Friday, 11 April 2008

जनगाथा-अप्रैल 2008



अन्तरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन, रायपुर(छत्तीसगढ़)
रायपुर(छत्तीसगढ़) में 16-17 फरवरी, 2008 को संपन्न अन्तरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन के दौरान कुछ ऐसी बातें देखने-सुनने में आयीं, जो इससे पहले के किसी अन्य लघुकथा सम्मेलन में नजर नहीं आयी थीं। इसकी एक वजह इसका ‘अन्तरराष्ट्रीय’ होना भी हो सकती है! उन सभी बातों के बारे में कुछ न कहकर मैं मात्र एक बात पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहा हूँ। उस बात को मंच से उठाया, न्यूजीलैंड से आये श्री हैप्पी ने। उनका मानना था कि ‘दो दिनों के इस सम्मेलन में मुझे ऐसा कुछ नहीं मिल पाया जिसका अनुसरण करके मैं लघुकथा के बारे में कुछ खास जान सकूँ, उसके प्रति अपनी समझ को कुछ बढ़ा हुआ महसूस कर सकूँ।’
उनकी इस बात के जवाब में मंचस्थ श्री सुकेश साहनी ने अपनी बारी आने पर इतना जरूर कहा कि ‘सीखने की नीयत हो तो आदमी हर सम्मेलन से कुछ न कुछ अवश्य सीख सकता है। स्वयं मुझे हर सम्मेलन ने कुछ न कुछ दिया है।‘
लेकिन मुझे नहीं लगता कि हैप्पी जी उनकी इस बात से सहमत हुए होंगे। मैंने पहली बार महसूस किया कि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो स्तरीय लघुकथा लिखने के लिए यथेष्ट अध्ययन अथवा श्रम करने की बजाय कुछ ऐसे जादुई फार्मूलों की तलाश हैं, जो विश्व-साहित्य की दुनिया में उन्हें रातों-रात नायक बना दें। हैप्पी जी तो इंटरनेट की दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ़ होंगे। मामूली फीस लेकर कुछेक यानी 1-2-3-4 शब्दों से लेकर फिफ्टी-फाइवर्स, सिक्सटी-नाइनर्स, हण्ड्रेडर्स यानी 55 शब्दों, 69 शब्दों, 100 शब्दों वाली कथा-रचनाएँ(?) सिखाने वाली कितनी वेबसाइट्स वहाँ मौजूद हैं—वे जानते होंगे। हिन्दी लघुकथा-क्षेत्र भी मसीहाओं और उस्तादों से निपट खाली नहीं रहा है। हैप्पी जी थोड़ा लेट चेते, अन्यथा रातों-रात लघुकथाकार बना डालने वालों से उनका साबका जरूर पड़ता।
परन्तु, श्रीयुत हैप्पी जी की हताशा को गंभीर-जिज्ञासा मानते हुए इस अंक में सभी लघुकथा-प्रेमियों के समक्ष ‘लघुकथा की रचना-प्रक्रिया’ शीर्षक एक लेख इस आशय से प्रस्तुत किया जा रहा है कि इसे पढ़-समझकर शायद कुछ बिंदु उन्हें लघुकथा-लेखन के मिल जायें। प्रयास किया जाएगा कि आगामी अंकों में ‘लघुकथा की रचना-प्रक्रिया’ शीर्षक लेख शीर्ष लघुकथाकारों के भी प्रस्तुत किये जायें।
सम्प्रति, ‘जनगाथा’ के अंकों पर आपकी प्रतिक्रियाएँ उत्साहवर्द्धक हैं। यह सहयोग आगे भी जारी रहेगा—विश्वास है।




