Monday, 9 December 2019

समकालीन लघुकथा : दशा और दिशा की तलाश में युवा कथाकार

(दिव्या राकेश शर्मा की एक जिज्ञासा के बहाने एक स्तरीय परिचर्चा देखने को मिल रही है, जिसका अब तक का रूप साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। उम्मीद है कि यह परिचर्चा हमें एक सार्थक दिशा देने में सक्षम सिद्ध होगी। - - बलराम अग्रवाल) 

दिव्या राकेश शर्मा की  जिज्ञासा और उसके समाधान की दिशा तलाशते कुछ जवाब

जिज्ञासा :
लघुकथा विधा को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रश्न मेरे मष्तिष्क में लगातार आता है। कई बार सोचती हूँ कि क्या इस पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए?

*नवोदितों_के_सरंक्षण_में_लघुकथा_का_भविष्य*

§ क्या हम इस विषय पर बिना दुर्भावना के परिचर्चा कर सकते हैं?
§ क्या हमारे वरिष्ठ इस परिचर्चा पर आकर हमें उचित परामर्श दे सकते हैं?
§ साथ ही यह भी बताएंँ कि क्या 'सरंक्षण' शब्द यहाँ गलत प्रयुक्त हुआ है?

*समाधान की दिशा में बढ़ते कदम*

1. आभा अदीब राजदान
इसमें विभिन्न पहलू हैं, लेखन एक अंतहीन विस्तृत क्षेत्र है। हम में से हर एक लिखने के लिए विषय का चयन अपनी पसंद का ही करते हैं । बहुधा हमारे जीवन में जो बात हमें बहुत पीड़ा दे या सुख दे हम उसी पर ही लिखते हैं । 
जिन्होंने भी इस विधा पर बहुत काम किया है, उनके अनुभवों से, उनकी रचनाओं को पढ कर निश्चित ही बहुत कुछ सीखा जा सकता है । फिर भी चाहे नवोदित हों या कम समय से लिखने वाले हों, सभी अपने अंदाज से अपने अनुभव से व अपनी क्षमता से ही लिखेंगे ।
पाठकगण जिस भी रचनाकार की रचना पढ कर स्वयं अपने को उससे जोड़ पाते हैं, वह तो वही पढते हैं । हर पढने वाले की पसंद अलग है । हम किसी को भी किसी का लिखा कह कर पसंद नहीं करवा सकते हैं । 
जरूरी नहीं कि जिनकी बहुत पुस्तकें छपी हैं उनका लेखन भी बेहतरीन हो या जिनकी कम छपी हों वह सुंदर नही लिख रहे हैं । जब जीवन ही क्षण भंगुर है तो आगे भविष्य की बात कह पाना मुश्किल लगता है । यह भविष्य का काम है और वह स्वयं ही बताएगा । 
बस इतना जरूर कहूँगी कि लघुकथा एक सुंदर विधा है, लोकप्रिय विधा है, बहुत लोग लिख रहे हैं, बहुत लोग पढ भी रहे हैं । विधा के मापदंडों को समझ के हम ईमानदारी से लिखते रहें अपना काम करते रहें । जो पढते हैं उन्हे हमारा लिखा भला लगे, हमारा लेखन सार्थक हो । 

2. मृणाल आशुतोष 
नवोदित (हम सभी, जिन्होंने 2010 के बाद लिखना शुरू किया है)  लघुकथा के भविष्य के लिये बेहतर सम्भवना दिखा रहे हैं, इसमें शक नहीं। हमें कुछ वरिष्ठों के आपसी मतांतर से बचते हुए उनके अनुभव और ज्ञान का सदुपयोग करना है और केवल लघुकथा पर केंद्रित रहना है। जैसे, अर्जुन चिड़िया की आँख पर केंद्रित था। अधिकाधिक पढ़ें। पोस्टबाज़ी से यथासम्भव बचें। फेसबुक के इतर खूब पढ़ें। दूसरी विधाओं को भी खूब पढ़ें। अपने साथियों का सहयोग करें और सहयोग लें भी। कम लिखें। लघुकथा आकार में छोटी होती है। कम लिखेंगे, गम्भीरता अधिक आयेगी। जब कोई लघुकथा सम्बंधित आयोजन करता है या पुस्तक निकालता है, उसे रचनात्मक सहयोग देने की कोशिश जरूर करें।
अधिकतर वरिष्ठ हमारे साथ हैं और हमेशा सहयोग को तत्पर रहेंगे। इसके लिये निश्चिंत रहें। कुछ लोग सहयोग नहीं भी करने वाले हैं। ऐसे लोग अप्रत्यक्ष रूप से हमें बेहतर करने हेतु प्रोत्साहित करते हैं।

3. अपराजिता अनामिका 
प्रिय दिव्या राकेश शर्मा , बहुत कुछ कहना है लेकिन सिर्फ तुम्हारे सवालों पर केंद्रित होती हूँ कि "नवोदितों के संरक्षण मे लघुकथा का भविष्य!"
1:-अब पहला सवाल कि नवोदित किसे कहें? 
2 :- लघुकथा है क्या ? इसकी परिभाषा ?
3 :- संरक्षण ??? 
वर्षों कलम चलाते लेखक नवोदित पुरस्कार के लिए नामांकित होतें हैं तब ?? क्षमासहित कहूँ तो अभी तक बहुत से पुरस्कृत लेखकों की शायद ही एकाध रचना यादगार लिखी गयी हो ...और जो वाकई लिखा करते थे, उन्हें मठाधीशों की रंजिश निगल गयी। मैं 2016 के उस स्वर्णिम काल मे आई थी, जब वाकई कुछ लेखिकाओं की लेखनी कौंधती थीं और उसका कारण भी था कि वे सजग और समर्पण भाव से सीख रही थीं न कि स्वमुग्धा थीं। ...आज 2018 तक आते-आते (2019 जाते-जाते - - - बलराम अग्रवाल) सब लघुकथा पटल से धूमकेतु की तरह गायब हैं और कुछेक की कभी-कभार आती भी हैं कथाएंँ, तो उनमें वो बात नजर नहीं आती । 
कोई भी नवोदित सालभर में इस विधा को समझे न समझे, मगर इतना जरूर जान जाता है कि उसे किस 'मठ' की सदस्यता लेनी है और किस तरह औरों को इग्नोर करना है । इसलिए अब यह शब्द *नवोदित* ही मायने नहीं रखता ।
लघुकथा पर आज तक मैंने सिर्फ और सिर्फ एक ही नियम को फॉलो किया और मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ कि जहाँ तक इस विधा को समझी हूँ (बकौल फेसबुक) मेरी लघुकथाओं ने हमेशा किसी न किसी नब्ज को पकड़ा ही है । 
जिस विधा के इतने खेवनहार , नियम कानून और संविधान बनाने वाले हों, वहाँ इसकी अस्मिता और खुद इसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न है, वहाँ कुछ और कहना बेमानी ...
हालांकि कुछ बच्चे (नवोदित ) जैसे Anil Makariya ji, Kavita Jayant Srivastava की लघुकथा मुझे खींचती है। और भी बहुत से लोग लिख रहे, पर सशक्त कथानक के बावजूद शिल्प मे मात खा जाते हैं। कहीं शब्दों की भरमार तो कहीं कोई परेशानी...
अब आते हैं संरक्षण पर। तो ये शायद तब से संरक्षित है जब फेसबुक न था और न मठाधीशी थी, न स्वमुग्धों की जमात न कथित गुरु न व्यथित शिष्य ....
यह विधा थी, है और रहेगी ...जरूरत सिर्फ इतनी है कि अन्य विधाओं की तरह इसे भी सामान्य नियम कानून और व्यवस्था के तहत स्वीकारा जाए। 250 से 350 या अति 400 शब्दों की सीमा ही हो, वरना ये लघुकथा न होकर गाथा होने लगती है और जहाँ तक मुझे लगता है कि हर घटना को लघुकथा बनाने की बीमारी खत्म हो।

