Tuesday, 5 December 2023

लिखे जो खत .../ स्नेह गोस्वामी

लघुकथा संकलन 'शब्दों की हांडी में संवेदनाएं' की सम्पादक स्नेह गोस्वामी लिखित पुरोवाक्

 मेरी बात 

स्नेह गोस्वामी

आज के समय में साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है लघुकथा । आज से लगभग तीस वर्ष पहले तक चुटकुले प्रहसन और फिलर के रूप में जानी जाने वाली लघुकथा अब सभी छोटी बड़ी पत्रिकाओं , समाचारपत्रों , संग्रहों और संकलनों के माध्यम से साहित्य जगत में स्थापित हो चुकी है । लगभग सभी पत्रिकाएं लघुकथा विशेषांक निकाल रही हैं या निकाल चुकी हैं तो इसका श्रेय 1 इसकी संक्षिप्तता, 2 रोचकता, 3 मारक पंचलाइन, 4 गठी हुई भाषा शैली और विषय वैविध्य को दिया जा सकता है । 

लघुकथा की शब्द सीमा, आकार, पंचलाइन और कालदोष निर्धारण को लेकर समय-समय पर विभिन्न विद्वानों में मतभेद और तर्क-वितर्क भी सामने आए पर लघुकथाकार अपने तीर-तरकश संभाले इसका रूप संवारने में दत्त-चित्त होकर डटे रहे । परिणामस्वरूप आज हम लघुकथा का एक सर्वमान्य स्वरूप देख पाते हैं । कथानक और कथ्य (भावपक्ष) के रूप में लघुकथा विधा की स्वीकार्यता हो जाने के बाद लघुकथाकारों का ध्यान इसकी कथन शैलियों की ओर गया और वे लघुकथा का रूप संवारने और उसका श्रृंगार करने को कटिबद्ध हो गये । फिर क्या था, हर रोज नये-नये प्रयोग होने लगे । हर रोज नये-नये शब्द, नये प्रतीक और नई लघुकथा शैलियां अस्तित्व  में आने लगीं। वैसे तो वर्णनात्मक शैली सभी कथाकारों की प्रिय शैली है जिसमें स्थान-स्थान पर रचकर सजाए गये संवाद आभूषण में जङे हीरों की तरह झिलमिलाते हुए पहले से ही दिखाई देते थे। फिर इस शैली को नाम दिया गया मिश्रित शैली। इसके साथ ही मात्र संवाद शैली में भी बहुत-सी लघुकथाएं लिखी गईं।

 अब तो हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार, लघुकथा की कई शैलियां दृष्टिगोचर हो रही है यथा–आत्मकथा शैली, एकालाप शैली, डायरी शैली, काव्य शैली, टैलीफोन शैली, तोता मैना शैली, विक्रम बेताल शैली, पत्र शैली, एकांकी शैली, विज्ञापन शैली, समाचारपत्र शैली, पैरोडी शैली, साक्षात्कार शैली, नाट्य शैली, चैट शैली, मानवेतर शैली और प्रतीकात्मक शैली । हालांकि इन सब शैलियों में अभी बहुत कम रचनाएं सामने आई हैं पर लघुकथाकार इन सभी शैलियों में विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं और शीघ्र ही हमें अन्य नये प्रयोग भी देखने को मिल सकते हैं ।

यह मेरे हाथ में लिया हुआ संकलन लघुकथा में पत्र शैली की लघुकथाओं पर आधारित है। जब मैंने इस संकलन को संपादित करने का निर्णय लिया तो संशय मन में छाया था । आजकल पत्र लिखने की परंपरा छूट रही है । पत्र लेखन बङे धैर्य का काम था । घर का कोई एकांत कोना तलाशना, फिर कागज कलम दवात का जुगाङ बैठाना और फिर मन की भावनाएं उस कागज पर उंड़ेल देना। कई घंटे की मेहनत से कोई पत्र लिखा जाता, पर पढ़ने पर पता चलता कि ये सब तो लिखना ही नहीं था । तब कागज चिंदी-चिंदी कर फाड़कर फेंक दिया जाता और दोबारा से लिखना शुरु । कई खत तो सात-सात दिन तक लिखे जाते। फिर उनको डाक में डाला जाता। जब पत्र अपने गंतव्य तक पहुँचता तो पत्र पाने वाला उस पत्र को बीसियों बार पढ़ डालता । 