लघुकथा की रचना-प्रक्रिया
बलराम अग्रवाल

क्या ‘लघुकथा’ कहानी में अपनी जगह न बना पा रहे कुछ कुण्ठित लोगों द्वारा अलापा गया कोई बेहूदा राग है? या फिर इस परिश्रम के पीछे देश के पास कागज का और पाठक के पास समय का अभाव मात्र ही कोई कारण है? ‘कथा’ के शाब्दिक अर्थ—‘कथ’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति और सीधे अर्थों में—‘वह जो कहा जाए’ जैसे अकादमिक वाक्यों को हम कहाँ-कहाँ नहीं दोहराते। लघुकथा कथा-साहित्य की विधा है तो ‘कथा’ के अर्थ तो बेशक, हमें जानने ही होंगे। ‘कथा’ के जिन प्रचलित और पुराण-शास्त्रीय अर्थों को हमने कहानी(यानी वह जो कहा जाए) तथा उपन्यास के सन्दर्भ में चाटा है, लघुकथा के सन्दर्भ में भी अगर ज्यों-का-त्यों उन्हें ही चाटना होगा तो कथा-साहित्य की विधा के तौर पर ‘लघुकथा’ में नवीनता क्या है? और, कोई नवीनता अगर उसमें है तो यकीन मानिये, ‘कथा’ की प्रचलित परिभाषायें कहानी व उपन्यास के सन्दर्भ में चाहे जितनी मान्य और स्वीकार्य हों, लघुकथा के सन्दर्भ में वे आधी-अधूरी व भ्रामक ही कही जायेंगी। अगर ‘लघुकथा’ को भी ‘कथा’ की पारम्परिक और शास्त्रीय परिभाषा से ही नपना था तो बोधकथा, नीतिकथा, दृष्टान्तकथा, भावकथा आदि से अलग इसका प्रादुर्भाव ‘समकालीन लघुकथा’ के रूप में क्यों हुआ?
किसी नयी विधा को जन्म देने के लिए, या फिर उसके पुनर्प्रादुर्भाव के लिए ही सही, उससे जुड़े लोगों का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं रहता। धर्म, राजनीति और अर्थ का जब पतन होना प्रारम्भ होता है तो वह प्रत्येक सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करता है। सारा समाज अपनी-अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप विभिन्न गुटों में बँट जाता है। धार्मिक प्रकृति के लोग राजनीतिक और आर्थिक पतन को, आर्थिक प्रकृति के लोग धार्मिक और राजनीतिक पतन को तथा राजनीतिक प्रकृति के लोग धार्मिक व आर्थिक पतन को सारे पतन का कारण बताने व सिद्ध करने में जुट जाते हैं। चौपाल हो या घर-बाज़ार, जहाँ चार लोग जुड़े, अपना और देश-समाज का रोना शुरू। यह रोना-धोना शनैः शनैः रोचक व रंजक बनाया जाने लगता है और इस प्रक्रिया में सच के साथ कुछ कल्पना(आम बोलचाल की भाषा में ‘झूठ’) भी आ जुड़ती है। किस्से और अफवाहें इसी तरह जन्मते हैं। ‘कथा’ की व्यापक परिभाषा में रोचक, रंजक या विषादपूर्ण शैली में रोना-धोना कहने वाले ये सारे सामाजिक ‘कथाकार’ हैं। ‘संवेदनशीलता’ इससे अलग किसी अन्य आयाम को प्रकट नहीं करती। समाज के चप्पे-चप्पे, रेशे-रेशे और अच्छी-बुरी हर हरकत पर नजर रखने वाले ये ‘कथाकार’ सब-के-सब लेखक तो नहीं बन जाते। इसलिए ऐसा मानना कि जो कथाकार जितना अधिक संवेदनशील होगा, वह समाज से उतने ही अधिक कथानक अपनी लघुकथाओं के लिए चुन सकता है, तर्कसंगत नहीं है। संवेदनशील होना किसी कथाकार को लघुकथाकार बना देगा, ऐसा नहीं है। समाज के जो-जो अन्तर्विरोध किसी सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करके उसकी चेतना को आन्दोलित करते हैं, आधिकारिक रूप से केवल उन-उन पर ही वह बोल या लिख सकता है। अतः ‘लघुकथा’ लिखने के लिए कथाकार को कथानक के चुनाव हेतु संवेदनाओं की चिमटी लेकर अखबारों, जंगलों और बाजारों की खाक