Tuesday, 5 October 2021

लघुकथा के पुरोधा : डॉ.सतीशराज पुष्करणा / रामेश्वर काम्बोज ´हिमांशु´

(स्व.) डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी के 75वें जन्मदिन  पर  विशेष आलेख : 

लघुकथा नगर, महेन्द्रू पटना-800006 : यह पता रहा एक लम्बे अर्से तक। कोई मकान नम्बर नहीं , गली नम्बर नहीं, बस लघुकथा नगर। यह एक ऐसे आदमी का पता रहा है, जो लघुकथा में ही जागता, लघुकथा में ही स्वप्न देखता। यह लघुकथा का वह सूत्रधार रहा , जिससे भारत भर के लघुकथाकार, समीक्षक, समर्थक, स्थापित साहित्यकार, नवोदित रचनाकार, राजनेता, पत्रकार, विरोधी सभी जुड़े हुए रहे। जोड़ने का मंच था--अखिल भारतीय लघुकथा मंच। यहाँ दिए जाने वाले सम्मान के लिए हवाई यात्रा करके जाना भी लेखक सौभाग्य समझते थे। इनका आवास देश भर के लेखकों का एकमात्र अड्डा था, जहाँ बैठकर लघुकथा के प्रचार- प्रसार की योजनाएँ बनतीं, क्रियान्वित होतीं, वार्षिक सम्मेलन में देश भर के प्रतिष्ठित, नवोदित लेखक आते, सम्मान पाते। बहुत से नवोदित जुड़ते, अपने को धन्य समझते। कुछ ऐसे भी थे जो सीख लेते, तो धरती पर पैर नहीं टिकते और कुछ दिनों में उड़न छू हो जाते। वे बहुत जल्दी ही भूल जाते कि किसी ने नन्हे-से पौधे को सींचकर पल्ल्वित -पुष्पित किया है। अवसरवादी लेखक दूर होते ही विरोधी बन जाते। साहित्य में ऐसे अहसान फ़रामशों की संख्या न तब कम थी और न अब कम है। कमज़ोर व्यक्ति अगर कुछ नहीं करेगा, तो विरोध तो ज़रूर करेगा। पुनः इस बात पर बल दूँगा कि अपने लेखकीय समय की आहुति देकर कितने लोग दूसरों का हित सोचेंगे! यह प्रश्न विचारणीय है। लगातार धोखा खाने पर भी, अपनी ढलती उम्र और कमज़ोर स्वास्थ्य के साथ भी पुष्करणा जी नए लोगों को प्रोत्साहित करने में लगे हैं। पुराने लोगों को आज भी अपने साथ जोड़े हुए हैं। मैं इनको केवल लेखक नहीं कहूँगा, केवल सम्पादक नहीं कहूँगा। ये लेखकों के लेखक और सम्पादकों के भी सम्पादक हैं। अपने सम्पादन में नवोदितों की साधारण रचनाएँ भी इसलिए छापीं कि आज जैसा लिख रहे हैं, कल नए अनुभव अर्जित करके उससे बेहतर लिखेंगे। मैं ऐसे नवोदितों का साक्षी हूँ, जिन्होंने लघुकथा का बेसिक इनसे सीखा, आज अच्छा लिख रहे हैं।

वर्ष 1983 में आपने ‘लघुकथा : बहस के चौराहे

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
 पर’ विभिन्न साहित्यकारों के लेखों का संग्रह प्रकाशित किया। इस ग्रन्थ में 37 वर्ष पूर्व लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर विस्तार से विचार-विमर्श किया। जानकारी के अभाव में बहुत से लेखक आज भी उन विषयों पर उलझते पाए गए हैं, जिनका ‘अखिल भारतीय लघुकथा मंच’ से भी स्थापित लेखक निराकरण कर चुके हैं। सन् 1990 में ‘कथादेश’ ( वृहद् लघुकथा-संकलन) के माध्यम से 700 पृष्ठों का बड़ा लघुकथा संग्रह प्रस्तुत कर चुके हैं, जिसमें सम्पादक का 12 पृष्ठीय सम्पादकीय, 26 लेखकों की 25-25 यानी कुल 650 लघुकथाएँ सभी लेखकों के 26 परिचय, 26 आत्मकथ्य, 5 लेखकों के 68 पृष्ठीय लेख। जहाँ तक मेरी जानकारी है, अभी तक कोई भी लघुकथा-सम्पादक एक खण्ड में इतनी सामग्री नहीं जुटा सका। इतने बड़े कार्य को करके भी कोई उल्लेख करना नहीं भूलेगा जबकि पुष्करणा जी ने अपने एक लेख में बस एक शब्द ‘कथादेश’ लिखकर नाम गणना कर दी। वह व्यक्ति है-डॉ सतीशराज पुष्करणा। अपने नाम और विकास के लिए सब काम करते हैं। बड़े-बड़े लेखक हैं। खूब बढ़िया लिखने वाले भी हैं, लेकिन उनकी उड़ान केवल उन्हीं तक है। पुष्करणा जी उनमें से नहीं हैं। वे बड़े-बड़े कार्यक्रमों के आयोजक हैं, सबको साथ लेकर चलने वाले, प्रकाशन से लेकर विमोचन, समीक्षा तक जोड़ने वाले हैं, यानी सब कुछ लघुकथा के लिए। इस कड़ी में दो नाम और हैं--श्याम सुन्दर अग्रवाल और श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’। ये सब लम्बी पारी के खिलाड़ी रहे हैं। पुष्करणा जी के हस्तलिखित कार्ड आज भी सैंकड़ों लोगों की फ़ाइलों में होंगे।