आज मोबाइल के इस मशीनी युग में वह पत्र लेखन के लिए अपेक्षित धैर्य और भावुकता कहाँ। अब तो वाटसएप्प पर, फोन पर दो लफ्जों में ही बात समाप्त हो जाती है । सब शुभकामनाएं और बधाइयां उधार के संदेशों के सहारे चलती हैं । यहाँ से कट, वहाँ पेस्ट या सीधे ही फारवर्ड कर दिया जाता है । ऐसे माहौल में नई पीढ़ी ने तो कभी पत्र लिखा ही नहीं, न पढ़ा । ऐसे में पत्र में लघुकथा शायद आकाश-कुसुम छूने की कल्पना ही न साबित हो । फिर सोचा, कोशिश करने में क्या हर्ज है । कहीं दिमाग में घूम रहा था कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।  

और सही में, मेरा विश्वास जीत गया । एक सप्ताह के भीतर ढेर सारी पत्र शैली की लघुकथाएं प्राप्त हुईं। उनमें से कुछ लघुकथाएं बहुत खूबसूरती से लिखी गई थी । 

प्राप्त हुई वे सभी लघुकथाएं इस संकलन में शामिल नहीं हो पाई । कुछ लघुकथाएं पत्रशैली के फार्मेट में नहीं थीं। कुछ लघुकथाओं में मात्र पत्र था, लघुकथा नदारद थी । कुछ मित्रों ने मुझ पर दया करके दो-तीन लघुकथाएं भेजी थीं, उनमें से एक ही लघुकथा ले पाई हूँ । आप सब को मेल से ही सूचना दे दी गई है । इन सब लघुकथाओं को न ले पाने का मुझे दुःख है पर मेरी और इस संकलन की अपनी सीमाएं हैं, आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे ।

संकलन में कई लघुकथाओं में हल्की-फुल्की कलम भी चलानी पङी है, कोशिश की है कि कम से कम कलम चले । कुल चौंसठ लघुकथाओं से सजा यह संकलन आप सब के हाथ में है । आप सब की रचनाएं आप सब को 'त्वदीयं वस्तु त्वदीयं समर्पयामि' के भाव से समर्पित कर रही हूँ। स्वीकार करें । 

पसंद तो आप करेंगे ही, ऐसा विश्वास है ।  पढ़कर जरूर मेल के जरिए या जैसा भी आपको सुविधा हो (फेसबुक, वाटसएप, मसैंजर इंस्टाग्राम) जहाँ भी आपका मन चाहे,  बताइएगा कि संकलन कैसा बन पड़ा है । 

स्नेह गोस्वामी 

8054958004

Sunday, 17 September 2023

लघुकथा को लेकर कुछ बातें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। गत लगभग एक सप्ताह से मधुमेह के कारण अस्पताल में हैं। आज उनसे बहुत-सी बातें हुईं। स्वस्थ हो जाने के बाद मैंने उन बातों को लिख भेजने का अनुरोध किया तो उन्होंने आज इस टिप्पणी के साथ यह लेख भेज दिया कि यह अभी फाइनल नहीं है। बहरहाल, उनकी अनुमति के बिना मैं इसी रूप में ‘जनगाथा’  और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष इसे रख रहा हूँ।

डॉ. सुरेश वशिष्ठ
लघुकथा में कथा के अंश का रहना अनिवार्य है। सहज और स्वाभाविक रूप से कथा आगे बढ़े और रोचक परिवेश बनाती हुई कोई सीख देती जाए, यह जरुरी है। सामान्य रूप से लघुकथा में विचार प्रभावी रहता है। विचार और कथा दोनों का आभास पाठक को होता रहे, तभी उसकी सार्थकता है। गोल-गोल घुमाकर वार्तालाप को रख देना ही लघुकथा नहीं। लेखक व्यंग्य छोड़कर रह जाता है, वह भी ठीक नहीं। महसूस हो कि वह छोटी, रोचक और व्यंग्य रचना के साथ बुद्धि पर कटाक्ष करती है। उसमें निहित विचार चोट दे रहा है। लघुकथा का यह ढंग पाठक को परिवेश बदलने के लिए बाध्य करता है। उसे जागने, उठने के लिए विवश करता है। कथ्य में जो कहा गया, वैसा तो हुआ है और उसे वैसा नहीं होना चाहिए था। अब इसे बदलने के लिए आवाज दी जानी चाहिए। यह यथार्थ का सत्य-रूप है, इसे पढ़ने पर ह्रदय मचल उठा है। यही लघुकथा का सार्थक पहलू है।

        आज लघुकथा अपने जिस रूप में हमारे सामने है,उसने  यहाँ तक आने में अनेक करवटें बदली हैं। उसके कथ्य-रूप की चर्चाएँ अस्सी के दशक में शुरू हुई। उन दिनों, आम इंसान का जीना दूभर हो रहा था। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में अराजकता का आलम था। आदमी का अस्तित्व खंडित हो रहा था। लोगों में अपने हक के लिए बेसब्री थी। साहित्य पर विसंगत दृष्टि प्रभावी थी। नाटक, कहानी और अन्य विधाओं में परिवर्तन लाजमी हो चला था। नाटक या कहानी के माध्यम से आदमी का जुझारू स्वरूप सामने आने लगा था। डॉयलॉग मुखर हो रहे थे। उसी परिवेश से लघुकथा बाहर आई।

