‘जनगाथा’ के इस अंक में हिन्दी व पंजाबी लघुकथा-लेखन में समान रूप से सक्रिय डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथाएँ प्रस्तुत है। ये लघुकथाएँ भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल के सौजन्य से प्राप्त हुई है जो स्वयं भी हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं की लघुकथाओं के साथ लेखन, संपादन, आलोचना और अनुवाद सभी स्तरों पर जुड़े हुए हैं। श्याम सुन्दर अग्रवाल जी की लघुकथाओं को आप अगस्त 2009 के ‘जनगाथा’ में पढ़ चुके हैं। दीप्ति जी की लघुकथाओं में मानव-मन की गहरी गुफाओं के दर्शन होते हैं। ऐसी गुफाएँ जो पाठक में अपने और भीतर…और भीतर प्रविष्ट होने की जिज्ञासा उत्पन्न करती हैं और किसी भी बिन्दु पर उसे हताश नहीं होने देतीं। पंजाब के इन दोनों ही कथाकारों की लघुकथाओं से ‘लघुकथा कहने की (न कि लिखने की) कला’ को जाना जा सकता है। प्रयत्न रहेगा कि ‘जनगाथा’ के माध्यम से देश अन्य प्रांतों के लघुकथा-लेखन से पाठकों को परिचित कराया जाता रहे। -बलराम अग्रवाल
गुब्बारा
गली में से गुब्बारेवाला रोज गुजरता। वह बाहर खड़े बच्चों को गुब्बारा पकड़ा देता और बच्चा माँ-बाप को दिखाता। फिर बच्चा खुद ही पैसे दे आता, या उसके माँ-बाप। इसी तरह एक दिन मेरी बेटी से हुआ। मैं उठकर बाहर गया और गुब्बारे का एक रुपया दे आया। दूसरे दिन फिर बेटी ने वैसा ही किया। मैने कहा, “बेटे, क्या करना है गुब्बारा? रहने दे न!” पर वह कहाँ मानती थी, रुपया ले ही गई। तीसरे दिन जब रुपया दिया तो लगा कि भई रोज-रोज तो यह काम ठीक नहीं। एक रुपया रोज महज दस मिनट के लिए। अभी फट जाएगा।
मैने आराम से बैठकर बेटी को समझाया, “बेटे! गुब्बारा कोई खाने की चीज है? नहीं न! एक मिनट में ही फट जाता है। गुब्बारा अच्छा नहीं होता। अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते। हम बाजार से कोई अच्छी चीज लेकर आएंगे।”
अगले दिन जब गुब्बारेवाले की आवाज गली से आई तो बेटी बाहर न निकली और मेरी तरफ देखकर कहने लगी, “गुब्बारा अच्छा नहीं होता। भैया रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊँ कि वह चला जाए।”
“वह आप ही चला जाएगा।” मैने कहा। वह बैठ गई।
उससे अगले दिन गुब्बारेवाले की आवाज सुनकर वह बाहर जाने लगी तो मुझे देख बोली, “मैं गुब्बारा नहीं लूँगी।” और वह वापस आई तो, “अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते न? राजू तो अच्छा बच्चा नहीं है। गुब्बारा तो मिनट में फट जाता है।” कहती हुई अपनी मम्मी के पास रसोई में चली गई और उससे बोली, “मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो न!”
-0-
हद
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ।
“साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।”
“तुम इस बारे में कुछ कहना चाहते हो?” मजिस्ट्रेट ने पूछा।
“मैने क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी देकर बैठा था। ‘हीर’ के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नज़र नहीं आई।”
-0-
दूसरा किनारा
काफिला चला जा रहा था। शाम के वक्त एक जगह पर आराम करना था और भूख भी महसूस हो रही थी। एक जगह दो ढाबे दिखाई दिए। एक पर लिखा था–‘हिंदु ढाबा’ और दूसरे पर ‘मुस्लिम ढाबा’। दोनों ढाबों में से नौकर बाहर निकल कर आवाजें दे रहे थे। काफिले के लोग बँट गए। अंत में एक शख्स रह गया, जो कभी इस ओर, कभी उस ओर झांक रहा था। दोनों ओर के एक-एक आदमी ने, जो पीछे रह गए थे, पूछा, “किधर जाना है? हिंदु है या मुसलमान? क्या देख रहा है, रोटी नहीं खानी?”