3अ. मृणाल आशुतोष 
कोई मठ नहीं है। और  न ही कोई मठाधीश। इन शब्दों के प्रयोग से मुझे हँसी आती है।
बाकी आपने बेहतर लिखा है।
सबके गायब होने के पृथक-पृथक कारण होंगे। मैंने 6 महीने में 4 लघुकथाएँ लिखी हैं। मुझे भी कई लोगों ने पूछा कि लिखना क्यों बन्द कर दिया? इसीलिए इन चीज़ों को नजरअंदाज करते हुए विधा पर केंद्रित रहने की जरूरत है।....... अपराजिता अनामिका, लेखन से मान लिया वरिष्ठ आपको। पर ये दो चार-साल, बीस साल से कोई वरिष्ठ नहीं हो जाता। साहित्य की समझ और सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन अधिक मायने रखता है। कई वरिष्ठों को जानता हूँ जिन्होंने तथाकथित विशेषण को छुपा रखा है।

3आ. कविता जयंत श्रीवास्तव 
दरअसल आजकल हर कोई स्वयं को वरिष्ठ समझने लगा है। साल दो साल लिख कर ही, क्यों Anil Makariya जी? क्या मैं सही कह रही हूं? 
खैर हम तो वैसे भी कई वरिष्ठ लेखकों की लघुकथा का विषय तक बन चुके हैं, कभी गुब्बारे तो कभी नई प्रतियां कहकर हमारे ऊपर भड़ास निकाली जाती है। उनके हिसाब से नए गुब्बारों ने, साहित्य-आकाश को आच्छादित कर रखा है और जो वास्तविक उत्तम लघुकथाएँ हैं, वे अलमारी पर धूल खा रही हैं ।

3 इ. अपराजिता अनामिका 
कलम के साधक को पहचान मिलती ही है भाई! और मैं इस मामले में बहुत खड़ूस हूँ। जबतक मुझे रचना खींच न सके, मैं तारीफ तो क्या लाईक भी नहीं करती । इस कारण बड्डे-बड्डे लोग खासे तफलीक में हैं मुझसे। पर मुझे कोई खास फर्क नहीं पडता ..
हम यहाँ सीखने-सिखाने और कलम के लिए जुड़े हैं तो इतनी ईमानदारी जरूर हो कि जो भी रचना योग्य हो, उसे मुक्त कंठ से सराहा जाए, और मैं करती हूँ, भले मेरी रचना पर कोई आए या न आए; या वो रचना मेरे दुश्मन की ही क्यों न हो । और मैं ये जरूर चाहती हूँ कि यह परम्परा आप जैसे कलम साधकों से आगे बढ़े ताकि कभी कोई प्रतिभा सिर्फ इसलिए न कलम रख दे कि उसे किसी ने निष्पक्ष सिखाया नहीं, सराहा नहीं ..। 

4. नीरज जैन
अपराजिता अनामिका जी की बात को ही आगे बढ़ाना चाहूँगा। 
बात शुरु करते हैं मठाधीश से.... 
कुछ अर्थो में इन्हें वरिष्ठ भी कह सकते हैं। 
जब कोई नवोदित किसी समूह में आता है तो वो सबके लिये 'आदरणीय' शब्द का प्रयोग करता है (यहांँ केवल शब्द 'आदरणीय " को ही ना पकड़े ) सभी के प्रति आदर भाव होना लाजिमी है ।
कुछ समय बाद इसमें श्रेणीयाँ बन जाती है
अत्यधिक आदरणीय
अति आदरणीय 
आदरणीय
अति सामान्य आदरणीय 
वजह भी जानें - - - 
1 कौन बुजुर्ग है? 
2 किसका प्रकाशन हाउस है? 
3 कौन समूह का एडमिन है? 
4  कौन पत्रकार है?  वगैरह वगैरह। 
अब तक नवोदित बहुत-कुछ समझ रहे होते हैं; पर विरोध किसी का नहीं करते। 
धीरे-धीरे एक कोशिकी जीव 'AMIBA' की तरह कोशिकाओं का विघटन होकर नये समूह, नये मठाधीश बन रहे हैं। 
अब नवोदित, जो अपने आप को सामान्य रूप से वरिष्ठ मान रहा होता है, उसे लगता है कि मैंने नया 2 BHK Flat ले लिया है, अपने आप को कई समूहों का सदस्य मानने लगता है। 
अब मुख्य मुद्दा 
इन सब के दौरान उसे किसी ने कुछ नहीं सिखाया। मामूली गलती पर नीचा दिखाया। होड़ा-होड़ी के चक्कर में किसी भी कथा के कमजोर बिन्दु उठाये गये। एक ने आलोचना की तो दस और आ गये। 
बेहतर हो, बड़ी ही विनम्रता से लघुकथा का मजबूत और कमजोर पक्ष रखा जाये। जरूरी नहीं, गुरु बनें; मित्र बनो भाई!

