अंतिम कड़ी
।।सोलह।।
उस दिन शादी का सालग (साया) बहुत तगड़ा था, मेरी भी शादी थी ।
जब सुबह को मै अपनी दुल्हन विदा कराकर लाया, तो उसने परदा कर रखा था। हमारे यहां रिवाज है कि लड़का-लड़की शादी से पहले नहीं मिलते। उसे मैंने पहली बार जयमाला के समय ही देखा था ।
गर्मी बहुत थी तभी हम शहर पहुँचे जहाँ जाम बहुत तगड़ा लगा हुआ था।
दुल्हन, जो परदा करके गाड़ी में बैठी थी, बोली, “अजी गाड़ी रोको ना!”
मैंने पूछा, “क्या प्यास लगी है?”
वह बोली, “नहीं।”
मैं समझ गया कि वह गाड़ी क्यों रुकवा रही है। मैंने ड्राइवर से कहा तो उसने गाड़ी एक लॉज के सामने रोक दी । जहां सामूहिक शादी हुई थी। सब की विदाई हो रही थी।
वह बाथरूम के लिये उसी लॉज में गई।
तभी जाम खुल गया। ड्राइवर बोला, “जल्दी से अपनी बीवी को बुलाकर लाओ।”
मैं गाड़ी से उतरा और बाथरूम के पास पहुँचा।
तभी बाथरूम से दुल्हन निकली। मै उसका हाथ पकड़कर चल दिया। वह बोली, “रुको, रुको…।”
मैंने कहा, “कपड़े गाड़ी में सही कर लेना।”
वो रोकती रही, लेकिन मैं उसे जबरदस्ती गाड़ी में ले आया ।
गाड़ी चल दी तो वह रोने लगी; लेकिन मैंने उसकी एक ना सुनी। जैसे ही शहर पार हुआ वह चीखें मारने लगी।
मैंने पूछा, “ क्या हुआ?”
वह बोली, “मुझे छोड़ दो… जाने दो… सब सामान ले लो…।
मैंने कहा, “अरे रश्मि, ये क्या कह रही हो?”
वह बोली, “मै रश्मि नहीं, नीलम हूँ।” यों कहकर उसने अपने चेहरे पर पड़े परदे को उलट दिया।
मैं एकदम चौका। वाकई, वह मेरी दुल्हन नहीं थी। क्या करता! मैंने तुरंत गाड़ी मोड़कर वापस लॉज पर करा ली।
जब मैं लॉज पर पहुँचा तो भीड़ इकट्ठी थी। मेरी दुल्हन वहाँ खड़ी-खड़ी रो रही थी। दूसरी तरफ मेरी गाड़ी में जो दुल्हन थी वह भी रो रही थी ।
मैंने गाड़ी से उतरकर सब से क्षमा माँगी कि परदा के कारण जल्दबाजी में यह हुआ और दुल्हन बदल गई ।
जब मैंने अपनी दुल्हन को गाड़ी में बिठाया तो वह रोते हुए बोली, “मै अब कभी ‘परदा’ नहीं करूँगी।”
मैंने हँसते हुए कहा, “ओके, ठीक है बाबा, मत करना।”
और हम अपने घर पहुँच गये।
।।सत्रह।।
"देख रमा, हमारे पास कुछ भी बचा नहीं।सब वक़्त के अंधड़ में तिनके की तरह उड़ गया। अब अगर कुछ बचा है तो हमारा मान-सम्मान और घर की इज़्जत को ढाँपता ये तेरे दादाजी का लाया ज़री वाला मखमल का पर्दा। बेटा, ज़माना बदल गया… लोगों के सोचने का नज़रिया बदल गया...बेटियों से कह कि समय से घर आएं और पर्दे में रहें।"
