Friday, 9 June 2023

कमलेश भारतीय की तीन प्रेम लघुकथाएँ

कमलेश भारतीय। समकालीन लघुकथा की पहली पीढ़ी के सम्माननीय कथाकार। 

।।1।।

बहुत दिनों बाद 

बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रुका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूँढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पड़ा।

पाँव उसी छोटी-सी गली की ओर चल पड़े जहाँ रोज शाम जाया करता था। वही, जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था। कुछ हँसी, कुछ मजाक और कुछ पल। क्या वह आज भी वहीं...? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुँच गया। मेरे सपनों का घर। उजड़ा-सा मोहल्ला। वीरान-सा सब-कुछ। खंडहर मकान। उखडी ईंटें। 

क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पड़ता है? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?

नहीं। खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था। शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है... खंडहरों के बीच भी... मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं... सदा यहीं था... तुम्हारे पास...

।।2।।

ऐसे थे तुम

बरसों बीत गये इस बात को। जैसे कभी सपना आया हो। अब ऐसा लगता था। बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी। उससे हुआ परिचय धीरे-धीरे उस बिंदु पर पहुँच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं। 

फिर वही होने लगा। लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता। दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूँजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम-कथाओं का अंत होता है। पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी। साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।

लड़का शादी में गया। पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब-खूब रोया, पर... झरने की तरह समय बहने लगा, बहता रहा। इस तरह बरसों बीत गये। इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूँढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए। कभी-कभी उसे वह प्रेमकथा याद आती। आँखें नम होतीं,  पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता। 

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया। बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा। उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा-कैसा लगेगा? आकुल-व्याकुल था पर, कब उसका शहर निकल गया, बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के; क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था। जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था। 

वह मुस्कुराया। मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थ, जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे। उसे किसी की फिजूल-सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ? 

इस तरह बहुत-पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे-प्यारे लोग, उनकी मीठी-मीठी बातें, आती रहती हैं... धुंधली-धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी--अच्छा, ऐसे थे तुम! अच्छा, ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी!!

।।3।।

आज का रांझा 

उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे। करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली। लड़का पीछे-पीछे चलने लगा । 

लड़के ने कहा--"तुम्हारी आँखें झील-सी गहरी हैं।"

-हूं ।

लड़की ने तेज-तेज कदम रखते इतना ही कहा।

-तुम्हारे बाल काले बादल हैं।

-हूं। 

लड़की तेज चलती गयी।

बाद में लड़का उसकी गर्दन, उँगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएँ देता रहा । लड़की ने 'हूँ' भी नहीं की। 

क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा--"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?" 

चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है; दूसरा, वह बनाये! लड़के ने 'हाँ' कह दी। लड़की चाय बनाने चली गयी और लड़का सपने बुनने लगा। दोनों नौकरी करते हैं। एक-दूसरे को चाहते हैं। बस। ज़िंदगी कटेगी। 

पर्दा हटा और...

लड़का सोफे में धँस गया। उसे लगा, जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो, जिसकी नली उसकी तरफ हो, जो अभी गोली उगल देगी। 

-चाय नहीं लोगे ?

लड़का चुप बैठा रहा । 

लड़की बोली--"मेरा चेहरा देखते हो? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया। तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी; सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई।" 

लड़के ने कुछ नहीं कहा। उठा और दरवाजे तक पहुँच गया । 

"चाय नहीं लोगे?" लड़की ने पूछा, "फिर कब आओगे?"

- अब नहीं आऊँगा ।

-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?

और वह खिलखिला कर हँस दी ।

लड़के ने पलटकर देखा...

लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी । 

लड़का मुस्कुराकर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुँह पर फेंकते कहा--"मुझे मुँह मत दिखाओ।" 

लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता।

सम्पर्क-94160 47075

Saturday, 3 June 2023

लघुकथा और कथाकार

 

                     डॉ. सुरेश वशिष्ठ

96544 04416

लघुकथा पाठक मन को झकझोरने लगती है। उसे कम समय में पढ़ा जा सकता है। एक अच्छी लघुकथा सोच की शिराओं और रंध्र की गति को प्रभावित करती है। व्यंग्य से भरपूर कोई घटना वर्तमान के किसी सच पर जोरदार प्रहार करती है और अपना तीक्ष्ण प्रभाव पाठक पर छोड़ देती है। उसे चंद मिनटों में पढ़ा और समझा जा सकता है। यह जरुरी नहीं कि उसके कथानक वर्तमान के ही रहें, केवल परिवार और आपसी संबंधों तक ही वे सीमित रहें, राष्ट्र अथवा वैश्विक सच को भी लेखन में उकेरे जाने की जरूरत है। वे समसामयिक भी हो सकती हैं और इतिहास के आइने में व्यंग्यात्मक भी हो सकती हैं। 