5. संदीप तोमर 
दिव्या, लघुकथा हो या साहित्य की कोई अन्य विधा, न ही वह वरिष्ठजनों की बपौती है ना ही नवोदितों की। जो लिखेगा वो टिकेगा।
अब देखो, हमारे कितने ही शिष्य/ शिष्याएंँ अच्छा लिखने लगे हैं, कई स्तरीय पत्रिकाओं में छप रहे हैं, अच्छा लगता है देखकर।
कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कि जितना हमने जान लिया, वही अल्टिमेट है। उन्हें कुछ सुझाव भी दो तो सींग उठाकर सामने होते हैं। 
नवोदित हो या वरिष्ठ, जिसकी लेखनी में दम होगा, वह अपनी उपस्थिति दर्ज करेगा। हाल ही में मैंने एक पत्रिका में एक लेखिका की रचना की विवेचना लिखी। एक महाशय ने उसे कभी ऑडियो या वीडियो के रूप में इस्तेमाल किया होगा, उन महाशय का ऐतराज था कि समीक्षक ने मेरा महिमामंडन क्यों नहीं किया? अब समीक्षा के बिंदु पुनः तलाशने होंगे। पहले यह पता लगाना होगा कि जिस रचना पर लिखना है, वह कहाँ-कहाँ प्रकाशित/प्रसारित हुई, उसका वाचन कहाँ-कहाँ हुआ, आदि आदि। 
यानी आप रचना पर बात न करके केवल महिमामण्डन करते रहें। लघुकथाओ के महारथी बहुत हैं, सारथी या रथी बहुत कम। 
क्या किया जाए, बहुत कठिन है डगर पनघट की।

6. चंद्रेश कुमार छतलानी 
कोई भी विधा तभी संरक्षित रह सकती है, जब तक उसके साथ प्रयोग चलते रहें। थोड़ा-सा लीक से हटकर, भारतवर्ष की बात करें, तो विश्वगुरु का टैग लगाकर हम गौरवान्वित तो हो सकते हैं, लेकिन आज की तारीख में हम अपनी ही गुरुता के प्रति स्वयं भी कितना गुरुत्वाकर्षण रख पा रहे हैं, यह हृदय में हम सभी जानते हैं। कारण मुझे यह लगता है कि एक समय से हम अपने ज्ञान का समय के साथ परिष्करण नहीं कर पाए। 
यही लघुकथा के साथ भी है। सरंक्षण तो आवश्यक है ही, लेकिन पुनः कहना चाहूँगा कि समय के साथ उचित बदलाव ही इसे संरक्षित रखेगा। 
समय के अनुसार विषय, समय के अनुसार शैली, समय के अनुसार भाषा आदि ही किसी भी विधा को उस समय के अनुसार नवीन बनाकर रख सकती है।
और, यह कर्तव्य नवोदितों का ही है। मैं अनघा जी की लेखन की उम्र के अनुसार वरिष्ठता वाली बात से पूर्ण सहमत होते हुए, एक पक्ष यह भी रखना चाहूँगा कि सबसे पहले नवोदित उन विषयों की तलाश करें जिनका आज अंकुरण हो चुका है और जिन्हें परिपक्व होना बाकी है। उन का अध्ययन करें, उन पर मंथन करें, कल्पना करें और वर्तमान व भविष्य में अच्छे-बुरे की संभावनाओं को अपने सृजन से जोड़ें। इसके पश्चात भाषा, शैली आदि पर भी समयानुसार ही कार्य करें। 
एक नवोदित होते हुए भी मैं आश्वस्त भी हूँ कि कुछ लघुकथाकार ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। मेरे अनुसार तो कई सारे अन्य पक्षों के साथ-साथ यह पक्ष भी लघुकथा को सरंक्षित रखने में महत्वपूर्ण है।

7. अनघा जोगलेकर
यह सदियों से चला आ रहा है कि बड़े अपनी धरोहर विरासत के रूप में अपने छोटों को देते आये हैं।
कंपनीज में भी रिटायरमेंट का प्रावधान होता है ताकि नए लोगों को आगे आने का मौका मिले; लेकिन मुझे लगता है कि साहित्य और राजनीति, दो क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ रिटायरमेंट की कोई अवधि तय नही है। लेकिन क्या उम्र ही वरिष्ठ होने के लिए काफी है? मुझे ऐसा नहीं लगता।
कई लोग अपनी उम्र के 60वें पड़ाव पर लिखना शुरू करते हैं तो वे वरिष्ठ नहीं कहलाते; वहीं कुछ 15 साल की उम्र में ही लिखने लगते हैं। 
लेखन के क्षेत्र में वरिष्ठ खुद की उम्र से नहीं, लेखन की उम्र से जाना जाता है।
आज लघुकथा के क्षेत्र में जितने भी वरिष्ठ हम जानते हैं, वे सब उम्रदराज हैं; लेखन में भी और आयु में भी। उन्हें यथोचित सम्मान भी मिलता है और मिलना भी चाहिए।
अब बात आती है नवोदितों की। नया लेखन है, तब तो ठीक है; लेकिन लिखते-लिखते वे भी धीरे-धीरे वरिष्ठता की सीढ़ी चढ़ने लगते हैं । कइयों को गुमान भी हो जाता है कि अब वे वरिष्ठ हो गए हैं।
प्रश्न यह है कि आखिर नवोदित कब तक नवोदित रहेगा? उसे मार्गदर्शन देना, उसके लिए मार्ग प्रशस्त करना वरिष्ठों की नैतिक जिम्मेदारी हो सकती है; लेकिन हर नवोदित को अपना स्थान खुद ही बनाना होगा।
आज लघुकथा मुख्यतः नवोदितों के हाथ में ही दिखती है। वरिष्ठों ने अपनी पूरी मेहनत और लगन से उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास किया है। अब बाकियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उसे और ऊँचा लेकर जाएँ।
आज कई नवोदित बहुत अच्छा लिख रहे हैं । उनके पास लघुकथा का भविष्य सुरक्षित भी लग रहा है; लेकिन यह जो आज हर कोई लघुकथा लिख रहा है और अपने आप को ही सही साबित करने में लगा है, इस विधा के जानकारों को बुरा भला कह रहा है, ऐसों के संरक्षण में यदि लघुकथा रही  तो इसका भविष्य खतरे में आ सकता है।
लेकिन जहाँ एक ओर गलत है, वहीं दूसरी ओर सही भी है। और यह सही वाला पलड़ा अंततः भारी ही होगा। 
नवोदितों को वरिष्ठ बनने का सफर खुद शिद्दत से तय करना होगा और लघुकथा का भविष्य सँवारना होगा। और ये नवोदित मुट्ठीभर ही क्यों न हों, यदि अच्छा लिख रहे हैं तो इनके संरक्षण में भी लघुकथा का भविष्य सुरक्षित ही होगा।