         इमरजेंसी से पूर्व युद्ध के गौरिल्ला सैनिकों की तरह साहित्य में भी ऐसे पात्र खुलकर बोलने लगे थे। कहानी अपने छोटे रूप में यथार्थ को उकेरने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में आपसी संबंध, मुखर विरोध या छुपा हुआ परिवेश सधे हुए डॉयलॉग के साथ उलीचा जाने लगा था। मंटो, खलिल जिब्रान और ब्रेख्त की धारदार लघु कहानियाँ व्यक्ति मन को प्रभावित करने लगी थी। अंतर्मन और बुद्धि ने करवट बदली और लेखन की दिशा परिवर्तित हुई। नुक्कड़ नाटक और लघुकथा उसी दौरान की देन है।

          उन दिनों, फैक्ट्री के गेटों पर, मलिन बस्तियों में, नगर-गाँव के चौराहों पर धड़ल्ले से नुक्कड़ नाटक खेले जा रहे थे। नाटक में दृश्य को थामकर जो मोड़ लिया जाता और विसंगति को जिस कदर प्रस्तुत किया जाता, निस्संदेह वह चौकाने वाला था। झकझोर देने वाला था। उसी तरह पत्र-पत्रिकाओं में लघु कहानी का जो ढंग विकसित हो रहा था, आगे चलकर उसी ढंग ने लघुकथा को जन्म दिया। अर्थात नुक्कड़ नाटक हो या लघुकथा, दोनों का जन्म एक ही गर्भ से हुआ और वह गर्भ था-- चेतना की नई दृष्टि। यथार्थ परिवेश और रचनात्मक संघ-जाग्रति।

           यह शायद 1984 के आसपास का समय रहा होगा। लेखन में जो रचनात्मक बदलाव हो रहा था, पत्र-पत्रिकाओं ने इसे सहेजकर प्रकाशित करना शुरू किया। उन्हीं दिनों, जानी-मानी पत्रिका 'सारिका' ने भी लघुकथा पर एक विशेषांक निकाला। सारिका के उस अंक में मेरी भी एक लघुकथा 'अनोखा मिलन' जिसे मैंने बाद के दिनों में 'काली छाया' के नाम से पुस्तक में समाहित किया, छपी थी। उसी दौर में असगर वजाहत के 'संवाद' और 'रूहों' के माध्यम से उघाड़े गए सच से पाठक का सामना हुआ। वह लेखन की नई तकनीक और तीखे सवालों से रू-ब-रू हुआ। लिखने का चलन बढा और इजाद के इस रूप में इजाफा होने लगा। लघुकथा को लेकर चर्चाएं तीव्र होने लगीं। असंख्य रचनाकार एक मंच पर एकत्रित होने लगे और लघुकथा के नये आयाम खुलते चले गए।लघुकथा को लेकर भ्रम की स्थिति भी है। लोग उसे परिभाषित भी करने लगे हैं। जिक्र हुआ तो समझ भी विकसित हुई और लघुकथा के प्रति सुदृढ़ विश्वास भी बना। इस विधा के प्रति मेरा दृष्टिकोण सीखने की तरफ ज्यादा गया। इसके तीक्ष्ण प्रहार ने मुझे सहज आकर्षित किया। उसकी गुदगुदी और चुभन सच को बेपर्दा करती है। मैंने असंख्य लघुकथाओं को पढ़ा है। असगर वजाहत के संपर्क में रहने से इसके पक्ष को जाना है। टीम वर्क में डॉयलॉग लिखते समय इसके प्रहार पर नजरें गई हैं। उसके बाद ही लघुकथा लिखने का सिलसिला शुरू हुआ है।

       रंगमंच से हमेशा मेरा जुड़ाव रहा है। ब्रटोल्ट ब्रेख्त पर काम करने के दौरान, ब्रेख्त के रंगकर्म और उनकी लघुकथाओं के तीखे सवालों और कुलबुलाते यथार्थ को जाना है। लेखक उतनी जल्दी नहीं लिख सकता, जितनी जल्दी सरकारें बदल जाती हैं... और सरकारें बदलने का यह सिलसिला बहुत पुराना है। इसी ढंग पर चोट करने का काम लघुकथा करती आई है। मंटो ने जिस मंजर पर कटाक्ष किया, वह मंजर किसने इजाद किया, सहज समझा जा सकता है। अपने समय के सच को कहने और उसके पक्ष में खड़ा रहने का काम लघुकथा का है। यही कारण है कि यह विधा दिनों-दिन अपने क्लेवर को सुदृड़ करती जा रही है।

