फेसबुक पर इन दिनों लघुकथा के ‘मौलिक’ ‘अमौलिक’ होने की चर्चा चली हुई है। इस चर्चा के मूल सूत्रधार तो राजेश उत्साही हैं; लेकिन बहती गंगा में हाथ धोने वालों की कमी फेसबुक पर भी नहीं है।
अनभिज्ञता, अल्पभिज्ञता और भिज्ञता से जुड़ी अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ मैं अशोक भाटिया द्वारा अनूदित अमरीकी लेखक कार्ल सैंडबर्ग की ‘रंगभेद’ शीर्षक यह रचना प्रस्तुत करना चाहूँगा :
मियामी के तट पर बैठे उस गोरे आदमी ने रेत पर एक छोटा-सा घेरा बनाया और सामने बैठे काले आदमी की ओर हिकारत से देखता हुआ बोला, “एक काला आदमी इससे ज्यादा नहीं जानता।”
फिर उसने उस छोटे घेरे के चारों ओर एक बड़ा घेरा बनाया और कहा, “एक गोरा आदमी इतना ज्यादा जानता है।”
इस पर काला आदमी उठा। उसने एक पत्थर के टुकड़े से दोनों घेरों के चारों ओर एक बहुत बड़ा घेरा बनाया और कहा, “इतना कुछ है, जिसे न गोरा जानता है, न काला।”
लघुकथा साहित्य में भी ‘इतना कुछ है, जिसे लघुकथा का बड़े से बड़ा आलोचक (और संपादक भी) नहीं जानता।’ हम सब छोटे और मध्यम आकार वाले घेरे के लोग हैं। वैसी ही हमारी मानसिकता भी है। बड़े घेरे से निकलकर जैसे ही कोई बात हमारे घेरों की बात से साम्य रखती नजर आती है, हम आसमान की ओर मुँह उठाकर हूकने लगते हैं; गोया कि बहुत-बड़ी खोज हमारे हाथ लग गयी हो।
‘यह मेरा भाई है’ का कथ्य बीसों वर्ष तक हमारे लिए मौलिक था। फिर हमें मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा ‘बोझ’ नजर आती है और ‘बोझ’ पर चोरी की रचना का टप्पा लग जाता है। एकाएक पता लगता है कि इसी कथा को आचार्य रजनीश ने अपने किसी प्रवचन में कहा था। अब संदेह की सुई उर्मि जी की ओर घूम जाती है। उन्ही उर्मि जी की ओर जिनकी लघुकथा तब तक मौलिक थी, जब तक कि आचार्य रजनीश द्वारा उसे अपने प्रवचन में शामिल करने का पता हमें नहीं था। (हालाँकि प्रमाण के तौर पर किसी ने भी अभी तक उसे प्रस्तुत नहीं किया है।) वह पता लगते ही, शोर शुरु हो गया कि ‘वह तो मेरा भाई है’ रचना मौलिक नहीं है। उर्मि जी से जब यह स्पष्ट करना चाहा कि उनकी रचना ने रजनीश-प्रवचन में प्रवेश किया या प्रवचन ने उनकी रचना को अपनाया? तब, उर्मि जी ने स्पष्ट कर दिया कि यह कथ्य उन्होंने अपने दादाजी के ‘लोक’ से पाया था। इस जवाब पर तो विद्वता से भरी भृकुटियाँ उर्मि जी पर ही तन गयीं—ऐसा क्यों किया? पूर्व-प्रचलित लोककथा को अपनी लघुकथा बताकर छलती रहीं आज तक?
विधाएँ स्वीकार की जमीन पर पनपती हैं, नकार और दुत्कार की नीति अपनाकर आज तक कोई भी नहीं पनपा। हमारी एक विशेषता यह है कि हम कुछ श्रद्धाओं और विश्वासों की झोली में खुद को डाल देना अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं। क्यों? क्योंकि श्रद्धा और विश्वास हमें श्रम करने से तो बचाते ही हैं, साहित्य के माफियाओं के प्रकोप से भी बचाए रखते हैं। गत कुछेक वर्षों से ‘लघुकथा’ पर पहली शोधोपाधि ‘पी-एच॰ डी॰’ पर जो एकाएक उहापोह शुरू की गयी है, उसके पीछे भी प्रमाण जुटाने के श्रम से बचने की अकादमिक मानसिकता को जानने-पहचानने वाली मेधा ही काम कर रही है।
आज अगर किसी कम पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछा जाए कि ‘रामायण’ किसने लिखी? तो पहले झटके में जवाब सौ नहीं तो निन्यानवें प्रतिशत ‘तुलसीदास’ ही आयेगा। वाल्मीकि, जो रामकथा के आदि-कवि हैं, नेपथ्य में जा चुके हैं।
तुलसीदास ने ताल ठोककर ‘बालकांड’ के शुरू में ही लिख भी दिया कि—
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