8. अरुण धर्मावत
प्रातः से सांझ हो गई ... समस्त क़लम साधकों ने अपने अपने ढंग से बात कही। 
कुछ तल्ख़ी, कुछ व्यंग्य, कुछ हास्य तो कहीं दंभ ! इन्हीं मिश्रित भावों, विचारों से परिपूर्ण ये चर्चा/ वादविवाद चल रहा है। सबके अपने तर्क कुतर्क, पक्ष विपक्ष, प्रवचन के नैपथ्य में मूल विषय लोप हो गया । 
दिव्या जी आपका मूल प्रश्न था। क्या लघुकथा का भविष्य नवोदितों के "सरंक्षण" में सुरक्षित रह पाएगा? 
मेरा मानना है "संरक्षण" शब्द के स्थान पर प्रयास होना उचित होगा। 
जीवन एक धारा है जो कभी सतत नहीं बहती समय काल परिस्थितिवश अनेकानेक परिवर्तन आते रहते हैं। कभी ज्वार कभी भाटा तो वायु के वेग से उसके प्रवाह से लहरें बनती बिगड़ती रहती है।
जिस प्रकार जीवनचर्या, खान पान, वेश भूषा, रुचि परिवर्तित होती रहती है उसी तरह कला, साहित्य, संगीत में भी अनेकानेक परिवर्तन अवश्यम्भावी है। जैसे राजा रवि वर्मा की चित्र शैली से लेकर वर्तमान आधुनिक कला का सफर चल रहा है उसी भांति साहित्य लेखन में भी अनेक विधा एवम शैलियां पढ़ने को मिली है । भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महादेवी वर्मा का छायावाद तो प्रेमचंद से लेकर विष्णु नागर तक असंख्य लेखकों ने अपने अपने ढंग से सृजन किया। 
अब प्रश्न ये है जो आज की व्यथा है ....
सर्वश्रेष्ठ कौन अथवा सर्वांग स्वीकार्य विधा क्या? इस बात पर मेरा मानना है ये अधिनायकवाद क्यों ?
किसी भी लेखक की कृति अथवा सृजनता को चंद लोगों द्वारा उचित अनुचित बता देने मात्र से क्या वो रचना समुचित प्रभाव छोड़ पाएगी?  क्या चंद निर्णायक समग्र विधा को अपने तरीके से ठेल लेंगे।
एक उदाहरण देता हूँ ....आकाशवाणी के जिन सज्जन ने अमिताभ बच्चन को 'वॉइस टेस्ट' में फ़ेल कर दिया क्या उनकी निर्णय क्षमता को ही सर्वांग मानकर अभिताभ को रिजेक्ट कर दिया जाए?जबकि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या । कालांतर में जो भी घटित हुआ वो सबके सामने है।
अर्थात मेरा कहना है लघुकथा को बाड़ेबंदी से मुक्त किया जाए। विधा के पिंजरे से सृजन के पंछी को मुक्त कर उन्मुक्त गगन में उड़ने दिया जाए और निर्णय पाठकों पे छोड़ दिया जाए । 
जैसे ईश भक्ति का अपना महत्व है, आराधना का अपना भाव है। इसे भिन्न-भिन्न डेरों में, मठों में, आश्रमों में विभक्त न किया जाए। क्योंकि, 
शब्द तो साधना है
मन की ये उपासना है
अभिव्यक्ति है अनुभूति
जैसे ईश की आराधना है ....
लेखक को अपनी आराधना अपने ढंग से करने दी जाए इसे आसाराम, रामरहीम, रामकृपाल जैसे अनेक संकुचित एवं संकीर्ण दायरे में न समेटा जाए .....!!

8अ. दिव्या राकेश शर्मा
Arun Dharmawat सर, अमिताभ बच्चन जी का उदाहरण मेरे मंतव्य की पुष्टि करता है।
'संरक्षण' शब्द जानकर प्रयुक्त किया था क्योंकि मैं इस पर चर्चा चाहती थी; क्योंकि मैं मानती हूंँ कि लघुकथा को मुक्त कर देना चाहिए; परंतु हमें इसकी मुक्ति का मार्ग हमारे वरिष्ठ ही दिखायेंगे।
यदि वरिष्ठों के साथ नवोदितों का सामंजस्य स्थापित हो जाता है तो यह हमारे लिए बहुत अच्छा है।

Monday, 2 December 2019

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लघुकथा की प्रासंगिकता एवं प्रयोजन / ब्रजेश कानूनगो

लघुकथा ही नहीं साहित्य की प्रत्येक विधा की प्रासंगिकता तब ही होगी
ब्रजेश कानूनगो 
जब वह अपने समय के सवालों और चुनौतियों से मुठभेड़ करती हो. यद्यपि कुछ लघुकथाओं में अपने समय के सवालों और चुनौतियों पर लेखक मुठभेड़ करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं. लेकिन वे वर्त्तमान दौर के असवेदंशील और निष्ठुर समय पर चोट करने में नाकाफी है. सार्थक लेखन की तो यह अनिवार्यता ही होना चाहिए की वह अपने समय के सवालों, चुनौतियों के सन्दर्भों को साथ लेकर चले। व्यंग्यदृष्टि वाले लघुकथाकारों के लिए तो यह और भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

दूसरी ओर जिन प्रयोजनों से लघुकथाएं इस समय बहुतायत से लिखी जा रही हैं उनके पीछे के कारणों में विधागत गंभीरता उतनी नहीं है जितनी कि उनके सहज प्रकाशन की संभावनाएं, कम से कम स्पेस में साहित्य की उपस्थिति का अखबारी गौरव.   

संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ी संख्या में पत्र-पत्रिकाओं में इन दिनों लघुकथाओं को स्थान दिया जाने लगा है. लगभग हरेक लेखक चाहे वह किसी अन्य विधा में ही क्यों न लिखता रहा हो, इन दिनों कुछ लघुकथाएँ जरूर लिख रहा है। वर्तमान दौर में सामान्य पाठक लंबी रचनाओं की ओर कम आकर्षित होता है। जिन्दगी की तमाम समकालीन जद्दोजहद में अति व्यस्त पाठक प्रायः उपन्यास, कहानी आदि की बजाय छोटी कहानियों बल्कि लघुकथाओं को पढ़कर संतुष्ट होना चाहता है। इसी संक्षिप्तता की पाठकीय मांग के कारण पत्र पत्रिकाएं लघुकथाओं को पर्याप्त स्पेस उपलब्ध कराने लगी हैं। फिलर की तरह भी लघुकथाओं (?) का उपयोग होने से सम्पादकीय सुविधा के कारण  लेखकों को भी छपने और प्रोत्साहित होने का अवसर मिलने लगा है। लघुकथाओं की बाढ़ में कितने सचमुच के जवाहरात बहाकर साहित्य के मैदान में चमकते हैं यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. अधिकांश में साहित्य विवेक बहुत कम नजर आता है। बहुत सी आज लिखी, कल समाप्त की श्रेणी की होती हैं। बहुत कम लघुकथाएं ऐसी हैं जिनमे विचारधारा, सरोकार और प्रतिबद्धता की झलक दिखाई देती हों। मेरा मानना है जिन लघुकथाओं में कि समय के सवालों और चुनौतियों पर कलम चलाई गई होती हैं वही साहित्य की स्थायी धरोहर बनती हैं, वरना अन्य का हाल भी अखबार या पत्रिका के अस्तित्व की तरह ही बहुत लघु ही होता है, जिन्हें कोई याद नहीं रख पाता। कई में अनेक तरह के दुहराव भी नजर आते हैं लेकिन इनमें से ही श्रेष्ठ लघुकथाएं निकलकर आने की संभावनाएं भी पैदा होती है.

जिस दौर में टेक्नोलॉजी का व्यापक विकास हो गया हो, स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया हो। तब लघुकथाओं में भी इनका नजर आना स्वाभाविक रूप से अपेक्षित है.  

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद समाज में कई बदलाव हुए है। पाखण्ड,धूर्तताओं ,चालाकियां और सांस्कृतिक प्रदूषण के आगमन के साथ समाज का  नैतिक अवमूल्यन हुआ है। बाजारवाद ने हरेक वस्तु को बिकाऊ, यहां तक कि देह, आत्मा और मूल्यों तक की बोलियां लग जाने को अभिशप्त किया है। परिवारों में रिश्तों की मधुरता और सम्मान के साथ छोटे-बड़ों के बीच का कोमल और संवेदन सूत्र टूटने लगा है। घर के बुजुर्ग हाशिये पर हैं।

दुनिया को जीत लेने की किसी शहंशाह की ख्वाहिश की तरह राजनीति के नायक-महानायक किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देते हैं। सत्ता सुख की खातिर अपने पितृ दलों को डूबते जहाज की तरह कभी भी त्याग देने में नेताओं, प्रतिनिधियों को कोई परहेज नहीं होता। असहमति किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। आश्वासन और विश्वास जुमलों की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। हिंदीभाषा और देवनागरी लिपि को नष्ट भ्रष्ट करने में उन्ही संस्थानों और अखबारों की मुख्य भूमिका दिखाई देती है जिन पर उनके संरक्षण की उम्मीद लगी रही हो।

नए समय के बहुत से नए सवाल हैं,जिन पर गंभीरता से लघुकथाएं ही नहीं अन्य विधाओं में भी रचनाएँ लिखी जाना चाहिए. इस मामले में अभी संतोष कर लेने की स्थिति नहीं कही जा सकती..लेकिन भरोसा जरूर किया जा सकता है कि ऐसा अवश्य होगा...वर्त्तमान परिदृश्य में लिखी जानेवाली लघुकथा की प्रासंगिकता और प्रयोजन के सन्दर्भ में यही  बड़े तत्व अपना उत्तर तलाशते दिखाई देते हैं. जिनमें इनकी थोड़ी भी आश्वस्ति मिलती है विधा के स्तर पर वे लघुकथाएं निजी तौर पर मुझे संतुष्ट करती हैं। 

Friday, 29 November 2019

'क्षितिज लघुकथा सम्मेलन-2019 / 25 नवंबर 2019 / डॉ. पुरुषोत्तम दुबे


'क्षितिज लघुकथा सम्मेलन-2019 

समापन के बाद दूसरा दिन


इन्दौर महानगर की साहित्य संस्था ‘क्षितिज’ द्वारा आयोजित द्वितीय अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन दिनांक 24 नवम्बर 2019 रविवार को आयोजित होकर समय के पटल पर अपनी कामयाबी के हस्ताक्षर कर करतलध्वनि से सम्पन्न हुआ। सम्मेलन की सफलता ‘क्षितिज’ संस्था से जुड़े सभी माननीय सदस्यों और सम्मेलन में उपस्थित देश के विभिन्न भागों से पधारे रचनाकार अतिथियों की विशिष्ट उपस्थिति के कारण सम्भव हो सकी है। अब, अगले 'क्षितिज लघुकथा सम्मलेन 2020' की प्रतीक्षा....

अगला दिन यानी 25 नवम्बर 2019 
 25 नवम्बर की ऐन सुबह लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से मैंने मोबाईल पर संपर्क किया। उनकी दिल्ली के लिये रवाना होने वाली रेल शाम 4 बजे की है। मैंने उनको कहा कि वे मेरे निवास पर आ पधारें, फिर जहाँ भी उनको जाना है या इन्दौर में जिस किसी से भी मिलना है, हम सब मिलकर साथ-साथ चलेंगे। लघुकथाकार बलराम अग्रवाल जी पंजाब की पंजाबी भाषा की प्रसिद्ध लघुकथा पत्रिका ‘मिन्नी’ के सम्पादक श्री श्याम सुंदर अग्रवाल तथा लघुकथाकार जगदीश राय कुलरियाँ के साथ मेरे निवास पर मेरे निमंत्रण पर आये फिर क्या था, जहाँ चार लघुकथाकार, वहाँ लघुकथा पर चार बाते होनी ही थीं। फलस्वरूप लघुकथा की दशा, दिशा तथा संभावनाओं पर चर्चाओं का विषद दौर चला। लघुकथा विषयक विचारें को लेकर अधिकांशतः सहमतियाँ बनीं।
 डॉ. बलराम अग्रवाल से मैं तकरीबन 4 या 5 बार मिल चुका हूँ। लघुकथा विधा पर उनकी बहुतेरी सटीक टिप्पणियाँ सदैव से मुझको प्रभावित करती रही हैं और लघुकथा के संदर्भ में मेरा मार्ग प्रशस्त करती रही हैं। बलराम जी की लघुकथा विषयक प्रायः सभी कृतियों का सांगोपांग अध्ययन मैंने किया है। इस तरह वे मेरे प्रसंदीदा लघुकथाकार भी है। लघुकथाकार जगदीश राय कुलरियाँ से मेरी यह दूसरी मुलाकात रही। इससे पूर्व जगदीश रायजी से मेरी मुलाकात देश के प्रसिद्ध साहित्यकार मनीषी डॉ. रामनिवास मानव द्वारा 13 अक्टूम्बर 2013 को आयोजित नारनौल (हरियाणा) में लघुकथा सम्मेलन में हो चुकी है। जगदीश रायजी जितने भीतर से गंभीर हैं उतने ही बाहर से मुखर भी। प्रसिद्ध लघुकथाकार, पंजाबी से हिन्दी और हिन्दी से पंजाबी के अनुवादक तथा पंजाब की लघुकथा पत्रिका ‘मिन्नी’ के संपादक श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल का नाम तो काफी समय से मैंने सुन रखा था। उनके मुख से अपने प्रति यह सुनकर अच्छा लगा कि वे मुझको सितम्बर 2015 से इस आधार के साथ जानते है कि, उन्होंने ‘जनगाथा’ अव्यवसायिक ब्लॉक पत्रिका पर मेरा लिखा आलेख ‘हिन्दी लघुकथा का दिल्ली दरवाजा’ पढ़कर उस पर अपनी लिखित सकारात्मक प्रतिक्रिया प्रस्तुत की थी। तबसे मुझसे मिलने की उनकी प्रबल इच्छा रही थी। अपने निवास पर उनकी उपस्थिति पाकर मैं गौरवान्वित हुआ। लघुकथा रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में उनके स्पष्ट विचारों को जानकर मैं लघुकथा विषयक उनके गहन अध्ययन से प्रभावित हुआ। 