वह हाथ मारता हुआ ऐं…ऐं…अं…आं करता हुआ वहीं खड़ा रहा। जैसे उसे कुछ समझ में न आया हो और पूछ रहा हो, ‘रोटी, हिंदु, मुसलमान।’
दोनों ओर के लोगों ने सोचा, वह कोई पागल है और उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गए।
कुछ देर बाद दोनों ओर से एक-एक थाली रोटी की आई और उसके सामने रख दी गईं। वह हलका-सा मुस्काया। फिर दोनों थालियों में से रोटियां उठाकर अपने हाथ पर रखीं और दोनों कटोरियों में से सब्जी रोटियों पर उँडेल ली। फिर सड़क के दूसरे किनारे जाकर मुंह घुमाकर खाने लगा।
-0-
मुसीबत
शाम को बारिश शुरू हुई और सुबह तक रुकी ही नहीं। ठंड भी काफी बढ़ गई। नरेश का रजाई से बाहर निकलने को मन नहीं कर रहा था।
बच्ची उठ कर स्कूल के लिए तैयार हो गई थी। बारिश में भी आटो वाला आया और वह स्कूल चली गई।
“ अब आप उठ जाओ, तैयार नहीं होना?” आखिर पत्नी ने नरेश को टोक दिया।
“ बारिश तो रुके, चले जाएंगे। वहाँ भी क्या करना है।”
“ अच्छा, तैयारी तो करो ताकि बारिश रुकने पर जा सको।”
पत्नी ने नाश्ता बना कर माँ को दिया और फिर नरेश से बोली,“ आप भी नाश्ता कर लो, फिर जो मन में आए करना।”
नरेश ग्यारह बजे दफ्तर पहुँच सका। उस समय तक केवल अरोड़ा ही आया था।
“ इस सुहावने मौसम में आप क्या करने आ गए?” अरोड़ा बोला।
“ क्यों? ड्यूटी पर तो आना ही था।”
“ ड्यूटी कहीं भागी तो नहीं जा रही थी। आज तो घर में ठंड एंज्वाय करने का दिन था।”
“ तो फिर आप किस खुशी में आ गए?”
“ हमारी तो मजबूरी थी,” अरोड़ा ने ठंडी साँस ली, “ पत्नी प्राईवेट स्कूल में है। हमारी तरह सरकारी ऐश थोड़े ही है। अब देखो गर्ग साहब नहीं आए न, आएंगे भी नहीं। आप भी घर जाकर मजे करो। यहाँ मैं देख लूँगा।”
“ गर्ग साहब की बात छोड़,” नरेश बोला,“ अपने यहाँ भी मुसीबत है। माँ आई हुई है गाँव से।” नरेश ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
-0-
माँ की जरूरत
“ कर लो पता अपने काम का, साथ ही उन्हें चेयरमैन बनने की बधाई भी दे आओ, इस बहाने।”
पत्नी ने कहा तो भारती चला गया, वरना वह तो कह देता था,‘ देख,‘गर काम होना होगा तो सरदूल सिंह खुद ही सूचित कर देगा। हर चार-पाँच दिन के बाद मुलाकात हो ही जाती है।’
तबादलों की राजनीति वह समझता था। कैसे मंत्री ने विभाग संभालते ही सबसे पहले तबादलों का ही काम किया। बदली के आदेश हाथ में पहुँचते ही भारती ने अपनी हाज़िरी-रिपोर्ट दी और योजना बनाने लगा कि क्या किया जाए– वहाँ रहे, बच्चों को साथ ले जाए या फिर रोजाना आए-जाए। बच्चों की पढ़ाई के मद्देनज़र आख़िरी निर्णय यही हुआ कि अभी यहीं रहते हैं और ‘दंपति-केस’ के आधार पर एक अर्जी डाल देते हैं। और तो भारती के वश में कुछ था भी नहीं। फिर पत्नी के कहने पर एक अर्जी राजनीतिक साख वाले पड़ोसी सरदूल सिंह को दे आया था।
सरदूल सिंह घर पर ही मिल गया। वह भारती को गर्मजोशी से मिला। भारती को भी अच्छा लगा। आराम से बैठ, चाय मँगवा कर सरदूल बोला, “ छोटे भाई! वह अर्जी मैने तो उस वक्त पढ़ी नहीं, वह अर्जी तूने अपनी तरफ से क्यों लिखी? माता जी की तरफ से लिखनी थी। ऐसा कर, एक नई अर्जी लिख, माता जी की तरफ से। लिख कि मैं एक बूढ़ी औरत हूँ, अकसर बीमार रहती हूँ। मेरी बहू भी नौकरी करती है…बच्चे छोटे हैं, देर-सवेर दवाई की ज़रूरत पड़ती है…मेरे बेटे के पास रहने से मैं……। कुछ इस तरह से बात बना। बाकी तू समझदार है। मैने परसों फिर जाना है, मंत्री से भी मुलाकात होगी।” उसने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
भारती ने सिर हिलाया, हाथ मिलाया और घर की तरफ चल दिया। माँ की तरफ से अर्जी लिखी जाए। माँ को मेरी ज़रूरत है…माँ बीमार रहती है…कमाल! बताओ अच्छी-भली माँ को यूँ ही बीमार कर दूँ। सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल का नाश्ता बना कर देती है। हम दोनों तो ड्यूटी पर जाने की भाग-दौड़ में होते हैं। दोपहर को आते हैं तो खाना तैयार मिलता है। मैं तो कई बार कह चुका हूँ कि माँ बर्तन साफ करने के लिए नौकरानी रख लेते हैं, पर माँ नहीं रखने देती। कहती है,‘ मैं सारा दिन बेकार क्या करती हूँ।’…कहता लिख दे, बेटे का घर में रहना ज़रूरी है। मेरी बीमारी के कारण मुझे इसकी ज़रूरत है। कोई पूछे इससे कि माँ की हमें ज़रूरत है कि…। नहीं-नहीं, माँ की तरफ से नहीं लिखी जा सकती अर्जी।
-0-
मूर्ति
वह बाज़ार से गुजर रहा था। एक फुटपाथ पर पड़ी मूर्तियाँ देख कर वह रुक गया।
फुटपाथ पर पड़ी खूबसूरत मूर्तियाँ! बढ़िया तराशी हुईं। रंगो के सुमेल में मूर्तिकला का अनुपम नमूना थीं वे!
