Monday, 10 April 2017

उदात्त प्रेम की सहज कथालेखिका—डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र / बलराम अग्रवाल



डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र (स्व॰)
1 दिसम्बर 1953 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिलान्तर्गत खद्दीपुर गढ़िया के ग्राम प्रधान श्रीयुत् रामगोपाल मिश्र जी के घर में जन्मी डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक तथा वहाँ से प्रकाशित ‘परिषद पत्रिका’ की सम्पादक रहीं। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में साधिकार लेखन किया। उनके भतीजे श्रीयुत् महेश मिश्र ने उनके कुछेक प्रकाशित ग्रंथों की सूची उनके निधन की सूचना के साथ उपलब्ध करायी थी, जो कतिपय संशोधन के साथ निम्न प्रकार है—
उपन्यास—सुजान, वैरागिन, लवंगी, अंजना, कबीर, अस्थिदान, शीला भट्टारिका (हिन्दी), जिगीषा (संस्कृत) ।
शोकाकुल महेश जी द्वारा प्रदत्त सूची का अधूरी रहना स्वाभाविक है।  उसे सन् 2000 में प्रकाशित डॉ॰ मिश्र के प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ में दिए गए परिचय के अनुरूप सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ। उसकी ‘दो बातें अपने पाठकों से’ शीर्षक भूमिका में उन्होंने लिखा है—‘मैंने अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें चार प्रकाशित हो चुके हैं दो प्रकाशक के यहाँ हैं’।  बहुत सम्भव है कि सन् 2000 के बाद भी उन्होंने एक-दो उपन्यास और लिखे हों। अत: महेश जी को स्वयं भी अपनी सूची दुरुस्त करनी चाहिए। उन्हें यह सूची इसलिए भी दुरुस्त करनी चाहिए क्योंकि ‘लघुकथाएँ’ शीर्षान्तर्गत उअन्की सूची में न तो ‘अंधेरे के विरुद्ध’ का अंकन है और न ही उनके संस्कृत लघुकथा संग्रह ‘लघ्वी’ का, जिसके 1992-93 में प्रकाशित होने का जिक्र उन्होंने अपनी ऊपर सन्दर्भित भूमिका में किया है।  
नाटक—कीचक वध, धनन्जय विजय (हिन्दी), आम्रपाली, दशमस्त्वमसि, तुलसीदास (संस्कृत) तथा इण्डिया तथा द योगी (अंग्रेजी)।  
महाकाव्य—देवयानी, दाक्षायणी।
खण्डकाव्य—साकेत सेविका, श्रद्धांजलि।
संस्कृत काव्य संग्रह— सुभाषित सुमनाञ्जलि, व्यास शतकम्, काव्यायनी।
लघुकथा—लघ्वी (संस्कृत), ‘अंधेरे के विरुद्ध’, 101 लघुकथाएँ (हिन्दी)
कहानी—छँटता कोहरा (महिलाओं की कहानियाँ), आधुनिका
गीत संग्रह—कामायनी (संस्कृत), चाँदी के चन्द्रमा
इनके अलावा, महेश जी के कथनानुसार, उनके द्वारा अनूदित और सम्पादित भी अनेक ग्रन्थ हैं। उनके अनुसार डॉ॰ मिश्र की कुल किताबों की संख्या 42 है। अनेक साहित्यिक संस्थाओं से वे सम्मानित व पुरस्कृत होती रहीं। अनेक संस्थाओं की सम्मानित सदस्य, सचिव, उपाध्यक्ष आदि रहीं। अनेक मानद उपाधियों से विभूषित रहीं।
देहावसान : 10 अप्रैल 2017 को पटना में।
पारिवारिक सम्पर्क सूत्र : ‘वाणी वाटिका’, सैदपुर, पटना-800 004 (बिहार)
मोबाइल : 094302 12579 दूरभाष : 0612-2663504