प्रस्थान : लघुकथा मंदिर के लिए
 बलराम अग्रवाल जब भी इन्दौर आते हैं वे हिन्दी के सुप्रसिद्ध लघुकथाकार स्व. डॉ. सतीश दुबे के निवास पर अवश्य ही जाते रहे हैं। हम सब मिलकर स्व. डॉ. सतीश दुबे के निवास पर पहुँचे। डॉ. सतीश दुबे के जीवनकाल में ही मॉरिशस के लघुकथाकार राज हीरामन ने उनके निवास पर अपनी उपस्थिति के बीच डॉ. सतीश दुबे के निवास को ‘लघुकथा मंदिर’ की संज्ञा से अभिषिक्त किया है। वहाँ आदरणीय भाभीजी से सौजन्य भेंट की ओर जाना कि उन्होंने उनके यहाँ आने वाली 1973 से लेकर अद्यतन पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों को स्वर्गीय पति की स्मृति की तरह ही सहेज कर रखा हुआ है। निःसंदेश डॉ. सतीश दुबे का रचना संसार शोध का विषय है। सतीश दुबे इन्दौर महानगर में अपनी साहित्यिक संस्था ‘सृजन संवाद’ के अध्यक्ष होकर उसको सुचारू रूप से चलाते रहे हैं। प्रस्तुत संस्था के प्रति उनका अगाध स्नेह इस तरह था कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों की अनुभूति को पहचानकर अपने जीवन काल में ही अपनी ‘सृजन संवाद संस्था’ का दायित्व युवा रचनाकार डॉ. दीपा व्यास के हाथों सौंप दिया था। यह डॉ. दीपा व्यास और कोई नहीं, मेरे निर्देशन में सतीश दुबे पर कार्य करने वाली शोधार्थी रही है। डॉ. सतीश दुबे के निवास पर उपस्थित श्यामसुंदर अग्रवाल ने बताया कि वे यहाँ पर अर्से बाद आये हैं। इससे पहले वे इन्दौर मे 2005 में डॉ. सतीश दुबे से मिले हैं और बाद में सन् 2007 में इन्दौर में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में उपस्थिति होकर डॉ. दुबे से उन्होंने उनके निवास पर मुलाकात की थी। 
 कभी या शायद सन् 2010 में मैंने अपना गजल संग्रह ‘जिंदगी-ए-जिंदगी’ डॉ. सतीश दुबे जी को भेंट किया था। आज जब हम सतीश दुबे के घर पर इकठ्ठा हुए तब आदरणीय भाभीजी ने बताया कि उनको मेरी लिखी गज़ले बहुत पसंद आयीं। इस बीच ‘सृजन संवाद’ की अध्यक्ष डॉ. दीपा व्यास भी हम लोगों से मिलने की जिज्ञासा लेकर उपस्थित हुई, इस तरह वहाँ देर तक विभिन्न विषयों पर सामुहिक चर्चाएँ चलती रहीं। 

दिन का अंतिम पड़ाव : आपले वाचनालय
 डॉ. सतीश दुबे के घर से निकलकर हम लोग इन्दौर के रेखा चित्रकार, रंगकर्मी, रचनाकार श्री संदीप राशिनकर के निवास पर, जहाँ हमारा जाना पहले से ही तय था, यथा समय पहुँचे। राशिनकर एक ऐसा नाम है जो रेखा चित्रों के माध्यम से समूचे देश में जाना जाता है। संदीपजी की कलाकृतियाँ देश की विभिन्न हिन्दी की विख्यात पत्र-पत्रिकाओं के कव्हर पृष्ठ पर प्रकाशित होती रही हैं। उन्होंने कई पत्रिकाओं, पुस्तकों के लिये रेखांकन फीचर तैयार किये हैं। श्री संदीपजी राशिनकर एक अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। संदीपजी को उनके व्यक्तित्व में समाहित विभिन्न प्रतिभाएँ उनके स्वर्गीय पिता श्री वसंत राशिनकर से वसीयत में मिली है। मेरा, डॉ. बलराम अग्रवाल, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल और श्री जगदीश राय कुलरियाँ हम सबका संदीपजी राशिनकर ने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया, फिर उन्होंने अपनी प्रातः स्मरणीय माताजी श्रीमती शरयू राशिनकर से हमको मिलवाया, जो स्वयं भी अद्भुत प्रतिभा की धनी हैं। संदीपजी ने सर्वप्रथम हमको उनकी बैठक में लगी उनकी विभिन्न कलाकृतियों से परिचय कराया। जब हमने उनके द्वारा निर्मित सिंहस्थ मेला उज्जैन पर केन्द्रित कलाकृतियों का अवलोकन किया तो हम सभी उनकी रचनाधर्मिता से अत्यंत प्रभावित हुए। इस अवसर पर डॉ. बलराम ने संदीपजी से उनकी रचनाधर्मिता को लेकर विभिन्न जिज्ञासा मूलकप्रश्न पूछे जिनका संदीपजी ने अपने उत्तरों द्वारा युक्तियुक्त समाधान प्रस्तुत किया। इसके पश्चात् संदीपजी हम सबको मकान के उपरी मंजिल पर ले गये जहाँ उनके स्वर्गीय पिता की साहित्य, कला और संस्कृति विषयक कर्मठता और तद्विषयक उनके अवदानों का पता हमको मिला। उन्होंने स्वयं उनके हाथों से गणपति बप्पा और श्री सांईबाबा की आदमकद मूर्तियाँ बनाई हुई हैं जो उनके मकान के अग्र भाग पर यथा स्थान विराजित हैं।
 संदीप जी ने न केवल अपनी विशाल आर्ट गैलरी में सुशोभित भिन्न-भिन्न चित्रों का परिचय हमसे करवाया बल्कि आपले वाचनालय में समय-समय पर आयोजित होने वाले भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों की जानकारियाँ भी हमको विस्तारपूर्वक प्रदान कीं। संदीप जी के निवास पर उनके स्वर्गीय पिता की साहित्यक एवं सांस्कृतिक धरोहरों का अवलोकन कर हम भावविभौर हुए। एक कमी यह रही कि इस अवसर पर कवयित्री श्रीमती श्रीति संदीप राशिनकर से भेंट न हो सकीं। बावजूद इसके संदीप राशिनकर द्वारा हमारे सत्कार में कोई कोर-कसर नहीं रही। 
 इस तरह डॉ. बलराम अग्रवाल, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल, श्री जगदीश राय कुलरियाँ के साथ मेरा यह दिन बड़ी दिलचस्प व्यस्तता के साथ व्यतीत हुआ। अंत में इन खुबसूरत यादों के पलों को अपने हृदय और अपनी दृष्टि में संचित कर हम संदीपजी के घर से विदा हुए। हमारे यह सभी मोअज़ीज़ मेहमान वहाँ से इन्दौर रेलवे स्टेशन की ओर दिल्ली जाने के लिये रवाना हो गये तथा अत्यंत सदाशयता के साथ संदीप जी ने अपने वाहन से मुझको मेरे निवास तक छोड़ भी दिया।