इनकी बहुत-सी लघुकथाओं पर बहुत सारे लेखक चर्चा-परिचर्चा, समीक्षा कर चुके हैं। मेरा आशय इस लेख में न उनका पिष्ट-पेषण करना है, न कोई परिणाम प्रस्तुत करना है। कुछ लघुकथाओं का स्पर्श मात्र करना है, ताकि उनकी अन्तर्वस्तु का संकेत भर कर सकूँ। पुष्करणा जी किसी सम्भ्रान्त वर्ग क्रे प्रतिनिधि लेखक नहीं हैं। वे सामान्य या मध्यम वर्ग के लेखक हैं। यही उनका मुख्य परिवेश है। मध्यम वर्ग सपने उच्च वर्ग के देखता है, उन सपनों को पूरा करने के लिए रात-दिन मरता-खपता है, झगड़ता है, बेईमानी भी करता है, लेकिन ईमानदारी की आश्रयस्थ्ली भी यही बनता है। त्याग करने में भी पीछे नहीं रहता। इनकी लघुकथाओं में घर-परिवार, पत्नी-पुत्र, पुत्री आदि, दफ़्तर के अधिकारी, बाबू, वह सामान्य व्यक्ति भी है,जो केवल भीड़ का एक हिस्सा भर है। इस सामान्य व्यक्ति का सपना सिर्फ़ दो जून की रोटी, सिर ढकने को जैसी-तैसी छत, गुज़ारे के लिए कोई भी काम। कोई काम इसके लिए छोटा नहीं है। अपने काम को ईमानदारी से निभाना इसका संस्कार है। यह उस पूँजीपति वर्ग की तरह नहीं है, जो सरकार से भारी-भरकम ॠण लेकर हज़म कर जाता है और बाद में किसी तिकड़म से दिवालिया होने का स्वाँग करता है। यह उन नेताओं में से भी नहीं है, जो सत्ता की खेती को साँड बनकर चरते रहते हैं; जिन्हें सत्ता केवल चारा नज़र आती है।

सबसे पहले मानवता की पोषक लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूँगा। ‘सहानुभूति’ वर्कशॉप के अधिकारी और कर्मचारी रामू दादा पर केन्द्रित है। अधिकारी कड़क है, तो कर्मचारी रामू दादा भी कम नहीं। वह अधिकारी की डाँट के प्रत्युत्तर में कहता है कि जो कहना हो वह लिखकर कहें या पूछें। लिखित कार्यवाही करके कर्मचारी के बीवी-बच्चों के पेट पर लात मारना अधिकारी का आशय नहीं है, वह कर्मचारी को ही खरी-खोटी सुनाना उचित समझता है। अधिकारी को सबक सिखाने की बजाय अधिकारी ने ही रामू दादा को सबक सिखा दिया। इस तरह की एक लघुकथा है ‘वापसी’। कैसी वापसी, कहाँ से वापसी? जेबकतरे ने पर्स चुराया। उसे पुलिस का भी संरक्षण प्राप्त है। जेबकतरे ने पैसे सहेज लिये। पर्स को और उस पर्स में पड़े कागज को फेंक दिया। फिर न जाने क्या सोचकर कागज़ को उठा लिया। वह एक पत्र था। पढ़ा तो पता चला कि उस पत्र में माँ को पैसे भेजने की बात लिखी है। पत्र पढ़कर जेबकतरा प्रभावित हुआ और उस राशि को जिसकी जेब काटी थी, उसकी माँ तक पहुँचाने की व्यवस्था में जुट गया। यह मानवीय संवेदना की अच्छी लघुकथा है। इसके साथ लेखक का यह सन्देश भी निहित है कि हर बुरा आदमी हर समय बुरा नहीं होता। विषम परिस्थितियाँ उसे बुंरा बनाने के लिए बाध्य करती हैं। यह व्यावहारिक सत्य है कि परिस्थितिवश अच्छा आदमी भी बुरा कार्य कर सकता है। ‘माँ’ लघुकथा में अनजान वृद्धा द्वारा ठिठुरते हुए व्यक्ति को अपना शॉल दे देना उसके ममत्व को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है। माँ का यह ममत्व अनेक रूप में सामने आ सकता हैं ; क्योंकि उसका एक चेहरा नहीं होता।