छानने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है—चेतना को आन्दोलित, जागृत रखने की। चेतना जितनी अधिक प्रखर होगी, लेखनी उतनी ही मुखर होगी। संवेदनशीलता वैचारिकता को जन्म देती है, जबकि आन्दोलन विचारपूर्ण क्रियाशीलता को। समकालीन लघुकथा विचारपूर्ण क्रियाशीलता की उपज है, न कि वैचारिकता की। अपने संदर्भ में, इसका यह गुण ‘कथा’ की इसी व्याख्या की माँग करता है। उपन्यास और कहानी की भले ही ये अपेक्षाएँ न हों। इन दोनों कथा-विधाओं से लघुकथा के अलगाव का यह एक बिन्दु है।
कथानक और शैली ‘लघुकथा’ के आवश्यक अवयव तो हो सकते हैं, तत्व नहीं। तत्व अपनी चेतना में एक पूर्ण इकाई है। ‘मूलत्व’ इसका गुण (प्रोपर्टी) है। लघुकथा का मूल-तत्व है—‘वस्तु’, जो कि प्रत्येक कथा-विधा का है। ‘वस्तु’ को जनहितार्थ सरल, रोचक, रंजक और संप्रेष्य बनाकर प्रस्तुत करने के लिए कथाकार कथानक की रचना कर उसको माध्यम बनाता है। जैसे, पुराण-कथाओं के पीछे ‘वस्तु’रूप में वेद-ॠचाएँ अथवा वैदिक-सूत्र ही हैं। किसी भी कथा-विधा की तरह ही लघुकथा की भी ‘वस्तु’ आत्मा है, कथानक हृदय, शिल्प शरीर और शैली आचरण, जिसके माध्यम से पाठक को वह अपनी ग्राह्यता के प्रति आकर्षित करती है। तात्पर्य यह कि ‘लघुकथा’ में कथानक, शिल्प और शैली ‘वस्तु’ को सम्प्रेष्य और प्रभावी बनाने वाले अवयव हैं, तत्व नहीं।
जहाँ तक शैली का प्रश्न है, वह सिर्फ ‘स्टाइल’ नहीं, ‘मैनर’ भी है। मैनर यानी शिष्टता। लघुकथा में, शब्दों को उनकी प्रभपणता के अनुरूप प्रयोग करने की शिष्टता का लेखक में विद्यमान रहना उतना ही आवश्यक है जितना किसी जिम्मेदार नागरिक में आचरण की शिष्टता का होना आवश्यक होता है। भाषा को उसकी सहज प्रवहमण्यता और लयबद्धता के साथ प्रस्तुत करने की शिष्टता व ज्ञान का लघुकथाकार में होना अपेक्षित है। यही नहीं, बल्कि यह भी कि लघुकथा का पात्र अपने स्तर, स्थिति और परिवेश से अलग भाषा तो नहीं बोल रहा है; कि उसका आचरण लघुकथा में उसके चरित्र से भिन्न किसी अन्य दिशा में तो अग्रसर नहीं है; कि पात्र के मुख से लेखक स्वयं तो नहीं बोलने लगा है(अर्थात् मानवोत्थानिक सन्देश तो नहीं देने लगा है!); तथा यह भी कि पात्र और कथा दोनों को पीछे धकेलकर अपनी लेखकीय हैसियत/उपस्थिति, अपने अस्तित्व की याद दिलाने के लिए(अर्थात् वही मानवोत्थानिक सन्देश या फिर जनवाद/प्रगतिवाद का आरोपण करने के लिए) वह स्वयं तो नहीं आ धमका है। बहुत-सी बातें हैं, जो शैली के ‘मैनर’ वाले अर्थ की ओर इंगित करती हैं। लघुकथा के संदर्भ में ‘स्टाइल’ की तुलना में शैली का यही तात्पर्य श्रेयस्कर है। ‘स्टाइल’ बघारने का जमाना उपन्यास, कहानी और काव्यादि लेखन का वह जमाना था जब रचना का आम बोलचाल से अलग भारी-भरकम शब्दों/शब्द-युग्मों, अलंकारों व मुहावरों से लदा होना ही उसकी स्तरीयता का प्रमाण हुआ करता था। रचनात्मक हिन्दी-साहित्य ने उस जमाने को काव्य में मुख्यतः गोस्वामी तुलसीदास(‘रामचरित मानस’) तथा कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद की रचनाओं के द्वारा तोड़-मरोड़ कर साहित्येतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है। साहित्य का समकालीन दौर सहजता और (ऊपर बताई गई) शिष्टता का दौर है, ‘स्टाइल’ बघारने का नहीं। (शेष आगामी अंक में)

