लघुकथा—एक स्वतंत्र, सशक्त विधा : प्रश्नों के घेरे में
'सन्दर्भ साहित्यिकी'
के माध्यम से 'डिक्टेटर' ने लघुकथा को पर्याप्त अधिमान्यता दी है। साथ ही 'सन्दर्भ
साहित्यिकी' के सम्पादक श्री मोहन राजेश का लघुकथा क्षेत्र
में प्रारम्भ से ही सक्रिय योगदान एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी कारण 'डिक्टेटर' के इस 'लघुकथा बहुल अंक' के लिए कुछ सामान्य
पाठकीय जिज्ञासाएं लिये मैं उनके पास पहुंचा। औपचारिक बातचीत के पश्चात् मेरा प्रथम
प्रश्न था :
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मोहन राजेश कुमावत
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● सत्य शुचि : प्रो. कृष्ण कमलेश ने अपने शोध-संबंधी
प्रश्न-पत्रक में लघुकथा-संबंधी विश्लेषणात्मक तथ्यों के अभाव का जिक्र करते हुए
प्रश्न उठाया है कि आखिर लघुकथा है क्या? उसका औचित्य,
इसकी कसौटी आदि सभी कुछ अस्पष्ट-सी है। आप इस सन्दर्भ में कुछ कहना
चाहेंगे?
● मोहन राजेश : प्रश्न निःसन्देह महत्व का है, किन्तु संभवतः कमलेश ने कहीं कुछ अति वेग से काम लिया है। जहाँ तक मेरा
ख्याल है, बीच-बीच में कई लेेखकों ने लघुकथा को परिभाषित
करने का प्रयास किया है। 'साहित्य-निर्झर' के लघुकथांक मे कुछ परिभाषाएं संकलित भी की गई थी। जहां तक किसी एक सर्वसम्मत
परिभाषा का प्रश्न है, ऐसा अब तक न किसी विषय या विधा के
संबंध में हो पाया है, और न ही लघुकथा के संंबंध में हो सकता
है। इसी प्रकार लघुकथा के आकार-प्रकार, महत्व आदि पर भी
टुकड़ों- टुकड़ों में विचार दिये जाते रहे हैं। मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के
रूप में देखता हूँ। जिसका मन्तव्य किन्हीं विशिष्ट क्षणों की सूक्ष्मतिसूक्ष्म
अभिव्यक्ति, किन्हीं अनुभूतियों को प्रतिक्रिया या जीवन की
प।यांत्रिक जटिलताओं का विश्लेषण या अन्य कुछ भी जो सार्थक हो, या सार्थकता को अभिप्रेरित हो, हो सकता है।
● सत्य शुचि : क्या लघुकथा का संबंध उसके लघु आकार से नहीं है?
● मोहन राजेश : बिल्कुल है। वस्तुतः विधा का नामकरण ही इसके आकार-प्रकार की सांकेतिक
अभिव्यक्ति देता है। जिस प्रकार कहानी को उपन्यास के किन्तु इसे प्रकार समझा जाना
चाहिए कि लघुकथा तो लघु आकार में ही होगी किन्तु जो कुछ भी लघु आकार में है,
वह लघुकथा ही है, ऐसा नहीं है। वस्तुत: यह
भ्रम एक व्यापक स्तर पर फैलाया जा रहा है और कहानियों के कथानक, छोटे-छोटे संस्मरण आदि लघुकथा के रूप में किए जाते रहे हैं।
● सत्य शुचि : आलोचकों का कहना है कि लघुकथा लिखना उन्हें 'शीघ्र स्खलन' जैसा प्रतीत होता है? आप क्या कहेंगे?
● मोहन राजेश : किसे क्या करना कैसा
लगता है यह वैयक्तिक अनुभूतिगत प्रसंग है। निश्चय ही वे आलोचकगण शीघ्रपतन के रोगी
रहे होंगे । मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में मानता हूँ। इसीलिये ऐसे किसी
कथन से मेरे सहमत होने का प्रश्न ही नहीं रहता है।
● सत्य शुचि : राजस्थान विश्व विद्यालय की शोधा छात्रा कु. शकुन्तला किरण ने लघुकथा विषयक अपने
शोध में लघुकथा और कहानी के शिल्प प्रारूप संबंधी अंतरों को जानना चाहा है। लघुकथा
कहानी से कहाँ अलग होती है? आपकी क्या राय है?
● मोहन राजेश : यहाँ मेरा एक प्रश्न है, लघुकथा कहानी से
कहाँ मिलती है। आप बतायेंगे?