वृद्धा जानकी, उस घर की मुखिया, हमेशा जिनकी चारपाई वहीं बरामदे में रहती थी, सब पर नज़र रखती थीं। उसे सभी कहते थे—इस घर का असली पर्दा तो जानकी अम्मा हैं। सब बच्चों को जमाने की ऊँच-नीच वही बताती थीं।बच्चे भी उनका मान सम्मान करते थे। बिना पिता के वे बच्चे दादी का बहुत ख्याल रखते।
अचानक जानकी इस कदर बीमार हुईं कि ऑपरेशन की नौबत आ गई। वह मना करती रहीं, पर रमा व बच्चों ने घर का एक-एक जेवर, यहाँ तक कि वह ज़री वाला मखमली पर्दा भी बेचकर उसे एडमिट करवा दिया। ऑपरेशन के दौरान ही जानकी चल बसीं।
गाँव वाले उस परिवार को सांत्वना दे रहे थे।सबके चेहरे कह रहे थे—‘आज इस परिवार का पर्दा हमेशा के लिए उठ गया।’
।।अठारह।।
पड़ोस की बहू किरण आई। बोली, “आंटी जी, आज बेटी के जन्मदिन की पार्टी है। उसमेँ आपको जरूर-जरूर आना है।”
“हाँ-हाँ... मैँ जरूर आऊँगी।” कहकर रमा काम में लग गई।
काम करते-करते वह सोचने लगी—चार साल पहले बहू बन किरण आई थी। सभी ने कहा था कि बड़ी मॉडर्न-सी है, किसी से पर्दा नहीँ करती। और बंसल जी की बहू को देखो—सास-ससुर से पर्दा करती है, साड़ी पहनती है। किरण तो हर किसी के घर जाना-आना, हँसना-बोलना… उसने अपना एक बुटीक भी खोल लिया! वहीं, बंसल जी की बहू चार साल मेँ ही लड़-झगड़कर घर के एक कमरे में अपने पति और बच्चों के साथ अलग रह रही है। सास-ससुर से बोलचाल भी नहीँ। ऐसा क्यूँ? किरण जब नई-नई आई तो कोई पर्दा नहीँ किया। मॉडर्न कपड़े पहनती थी। दो दिन बाद छत पर अपने देवर और ननद के साथ पतंग उड़ाने लगी थी। उसकी सास ने पति से कहा—देखो, बहू पतंग उड़ा रही है। मोहल्ले वाले देख रहे हैं। .... पति ने कहा था—हमको अपनी बहू के साथ रहना है, मोहल्ले वालोँ के साथ नहीं। बेटी है वो इस घर की। …
सच ! परदा करवाने व बंदिश में रखने से ही लड़कियाँ बंसल जी के घर जैसी बहुएँ बन जाती हैं। जहाँ उनको स्वतंत्रता मिलता है, वे किरण जैसी बेटी बन जाती हैं। बदलाव आना चाहिए..... ।
।।उन्नीस। ।
''मैंने एक लड़की पसंद कर ली, उडती चिडिया पिंजरे में बंद कर ली'' राजेश मन ही मन ये गीत गुनगुना रहा था जब से उसने रागिनी को एरेंज्ड मैरिज के लिए पसंद कर लिया था। नैन नक्श, बोलचाल,चालढाल सब भा गयी थी; हालाँकि ये ढाल तो बिना तलवार के दिखाई नहीं जाती परन्तु ऐसी कहावत है. अपनी ही जात बिरादरी में इतनी सुंदर, सुशील कन्या को पाकर राजेश गदगद हो रहा था, जन्मपत्री में पर्याप्त गुण भी मिल गए थे, घर वाले भी राजी थे और क्या चाहिए.
