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कबूतरों से भी ख़तरा है
एन॰ उन्नी हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ और सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी रचनाओं से पहला परिचय बलराम द्वारा संपादित लघुकथा कोशों के माध्यम से 1997 में हुआ। उन दिनों मेरे द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ’ की पांडुलिपि लगभग तैयार थी। मैंने तब एन॰ उन्नी की रचनाओं को उसमें शामिल करने के बारे में बलराम को बताया। उन्होंने कहा कि उन्नी मलयालम भाषी जरूर हैं, मलयालम लेखक नहीं। बावजूद इस सचाई को जान लेने के उनकी लघुकथाओं को मैंने ‘मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ’ की पांडुलिपि में शामिल किया, इस नीयत से कि मलयालम संसार यह जाने कि उसने हिन्दी को कितना बड़ा लघुकथाकार अनजाने ही दे रखा है। अभी हाल में, संभवत: बलराम के ही सद्प्रयास से उनका लघुकथा संग्रह ‘कबूतरों से भी ख़तरा है’ प्रकाश में आया है जिसमें उनकी 59 रचनाएँ संग्रहीत हैं। ‘आईने का फ़न में बदलना’ शीर्षक से संग्रह की भूमिका सनत कुमार ने लिखी है। उन्नी जी ने कथ्य के चुनाव में अपने समय को वरीयता दी है तथा अधिकांशत: कहानी-शैली को अपनाया है इसलिए उनकी लघुकथाओं में समकालीन कथारस की अनुभूति सहज ही होती है तथापि संग्रह की ‘खोज’, ‘पर्याय’, ‘जन्मदिन’, ‘साजिश’, ‘चूहा’, ‘स्वप्न-भंग’, ‘बदलते मुहावरे’, ‘काँटों की दीवार’, ‘सूँड’, ‘बदला’, ‘ग़ुलाम’, ‘चुनौती’, ‘खबरदार’ तथा ‘वचन रक्षक’ को आकार की दृष्टि से लघुकथा स्वीकार पाना कठिन प्रतीत होता है।
प्रकाशक : मित्तल एण्ड सन्स, सी-32, आर्यानगर सोसायटी, दिल्ली-110092
अन्धा मोड़
हिन्दी लघुकथा के एक-और चर्चित व वरिष्ठ कथाकार हैं— कालीचरण प्रेमी। दुर्दैव से वह लगातार जूझते रहे हैं लेकिन अपनी रचनात्मक गुणवत्ता के ग्राफ को उन्होंने नीचे नहीं आने दिया। एकल लघुकथा-संग्रह ‘कीलें’(2002) तथा संपादित कहानी संकलन ‘युगकथा’ के बाद कवयित्री व कथाकार सुश्री पुष्पा रघु के साथ मिलकर उन्होंने लघुकथा संकलन ‘अन्धा मोड़’(2010) संपादित किया है। 280 पृष्ठीय इस संकलन में देशभर के 93 कथाकारों की कुल 282 लघुकथाएँ संकलित हैं। सम्पादकीय(कालीचरण प्रेमी) तथा भूमिका (पुष्पा रघु) के अलावा इसमें ‘लघुकथा जीवन की आलोचना है’(कमल किशोर गोयनका) तथा ‘लघुकथा लेखन:मेरी दृष्टि में’(सूर्यकांत नागर) शीर्षक दो उपयोगी लेख भी हैं।
प्रकाशक : अमित प्रकाशन, के॰बी॰ 97, कविनगर, ग़ाज़ियाबाद-201002
मेरी श्रेष्ठ लघुकथाएँ
विभिन्न विषयों को केन्द्र में रखकर हिन्दी में लघुकथा के संकलन संपादित करने में गत 4-5 वर्षों से डॉ॰ रामकुमार घोटड़ अग्रिम पंक्ति में हैं। चार हिन्दी तथा एकराजस्थानी लघुकथा संग्रहों के अलावा उनका एक व्यंग्य संग्रह व दो मौलिक कहानी संग्रह भी सन् 1989 से 2006 तक प्रकाशित हो चुके हैं। सन् 2006 से 2010 तक दो राजस्थानी की तथा 9 हिन्दी की पुस्तकें सम्पादित कर चुके हैं और 9 अन्य पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।
प्रस्तुत पुस्तक को रचनात्मक व समीक्षात्मक—दो खण्डों में विभाजित किया गया है। रचनात्मक खण्ड में डॉ॰ घोटड़ ने अपनी 33 पूर्व-प्रकाशित तथा 25 अप्रकाशित—कुल 58 लघुकथाएँ संग्रहीत की हैं और समीक्षात्मक खण्ड में उन्होंने स्वयं की लघुकथाओं व सम्पादित पुस्तकों पर प्राप्त कुल 25 पत्रों, समीक्षाओं, रिपोर्टों आदि को संकलित किया है।
प्रकाशक: अनामय प्रकाशन, ई-776/7, लाल कोठी योजना, जयपुर-302015
नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएँ देने के साथ-साथ यह बताते हुए अति प्रसन्नता हो रही है कि आप सब के सहयोग और स्वीकार के चलते ही ‘जनगाथा’ अपने प्रकाशन के चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस अंक में प्रस्तुत है उपर्युक्त लघुकथा संग्रह व संकलनों से एक-एक लघुकथा—बलराम अग्रवाल
लघुकथाएँ
बुझते चिराग़/डॉ॰ रामकुमार घोटड़
“आपकी पुस्तक तो पिछले वर्ष ही आने वाली थी, क्या रहा?”