● सत्य शुचि : मेरा ख्याल है, दोनों लगभग समान धरातल पर गढ़ी जाती हैं। अतएव पर्याप्त समानता एवं
सम्बद्धता रखती हैं।
● मोहन राजेश : एक ही घरातल पर अवस्थित होने
की बात एकदम सही है। किन्तु समान धरातल पर सह सम्बद्ध होना नितान्त आवश्यक नहीं।
इस दृष्टि से लघुकथा कहानी की सहयात्री अवश्य हो सकती है। जैसे कि कहानी उपन्यास
की है। लघुकथा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। उसे कहानी का उच्छिष्ट या
संक्षिप्तिकरण समझना गलत होगा। जिस तरह कहानी को उपन्यास का संक्षिप्त नहीं समझा
जा सकता । एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा कहानी से अलग प्लेेटफार्म रखती है। लघुकथा
और कहानी के अन्तर संबंधित मेरा एक लघु लेख डिक्टेटर के किसी अंक में आ भी चुका
है। मोटे तौर पर इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि कुछ अनुभूतियाँ या
कुछ कथ्य ऐसे ही होते हैं जिन्हें लघु प्रारूप में ही कहा जा सकता है। इसके विपरीत
कुछ कथ्य लंबे-चौड़े की आवश्कताएँ रखते हैं। वस्तुत: लघुकथा और कहानी इसी
संप्रेषणीयता पर एक दूसरे से भिन्न होती हैं। उनमें रुपान्तर की प्रक्रिया संभव
नहीं है। यदि लघुकथा के कथ्य को कहानी के रूप में लिखने का प्रयास किया गया तो
अनावश्यक विवरणों एवं वर्णनों की बोझिलता में वह अपना प्रभाव खो देगी। इसी प्रकार
जिन कथ्यों के सम्प्रेषण के लिए पर्याप्त विस्तार की आवश्यकता होती है, वे भी लघुकथा के रूप में निष्प्रभावी रहे जाते हैं। मैं समझता हूँ कि
लघुकथा और कहानी का अन्तर इनके उद्गम (कथ्य) से ही स्पष्ट हो जाता है।
● सत्य शुचि : लघुकथा, बोधकथा, नीतिकथा,
व्यंग्यकथा यादि कथा के कई रूप प्रचलित हैं। क्या ये सब लघुकथा के
अन्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं अथवा भिन्न विधा के रूप में ?
● मोहन राजेश : मेरा ख्याल है कि लघुकथा के ही अंतर्गत रखकर मन्तव्य की दृष्टि से
उसके विभिन्न उपभेदों के रूप में समझा जाना चाहिये। जिस प्रकार कहानी का वर्गीकरण
उसके उद्देश्य, प्रस्तुतीकरण, शिल्प
आदि के सन्दर्भ में किया जाता है वैसा ही वर्गीकरण लघुकथा में बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा, संघर्षकथा,
हास्यकथा भयकथा यदि संभव रूपों में किया जा सकता है।
● सत्य शुचि : लघुु आकारीय होने के कारण लघुकथा से तीव्र व्यंग्यात्मकता की अपेक्षा
रखी जाती है। क्या आप भी ऐसा ही सोचते है ?
● मोहन राजेश : जी
नहीं। लघुकथा केवल व्यंग्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। यद्यपि यह
सत्य है कि व्यंग्य निहित होने से उनमें कुछ तीखापन अवश्य आ जाता है। मर्मांतकता
भी बढ़ जाती है; किन्तु यह कथ्य की आवश्यकता पर ही निर्भर
करता है। कई एक सामाजिक तथ्यों के कथ्यों पर गंभीरतापूर्वक लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं।
● सत्य शुचि : कुछ लोग लघुकथा के नाम पर चुटकुलेबाजी भी कर रहे हैं। आप
इस संबंध में क्या मत देंगे?
● मोहन राजेश : बेशक! कुछ लोगों ने
बल्कि ज्यादातर लोगों ने लघुकथा को उतनी गंभीरता से लिया ही नहीं है जितना कि इसे
एक विधा के रूप लिया जाना चाहिये था। कुछ लोगों ने तो केवल एक फुल स्केप पेज में
लिखी जा सकने वाली अपनी ऊटपटाँँग कल्पनाओं तक ही रख छोड़ा है। कुुछ इसे समय काटने
हेतु फिलर के रूप में प्रयुक्त करते हैं। कुछ सहधर्मी लघुुकथाकार भी केवल इसीलिये
लघुकथाएँ लिखते रहे हैं कि यह झटपट लिखी जा सकती और कापी-वापी करने में भी कोई
झंंझट नहीं आती। कुछेक अपनी छपास की तुष्टि के लिए ही लघुकथा को अपनाये बैठे हैं;
किन्तु ऐसे यह स्थिति प्रायः सभी विधाओं के साथ रही है। गुणात्मकता
कम होती है, संख्यात्मक अधिक। खेद की बात है कि लघुकथा को
चुटकलेबाजी का रूप देने में एक शीर्षस्थ पत्रिका भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही
है।
● सत्य शुचि : हिन्दी लघु के प्रकाशन क्षेत्र के सन्दर्भ
में आप क्या कहेंगे?