शहर और सहारा
विपिन जैन

हर सप्ताह उसका मनीआर्डर घर पहुँच जाता था। सन्देश के स्थान पर लिखा होता था—माँ, तेरा ही खिलाया-पिलाया काम आ रहा है।
घर पर माँ पढ़ती तो खुशी में डूबकर सोचने लगती—उसने सबका मन मारकर, अपना तन गलाकर उसे यूँ ही गबरू-जवान नहीं बनाया था। मेहनत तो उसके खून की एक-एक बूँद में मिली हुई है।
खून बेचकर जब भी वह अस्पताल से बाहर निकलता, उसकी जेब में सौ रुपए होते थे। कुछ अपने खर्च के लिए रख लेता और बाकी गाँव में घर भेज देता था, जहाँ उसकी माँ व दो छोटे भाई-बहन उसके मनीआर्डर की राह देखते होते थे। पर, इस बार डाक्टर ने कह दिया था कि उसके अन्दर इतना खून ही नहीं है कि कुछ निकाला भी जा सके। एक दिन फिर वह भूख और शहर से लड़ता हुआ हारकर गाँव को लौट आया।
घर पहुँचा, तो माँ की आँखें उसकी पीली-काली छाया वाली सूरत देख विस्मय और भय से उसे पहचानने से मना करती रहीं। आँसुओं ने ही कुछ शब्द बिखेरे—“तू तो काम की खातिर…”
वह खोया-सा उसे देखने लगा था। फिर, मुश्किल-से कह पाया—“तू ठीक कहती थी माँ, शहर खून चूस लेता है।”


चोटमिथलेश कुमारी मिश्र(डा0)

बास ने अपनी स्टेनो को बुलाया। उसके आते ही उसने पूछा, “तुम आज हमारे चैम्बर में क्यों नहीं आईं?”
यह प्रश्न सुनकर उसने कहा, “चूँकि सर, आप अपनी आराम-चेअर पर सो रहे थे, इसलिए…मैं आकर लौट गयी…आपको डिस्टर्ब नहीं किया…।”
“क्यों?”
“सर, किसी सोये हुए को जगाना मैनर एंड एटीकेट्स के विरुद्ध है…फिर, आप तो बास हैं…।”
यह सुनकर बास का सीना चौड़ा हो गया…वह एक बास है। उसने तुरन्त ही अपने को सँभाला…यह उसने कैसे कह दिया…मैं आफिस यानी आन-ड्यूटी सो रहा था…शिकायत यदि ऊपर तक पहुँच गयी, तो क्या होगा? यह प्रश्न दिमाग में आते ही वह सतर्क हो उठा और उसने उसे डपटते हुए कहा, “क्या कह रही हो! मैं और आराम-चेअर पर सो रहा था!…मैं तो जग रहा था, समझी!”
“सर, क्षमा करेंगे… जगे हुए को जगाना तो और-मुश्किल है।” यह कहकर वह जैसे-ही लौटने लगी, बास के स्वर ने उसका पीछा किया और वह रुक गयी।
“सर, आपने कुछ कहा?”
“देख नहीं रही हो…आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है…और तुमने मेरा हाल तक नहीं पूछा।”
यह बात सुनकर वह सोचने लगी कि बास की तबीयत खराब है…या क्या है? दूसरे, यह हाल-चाल पूछना तो ड्यूटी का हिस्सा नहीं है। फिर भी उसने कहा, “सर, मुझे मालूम नहीं था…आपने कहलवा दिया होता…मैं तो कल शाम आप द्वारा डिक्टेट कराए पत्रों का उत्तर ही टाइप कर रही थी।”
“अभी-अभी मुझे मालूम हुआ कि तुम किसी को गले लगाकर रो रही थीं…क्या यह सच है?”
उसने कुछ क्षण सोचा…फिर याद आते ही उसने कहा, “हाँ, सच है। वह हमारे हेड-आफिस के खुराना साहेब की पत्नी थी, जो अपने पिता की चर्चा आने पर उनका स्मरण करके रो रही थी…उन्हें सांत्वना देते हुए…मेरी आँखों में भी आँसू आ गये थे…चूँकि मेरे पिता भी नहीं हैं।…मुझे उनकी स्मृति हो आयी थी…सर, आपको शायद ऐसा दुःख अभी तक कभी झेलना नहीं पड़ा है न?”
बास ग्लानि में धँस गया और वह अपनी सीट की ओर बढ़ गयी।