यहाँ उनके प्रथम हिन्दी लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे के विरुद्ध’ से उद्धृत हैं ीन लघुकथाएँ
वहम
सोमा बाबू की पत्नी पार्वती की नींद जैसे ही खुली, अपने पति को वैसे ही बैठे पाया जैसे रात उनके सोने के समय बैठे थे। यह देखकर वह चौंक उठी और उसने पूछा, “आप सोये नहीं? पूरी रात ऐसे ही…!”
“नींद नहीं आयी।”
“क्यों?”
“गर्मी बहुत थी और ऊपर से मच्छरों का प्रकोप!”
“पंखा क्यों नहीं चला लिया?”
“कैसे चलाता… पंखा चलाते ही तुम काँपने लगती थीं!”
“क्यों, मुझे क्या हुआ था?”
“रात तुम्हें बुखार बहुत अधिक था। तुम होश में थी ही कहाँ? तुम्हारा चेहरा मुरझा-सा गया था। तुम्हीं बताओ, ऐसे में मैं भला पंखा कैसे चलाता… कैसे सोता! पूरी रात यही देखता रहा कि जाने कब मेरी जरूरत पड़ जाए।”
“आपको मेरी इतनी चिन्ता है!”
“क्यों न हो? आखिर तुम मेरी पत्नी हो।”
यह वाक्य सुनकर वह चुप हो गयी और सोचने लगी—वह रितेन्द्र बाबू, जो इनके मित्र हैं, झूठे हैं… मक्कार हैं। रोज-रोज आकर कहते थे कि इनका इस लड़की के साथ… उस औरत के साथ…। छि:! इस व्यक्ति का अगर कहीं कोई चक्कर होता तो क्या मेरे लिए यों… मेरी भी क्या मति मारी गयी थी, जो इन पर शक कर बैठी।
“क्या भई! एकाएक चुप क्यों हो गयीं? क्या तबियत फिर कुछ… ”
“नहीं, मुझे कुछ भी तो नहीं है… आप यों ही वहम करते हैं… जाइए, आप भी सो जाइए!”
सोमा बाबू ने पत्नी की ओर प्यार से देखा। उन्हें सन्तोष हुआ—पत्नी का चेहरा खिलने लगा था।

मौन का सच
वह आया और चुपचाप मेरे समक्ष बैठ गया। मैं जो कुछ पूछती गयी, वह यन्त्रवत् उसका ऑब्जेक्टिव टाइप से उत्तर देता गया। मैंने जो कार्य करने को कहा, वह करता गया। न कोई गिला, न कोई शिकवा। मैं बार-बार उसकी ओर देखती, वह गम्भीर बना रहा। मेरे मन में बेचैनी होने लगी। बेचैनी परेशानी की सीमा तक पहुँच गयी। मैंने पूछा, “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं हो?”
“मैंने तुम्हारी किस बात का उत्तर नहीं दिया?”
“तुम सहज नहीं लग रहे हो।”
“ऐसी तो कोई बात नहीं है।”
“मुझसे कोई शिकायत हो… या कोई भूल हो गयी हो, तो मन में मत रखो, कह डालो। मैं कतई बुरा नहीं मानूँगी।”
“कुछ हो तब न!”
“मेरी कसम… कोई बात नहीं है?”
वह तिलमिला उठा, “तुम कसम मत दिया करो। मैं झूठ नहीं बोल सकता।”
“तो फिर कहो—तुम्हारे मौन का कारण क्या है?”
“मैंने जब भी तुम्हारे स्वास्थ्य के विषय में जानना चाहा, तुमने सदैव यही कहा—ठीक हूँ… कोई बात नहीं है। मगर कल, जब तुम अपने लेखपाल से लोन लेने के सम्बन्ध में तथा अपने ऑपरेशन कराने के विषय में बता रही थीं, तो मुझे दुख हुआ। तुमने मुझे क्यों नहीं बताया?”
“मैं तो स्वयं अपनी बीमारी से परेशान हूँ… तुम्हें भी परेशान कर देती!”
“क्यों नहीं!… इसका अर्थ यह हुआ कि मेरा तुम पर… ।” इतना सुनते ही मैं भावुकता की चरमसीमा पर पहुँच गयी और मैंने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। उसने मेरा हाथ चूम लिया। अब मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक सकी। अत: रुँधे स्वर में ही कहा, “देखो, तुम मौन मत हुआ करो!”

