उनके द्वार पर पहुँचकर कर्ज देने आता है। इस बार भी अगर हमारी पार्टी को आपने सरकार बनाने का मौका दिया तो आसपास का हर गाँव आदर्श गाँव बन जाएगा।”
इंसाफ
गाँव में पानी की कमी नहीं थी। लोग खुशहाल थे। बड़े टोले में ब्राह्मण, बनिये और ठाकुर रहते थे। छोटे टोले में दूसरी जातियों के लोग रहते थे। गाँव का मुखिया सूरज प्रताप सिंह न्यायप्रिय व्यक्ति था। पंचायत दूध का दूध और पानी का पानी कर देती थी। सूरज प्रताप सिंह का लड़का चन्द्र प्रताप सिंह उनकी कमजोरी था। इकलौते बेटे से बेहद प्यार करते थे।
एक दिन चन्द्र प्रताप सिंह छोटे टोले में वारदात कर आया। रोती-कलपती नारायणी ने घर जाकर माँ से शिकायत की। माँ ने बेटे मल्लू को बताया और लाठी उठाते मल्लू ने सल्लू, अपने पिता को। मल्लू लाठी से सजा देना चाहता था और सल्लू चाहता था कि दण्ड पंचायत दे।
सल्लू की शिकायत पर पंचायत बैठी। सरपंच के पूछने पर चन्द्र प्रताप सिंह ने अपना अपना कुबूल कर लिया। पिता होते हुए भी सरपंच ने सजा सुना दी—गाँव के लोगों के सामने पचास कोड़े! लोग वाह-वाह करने लगे।
तभी नारायणी सामने आ खड़ी हुई—“मेरा क्या होगा?”
सल्लू रो पड़ा—“कौन ब्याहेगा अपना बेटा मेरी बेटी से?”
सरपंच ने कहा—बहुत-से लोग गरीब हैं तुम्हारी जात में। मैं विवाह करने वाले को बड़ी रकम दूँगा। दौड़-दौड़ कर ब्याह करने वाले आयेंगे।”
“नहीं, मेरा विवाह अपने बेटे से कर दो। उसी ने मेरे साथ कुकर्म किया है। उसी को निभानी होगी मेरे साथ जिन्दगी!”
सरपंच और पंच अवाक-से देखते रहे, मगर बड़े टोले वालों ने लाठियाँ उठा लीं। छोटी जात की लड़की से विवाह! असम्भव।
छोटे टोले वालों ने भी लाठियाँ उठा लीं—जो काम आदमी औरत के साथ विवाह के बाद करता है, वह काम नारायणी के साथ विवाह से पहले क्यों किया चन्द्र प्रताप सिंह ने?
इस गलती का मुआवजा दे रहे हैं सरपंच!
बड़े टोले और छोटे टोले में बहस चलती रही। नारायणी समझ गई कि चाहे लाठियाँ चल जाएँ, लोग कट मरें, मगर जाति को लेकर कभी भी इंसाफ सच्चाई के करीब नहीं पहुँच सकता है। वह वहाँ से हट गई।
बहस के बीच पास ही के कुएँ से ‘छपाक्’ का शोर उठा। काफी कोशिश के बाद कुएँ से जो लाश निकली, वह नारायणी की थी।
स्वाद
दो देशों में युद्ध छिड़ा हुआ था। एक पहाड़ी पर अचानक उन देशों के सिपाही आमने-सामने हो गए। दोनों, दुश्मन सिपाही से बचने के लिए पेड़ की ओट में आकर बंदूकें दागने, मगर कुछ हुआ नहीं। तभी एक पेड़ के पीछे से आवाज आई—“गोलियों से बच गया, पर अब तू बचेगा नहीं। तुझे मारकर देश का एक दुश्मन तो खत्म होगा ही।”
दूसरे पेड़ के पीछे से भी वैसे ही कटु शब्द उभरे—“तुझे मारकर मुझे पुण्य ही नहीं, पुरस्कार भी मिलेगा कमीने।”
और दोनों तरफ से हैंड-ग्रेनेड उछाल दिए गए। दोनों ही के शरीर फट गए। पेड़ों पर बैठे दो गिद्ध किचकिचाकर किलक उठे—“मजा आ गया! दोनों दुश्मन थे तो उनके मांस का स्वाद भी अलग-अलग होगा।”
गिद्धों ने एक-एक लाश का मांस नोंचकर खाया। फिर लाशें बदलकर खाईं। एक ने दूसरे से पूछा—“तुझे फर्क लगा?”
“नहीं तो।”
“मुझे भी नहीं लगा!”
ऐसा होता ही है
पत्रकार ने एक बूढ़े रईस अरब द्वारा नाबालिग हिन्दुस्तानी लड़की से विवाह का भंडाफोड़ कर दिया। लड़की नारी-निकेतन भेज दी गई, मगर पुलिस बूढ़े अरब को नहीं पकड़ सकी। वह अपनी एम्बेसी पहुँच गया और एम्बेसी ने उसे देश भेज दिया।
पत्रकार को सम्मानित करना था, इसलिए बड़ी सभा का आयोजन सरकार द्वारा हुआ जिसमें जनता बुलाई गई थी। समारोह चल ही रहा था कि एक आदमी ने खबर दी—पास की बिल्डिंग के चार नौजवानों ने एक दस वर्षीय लड़की से बलात्कार कर उसे मारकर सड़क पर फेंक दिया।
पुलिस आ गई। लड़की पूरी तरह मरी नहीं थी। अंतिम साँसें लेते हुए उसने चारों के नाम बता दिये।
खबर पत्रकार ने भी सुनी। किसी ने पूछा—“आप लिखेंगे?”