नीचे वाली चिटकनी
जसबीर चावला

अब बहनजी, क्या बताऊँ, मेरे तो पसीने छूट रहे थे। मैं बार-बार रामजी की आरती पढ़े जाऊँ…बोलूँ—हे भगवान, आज मेरी इज्जत तू ही बचा। तूने द्रोपदी की लाज रखी मुरारी! यह विपदा टाल।…और उधर वे मुए दरवाजा लात-घूसों से पीटे जाएँ…पीटे जाएँ…भला हो उस बहन का जो पटणे उतरने से पहले समझा गयी थी—‘यह इलाका खतरनाक है भेणे! केबिन बंद कर लीजिए। आपने इतने गहने पहन रखे हैं और अकेली मायके जा रही हैं। इधर तो गुण्डे-बदमाश खिड़की से कान की बालियाँ तक नोंचकर ले जाते हैं।’…उसके उतरते ही मैं अकेली रह गयी थी। मैंने खिड़कियाँ गिरा लीं और केबिन की ऊपरली चिटखनी लगा दी। रात हो गयी थी बहनजी, और मेरी छाती रेल के साथ धक-धक मिला रही थी। मैंने चूड़ियाँ और हार उतारके पेटी में बन्द कर दिये और मुँह-सिर लपेटकर पड़ गयी।
अगले स्टेशन पर कोई आया और दरवाजा पीट, बक-झींक कर दफा हो गया। मैंने बहनजी, पानी तक के लिए केबिन नहीं खोला।
हर स्टेशन पर बहनजी, वही ठोंक-पीट…भले लोगो! यही केबिन बचा है…? दूसरे इत्ते हैं, किसी में जगह ले लो! मुझे तो लगे…वो पटणे वाली भैंणजी ही अपने यारों को बता गयी हैं—इस जनानी के पास माल बहुत है…पीछे लग जाओ!
आखिर बहनजी, गयी रात का टैम होगा…ऐसा लगा—वे मुए दरवाजा तोड़ देंगे। बोले—‘हम पुलिसवाले हैं…खोलो!’…और कौन नहीं जाने बहन, डाके पुलिसवालों के भेष में पड़ते हैं…मैं तो थर-थर काँपने लगी। रामजी की सौगंध, आरती पढ़ मैंने तो नीचे वाली चिटखनी भी लगा दी!


हनुमान बना जगतार
सुदर्शन वशिष्ठ

पी कर बहुत सच्ची बात करता था जगतार।
रामलीला के समय वह हनुमान बनता था। मोटा-तगड़ा था। दशहरे के दिन जब गदा लिये चलता तो पूरा हनुमान लगता। औरतें और बच्चे उससे बहुत डरते थे।
“माई! मैं एह सारे रावण मार देणे।“ रात को थका-हारा घर आने पर वह बोल उठा।
“मार देईं पुत्तर।” माँ बोली।
“माई! तू नी जाणदी। सेक्रेटरिएट विच सारे रावण, मेघनाद ते कुम्भकर्ण कट्ठे होए हन। रावण लोकां नूं खा रहे। कुम्भकर्ण दिनभर सुत्ते रैंहदे, मेघनाद उधम मचाए रखदे।”
“ठीक है पुत्तरा।” माँ हुंकारा भरती।
“ओए मादर्…मारो इन्हां नूं।” उसने गदा घुमाई।
“जगतरिया! गाला क्यूँ कढ़ दिया। हनुमान बणया है, कुझ तां शरम कर मूरखा। वड्डे अफसर वड्डे ही हुंदे पुत्तर।”
“ओए, चुप कर ओए मादर…।”
“मूरखा गाला न कढ। जय श्रीराम बोल।”
“चुप कर ओए। एह ना बुला मेरे तों। माई! एह ना बुला मेरे तों।” कहता लुढ़क गया जगतार।

नासूर
धीरेन्द्र शर्मा

-सूचना देकर भी कल नहीं आये, मैं दिन-भर इन्तजार करती रही।
-किया होगा।
-कभी तुम्हें करना पड़े तो पता चले।
-यह सब मेरे वश का रोग नहीं, फालतू नहीं हूँ।
-मैं फालतू हूँ क्या?
-मैं नहीं जानता।
-तुम कैसे होते जा रहे हो!
-तुम्हारा बेकार का भ्रम है।
-अब हमारे बीच क्या प्रेम नहीं, भ्रम ही रह गया है?
-मैं कब कहता हूँ, तुम ही कह रही हो।
-आखिर तुम भी तो कुछ कहोगे!
-मेरा सर मत खाओ, कोई और बात करो।
-हम कब तक कुँवारा प्रेम निभायेंगे? तुम्हारे घर के लोगों ने शादी की कौन-सी तारीख निश्चित की?
-अपने पापा-मम्मी से पूछ लो।
-उनसे क्या पूछूँ?
-अपना सर।
-तुम इस तरह के जवाब क्यों देते हो?
-मेरा मन।
-मन के माफिक बोलने का हक़ तुम्हें ही है, मुझे नहीं?
-नहीं।
-क्यों?
-आखिर मैं एक मर्द हूँ, और तुम एक औरत।