Monday, 21 October 2019

लघुकथा में 'मैं'


'लघुकथा में मुख्य पात्र का 'मैं' होना वर्जित है या कथानुरूप स्वीकार्य'
20 अक्टूबर 2019 को ‘मिन्नी’ द्वारा अबोहर (पंजाब) में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में इस बार सर्वाधिक चर्चा का विषय यही मुद्दा रहा। जो भी बहस हुई, उसे मैं बाद में इस पटल पर रखूँगा। नये-पुराने, लघुकथा के सभी चिंतक  साथियों से निवेदन है कि इस मुद्दे पर, बिना किसी लाग-लपेट के अपने विचार यहाँ रखें।
प्रसंगवश प्रस्तुत है, चर्चा के केन्द्र में रही शोभना श्याम की लघुकथा ‘बख्शीश’। आपको इस लघुकथा के गुण-दोष यहाँ नहीं बताने। केवल इस बिन्दु पर केन्द्रित रहना है कि ‘लघुकथा’ में ‘मैं’ पात्र आना चाहिए या नहीं। नहीं आना चाहिए, तो क्यों? किन परिस्थियों में?

बख्शीश
शोभना श्याम
एक तो उसने ऑटो रिक्शा वालों की आम प्रवृत्ति के विपरीत वाज़िब पैसे ही मांगे थे, दूसरे ऑटो के सवारी के बैठने वाले पिछले भाग में दोनों ओर पारदर्शी प्लास्टिक के परदे लगाए हुए  थे, जो ऊपर और नीचे दोनों ओर से ऑटो के साथ अच्छी तरह बाँधे हुए थे । इस कारण रास्ते की धूल ओर तीखी हवा, दोनों से ही बचाव हो गया था । दिन-भर की थकन जैसे घर पहुँचने से पहले ही उतरनी आरम्भ हो गयी थी । अचानक मैंने खुद को गुनगुनाते पाया, लेकिन फिर तुरंत ही सम्भल गयी । आराम और तसल्ली के इस मूड में एक विचार मन में कौंधा कि घर पहुँचकर इसे किराये से दस रुपए अतिरिक्त दूँगी, आखिर इसने पर्दे लगाने पर जो पैसा खर्च किया है उसका फायदा तो इसमें  बैठने वाले यात्रियों को ही हो रहा है न । यह विचार आते ही मुझे अपनी उदारता पर थोड़ा गर्व  हो आया । मैंने मन ही मन इस किस्से के कुछ ड्राफ्ट बनाने शुरू कर दिए कि प्रत्यक्ष में तो ऑटो वाले की प्रशंसा हो जाये और परोक्ष में मेरा ये उदार कृत्य भी दूसरों तक पहुँच जाये ।
रास्ते में पड़ने वाले बाजार से जब मैंने आधा किलो दूध का पैकेट लेने के लिए ऑटो रोका तो उसने फिर से अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए मुझे ऑटो में बैठे रहने का इशारा किया और मुझसे पैसे लेकर स्वयं उतर, दूध का पैकेट लाकर मुझे दे दिया। अब तो उसे बख्शीश देने का निर्णय और भी दृढ़ हो गया, साथ ही सुनाये जाने वाले किस्से में उसकी प्रशंसा के एक-दो वाक्य और जुड़ गए । घर पहुँचकर मैंने पर्स में से किराये के लिए  पचास रुपए का नोट निकालने के बाद जब दस का नोट और निकालना चाहा तो पाया कि मेरे पास छुट्टे रुपयों में बस बीस रुपये का एक नोट ही है, शेष सभी सौ और पाँच सौ के नोट थे । उदारता और व्यवहारिकता के बीच चले कुछ सेकेंड्स के संघर्ष में आखिरकार व्यवहारिकता के ये तर्क जीत गए कि माना किराया उसने ज्यादा नहीं मांगा लेकिन ऐसा कम भी तो नहीं हैं। देखा जाये तो मीटर से तो 40 रुपये ही बनते थे । वो तो ओला और उबर के आने से पहले मांगे जाने वाले अनाप-शनाप किराये के सामने मुझे पचास रुपए कम लग रहे हैं । पर्दों के कारण उसे दूसरों से सवारी ज्यादा मिलती होंगी और स्वयं दूध लाकर देने के पीछे उसकी मंशा समय बचाने की भी रही होगी क्योंकि मुझे पर्दा हटाने में अतिरिक्त समय लगता । इन तर्कों से आश्वस्त होते ही मेरे हाथ में आया बीस का नोट पर्स में ही छूट गया ।
मोबाइल  : 99532 35840