रागिनी की एम. एससी. अभी चल रही थी इसलिए इसके बाद ही शादी करने का निर्णय लिया गया. अब रागिनी भी गाने लगी "मेरा पढने में नहीं लागे दिल, क्यों?उस ज़माने में मोबाइल फोंस नहीं थे, एसटीडी पीसीओ में लम्बी कतारें लगती थी. दो विभिन्न शहरों के होने के कार्निवाल पत्र और ग्रीटिंग कार्ड्स ही संवाद का ज़रिया थे, पत्रों के माध्यम से ही धीरे धीरे प्यार की कोपले फूंट रहीं थी .रागिनी को पत्रों का इंतज़ार रहने लगा था, कॉलेज से निकलते वक़्त वो पत्र लेजाकर फ्री पीरियड में पढ़ती थी. विवाह पूर्व ये मेल -मुलाकाते पापा को गवारा नहीं थी. अब रागिनी भी बहनों से गुजारिश करने लगी -"तुम्ही करो कोई सूरत उन्हें मिलाने की, सुना है उनको तो आदत है भूल जाने की!" इधर राजेश सोच रहा था मुझसे लकी तो वो डाकिया है, दीदारे यार तो हो जाता है ..
विवाह पूर्व परस्पर अकेले में बातचीत के लिए एक दिन निश्चित किया गया, राजेश ने कंपनी को लीव एप्लीकेशन दे दी "आज उनसे पहली मुलाकात होगी फिर आमने सामने बात होगी!" और बड़ी आशा से पहुँच गया एक रेस्तौरेंट में ""रागिनी डरती, सहमती हुई आई और बताया आज पापा बाहर गए हुए हैं ,इसलिए बहनों ने ये मीटिंग एरेंज करवाई है. "पहले सौ बार इधर और उधर देखा है ,फिर कही डर के उन्हें एक नज़र देखा है!"रागिनी को डर था की कहीं मोहल्ले के लोग, या पापा का कोई दोस्त देख न ले. ऐसा लग रहा था जैसे सांप सूंघ के चला गया हो, टोमेटो सूप का एक एक घूँट बड़ी मुश्किल से हलक से उतर रहा था. दोनों ही बहुत असहज महसूस कर रहे थे. राजेश समझ गया अभी तो गंगा पृथ्वी पर उतरी ही नहीं है, उसने कहा--चलो तुम्हारे ही घर चलते हैं, वहीँ खाना खायेंगे, घर पहुचे तो सब आश्चर्यचकित, अरे इतनी जल्दी वापस आ गए, क्या हुआ ? मम्मी, बहनें कहने लगीं-- पागल ही है हमारी लड़की, बाहर इसलिए भेजा था की जो कुछ भी कहना सुनना समझना हो अभी सब कर लो .
(इसे नहीं पढ़ सका। यह कहीं से भी मुझे लघुकथा महसूस नहीं हुई।)
।।बीस।।
बस एक महीना ही हुआ था रुचिका का विवाह हुए। सास, जेठानी संग धीरे-धीरे घर के तौर-तरीके सीख रही थी। बड़े थे सब उससे घर में। हर वक्त सर पर पल्ला होना चाहिए—ऐसा सास का हुक्म था। खुले विचारों वाले घर से आयी थी रुचिका, फिर भी हर रिवाज हँसकर मान लेती। एक दिन पति नौकरी के किसी काम से दूसरे शहर गये हुए थे। रात का काम खत्म करके सब सोने चले गये।रुचिका भी थकी थी, जल्दी ही सो गई।तभी उसे किसी की मौजूदगी का एहसास हुआ।आँख खोली तो अँधेरे में एक परछाई ही नजर आयी।कुछ बोलती, उससे पहले ही उसका मुँह एक हाथ दबा चुकाथा।
दो-तीन रात यही होता रहा। बस, परछाई बदल जाती।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। बहुत हिम्मत करके उसने अपनी जेठानी से बात करनी चाही, पर उसके बोलते ही जेठानी बोली—चुप रहो, मैं तो आठ सालों से ये सब सह रही हूँ। अब तुम भी…।
तभी सासुजी की आवाज आयी—परदा कर लो, ससुरजी-जेठजी घर आ गये हैं।
हा-हा परदा!!! आँखों में आँसू लिए स्तब्ध खड़ी थी रुचिका।
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