Wednesday, 16 June 2010

नींव के नायक


-->
माह में अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन नींव के नायक प्रकाश में आया है। नींव के नायक में माधवराव सप्रे, प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, जयशंकर प्रसाद, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, छबीलेलाल गोस्वामी, जगदीशचन्द्र मिश्र, सुदर्शन, रामवृक्ष बेनीपुरी, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, यशपाल, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामधारी सिंह दिनकर, उपेन्द्रनाथ अश्क, रावी, विष्णु प्रभाकर, जानकीवल्लभ शास्त्री, रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाई, दिगंबर झा, आनन्द मोहन अवस्थी, शरद कुमार मिश्र शरद, ब्रजभूषण सिंह आदर्श, श्यामनन्दन शास्त्री, पूरन मुद्गल, युगल, सुरेन्द्र मंथन तथा सतीश दुबे यानी 29 कथाकारों की कुल 177 लघुकथाएँ संगृहीत हैं। पुस्तक में उनका शोधपूर्ण लेख सन् 1970 तक की लघुकथाएँ भी है जिस पर चर्चा अलग से की जा सकती है। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उक्त सकलन से तीन लघुकथाएँ:
जमा-खर्च/अयोध्या प्रसाद गोयलीय
हमारे मुहल्ले में एक बुजुर्ग थे। खरी-खरी कहने में किसी से चूकते नहीं थे। उनसे बात करते हुए लोग घबराते थे। एक रोज एक युवक रोते हुए आकर बोला,ताऊजी, लाला काल कर गए।
आपने अन्यमनस्क भाव से जवाब दिया,अच्छा हुआ।
युवक सकते में रह गया कि यह इन्होंने क्या कहा? मेरे पिताजी मर गए, सहानुभूति प्रदर्शित करने की बजाय कहते हैं, अच्छा हुआ। मनोव्यथा दबाकर बोला,अभी रात को ले जाने का इरादा है।
वे उसी तरह बोले,सुबह भी ले जा सको तो गनीमत है।
यह क्यों ताऊजी?
भाई अपना खाता देख लो। किसी की अर्थी को कन्धा दिया होगा तो उन्हें भी कन्धा देने वाले मिलेंगे। वर्ना झल्ली वालों से लाश उठवानी पड़ेगी।
और सचमुच उनका कहा सत्य हुआ।
मुहल्ले के दो-चार रईसों की आदत थी कि मुर्दनी में साथ न जाकर कारों-ताँगों से सीधे श्मशान-घाट पहुँच जाते थे। न अर्थी को कन्धा देते, न हाथ लगाते थे। उनका यह व्यवहार लोगों को खटकता तो था, परन्तु कहने का साहस नहीं होता था। उस रोज उक्त बुजुर्ग उन्हें सुनाकर कहने लगा,भाई, अबकी इनके यहाँ किसी की मौत हुई तो हम भी टैक्सी में श्मशान-घाट आयेंगे।
तब से उन रईसों ने मोटरों-ताँगों में श्मशान-घाट जाना छोड़ा। (1951)
संस्कृति/हरिशंकर परसाई
भूखा आदमी सड़क के किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुँचा और उसे दे ही रहा था कि एक दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था।
पहले आदमी ने पूछा,क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?
रंगीन आदमी बोला,ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते। तुम केवल उसके तन की भूख समझ सकते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ। देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर। हृदय की अधिक महत्ता है।
पहला आदमी बोला,लेकिन उसका हृदय पेट पर ही तो टिका हुआ है। अगर पेट में भोजन नहीं गया, तो हृदय की टिक-टिक बंद हो जाएगी!
रंगीन आदमी हँसा; फिर बोला,देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी!
यह कहकर वह उस बूढ़े के सामने बाँसुरी बजाने लगा। दूसरे ने पूछा,यह तुम क्या कर रहे हो? इससे क्या होगा?
रंगीन आदमी बोला,मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ। तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी।
वह फिर बाँसुरी बजाने लगा।
और तब वह भूखा उठा। उसने बाँसुरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी। (1956)
स्नेह का स्वाद/शरद कुमार मिश्र शरद
मकान के आँगन में नन्हे-मुन्ने शिशु आँख मिचौनी खेल रहे थे। खेलते-खेलते एक बच्चा धक्का खाकर जमीन पर आ गिरा। उसके होठों से खून निकल आया, फिर भी वह रोया नहीं। उसने एक बार अपने चारों ओर देखा और यह अनुभव कर कि उसे किसी ने नहीं देखा, झट खड़ा हो खेलने लगा।
बच्चों की किलकी सुनी तो माँ ने बाहर झाँककर देखा और चिल्लाकर बोली,पप्पू, इधर चलो, चोट लग जाएगी।
हम नहीं आते अम्मा, खेल रहे हैं। कहकर वह फिर दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते एक बार फिर ठोकर खाई तो गिर पड़ा। माँ उसे उठाने दौड़ी तो रो पड़ा।
अब क्या था, ज्यों-ज्यों माँ बच्चे को चुप करने की चेष्टा करती, त्यों-त्यों वह और अधिक रोता, हालाँकि इस बार उसे चोट क्या खरोंच भी न आई थी। फिर भी वह हिड़कियाँ भर रहा था। माँ पुचकार रही थी, मुँह चूम रही थी, और बच्चा स्नेह का स्वाद ले रहा था! जिद्दी हो रहा था। (1957)