वह मूर्तिकला का कद्रदान था। उसने सोचा कि एक मूर्ति ले जाए।
उसे गौर से मूर्तियाँ देखता पाकर मूर्तिवाले ने कहा, “ ले जाओ, साहब, भगवान कृष्ण की मूर्ति है।”
“भगवान कृष्ण?” उसके मुख से यह एक प्रश्न की तरह निकला।
“हाँ साहब, भगवान कृष्ण! आप तो हिंदू हैं, आप तो जानते ही होंगे।”
वह खड़ा-खड़ा सोचने लगा, यह मूर्ति तो आदमी को हिंदू बनाती है।
“क्या सोच रहे हैं, साहब? यह मूर्ति तो हर हिंदू के घर होती है, ज्यादा महँगी नहीं है।” मूर्तिवाला बोला।
“नहीं चाहिए।” कहकर वह वहाँ से चल दिया।
-0-
माँ
“ मम्मी, मम्मी! मेरा शार्पनर कहाँ है?”
“ मौम! कुछ खाने को बना दो।”
“ मौम…”
बेटा बार-बार कुछ माँग रहा था।
“ तू आवाज देने से न हटना। तू एक ही बार नहीं माँग सकता सब कुछ। बता, क्या मौम-मौम लगा रखी है?”
वह भी परेशान थी, अपने सर्वाइकल के दर्द से और ऊपर से नौकरानी भी देर से आई थी। उसकी प्रतीक्षा कर वह आधा काम स्वयं ही निपटा चुकी थी।
“ कभी खुद भी उठना चाहिए।” उसने बेटे को जूस का गिलास देते हुए कहा।
राजेश अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। वह उठ कर बेटे के कमरे में आ गया। वैसे माँ-बेटे की बातें वह वहाँ बैठा सुन ही रहा था।
कुछ देर बाद बेटा उठकर बाहर माँ के पास जाकर बोला,“ मम्मी, पापा कहते हैं…”
“ अब उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कह रुकें पाँच मिनट, एक ही बार फ्री होकर चाय बनाऊँगी।”
“ नहीं मम्मी! पापा कहते हैं…माँ बनना आसान नहीं होता।”
“ अच्छा! अब तुम्हें पढ़ाने आ गए। क्यों? पिता बनना आसान होता है? दूसरे की तारीफ करो और अपना काम निकालो। ये नहीं कि काम में हाथ बंटा दें।” उस ने उसी रौ में बात को जारी रखा और उसकी ओर मुँह करके बोली, “ पूछना था न, माँ बनना क्यों कठिन है?”
“ पूछा था मम्मी!”
“ अच्छा तो फिर क्या जवाब मिला?”
“ पापा कहते, तुझे जन्म देने के लिए तेरी माँ का बड़ा आपरेशन हुआ,” बच्चे ने आँखें तथा हाथ फैलाकर कहा, “ मम्मी के पेट को चीरा देना पड़ा। मम्मी! पापा कहते, पता नहीं कितने टाँके लगे। बड़ी तकलीफ हुई…।”
बच्चे की बात सुन, माँ ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति: संक्षिप्त परिचय
जन्म : 30 अप्रैल 1954, अबोहर (जिला: फिरोज़पुर),पंजाब।
शिक्षा : एम.बी.बी.एस., एम.डी.(कम्युनिटी मैडीसन), एम.ए.( समाज विज्ञान व पंजाबी), एम.एस-सी.(एप्लाइड साइकोलॉजी)
प्रकाशित पुस्तकें
मौलिक : ‘बेड़ियाँ’, ‘इक्को ही सवाल’(लघुकथा संग्रह, पंजाबी में), तथा विभिन्न विधाओं से संबंधित 33 और पुस्तकें।
संपादित : 27 लघुकथा संग्रह (पंजाबी व हिंदी में) तथा 10 अन्य पुस्तकें।
संपादन : पंजाबी त्रैमासिक ‘मिन्नी’ का वर्ष 1988 से तथा पत्रिका ‘चिंतक’ का वर्ष 2000 से निरंतर संपादन।
संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, मैडीकल कॉलेज, अमृतसर।
संपर्क : 97, गुरु नानक एवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर (पंजाब)-143004
दूरभाष : 0183-2421006 मोबाइलः 09815808506