Wednesday, 16 October 2019

'लघुकथा कलश' रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से-5

'लघुकथा कलश-4'  रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से कुछ चुनी हुई रचना-प्रक्रियाएँ। इनका चुनाव मेरा है और इन्हें उपलब्ध करा रहे हैं भाई योगराज प्रभाकर। अनुरोध है कि शनै: शनै: आने वाली इन रचना-प्रक्रियाओं को समय निकालकर धैर्य के साथ इन्हें पढ़ें और इन पर अपने विचार, सहमति-असहमति अवश्य रखें। ये सभी रचना-प्रक्रियाएँ आपको सीखने की कला से सम्पन्न करेंगी।

एक बात और… ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।

तो शृंखला की पाँचवीं प्रस्तुति के रूप में पेश है, पृष्ठ 218-219 से हरियाणा के करनाल अन्तर्गत घरौंडा निवासी श्री राधेश्याम भारतीय की रचना प्रक्रिया उनकी लघुकथा 'मुआवज़ा' के सन्दर्भ में। 

राधेश्याम भारतीय
इस लेख को लिखते हुए मेरे जेहन में अनेक लघुकथाएं आईं जो किसी न किसी कारण चर्चित रहीं। उनमें हैं दूरी, कोट, सुख, चेहरे, खून का रिश्ता, सजा, कलाकार, बड़ा हूं ना, भूख आदि। इसके बावजूद  मुआवजा, और सम्मान लघुकथाएं अपने कथ्य के कारण उपर्युक्त लघुकथाओं से अधिक चर्चित रही। जहाँ मुआवजा लघुकथा देश के भूमिहीन मजदूरों की दयनीय स्थिति को उजागर करती है, वहीं सम्मान लघुकथा कर्म करने की प्रेरणा देती है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है। इसके बावजूद जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो वह किसानों पर मुसीबत का पहाड़ बन टूट पड़ती है। पकी-पकाई फसल बाढ़, ओलावृष्टि आदि की भेंट चढ़ जाती है। सरकार किसानों के लिए उनकी नष्ट फसल की एवज में मुआवजे की घोषणा करने का रिवाज निभाती है। विचारणीय विषय यह है कि इस धरती पर पैदा होने वाली फसल में किसान के साथ-साथ खेतीहर मजदूरों की बहुत बड़ी भागेदारी रहती है। वे भी बड़ी उत्सुकता से उस फसल के पकने का इंतजार करते हैं।
इस रचना के जन्म से पूर्व मैं उन्हीं खेतीहर मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूँ जिनकी रोजी-रोटी केवल खेतों में जी-तोड़ मेहनत करके ही चलती है। उनके पास इतना धन नहीं होता कि वे पैसों से अनाज खरीद सकें। वे तो फसल काटने के बदले मजदूरी के तौर पर मिलने वाले अनाज से ही अपने बच्चों का पेट भरते हैं।
मैं मानता हूँ, कि किसान की फसल खराब होने पर मुआवजे से कोई बहुत बड़ी राहत नहीं मिलती; फिर भी, कुछ न कुछ नुकसान तो पूरा हो ही जाता है। लेकिन उन खेतीहर मजदूरों को तो थोड़ी-सी भी सहायता कहीं से नहीं मिलती। बस, मेरे जेहन में उन मजूदरों के मुरझाए चेहरे घूमने लगते हैं। उनके मुरझाए चेहरे मुझे मुआवजा लघुकथा लिखने को विवश कर देते हैं। उसी यथार्थ को आधार बनाकर मैंने इस लघुकथा का सृजन किया है। क्योंकि लघुकथा में पात्र के नाम का अपना महत्व होता है, इसलिए इसमें मजदूर पात्र का नाम सोच-समझकर रखता हूँ। पात्र का नाम रामधन रखा, जो मुझे मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता-सा प्रतीत होता है।
सच तो यह है कि उस रामधन को ध्यान में रखकर ही इस लघुकथा की रचना की थी। एक दो पत्रिकाओं में प्रकानार्थ भेजी, प्रकाशित भी हुई। एक दिन, जब डॉ. अशोक भाटिया को यह लघुकथा दिखाई तो उस समय इसका अन्तिम वाक्य था—‘रामधन माथा पकड़कर वहीं बैठा रहा।
भाटिया जी ने कहा, कि इस अन्तिम वाक्य को रामधन माथा पकड़कर वहीं बैठ गया कर दो। इस एक वाक्य बदला, तो लघुकथा का भाव ही बदल गया। पहले था—‘बैठा रहा, यानी दुखी मन से बैठा रहा; लेकिन, बैठ गया का अर्थ हुआ कि जैसे उसके जीवन के सारे सपने चकनाचूर हो गए। कहते भी हैं, कि यह तो बैठ गया, शायद ही उठे
फिर यह लघुकथा जहाँ भी प्रकाशनार्थ भेजी, वहीं प्रकाशित हुई।
प्रस्तुत है, उक्त लघुकथा—‘मुआवजा
गाँव में आँधी और फिर ओला-वृष्टि के कारण नष्ट हुई। फसल के बदले मुआवजा राशि बाँटने एक अधिकारी आया।
बारी-बारी से किसान आ रहे थे और अपनी मुआवजा राशि लेते जा रहे थे।
जब सारी राशि बँट चुकी तो रामधन खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर कहने लगा, ‘‘साब जी, हमें भी कुछ मुआवजा दे दीजिए!’’
‘‘क्या तुम्हारी भी फसल नष्ट हुई है?’’
‘‘नहीं साबजी! हमारे पास तो जमीन ही नहीं है।’’
‘‘तो तुम्हें मुआवजा किस बात का?’’ अधिकारी ने सहज भाव से कहा।
‘‘साबजी, किसान की फसल होती थी... हम गरीब उसे काटते थे और साल भर भूखे पेट का इलाज हो जाता था। अब फसल तबाह हो गई तो बताइए हम क्या काटेंगे... और काटेंगे नहीं तो खायेंगे क्या?’’
‘‘तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा... जाइए अपने घर।’’ इस बार अधिकारी क्रोधित स्वर में बोला।
रामधन माथा पकड़ वहीं बैठ गया।

सम्पर्कराधेश्याम भारतीय, नसीब विहार कॉलोनी, घरौंडा (करनाल)-132114 (हरियाणा) 
                 मोबाइल-9315382236

योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल98725 68228

नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे  डाक खर्च सहित 300₹ मात्र (इस अंक का मूल्य 450₹ है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता  पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।