● मोहन राजेश : प्रकाशन की दृष्टि से
लघुकथा को व्यापक क्षेत्र मिला है। वस्तुत: लघुकथा और लघु-पत्रिकाओं ने परस्पर
सहयोगी भूमिकाएं निभायी हैं। जहाँ तक बड़ी पत्रिकाओं का सवाल है, स्थिति किसी से छिप नहीं है।
● सत्य शुचि : लघुकथा का
आरम्भ, प्रमुख लघुुकथाकार, उनकी मुख्य
लघुुकथा आदि के बारे में अपना मत प्रस्तुत कीजिये ।
● मोहन राजेश : जहाँ तक लघुुकथा के उद्गम, प्रवर्तक आदि के प्रश्न हैं,
मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है। साथ ही यह सम्प्रति शोध विषय थी।
प्रमुख लघुकथाकारों को मैं दो श्रेणियों में रख सकता हूँ--एक वे, जिन्होंने लघुकथा लेखन के साथ-साथ एक विधा के रूप में उसे स्थापित करने
में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। ऐसे कुछ नाम हैं—प्रो. कृष्ण कमलेश,
रमेश बतरा, जगदीशचन्द्र कश्यप, सिमर सदोष और शायद मोहन राजेश भी । दूसरी श्रेणी में वे लघुकथाकार है
जिन्होंने अपनी सशक्त लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा को समृद्ध किया है। बृजेन्द्र
वैद्य, कमलेश भारतीय, मधुप मगधशाही,
भगीरथ, महावीर प्रसाद जैन, जयसिंह आर्य, अर्जुन कृपलानी, अनिल
चोरसिया, हंसराज अरोड़ा, कैलाश जायसवाल,
किशोर काबरा, धनराज चौधरी, नीलम कुलश्रेष्ठ शकुन्तला किरण, रेणु माथुर, सुशील राजेश, एल. आर. कुमावत, वि.
शरण श्रीवास्तव, सत्य शुुचि आदि कुछ ऐसे ही लघुकथाकार हैं । कुछेक
हस्ताक्षर जो आशाएं जगाते हैं—डॉ. अनूपकुमार दवे, विभा
रश्मि, जवाहर आजाद, विजय विधावन,
कृष्ण गंभीर, सुषमा सिंह, प्रचण्ड, मुकुट सक्सेना आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय
हैं। उपर्युक्त वर्गीकरण आदि मेरी व्यक्तिगत धारणा है। जहां तक इन लघुकथाकारों को
रचनाओं का प्रश्न है, मैं अलग-अलग सभी के नाम गिनवा सकने में
असमर्थ हूँ।
● सत्य शुचि : लघुुकथा के भविष्य के बारे में आप क्या
सोचते हैं !
● मोहन राजेश : इतने व्यापक स्तर पर चर्चित प्रकाशित
होने के पश्चात भी क्या लघुकथा के भविष्य के बारे में संदेह रह जाता है? मैं एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा का भविष्य काफी उज्जवल देखता हूं।
इसकी सघर्षशीलता उपलब्धियों के कई धरातल भी दिये हैं । अन्तर्यात्रा, तारिका, साहित्य निर्भर, अतिरिक्त,
शब्द, मिनीयुग, दीपशिखा,
हिन्दी मिलाप, दैनिक नवभारत, बम्बार्ड, डिक्टेटर, लघुकथा
आदि पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों एवं लघुकथाओं को प्राथमिकता देने से
लघुकथाकारों का हौसला काफी बढ़ा है। भगीरथ ने रावतभाटा से 'गुफाओं
से मैदानों की ओर' प्रथम लघुकथा संकलन देकर विधा को स्थापित
करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो कृष्ण कमलेश ने अपने लघुकथा संकलन 'मोहभंग' के माध्यम से उसमें अपना योग दिया है। भोपाल
विश्वविद्यालय से कृष्ण कमलेश और राजस्थान विश्वविद्यालय से कु. शकुन्तला किरण के
लघुकथा संबंधी शोध भी विधा के उज्ज्वल भविष्य के ही संकेतक हैं। भगीरथ और अमलतास
(बलराम) आदि ने लघुकथा संबंधी समीक्षात्मक लेख भी लिखे हैं, किन्तु
भगीरथ-सी निरपेक्षता सभी में दृष्टिगत नहीं होती। जो भी है, लघुकथा
एक युवा विधा है। क्योंकि इसके सृजेताओं में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुतांश युवा
रचनाकारों का ही है ।