मैंने अब तक एक सौ पचास से ऊपर लघुकथाएँ लिखी हैं। संवाद शैली में भी और पत्रशैली में भी। रूहों के माध्यम से यथार्थ को अनावृत्त भी किया है।

मोबाइल 96544 04416

Tuesday, 4 July 2023

सत्य शुचि की मोहन राजेश से एक विशेष भेंट-वार्ता

 लघुकथाएक स्वतंत्र, सशक्त विधा : प्रश्नों के घेरे में

'सन्दर्भ साहित्यिकी' के माध्यम से 'डिक्टेटर' ने लघुकथा को पर्याप्त अधिमान्यता दी है। साथ ही 'सन्दर्भ साहित्यिकी' के सम्पादक श्री मोहन राजेश का लघुकथा क्षेत्र में प्रारम्भ से ही सक्रिय योगदान एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी कारण 'डिक्टेटर' के इस 'लघुकथा बहुल अंक' के लिए कुछ सामान्य पाठकीय जिज्ञासाएं लिये मैं उनके पास पहुंचा। औपचारिक बातचीत के पश्चात् मेरा प्रथम प्रश्न था : 

                   मोहन राजेश कुमावत

● सत्य शुचि : प्रो. कृष्ण कमलेश ने अपने शोध-संबंधी प्रश्न-पत्रक में लघुकथा-संबंधी विश्लेषणात्मक तथ्यों के अभाव का जिक्र करते हुए प्रश्न उठाया है कि आखिर लघुकथा है क्या? उसका औचित्य, इसकी कसौटी आदि सभी कुछ अस्पष्ट-सी है। आप इस सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे

मोहन राजेश : प्रश्न निःसन्देह महत्व का है, किन्तु संभवतः कमलेश ने कहीं कुछ अति वेग से काम लिया है। जहाँ तक मेरा ख्याल है, बीच-बीच में कई लेेखकों ने लघुकथा को परिभाषित करने का प्रयास किया है। 'साहित्य-निर्झर' के लघुकथांक मे कुछ परिभाषाएं संकलित भी की गई थी। जहां तक किसी एक सर्वसम्मत परिभाषा का प्रश्न है, ऐसा अब तक न किसी विषय या विधा के संबंध में हो पाया है, और न ही लघुकथा के संंबंध में हो सकता है। इसी प्रकार लघुकथा के आकार-प्रकार, महत्व आदि पर भी टुकड़ों- टुकड़ों में विचार दिये जाते रहे हैं। मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में देखता हूँ। जिसका मन्तव्य किन्हीं विशिष्ट क्षणों की सूक्ष्मतिसूक्ष्म अभिव्यक्ति, किन्हीं अनुभूतियों को प्रतिक्रिया या जीवन की प।यांत्रिक जटिलताओं का विश्लेषण या अन्य कुछ भी जो सार्थक हो, या सार्थकता को अभिप्रेरित हो, हो सकता है। 

सत्य शुचि : क्या लघुकथा का संबंध उसके लघु आकार से नहीं है

● मोहन राजेश : बिल्कुल है। वस्तुतः विधा का नामकरण ही इसके आकार-प्रकार की सांकेतिक अभिव्यक्ति देता है। जिस प्रकार कहानी को उपन्यास के किन्तु इसे प्रकार समझा जाना चाहिए कि लघुकथा तो लघु आकार में ही होगी किन्तु जो कुछ भी लघु आकार में है, वह लघुकथा ही है, ऐसा नहीं है। वस्तुत: यह भ्रम एक व्यापक स्तर पर फैलाया जा रहा है और कहानियों के कथानक, छोटे-छोटे संस्मरण आदि लघुकथा के रूप में किए जाते रहे हैं। 

● सत्य शुचि : आलोचकों का कहना है कि लघुकथा लिखना उन्हें 'शीघ्र स्खलन' जैसा प्रतीत होता है? आप क्या कहेंगे

● मोहन राजेश : किसे क्या करना कैसा लगता है यह वैयक्तिक अनुभूतिगत प्रसंग है। निश्चय ही वे आलोचकगण शीघ्रपतन के रोगी रहे होंगे । मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में मानता हूँ। इसीलिये ऐसे किसी कथन से मेरे सहमत होने का प्रश्न ही नहीं रहता है। 