परिवर्तनअशोक लव
“तुमने उसका साथ छोड़कर अच्छा नहीं किया।”
“क्यों?”
“वह तुम्हें सच्चे मन से प्यार करता था।”
“मैंने भी उसे सच्चे मन से प्यार किया था।”
“फिर उसे छोड़ क्यों दिया?”
कला-संकाय के पास वाली दुकान आ गयी। सिगरेट लेने रुक गया।
“तुम कौन-सी लोगी?”
“कोई भी ले लो, पर फिल्टर लेना।”
दुकानदार से दो विल्स लीं। साथ टगी जलती रस्सी के सिरे से सिगरेट सुलगाई। उसने मेरी सिगरेट से अपनी सिगरेट सुलगाई। हम मिराँडा हाउस कालेज की ओर बढ़ चले।
“तुमने बताया नहीं?”
“क्या?”
“उसे छोड़ क्यों दिया? उसने तुम्हें लेकर न जाने कितने सपने सजा रखे थे।”
“इसीलिए तो। मैं अभी-से बँधना नहीं चाहती थी।”
“तुम्हारी नजर में प्यार का इतना ही महत्व है? उसने तुम्हें मन की गहराइयों से प्यार किया था। ऐसे मित्र का साथ छोड़ना…”
“मैंने भी उसे प्यार किया था। प्यार का अर्थ सारा जीवन संग-संग जीना नहीं है। मैंने उसके प्यार का बदला तन-मन से दिया था। मेरे पास जो भी था, सब… सब उसे दिया था। तुम क्या इसे कम समझते हो?” उसने मुँह से धुँआ छोड़ते हुए कहा।
“कल मेरे लिए भी तुम इन्ही शब्दों का प्रयोग करोगी?”
“और क्या! कल उसका था, आज तुम्हारा। कल का क्या पता?”
सिगरेट की जलती आँच से अँगुलियाँ झुलस गयीं।

हादसा
गीता डोगरा मीनू
जब उसे अदालत लाया गया तो उसके चेहरे पर न खौफ था, न ही किसी किस्म की कोई घबराहट। हाँ, आँखों में उदासी की झलक जरूर थी।
सवालों के सिलसिले की औपचारिकता के तहत उसने कसम ले ली। वकील आगे बढ़ा, “तुम पर इल्जाम है कि तुमने नवविवाहित जोड़े को ट्रक से कुचल डाला।”
“जी, मैंने तभी मान लिया था, जब अपने आप को कानून के हवाले किया था।”
“क्या यह सही है कि वह नवविवाहित जोड़ा ठीक दिशा में चल रहा था?”
“जी हाँ।”
“और तुम्हारा ट्रक भी?”
“जी…”
“इसका मतलब यह हुआ कि तुमने जान-बूझकर उसे कुचल डाला।”
“जी।”
“तुम बता सकते हो कि तुमने ऐसा क्यों किया?”
“मुझे खुद नहीं मालूम वकील साहब।”
“क्या तुम उन लोगों को जानते थे?”
“हाँ साब, पिछले पाँच महीने सामने से उस लड़की को ठीक एक ही वक्त पर, उसी होटल के सामने से गुजरता देखता रहा था।”
“पर…उस होटल के सामने से हजारों लोग गुजरते हैं…!”
“पर, सब लोगों से तो मैं मुहब्बत नहीं करता। मेरा वो खुदा सब लोगों से अलग था।” वह हाँफने लगा।
“ओह, तो वह लड़की भी तुमसे…?”
“नहीं साब, उसे तो इल्म भी न था कि कोई तपती दोपहरी में, होटल के बाहर सिर्फ इसलिए खड़ा रहता था कि उसे एक झलक देखना था।”
“मगर कोई अपने खुदा को इस तरह तो नहीं मार डालता?…तुमने…।”
“जी हाँ, मैंने उसे मार डाला। पिछले पन्द्रह दिनों से मैं उसे देख नहीं सका; और उस दिन अचानक जब शादी के जोड़े में देखा तो बर्दाश्त न कर पाया और एकाएक मुझे न जाने क्या हुआ कि मैंने उसे…कुचल…।” कहता हुआ वह फूट-फूट कर रो पड़ा।