समाज का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले मीडिया का असली रूप ‘भीतर की आग’ में दिखाई देता है। समाचार -पत्र जिस पवित्रता की दुहाई देकर अच्छा बनना चाहते हैं, उसके भीतर का सच कुछ और ही है। जिसमें सही काम करने की आग है, उसका जीवन कुछ और ही है। सुदीप को अखबार का सम्पादक व्यावहारिक होने के लिए कहता है। यही व्यावहारिकता दुनियादारी है। सुदीप को यह दुनियादारी स्वीकार नहीं है। ‘ऊँचाई’ में एक बूढ़े , गरीब अध्यापक की कथा है, जो सहायता की आशा से अपने पुराने शिष्य के पास जाते हैं। शिष्य गुरु जी का आशय समझकर अपनी आर्थिक तंगी का रोना शुरू कर देता है। गुरु सहज आत्मीयतावश शिष्य की सहायता के लिए तत्पर हो जाता है। गुरु का आत्मीय अग्रह देखकर शिष्य लज्जित हो उठता है। ‘उपहार’ लघुकथा में गुरु का आदर्श रूप सामने आता है। शिष्या के उत्तीर्ण होने पर ट्यूशन के रूप में ली गई राशि वापस करते हुए शिक्षक कहते हैं-इन पैसों से तुम आगे की पढ़ाई जारी रख सकती हो।

पारिवारिक जीवन की लघुकथाओं में आत्मिक सम्बन्ध, परिवार के सदस्यों के बीच आपसी समझ, वैचारिक असन्तुलन, दो पीढ़ियों में अन्तर , बड़ों की उपेक्षा आदि कई मुद्दे सामने आते हैं। इन लघुकथाओं में भावनाओं का यथार्थ, भविष्य निधि, आत्मिक बन्धन, दीप जल उठे, बीती विभावरी, आकांक्षा, नई पीढ़ी, पिघलती बर्फ़, चूक, विश्वास आदि प्रमुख हैं। ‘भावनाओं का यथार्थ’ का बेटा जिस खण्डहर होते मकान को बेचना चाहता है, उस मकान से पिता की भावनाएँ जुड़ी हैं। पिता अपनी बुढ़ापे की स्थिति और मन:स्थिति बतातकर पुत्र को निरुत्तर कर देता है। ‘भविष्य निधि’ जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है-हमारे वर्त्तमान के कर्म ही हमारी भविष्य-निधि है। इस भविष्य-निधि में हम जितने सुकर्म मिलाएँगे , हमारे सुख-सन्तोष का कोश उतना ही बढ़ता जाएगा। आत्मिक बन्धन , बीती विभावरी,आकांक्षा, विश्वास दाम्पत्य जीवन की सधी हुई कथाएँ हैं , जिनमें पति-पत्नी के बीच में आए भावनात्मक उतार -चढ़ाव का सहज चित्रण किया है। इन लघुकथाओं का मूल स्वर है- विश्वास और आपसी समझ। आपसी समझ में जब दरार आती है , तो रिश्ते दरकने लगते हैं। इन जुड़ाव को बनाए रखने के लिए अहं का त्याग और समर्पण -भाव अनिवार्य कारक है।

पुष्करणा जी ने लघुकथाओं में मानसिक उथल -पुथल और भाव के स्तर पर होने वाले परिवर्तन पर गहनता से विचार करके रचनाओं को आगे बढ़ाया है। मन की पर्तें खुलने पर मनुष्य का क्या स्वरूप सामने आता है, वह अलग से मनोविश्लेषण का और अध्ययन का विषय है। काम प्रवृत्ति मनुष्य की सहज वृत्ति है। इसे पाप-भावना न समझकर संयम के द्वारा, जहाँ उदात्त रूप दिया जा सकता है, वहीं असन्तोष और असंयम से इसी विकृति की ओर भी मोड़ा जा सकता है। आग में अविवाहित युवती का नौकर के प्रति काम भावना से भरना उसे बहुत उद्वेलित कर जाता है। पुष्करणा जी ने उसके अन्तर्द्वन्द्व का बहुत सूक्ष्मता से चित्रण किया है। मृगतृष्णा लघुकथा में धनाढ्य विधुर मित्र अपने मित्र के द्वारा एक सुन्दर युवती फोटो दिखाने पर कामुकता में घिर जाते हैं , जबकि मित्र वह रिश्ता उनके बेटे के लिए लेकर आए हैं। सत्यता का आभास होते ही वे खुद को सँभाल लेते हैं। पुरुष में मार्कण्डेय जी पीछे की सीट से आते दो नारी स्वर से आकर्षित होते हैं , लेकिन मुड़कर पीछे देखने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। उनकी कल्पना में वे केवल युवा नारियाँ हैं, जिनसे वे मन ही मन जुड़ रहे हैं। उनकी मधुर कल्पना को उस समय झटका लगता है जब-‘अंकल प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!’ का स्वर उनके कानों से टकराता है। ‘अच्छा बेटा’ कहकर वे स्वयं को उस काम-कुण्डली से मुक्त कर लेते हैं।

