Sunday, 28 July 2013

गरीब की माँ / चित्रा मुद्गल



‘जनगाथा’ के ‘रचना और दृष्टि’ स्तंभ में इस बार डॉ॰ अशोक भाटिया प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध कथालेखिका चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘ग़रीब की माँ’ पर अपनी बेबाक़ आलोचनात्मक टिप्पणी:


रचना
                                                                            चित्र:बलराम अग्रवाल
तेरे कू बोलने कू नई सकता?
क्या बोलती मैं?
सालीभेजा है मग़ज़ में?
तेरे कू है ? तब काय कू नई बोलता सेठाणी से? आक्खा दिन पाव सेर मारकर घूमता
हलकट! भेजा मत घुमा। बोला क्या?
खोली खाली करने कू बोलती।
तू बोलने कू नईं सकती? आता मेना में अक्खा भाड़ा चुकता कर देंगे।
वो तो मैं बोली।
पिच्चू?
बोलती होतीमलप्पा कू भेजना। खोली लिया, डिपासन बी नईं दिया, भाड़ा बी नईं देतानईं चलेगा
साला लोगन का पेट बड़ा! कइसा चलेगा? सब मैं समझता
तेरे कू कुछ ज्यादा है। जा, चुप सो जा !…
सेठाणी दुपर कू आई होती।
क्या बोलती होती?
खोली खाली करने कू बोलती!
मैं जो बोला, वो बोली?
मैं बोली, मलप्पा का माँ मर गया, मुलुक को पइसा भेजा। आता मेना में चुकता करेगा
पिच्चू?
बोली, वो पक्का खड़ूश ए। छे मेना पेला हमारा पाँव पर गिरासेठाणी! मुलुक में हमारा माँ मर गया, मेरे कू पन्नास रुपया उधार होना। आता मेना को अक्खा भाड़ा देगा, उधार देगा। मैं दिया, अजुन तलक वो पइसा नईं मिला।
पिच्चू?
गाली बकने कू लगीपक्का खड़ूस है साला!…दो मेना पेला मेरे कू बोला होताआता मेना में अक्खा चुकता करेगा। मुलुक में माँ मर गया है। मैं बोलीवो पेलू माँ मरा था, वो? वो बोलासेठाणी, बाप ने दो सादी बनायाभंकसबाजी अपने कू नईं होना। कल सुबू तक पइसा नईं मिला तो सामान खोली से बाहर…!
तू क्या बोली?
मैं तो डर गयी। बरसात में किधर कू जाना?…मैं बोलीसेठाणी, वो झूठ नईं बोलता
पिच्चू?
पिच्चू बोलीदो सादी बनाया तो तीसरा माँ किदर से आया?
क्या बोली तू?
मैं बोलीदो का मरने का पिच्चू तीसरा सादी बनाया!…
***

और दृष्टि
गरीब की मां:नाटकीय प्रस्तुति की कारीगरी
डॉ॰शोक भाटिया
चित्रा मुद्गल हिंदी साहित्य की प्रतिनिधि कथाकार हैं। आंचलिक उपन्यास आवाँसे वे विशेष रूप से चर्चित हुई हैं। चित्रा मुद्गल की लघुकथाएँ निम्नवर्ग की विवताओं को बड़ी संवेदनशीलता से उकेरती हैं। उनकी ऐसी लघुकथाओं में बोहनी, ‘गरीब की मां, ‘नसीहत, ‘नाम’, ‘पहचान’, ‘मानदंड आदि प्रमुख हैं।
गरीब की मांका भयावह यथार्थ पाठक को विचलित करने वाला है। इस कारण भी, कि उस रचना में कोई भूमिका, कोई वर्णन नहीं है। तीखेपन से शुरुआत, तीव्रता से निर्वाह और मार्मिक अंत के लिए यह रचना देर तक पाठक को मथती रहती है। निम्न वर्ग की आर्थिक विवताएँ इस कदर मानव-व्यवहार को बदलती हैं कि वह एक झूठ को कई बार बोलकर अपने वर्तमान को बचाने का प्रयास करते हैं।
कथानक मात्र इतना है कि पति-पत्नी छह-सात महीने से खोली का किराया नहीं दे पा रहे। सेठानी खोली खाली करने को कहती है। पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे को सेठानी से बात करने को कहते हैं कि अगले महीने भाड़ा चुकता कर देंगे।
दूसरे भाग में पत्नी बताती हे कि सेठानी आई थी। पत्नी ने कहा कि मलप्पा (पति) की मां मर गई थी, उधर पैसा भेजा है। सेठानी ने कहा कि छह महीने पहले मां मरी थी, तो मलप्पा 50 रू. उधार भी ले गया था, जो आज तक नहीं लौटाए। दो महीने पहले फिर कहता था कि मां मर गई। तब मलप्पा ने कहा था कि उसके बाप ने दो शादियां की थीं। सेठानी के पूछने पर कि तीसरी मां किधर से आई, वह बोली कि दो मांओं के मरने के बाद बाप ने तीसरी शादी की।
निम्न वर्ग को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कई दयनीय बचाव करने पड़ते हैं? इनके जीवन में भला कैसी संस्कृति और कौन-सी परंपरा। वहाँ तो मात्र भयावह वर्तमान और निगल लेने वाला भविष्य  मौजूद है। विष्व की सबसे अनमोल रचना-अपनी मां-को तीन बार मर गयी बताना, विवताजन्य संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।
पूरी लघुकथा में केवल संवाद हैं और है आंचलिक (बम्बइया) भाषा का असरदार प्रयोग। इस रचना में वर्णनात्मकता इसके असर को कम कर देती; अतः लेखिका ने स्वयं को रचना से बाहर रखा है। इस रचना में बम्बइया ब्दावली, जैसेअक्खा दिन (सारा दिन), हलकट्, डिपासन, जास्ती (ज्यादा), दुप्पर (दोपहर), पन्नास (पचास), मेना (महीना), मुलुक-पिच्चू (फिर), अमुन तलक (आज तक) आदि से भाषा की सहजता और प्रभावदोनों बढ़ गए हैं। हिंदी में केवल आंचलिक संवाद-शैली की यह उल्लेखनीय लघुकथा है जो पुरानी लकीर न अपनाकर रचना की आवश्यकतानुसार नया मार्ग अपनाती है। संवाद भी इतने छोटे हैं कि नोक जितने नुकीले ओर बांधने का असर रखते हैं।
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