“क्या फायदा। ऐसा तो रोज होता रहता है।”
भूत-1
शहर के विशाल मनकामेश्वर देवालय में रोज ही पट बंद हो जाने के बाद दर्शनार्थी भूतों का ताँता लग जाता। एक दिन भूत भोलासिंह ने रुद्रप्रताप नामक भूत से पूछा—“क्या मनौती माँगते हो भगवान भूतनाथ से?”
एक दीर्घ नि:श्वास खींचकर भूत रुद्रप्रताप ने कहा—“मैं इसी शहर का रहने वाला था। मेरी शादी एक बहुत ही सुंदर लड़की से हुई थी जिसे मैं बेतहाशा प्यार करने लगा था। मगर मुझे नहीं मालूम था कि उसका एक प्रेमी भी है। अपने प्रेमी के साथ षड्यंत्र रचकर उसने मेरी हत्या कर दी। वह अक्सर इस मंदिर में आती है। जिस दिन भी अकेली मिल गई…।”
बीच में ही बोल पड़ा भूत भोलासिंह—“…तो तुम उसकी हत्या कर दोगे?”
नहीं भाई। मैं उससे प्यार करता था और आज भी करता हूँ।”
“फिर?”
“मैं उससे पूछूँगा कि प्रेमी के प्यार के मुकाबले पति का प्यार क्यों निरर्थक-सा रह जाता है?”
भूत-2
भूत रुदप्रताप ने भी एक दिन भूत भोलासिंह से पूछ लिया—“तुम इस मंदिर में क्यों रोज आते हो?”
“क्योंकि मेरी प्रेमिका भी यहाँ रोज आती है और हम दूसरों से निगाह बचाके चुपचाप मिल लेते हैं।”
“चुपचाप क्यों?”
“असल में, पिछले जन्म में मैं दलित था और मेरी प्रेमिका सवर्ण। सवर्ण हमारा प्यार सह नहीं सके और एक गुण्डे को पैसे देकर उन्होंने मुझे मरवा दिया। मेरी प्रेमिका ने दु:खी होकर जहर खा लिया।”
“फिर तो भूत-भूतनी बनकर दोनों साथ रह सकते हो?”
“नहीं भाई! भूतों में क्या कम जातिवाद है!”
“भगवान भूतनाथ से क्यों नहीं कहते हो?”
“जातिवाद को मिटाना तो उनके वश की बात नहीं है। इसीलिए मैं रोज प्रार्थना करता हूँ कि अपनी तरह हम दोनों को भी अर्द्धनारीश्वर बना दें; ताकि हम भी अभिन्न होकर जी सकें।”
अन्तर
गाँधी और मार्क्स एक दिन घूमते हुए अपने-अपने उपग्रहों से बाहर निकलकर तीसरे उपग्रह में पहुँचकर मिल बैठे। मार्क्स ने नि:श्वास खींचकर कहा—“मैं वर्गहीन समाज की कल्पना करता रहा। सोचता था कि लुटेरे पूँजीपतियों की पूँजी एक दिन सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगी। मगर देख रहा हूँ कि सोवियत संघ टूट गया, आधा चीन बाजारवाद के दंगल में व्यस्त है और हिन्दुस्तान में बंगाल जैसे साम्यवादी प्रांत में, वहाँ का मुख्यमंत्री विदेशी पूँजी-निवेश के लिए हाँक लगा रहा है।”
गाँधी ने भी नि:श्वास खींची—मैं रामराज्य चाहता था। गाँवों को सम्पन्न बनाना चाहता था, उद्योगपतियों का हृदय परिवर्तन करना चाहता था और धर्म को सहिष्णुता का प्रतीक बनते देखना चाहता था…मगर…।”
“हाँ, न सत्य रहा और न अहिंसा!” मार्क्स ने कहा।
“हाँ, वर्ग-संघर्ष भी नहीं रहा। जम गया वर्ण-सघर्ष। हम दोनों नाबाद हो गये।” गाधी बोले।
मार्क्स ने यथार्थ महसूस किया और कहा—“मेरी चाहनाओं और तुम्हारी चाहनाओं में अन्तर नहीं था। मगर मेरे और तुम्हारे अनुयायी एक-दूसरे को मिटाने में जुटे रहे। परिणाम----एक नृशंस अमरीका का जन्म!”
विजय जी का संक्षिप्त परिचय:
कथाकार विजय, सेवानिवृत वैज्ञानिक(रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) हैं। इनका जन्म 06 सितम्बर, 1936 को आगरा(उत्तर प्रदेश) में हुआ। एक किशोर उपन्यास समेत इनके अब तक 6 उपन्यास, 15 कहानी-संग्रह, 2 बाल-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक कहानियों का अँग्रेजी, उर्दू, उड़िया, तेलुगु आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कथाकार जोगिंदरपाल के उपन्यास ‘पार परे’ समेत उनकी अनेक कहानियों और लघुकथाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कर चुके हैं। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित।
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