सत्य शुचि : राजस्थान विश्व विद्यालय की शोधा छात्रा कु. शकुन्तला किरण ने लघुकथा विषयक अपने शोध में लघुकथा और कहानी के शिल्प प्रारूप संबंधी अंतरों को जानना चाहा है। लघुकथा कहानी से कहाँ अलग होती है? आपकी क्या राय है

● मोहन राजेश : यहाँ मेरा एक प्रश्न है, लघुकथा कहानी से कहाँ मिलती है। आप बतायेंगे

सत्य शुचि : मेरा ख्याल है, दोनों लगभग समान धरातल पर गढ़ी जाती हैं। अतएव पर्याप्त समानता एवं सम्बद्धता रखती हैं। 

● मोहन राजेश : एक ही घरातल पर अवस्थित होने की बात एकदम सही है। किन्तु समान धरातल पर सह सम्बद्ध होना नितान्त आवश्यक नहीं। इस दृष्टि से लघुकथा कहानी की सहयात्री अवश्य हो सकती है। जैसे कि कहानी उपन्यास की है। लघुकथा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। उसे कहानी का उच्छिष्ट या संक्षिप्तिकरण समझना गलत होगा। जिस तरह कहानी को उपन्यास का संक्षिप्त नहीं समझा जा सकता । एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा कहानी से अलग प्लेेटफार्म रखती है। लघुकथा और कहानी के अन्तर संबंधित मेरा एक लघु लेख डिक्टेटर के किसी अंक में आ भी चुका है। मोटे तौर पर इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि कुछ अनुभूतियाँ या कुछ कथ्य ऐसे ही होते हैं जिन्हें लघु प्रारूप में ही कहा जा सकता है। इसके विपरीत कुछ कथ्य लंबे-चौड़े की आवश्कताएँ रखते हैं। वस्तुत: लघुकथा और कहानी इसी संप्रेषणीयता पर एक दूसरे से भिन्न होती हैं। उनमें रुपान्तर की प्रक्रिया संभव नहीं है। यदि लघुकथा के कथ्य को कहानी के रूप में लिखने का प्रयास किया गया तो अनावश्यक विवरणों एवं वर्णनों की बोझिलता में वह अपना प्रभाव खो देगी। इसी प्रकार जिन कथ्यों के सम्प्रेषण के लिए पर्याप्त विस्तार की आवश्यकता होती है, वे भी लघुकथा के रूप में निष्प्रभावी रहे जाते हैं। मैं समझता हूँ कि लघुकथा और कहानी का अन्तर इनके उद्गम (कथ्य) से ही स्पष्ट हो जाता है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा यादि कथा के कई रूप प्रचलित हैं। क्या ये सब लघुकथा के अन्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं अथवा भिन्न विधा के रूप में

● मोहन राजेश : मेरा ख्याल है कि लघुकथा के ही अंतर्गत रखकर मन्तव्य की दृष्टि से उसके विभिन्न उपभेदों के रूप में समझा जाना चाहिये। जिस प्रकार कहानी का वर्गीकरण उसके उद्देश्य, प्रस्तुतीकरण, शिल्प आदि के सन्दर्भ में किया जाता है वैसा ही वर्गीकरण लघुकथा में बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा, संघर्षकथा, हास्यकथा भयकथा यदि संभव रूपों में किया जा सकता है। 

● सत्य शुचि : लघुु आकारीय होने के कारण लघुकथा से तीव्र व्यंग्यात्मकता की अपेक्षा रखी जाती है। क्या आप भी ऐसा ही सोचते है

● मोहन राजेश : जी नहीं। लघुकथा केवल व्यंग्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि व्यंग्य निहित होने से उनमें कुछ तीखापन अवश्य आ जाता है। मर्मांतकता भी बढ़ जाती है; किन्तु यह कथ्य की आवश्यकता पर ही निर्भर करता है। कई एक सामाजिक तथ्यों के कथ्यों पर गंभीरतापूर्वक लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं। 

● सत्य शुचि : कुछ लोग लघुकथा के नाम पर चुटकुलेबाजी भी कर रहे हैं। आप इस संबंध में क्या मत देंगे?

● मोहन राजेश : बेशक! कुछ लोगों ने बल्कि ज्यादातर लोगों ने लघुकथा को उतनी गंभीरता से लिया ही नहीं है जितना कि इसे एक विधा के रूप लिया जाना चाहिये था। कुछ लोगों ने तो केवल एक फुल स्केप पेज में लिखी जा सकने वाली अपनी ऊटपटाँँग कल्पनाओं तक ही रख छोड़ा है। कुुछ इसे समय काटने हेतु फिलर के रूप में प्रयुक्त करते हैं। कुछ सहधर्मी लघुुकथाकार भी केवल इसीलिये लघुकथाएँ लिखते रहे हैं कि यह झटपट लिखी जा सकती और कापी-वापी करने में भी कोई झंंझट नहीं आती। कुछेक अपनी छपास की तुष्टि के लिए ही लघुकथा को अपनाये बैठे हैं; किन्तु ऐसे यह स्थिति प्रायः सभी विधाओं के साथ रही है। गुणात्मकता कम होती है, संख्यात्मक अधिक। खेद की बात है कि लघुकथा को चुटकलेबाजी का रूप देने में एक शीर्षस्थ पत्रिका भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। 

● सत्य शुचि : हिन्दी लघु के प्रकाशन क्षेत्र के सन्दर्भ में आप क्या कहेंगे? 

