भाई बलराम,
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फेसबुक पर किन्हीं संदीप तिवारी 'राज' की लघुकथा 'प्रश्न' पढ़कर मुझे
एकाएक अपने द्वारा अनूदित और संपादित लघुकथा संकलन 'पंजाबी की
चर्चित लघुकथाएं' (1997) में शामिल भूपिंदर सिंह की लघुकथा ‘रोटी का टुकड़ा’ याद हो आई।
तब से अब तक यह लघुकथा अनेक लघुकथा संकलनों में अपनी जगह बनाकर पहली पंक्ति की
लघुकथा होने का गौरव हासिल कर चुकी है। संदीप तिवारी 'राज'
पंजाबी की चर्चित लघुकथाएँ--पृष्ठ 15 |
की लघुकथा 'प्रश्न' पढ़कर भगीरथ जी और शोभा रस्तोगी जी ने इसे पंजाबी में पहले छप चुकी लघुकथा बताकर
अपना विरोध भी दर्ज़ कराया है। सचाई यह है कि
यह लघुकथा पंजाब के जाने-माने कथाकार भूपिंदर सिंह, जो भूपिंदर सिंह (पी॰सी॰एस॰)
नाम से रचनाएँ छपवाते थे, की न होकर जम्मू निवासी हिंदी लेखक
भूपिंदर सिंह की लघुकथा है जो वर्ष 1989 में इन्दौर निवासी रचनाकार श्री अशोक भारती द्वारा संपादित लघुकथा
संपादकीय पृष्ठ:तलाश जारी है |
संकलन 'तलाश
जारी है' में पृष्ठ 47-48 पर 'रोटी का टुकड़ा' शीर्षक
से छ्पी थी। पंजाबी में भूपिंदर सिंह (पीसीएस) ने अपने समय में बहुत ही सुन्दर
लघुकथाएँ पंजाबी के लघुकथा साहित्य को दीं। 'रोटी
का टुकड़ा' लघुकथा को मैंने इन्हीं भूपिंदर सिंह (पीसीएस) की लघुकथा मानकर अपने द्वारा
संपादित पुस्तक 'पंजाबी की
चर्चित लघुकथाएं' में शामिल किया था जो अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली से वर्ष 1997 में आई थी। मेरी इस गलती
की ओर पंजाबी के चर्चित लघुकथा लेखक श्याम सुन्दर अग्रवाल जी
तलाश जारी है--पृष्ठ 48 |
तलाश जारी है--पृष्ठ 47 |
ने मेरा ध्यान उन्हीं
दिनों आकृष्ट किया था; लेकिन तीर तो कमान से निकल चुका था। कल उन्होंने मुझे वर्ष 1989 में अशोक भारती द्वारा
संपादित पुस्तक 'तलाश जारी है' की स्कैन कापी भेजी। संदीप तिवारी 'राज' की 'प्रश्न' और भूपिंदर
सिंह की लघुकथा 'रोटी का टुकड़ा' का मूल कथ्य वही है और स्थापना
भी; बस, संदीप तिवारी ने इसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया है। प्रमाण के लिए यहाँ भेजे जा रहे अटैचमेंट देखें। आप
देखें कि इस लघुकथा का असली लेखक कौन है। स्पष्ट हो जाएगा कि संदीप तिवारी 'राज' की
लघुकथा चोरी की है। भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल जी से ही यह भी खुलासा हुआ कि इसी
लघुकथा को किन्हीं मंजू जैन ने भी कभी अपने नाम से छपवाया
था।
‘जनगाथा’ के माध्यम से इस लघुकथा की प्रामाणिकता को सभी के सामने
लाने के लिए प्रमाण सहित तुम्हें भेज रहा हूँ।
-सुभाष
नीरव
भूपिंदर
सिंह की
लघुकथा—रोटी का टुकड़ा
चित्र:साभार गूगल |
बच्चा पिट रहा था; लेकिन उसके
चेहरे पर अपराध का भाव नहीं था। वह ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। औरत उसे पीटती
जा रही थी, “मर जा जाकर…जमादार हो जा…तू भी भंगी बन जा…तूने उनकी रोटी क्यों खाई?”
बच्चे ने भोलेपन से कहा, “माँ,
एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया?”
चित्र:साभार गूगल |
“और नहीं तो
क्या?”
“और जो काकू
भंगी हमारे घर में पिछले दस सालों से रोटी खा रहा है, तो वह क्यो नहीं बामन हो गया?” बच्चे ने पूछा।
माँ का उठा हुआ हाथ हवा में
ही लहराकर वापस आ गया। वह अपने बेटे के प्रश्न का जवाब देने में असमर्थ थी। वह कभी
बच्चे को, तो कभी उसके हाथ में पकड़ी हुई रोटी के टुकड़े को देख रही थी।