“नहीं आ पाई।”
“क्यों?”
“प्रकाशक को प्रकाशन-खर्च का एक चौथाई तो पांडुलिपि के साथ ही भेज दिया था। बाकी सहयोग राशि छ: महीने बाद भेजनी थी।”
“फिर…?”
“एक रात श्रीमती जी को पेट में तेज़ दर्द हुआ। जाँच करने पर डॉक्टर ने पित्त की थैली में पथरियाँ बताईं जिसका इलाज़ ऑपरेशन ही था। अत: जमापूँजी खर्च हो गई।”
“और इस साल?”
“इस साल घरेलू खर्च में कटौतियाँ करके कुछ रकम इकट्ठी की। ससुराल से बड़ी बेटी आ गई। सामाजिक परम्परा के अनुसार पहला जापा पीहर में ही होना चाहिए। डॉक्टरनी नॉर्मल डिलीवरी नहीं करवा पाई, सीजेरियन करना पड़ा।”
“और अब?”
“प्रकाशक महोदय के पत्र आते हैं कि अनुबंध की शर्तों के अनुसार अवधि पार हो गई है। पूर्व मे भेजी गई राशि को आई-गई मानकर क्यों न पांडुलिपि को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाय!” (‘मेरी श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ से)
सरस्वती-पुत्र/जगदीश कश्यप
“क्या तुम मेरी लड़की को सुखी रख सकोगे?”
“यह बात आप अपनी लड़की से पूछो।” और लेखक ने अपने मुरझाए चेहरे की दाढ़ी पर हाथ फेरा।
“मैं तुमसे अत्यन्त घृणा करता हूँ…” प्रेमिका के पापा ने उसे घूरते हुए कहा। उसके बटन-टूटे कुर्ते में सीने से बाहर झाँक रहे बालों को देख, वह और-भी उबल पड़ा,“तुम लीचड़ आदमी! शादी वाली बात सोच कैसे सके!”
“क्या यही कहने के लिए बुलाया था आपने मुझे?”
इतने में प्रेमिका दो कप चाय लाई और मेज पर रखकर मुड़ चली। जाते-जाते उसने मुस्कराते हुए कनखियों से प्रेमी को घूरा लेकिन वह मुँह नीचा किए बैठा रहा जबकि प्रेमिका का पापा तीव्र गुस्से से उस फटेहाल युवा कवि को घूर रहा था गोया कि उसे कच्चा चबा जायगा।
“अच्छा लो, चाय उठाओ।” पता नहीं क्यों, सुन्दर लड़की का बाप ठंडा पड़ गया था! अपमानित युवा लेखक ने चाय का कप उठाया और धीरे-धीरे सिप करने लगा। इसी बीच जवान लड़की के बाप ने कई महत्वपूर्ण निर्णय ले लिए थे अत: वह अचानक बोल पड़ा,“कहो तो तुम्हारी सर्विस के लिए ट्राई करूँ?”
इस पर पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़गार चौंक पड़ा।
“लेकिन, तुन्हें मेरी लड़की को भूलना होगा।”
शर्त वाली बात पर कवि चुप रह गया और नमस्कार करके चला आया।
उसके जाते ही बी॰ए॰ में पढ़ रही लड़की का पापा बराबर सोच रहा था कि आखिर उस कमजोर युवक में ऐसा क्या था कि उसकी सुन्दर लड़की ने ज़हर खाने की धमकी दे दी! ज़ाहिर था कि वह उसकी क़लम पर मर-मिटी थी।
“हूँ…” लड़की के बाप ने खुद से कहा,“भगवान भी कैसे-कैसे लीचड़ों को लिखने की ताक़त दे देता है!”
उधर लेखक सारी रात खुद को समझाता रहा कि वह शर्त वाली नौकरी कभी स्वीकार नहीं करेगा और आत्मनिर्भर होने तक उस लड़की से शादी नहीं करेगा। (‘अन्धा मोड़’ से)
औकात/एन॰ उन्नी
कबाड़ की माँग बढ़ रही है। कबाड़ की कीमत बढ़ रही है। कबाड़ से नए-नए सामान बनाकर मंडी पहुँच रहे हैं। कुल मिलाकर कबाड़ की इज्ज़त बढ़ गयी है।
इस ज्ञान के साथ, घर का अतिसूक्ष्म निरीक्षण किया तो पाया कि कमरे कबाड़ से भरे पड़े हैं। एक-साथ दे नहीं सकते क्योंकि कॉलोनी में एक ही कबाड़ी आता है। कबाड़ ले जाने के लिए एक ही ठेला है उसके पास। मैंने कबाड़ को इकट्ठा किया। भाव करके किश्तों में कई बार ठेला भर दिया। कबाड़ी की खुशी देखते ही बनती थी। आखिर में, जब घर खाली हुआ और मुझे खाने को दौड़ा तो कबाड़ की अन्तिम किश्त के रूप में मैं स्वयं ठेलागाड़ी पर आसीन हो गया। मज़ाक समझकर कबाड़ी हँस दिया और कहने लगा,“कबाड़ की कीमत आप जानते ही हैं; और अपनी भी। आप कृपया उतर जाइये।”
मैं उतर गया और वह चला गया। जाते हुए उस निर्दयी कबाड़ी की चाल मैं देखता रहा। सोचता रहा कि—आखिर मेरी औकात क्या है?
(‘कबूतरों से भी खतरा है’ से)