● मोहन राजेश : प्रकाशन की दृष्टि से लघुकथा को व्यापक क्षेत्र मिला है। वस्तुत: लघुकथा और लघु-पत्रिकाओं ने परस्पर सहयोगी भूमिकाएं निभायी हैं। जहाँ तक बड़ी पत्रिकाओं का सवाल है, स्थिति किसी से छिप नहीं है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा का आरम्भ, प्रमुख लघुुकथाकार, उनकी मुख्य लघुुकथा आदि के बारे में अपना मत प्रस्तुत कीजिये । 

● मोहन राजेश : जहाँ तक लघुुकथा के उद्गम, प्रवर्तक आदि के प्रश्न हैं, मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है। साथ ही यह सम्प्रति शोध विषय थी। प्रमुख लघुकथाकारों को मैं दो श्रेणियों में रख सकता हूँ--एक वे, जिन्होंने लघुकथा लेखन के साथ-साथ एक विधा के रूप में उसे स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। ऐसे कुछ नाम हैंप्रो. कृष्ण कमलेश, रमेश बतरा, जगदीशचन्द्र कश्यप, सिमर सदोष और शायद मोहन राजेश भी । दूसरी श्रेणी में वे लघुकथाकार है जिन्होंने अपनी सशक्त लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा को समृद्ध किया है। बृजेन्द्र वैद्य, कमलेश भारतीय, मधुप मगधशाही, भगीरथ, महावीर प्रसाद जैन, जयसिंह आर्य, अर्जुन कृपलानी, अनिल चोरसिया, हंसराज अरोड़ा, कैलाश जायसवाल, किशोर काबरा, धनराज चौधरी, नीलम कुलश्रेष्ठ शकुन्तला किरण, रेणु माथुर, सुशील राजेश, एल. आर. कुमावत, वि. शरण श्रीवास्तव, सत्य शुुचि आदि कुछ ऐसे ही लघुकथाकार हैं । कुछेक हस्ताक्षर जो आशाएं जगाते हैंडॉ. अनूपकुमार दवे, विभा रश्मि, जवाहर आजाद, विजय विधावन, कृष्ण गंभीर, सुषमा सिंह, प्रचण्ड, मुकुट सक्सेना आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त वर्गीकरण आदि मेरी व्यक्तिगत धारणा है। जहां तक इन लघुकथाकारों को रचनाओं का प्रश्न है, मैं अलग-अलग सभी के नाम गिनवा सकने में असमर्थ हूँ। 

सत्य शुचि : लघुुकथा के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ! 

● मोहन राजेश : इतने व्यापक स्तर पर चर्चित प्रकाशित होने के पश्चात भी क्या लघुकथा के भविष्य के बारे में संदेह रह जाता है? मैं एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा का भविष्य काफी उज्जवल देखता हूं। इसकी सघर्षशीलता उपलब्धियों के कई धरातल भी दिये हैं । अन्तर्यात्रा, तारिका, साहित्य निर्भर, अतिरिक्त, शब्द, मिनीयुग, दीपशिखा, हिन्दी मिलाप, दैनिक नवभारत, बम्बार्ड, डिक्टेटर, लघुकथा आदि पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों एवं लघुकथाओं को प्राथमिकता देने से लघुकथाकारों का हौसला काफी बढ़ा है। भगीरथ ने रावतभाटा से 'गुफाओं से मैदानों की ओर' प्रथम लघुकथा संकलन देकर विधा को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो कृष्ण कमलेश ने अपने लघुकथा संकलन 'मोहभंग' के माध्यम से उसमें अपना योग दिया है। भोपाल विश्वविद्यालय से कृष्ण कमलेश और राजस्थान विश्वविद्यालय से कु. शकुन्तला किरण के लघुकथा संबंधी शोध भी विधा के उज्ज्वल भविष्य के ही संकेतक हैं। भगीरथ और अमलतास (बलराम) आदि ने लघुकथा संबंधी समीक्षात्मक लेख भी लिखे हैं, किन्तु भगीरथ-सी निरपेक्षता सभी में दृष्टिगत नहीं होती। जो भी है, लघुकथा एक युवा विधा है। क्योंकि इसके सृजेताओं में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुतांश युवा रचनाकारों का ही है । 