     लघुकथा को एक विचार तक सीमित नहीं होना चाहिए, उसमें कथा-तत्व का होना भी अति आवश्यक है। किसी सच को प्रतिकार में ढालकर संवाद के रूप में भी कहा जाना लघुकथा का स्वरुप है। बशर्ते, वह प्रतिकार शब्दों की कसावट में बाहर आना चाहिए। रंध्र को क्षण-भर में गति देने और मानस की बुद्धि को सोचने पर विवश कर देने वाला कथा-तत्व ही लघुकथा है।

       लघुकथा की सार्थकता यही है कि यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय इशारा भर ही कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे! कथा है तो रोचकता दिखनी भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, वह पाठक को रुचिकर तो लगनी ही चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और बुद्धि को जागृत कर सके ! जिसे पढ़ने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

       आज असंख्य लघुकथा लेखक बड़ी तेजी से रचना कर रहे हैं और उन्हें वाह-वाही भी खूब मिल रही है। कई नामचीन लोग भी उत्साहवर्धन में टिप्पणियाँ दे रहे हैं। पूरा एक समूह खीसें निपोरने में लगा है। उन्हें पढने पर मैं सोचने के लिए विवश होता हूँ कि उनमें निहित कथ्य, शैली और संप्रेषण बहुत कमजोर होने पर भी नामचीन लोग वाह-वाही क्यूँ कर रहे है? ना उसमें रोचक तत्व कहीं दिखाई देता है और ना कथा-रस ही उपस्थित रहता है। यथार्थ विसंगतियाँ गौण रहती हैं और आपसी संवाद नी-रस जान पड़ते हैं। जबकि किसी भी रचना-धर्म में वर्तमान विसंगतियों का निहित होना लाजमी होना चाहिए। यह सब सहज और स्वाभाविक है। आज यह कथारूप किस दिशा में अग्रसर है, मुझे समझ नहीं आता, केवल चाटुकारिता और लेखन-दम्भ वहाँ दिखाई देता है। 

       आज सच बेदम हो रहा है और झूठ चिंघाड़ने लगा है। झूठ की तेज धार सच को कंपा देती है। तर्कहीन संवाद चमत्कृत करने लगते हैं और सच बनकर प्रस्तुत होते हैं। जिसे उकेरा जाना चाहिए वह इन कथाओं में नदारद ही है। आज इस धार में लेखक बहने को विवश है। विचारभरी बहसों और तर्कों से उसे कमजोर और अपंग किया जा रहा है। बोलने वाले बहुत हैं और उन्हें गुलामी भी मंजूर नहीं, परन्तु उनके मुख सील दिए गए हैं। जुबानें लकवा-ग्रस्त होकर रह गई हैं। रियाया के साथ जो हो रहा है या हुआ है, उसकी तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। उस सच को मानो किसी ने देखा ही नहीं! किसी रचनाकार ने अगर उसे शब्दों में कैद किया भी है तो कोई भी उस पर टिप्पणी नहीं करता। मानो किसी दृष्टि ने स्त्रियों को चीज की तरह इस्तेमाल किया और लेखक को कहा कि आपसी जिरह लिखते रहो और वे उसे ही लिखने में मशगूल हैं।

       लोग बसेरा छोड़कर भागते रहे और जुबानें मौन रहती आई हैं। रचनाकार नींद के आगोश में ऊँघ बिखेर रहा है। उसने इतिहास से सच को मिटा देने का नायाब तरीका अपना लिया है। उनके हुक्म से वह बहुत पहले ही उसे सीख चुका है। डौंडी पीटते रहो और झुनझुना बजता ही रहेगा।

       जिसे उकेरा जाना चाहिए था, वह आज भी नदारद है। इस धार में असंख्य रचनाकार बहने को विवश है। यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय केवल इशारा-भर कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे ! कथा है तो रोचक तत्व दिखना भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, पाठक को वह रुचिकर भी लगनी चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और जो पाठक की बुद्धि को झिंझोड़ सके, जागृत कर सके ! जिसे पढने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

(03-6-2023 को वाट्सएप पर प्रेषित)