अन्धी भावुकता
अपने कार्यालय में बैठी मैं कुछ सोच रही थी कि सत्येन सामने आकर बैठ गया। आज उसने ‘हलो-हाय’ कुछ नहीं कहा। मैंने मौन तोड़ने हेतु कहा, “क्या बात सत्येन! कुछ बोलोगे नहीं? चुप क्यों हो?”
वह फिर भी कुछ नहीं बोला। पहले तो मैंने सोचा कि शायद वह क्रोध में है। मगर आज उसकी आँखों में क्रोध नहीं, अजब-सी बेचैनी थी, जिससे शायद वह उबरने की चेष्टा कर रहा था।
“सत्येन, कुछ बोलो। शिकायत भी हो तो कहो तो सही!”
“मैं इतनी देर से तुम्हें ढूढ़ता फिर रहा हूँ! तुम कहाँ चली गयी थीं?” इस प्रश्न के साथ ही, मैंने देखा—उसकी आँखें भर आई थीं।
“नहीं सत्येन, नहीं… ऐसे नहीं! मैं तो यहीं थी।”
“फिर झूठ!”
“नहीं सत्येन! झूठ नहीं… मैं जरा भण्डार में चली गयी थी। मैं सरकारी नौकर हूँ न?”
“तुम्हारे चपरासी ने तो कहा था कि तुम पिछले कई घंटों से नहीं हो! शायद आज आओ ही नहीं।”
“तुम्हें समय देकर मैं न आऊँ, ऐसा ईश्वर के चाहने के बाद ही सम्भव है। अन्यथा… ”
मैंने देखा—अब धीरे-धीरे उसकी आँखों में खुशी की चमक लौट रही थी। मैंने कहा, “मगर तुम परेशान क्यों हो गये?”
“लो, पूछती हो मैं परेशान क्यों हो गया था! अरी पगली, मेरे मन में कोई ऐसी भी आशंका थी जो इस घंटे भर में मेरे दिलो-दिमाग को हिलाकर न चली गयी हो?…”
“सत्येन! यदि मैं मर गयी तो?”
“देखो मणि! ऐसी अशुभ बातें न बोला करो। जब तक मैं जिन्दा हूँ, ईश्वर की कृपा से तुम मर नहीं सकतीं। तुम्हारे बिना मैं क्या करुँगा इस दुनिया में?”
उसकी इस बात ने मेरी आंखें भी भावुकता से भर दीं। अपने आँसुओं को छिपाने की कोशिश में मैं पकड़ ली गयी। उसने कहा, “मणि! नहीं… नहीं तो देखो, मैं भी… ”
अब मैं शान्त, चुपचाप उसका चेहरा, उसकी आँखें पढ़ने लगी थी जिनमें प्यार का समुद्र लहरा रहा था। मगर, मैं इस पागल को कैसे समझाऊँ कि उसे कुछ भी नहीं दे सकती। मेरे पास उसके लिए है ही क्या! मैं तो स्वयं रीता हूँ। अगर उसे साफ कह दूँगी तो जाने वह अपने आपको क्या कर ले! अन्धी भावुकता में उसे मेरी मांग का सिन्दूर भी दिखाई नहीं देता!!—सोचते-सोचते मेरी आँखें पुन: भर आई थीं। मुझे एकाएक ख्याल आया कि यह घर नहीं, कार्यालय है। अत: मैं सतर्क होकर मेज पर पड़ी फाइलों को इधर-उधर करने लगी और न चाहते हुए भी मैंने कहा, “सत्येन! मुझे कुछ काम निबटाने हैं… फिर किसी दिन आना।”
मैंने देखा कि वह कितने भारी कदमों से लौट रहा है। मेरी आँखें पुन: डबडबा गईं।