 
(साभार : 'डिक्टेटर', स्वतंत्रता दिवस विशेषांक; 12 अगस्त, 1976)
 □ डिक्टेटर साप्ताहिक, चम्पानगर, ब्यावर (राजस्थान)

Friday, 9 June 2023

कमलेश भारतीय की तीन प्रेम लघुकथाएँ

कमलेश भारतीय। समकालीन लघुकथा की पहली पीढ़ी के सम्माननीय कथाकार। 

।।1।।

बहुत दिनों बाद 

बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रुका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूँढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पड़ा।

पाँव उसी छोटी-सी गली की ओर चल पड़े जहाँ रोज शाम जाया करता था। वही, जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था। कुछ हँसी, कुछ मजाक और कुछ पल। क्या वह आज भी वहीं...? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुँच गया। मेरे सपनों का घर। उजड़ा-सा मोहल्ला। वीरान-सा सब-कुछ। खंडहर मकान। उखडी ईंटें। 

क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पड़ता है? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?

नहीं। खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था। शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है... खंडहरों के बीच भी... मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं... सदा यहीं था... तुम्हारे पास...

।।2।।

ऐसे थे तुम

बरसों बीत गये इस बात को। जैसे कभी सपना आया हो। अब ऐसा लगता था। बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी। उससे हुआ परिचय धीरे-धीरे उस बिंदु पर पहुँच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं। 

फिर वही होने लगा। लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता। दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूँजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम-कथाओं का अंत होता है। पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी। साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।

लड़का शादी में गया। पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब-खूब रोया, पर... झरने की तरह समय बहने लगा, बहता रहा। इस तरह बरसों बीत गये। इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूँढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए। कभी-कभी उसे वह प्रेमकथा याद आती। आँखें नम होतीं,  पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता। 

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया। बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा। उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा-कैसा लगेगा? आकुल-व्याकुल था पर, कब उसका शहर निकल गया, बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के; क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था। जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था। 

वह मुस्कुराया। मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थ, जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे। उसे किसी की फिजूल-सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ? 

इस तरह बहुत-पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे-प्यारे लोग, उनकी मीठी-मीठी बातें, आती रहती हैं... धुंधली-धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी--अच्छा, ऐसे थे तुम! अच्छा, ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी!!

।।3।।

आज का रांझा 

उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे। करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली। लड़का पीछे-पीछे चलने लगा । 

लड़के ने कहा--"तुम्हारी आँखें झील-सी गहरी हैं।"

-हूं ।

लड़की ने तेज-तेज कदम रखते इतना ही कहा।

-तुम्हारे बाल काले बादल हैं।

-हूं। 

लड़की तेज चलती गयी।

बाद में लड़का उसकी गर्दन, उँगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएँ देता रहा । लड़की ने 'हूँ' भी नहीं की। 

क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा--"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?" 

चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है; दूसरा, वह बनाये! लड़के ने 'हाँ' कह दी। लड़की चाय बनाने चली गयी और लड़का सपने बुनने लगा। दोनों नौकरी करते हैं। एक-दूसरे को चाहते हैं। बस। ज़िंदगी कटेगी। 

पर्दा हटा और...

लड़का सोफे में धँस गया। उसे लगा, जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो, जिसकी नली उसकी तरफ हो, जो अभी गोली उगल देगी। 

-चाय नहीं लोगे ?

लड़का चुप बैठा रहा । 

लड़की बोली--"मेरा चेहरा देखते हो? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया। तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी; सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई।" 

लड़के ने कुछ नहीं कहा। उठा और दरवाजे तक पहुँच गया । 

"चाय नहीं लोगे?" लड़की ने पूछा, "फिर कब आओगे?"

- अब नहीं आऊँगा ।

-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?

और वह खिलखिला कर हँस दी ।

लड़के ने पलटकर देखा...

लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी । 

लड़का मुस्कुराकर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुँह पर फेंकते कहा--"मुझे मुँह मत दिखाओ।" 

लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता।

सम्पर्क-94160 47075

Saturday, 3 June 2023

लघुकथा और कथाकार

 

                     डॉ. सुरेश वशिष्ठ

96544 04416

लघुकथा पाठक मन को झकझोरने लगती है। उसे कम समय में पढ़ा जा सकता है। एक अच्छी लघुकथा सोच की शिराओं और रंध्र की गति को प्रभावित करती है। व्यंग्य से भरपूर कोई घटना वर्तमान के किसी सच पर जोरदार प्रहार करती है और अपना तीक्ष्ण प्रभाव पाठक पर छोड़ देती है। उसे चंद मिनटों में पढ़ा और समझा जा सकता है। यह जरुरी नहीं कि उसके कथानक वर्तमान के ही रहें, केवल परिवार और आपसी संबंधों तक ही वे सीमित रहें, राष्ट्र अथवा वैश्विक सच को भी लेखन में उकेरे जाने की जरूरत है। वे समसामयिक भी हो सकती हैं और इतिहास के आइने में व्यंग्यात्मक भी हो सकती हैं। 

     लघुकथा को एक विचार तक सीमित नहीं होना चाहिए, उसमें कथा-तत्व का होना भी अति आवश्यक है। किसी सच को प्रतिकार में ढालकर संवाद के रूप में भी कहा जाना लघुकथा का स्वरुप है। बशर्ते, वह प्रतिकार शब्दों की कसावट में बाहर आना चाहिए। रंध्र को क्षण-भर में गति देने और मानस की बुद्धि को सोचने पर विवश कर देने वाला कथा-तत्व ही लघुकथा है।

       लघुकथा की सार्थकता यही है कि यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय इशारा भर ही कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे! कथा है तो रोचकता दिखनी भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, वह पाठक को रुचिकर तो लगनी ही चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और बुद्धि को जागृत कर सके ! जिसे पढ़ने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

       आज असंख्य लघुकथा लेखक बड़ी तेजी से रचना कर रहे हैं और उन्हें वाह-वाही भी खूब मिल रही है। कई नामचीन लोग भी उत्साहवर्धन में टिप्पणियाँ दे रहे हैं। पूरा एक समूह खीसें निपोरने में लगा है। उन्हें पढने पर मैं सोचने के लिए विवश होता हूँ कि उनमें निहित कथ्य, शैली और संप्रेषण बहुत कमजोर होने पर भी नामचीन लोग वाह-वाही क्यूँ कर रहे है? ना उसमें रोचक तत्व कहीं दिखाई देता है और ना कथा-रस ही उपस्थित रहता है। यथार्थ विसंगतियाँ गौण रहती हैं और आपसी संवाद नी-रस जान पड़ते हैं। जबकि किसी भी रचना-धर्म में वर्तमान विसंगतियों का निहित होना लाजमी होना चाहिए। यह सब सहज और स्वाभाविक है। आज यह कथारूप किस दिशा में अग्रसर है, मुझे समझ नहीं आता, केवल चाटुकारिता और लेखन-दम्भ वहाँ दिखाई देता है। 

       आज सच बेदम हो रहा है और झूठ चिंघाड़ने लगा है। झूठ की तेज धार सच को कंपा देती है। तर्कहीन संवाद चमत्कृत करने लगते हैं और सच बनकर प्रस्तुत होते हैं। जिसे उकेरा जाना चाहिए वह इन कथाओं में नदारद ही है। आज इस धार में लेखक बहने को विवश है। विचारभरी बहसों और तर्कों से उसे कमजोर और अपंग किया जा रहा है। बोलने वाले बहुत हैं और उन्हें गुलामी भी मंजूर नहीं, परन्तु उनके मुख सील दिए गए हैं। जुबानें लकवा-ग्रस्त होकर रह गई हैं। रियाया के साथ जो हो रहा है या हुआ है, उसकी तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। उस सच को मानो किसी ने देखा ही नहीं! किसी रचनाकार ने अगर उसे शब्दों में कैद किया भी है तो कोई भी उस पर टिप्पणी नहीं करता। मानो किसी दृष्टि ने स्त्रियों को चीज की तरह इस्तेमाल किया और लेखक को कहा कि आपसी जिरह लिखते रहो और वे उसे ही लिखने में मशगूल हैं।

       लोग बसेरा छोड़कर भागते रहे और जुबानें मौन रहती आई हैं। रचनाकार नींद के आगोश में ऊँघ बिखेर रहा है। उसने इतिहास से सच को मिटा देने का नायाब तरीका अपना लिया है। उनके हुक्म से वह बहुत पहले ही उसे सीख चुका है। डौंडी पीटते रहो और झुनझुना बजता ही रहेगा।

       जिसे उकेरा जाना चाहिए था, वह आज भी नदारद है। इस धार में असंख्य रचनाकार बहने को विवश है। यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय केवल इशारा-भर कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे ! कथा है तो रोचक तत्व दिखना भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, पाठक को वह रुचिकर भी लगनी चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और जो पाठक की बुद्धि को झिंझोड़ सके, जागृत कर सके ! जिसे पढने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

(03-6-2023 को वाट्सएप पर प्रेषित)