कमलेश भारतीय। समकालीन लघुकथा की पहली पीढ़ी के सम्माननीय कथाकार।
।।1।।
बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रुका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूँढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पड़ा।
पाँव उसी छोटी-सी गली की ओर चल पड़े जहाँ रोज शाम जाया करता था। वही, जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था। कुछ हँसी, कुछ मजाक और कुछ पल। क्या वह आज भी वहीं...? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुँच गया। मेरे सपनों का घर। उजड़ा-सा मोहल्ला। वीरान-सा सब-कुछ। खंडहर मकान। उखडी ईंटें।
क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पड़ता है? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?
नहीं। खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था। शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है... खंडहरों के बीच भी... मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं... सदा यहीं था... तुम्हारे पास...
।।2।।
ऐसे थे तुम
बरसों बीत गये इस बात को। जैसे कभी सपना आया हो। अब ऐसा लगता था। बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी। उससे हुआ परिचय धीरे-धीरे उस बिंदु पर पहुँच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं।
फिर वही होने लगा। लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता। दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूँजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते।
फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम-कथाओं का अंत होता है। पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी। साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।
लड़का शादी में गया। पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब-खूब रोया, पर... झरने की तरह समय बहने लगा, बहता रहा। इस तरह बरसों बीत गये। इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूँढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए। कभी-कभी उसे वह प्रेमकथा याद आती। आँखें नम होतीं, पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता।
आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया। बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा। उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा-कैसा लगेगा? आकुल-व्याकुल था पर, कब उसका शहर निकल गया, बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के; क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था। जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था।
वह मुस्कुराया। मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थ, जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे। उसे किसी की फिजूल-सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?
इस तरह बहुत-पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे-प्यारे लोग, उनकी मीठी-मीठी बातें, आती रहती हैं... धुंधली-धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी--अच्छा, ऐसे थे तुम! अच्छा, ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी!!
।।3।।
आज का रांझा
उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे। करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली। लड़का पीछे-पीछे चलने लगा ।
लड़के ने कहा--"तुम्हारी आँखें झील-सी गहरी हैं।"
-हूं ।
लड़की ने तेज-तेज कदम रखते इतना ही कहा।
-तुम्हारे बाल काले बादल हैं।
-हूं।
लड़की तेज चलती गयी।
बाद में लड़का उसकी गर्दन, उँगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएँ देता रहा । लड़की ने 'हूँ' भी नहीं की।
क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा--"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?"
चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है; दूसरा, वह बनाये! लड़के ने 'हाँ' कह दी। लड़की चाय बनाने चली गयी और लड़का सपने बुनने लगा। दोनों नौकरी करते हैं। एक-दूसरे को चाहते हैं। बस। ज़िंदगी कटेगी।
पर्दा हटा और...
लड़का सोफे में धँस गया। उसे लगा, जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो, जिसकी नली उसकी तरफ हो, जो अभी गोली उगल देगी।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़का चुप बैठा रहा ।
लड़की बोली--"मेरा चेहरा देखते हो? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया। तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी; सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई।"
लड़के ने कुछ नहीं कहा। उठा और दरवाजे तक पहुँच गया ।
"चाय नहीं लोगे?" लड़की ने पूछा, "फिर कब आओगे?"
- अब नहीं आऊँगा ।
-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?
और वह खिलखिला कर हँस दी ।
लड़के ने पलटकर देखा...
लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी ।
लड़का मुस्कुराकर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुँह पर फेंकते कहा--"मुझे मुँह मत दिखाओ।"
लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता।
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