अर्थात् ‘रामचरितमानस’ में वर्णित रामकथा के सूत्र विभिन्न पुराणों, आगम-निगम ग्रंथों, वाल्मीकि रामायण के अलावा यहाँ-वहाँ से भी खूब जुटाये हैं। ऐसा नहीं कि प्रारम्भ में तुलसीदास पर ‘अमौलिक’ होने के आरोप नहीं लगे होंगे। विद्वानों की कमी तो किसी भी काल में रही नहीं है। ‘तुलसीदास चोर लेखक हैं’ नाम से दिल्ली प्रेस ने तो पूरी किताब ही छपवा डाली थी।
बावजूद इसके, कि ‘रामचरितमानस’ का पाठ सामान्य घरों से लेकर पंच-सितारा मन्दिरों तक समान श्रद्धा के साथ किया जाता था, राधेश्याम कथावाचक ने ‘राधेश्याम रामायण’ लिखी और समाज में अच्छा सम्मान भी पाया। और इन दोनों के होते हुए हमारे ही समय में, नरेन्द्र कोहली ने भी रामकथा को लिखा और सम्मान पा रहे हैं। वाल्मीकि के बाद लगभग 300 रामकथाएँ विभिन्न भाषाओं/बोलियों में लिखी गयी हैं। मेरी जानकारी में तो यही है कि वे सब की सब मौलिक ही कहलाती हैं, नकल नहीं। बावजूद इसके लघुकथा के खैरख्वाहों जैसा शोर रामकथा के हितैषियों के बीच नहीं है। उन्हें तुलसीदास, राधेश्याम कथावाचक और अब नरेन्द्र कोहली की रामकथाएँ उतनी ही स्वीकार हैं, जितनी वाल्मीकि रामायण।
इसी क्रम में ‘कूप मंडूक’ नाम की एक पुरातन जैन कथा भी पेश है—
एक मेढक जंगल के एक कुएँ में पैदा हुआ। उसके लिए आसमान उतना ही था, जितना कुएँ के भीतर से उसे नजर आ सकता था। एक दिन समुद्र का एक मेंढक उछलता-कूदता उस कुएँ में जा गिरा। दोनों में बातें हुईं:
'अब से पहले कहाँ रहते थे?' पहले ने पूछा।
‘समुद्र में।’ दूसरे ने बताया।
‘समुद्र, मतलब कितना बड़ा कुआँ?’
‘हजारों-करोड़ों गुना बड़ा…’
इस पर कुएँ के मेढक ने चारों हाथ-पैर खूब खींचकर फैलाए और पूछा, ‘इतना बड़ा?’
‘इससे बहुत बड़ा।’
कुएँ का मेढक कुएँ की परिधि के एक सिरे पर गया और केन्द्र के आर-पार दूसरे सिरे तक उछला। पूछा, ‘इतना बड़ा?’
‘इससे भी बड़ा।’ समुद्र के मेढक ने कहा, ‘वहाँ से आसमान भी दूर-दूर तक दिखाई देता है।’
‘बकवास बंद कर। न तो इस कुएँ से बड़ी कोई दूसरी जगह हो सकती है और न इससे बड़ा आसमान ही कहीं हो सकता है?’ कुएँ के मेढक ने कहा और एक ओर को जा बैठा।
मेढक के स्थान पर मछलियाँ लिखकर इसे खलील जिब्रान ने भी लिपिबद्ध किया है। करो उन्हें बाहर।
ध्यान रहे, ‘चोरी’ करना अलग मामला है और ‘मौलिक’/ ‘अमौलिक’ लिखना अलग। कथा-विधाओं के कथ्यों में समानता से इंकार नहीं किया जा सकता। फजल इमाम मलिक (लघुकथा—‘फर्क’) मामले में विष्णु प्रभाकर जी ने उन्हें लिखकर दिया था कि—दो लेखकों की रचनाओं का कथ्य समान हो सकता है। उसे चोरी नहीं कहा जा सकता। रचना ‘चोरी’ कही जायेगी यदि लेखक ने ट्रीटमेंट भी समान दिया हो।
सुभाष नीरव की लघुकथा ‘कमरा’ को लगभग ज्यों का त्यों अपने नाम से अनेक पत्रिकाओं में छपवाकर प्रभा पारीक ने इस चर्चा को ज्वलंत सामयिक बहस में तब्दील कर दिया है। प्रभा पारीक से पहले यह तमगा कानपुर की लता कादम्बरी ने हासिल कर चुकी हैं, श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘हद’ और कमल चोपड़ा की ‘छोनू’ चुराकर। कितनी प्रभा पारीक और कितनी लता कादम्बरियाँ साहित्यिक ‘एन्क्रोचमेंट’ में सक्रिय हैं, कहा नहीं जा सकता। हाल यह है कि लेखक-लेखिकाएँ डंके की चोट पर लघुकथाओं के कथ्य यह कहकर उड़ा रहे हैं कि अपने एक अधिवक्ता मित्र की सलाह पर रचना को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने ऐसा किया है; यानी चोरी भी कोर्ट में देख लेने की सीनाजोरी के साथ। अब तक चोरी हुई सभी रचनाओं का आकलन करने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि चोरों के लिए सीधे-सादे कथानक वाली, अभिधापरक लघुकथाएँ ही सोफ्ट एंड ईज़ी टारगेट होती हैं, सब नहीं।
लता कादम्बरी और प्रभा पारीक ने चोरी की है, प्रभावित होकर नहीं लिखा।
(यह मेरी ओर से मात्र एक टिप्पणी है, वह लेख नहीं जिसको लिखने की बात मैंने कही थी। उसे बाद में ही लिख पाऊँगा।)