‘निष्ठा’ का विषय नया है। पत्नी के मन में फ़िल्म के सन्दर्भ में उभरी आशंका का निवारण किया गया है। ‘उधेड़बुन’ लघुकथा की मानवती वर्षा और भीगने की ठिठुरन से पीड़ित की सहायता करना चाहती है; लेकिन उसका मन तरह -तरह की आशंकाओं में घिरने लगता है। इस तरह के प्लाट पर लघुकथा लिखना बड़ी चुनौती है। आत्मसंघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व के बीच झूलती हुई मानवती किसी काम भावना से पीड़ित नहीं है, लेकिन उस समय के एकान्त में अकेली नारी को अपने अस्तित्व की भी चिन्ता है, जिसे प्रौढ़ तार-तार कर सकता है। इन सभी उद्वेगों से उद्वेलित होते हुए भी वह पति के कपडे देकर सहायता करती है, चाय भी पिलाती है। इस अवधि में उसका मन तरह -तरह की आशंकाओं के बीच आन्दोलित होता रहता है। ‘रक्तबीज’ में आपने भ्रष्ट नेता की वासना का चित्रण किया है, जिनके लिए हर औरत केवल भोग्या है। ‘नेता कभी बूढ़े नहीं होते’- यह संवाद वासना के मकड़जाल का पर्दाफ़ाश कर देता है। मदद के नाम पर ये कितनी ही महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस लघुकथा का शीर्षक ‘रक्तबीज’ बहुत सार्थक है। शुम्भ-निशुम्भ के साथी रक्तबीज को शिव से वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की जितनी बूँदें धरती पर गिरेंगी , उनसे उतने ही राक्षस पैदा हो जाएँगे। इस सन्दर्भ में लघुकथा का यह शीर्षक पूरी लघुकथा की कुंजी के रूप में काम करता है। इसी कड़ी में मन के साँप के नायक को पत्नी की अनुपस्थिति में कभी ऑफ़िस की मिसेज सिन्हा का सौन्दर्य विचलित करता है, कभी वह नौकरानी को आवेगभरी दृष्टि से निहारता है। सब काम निपटाकर वह दूसरे कमरे में सोने चली जाती है, तो निद्रामग्न होने पर चुपके से उसे निहारता है। पुष्करणा जी ने मालिक के मन में उभरती हुई वासना को ‘मन के साँप’ द्वारा बड़ी कुशलता से रूपायित किया है।

आपने अपने लघुकथा-विषयक लेखों से, विभिन्न सम्मेलनों में अपने चिन्तन से लघुकथा -जगत् को एक दिशा दी है और आज भी दे रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उसी तत्परता से आप कारुय करते रहेंगे। एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि इनकी कर्मठता से सभी नए-पुराने साथियों को कुछ सीखना चाहिए।

(साभार : लघुकथा डॉट कॉम, अक्टूबर 2021)

लघुकथा की बहुकोणीय परख का प्रयास : उत्कण्ठा के चलते / सतीश राठी

सतीश राठी
लघुकथा की पड़ताल करने के उद्देश्य से लघुकथा की गुणवत्ता की समालोचना करने का बहुत सारा काम सारे देश में हुआ है, फिर भी लघुकथा की अपेक्षित गुणवत्ता अधिकांश लघुकथाओं में नहीं आई है और शायद इसके पीछे कारण यह है कि उस सारे कार्य को बमुश्किल देखा गया है। लघुकथा को जीवित रखने के लिए उसकी समालोचना के कार्य को लघुकथा लेखक के द्वारा देखा जाना बड़ा जरूरी काम है। 

लघुकथा के परिंदे के माध्यम से कांता राय ने और परिंदे पूछते हैं के माध्यम से डॉ अशोक भाटिया ने बहुत सारा काम किया है। डॉ॰ राम कुमार घोटड ,बलराम अग्रवाल ,कल्पना भट्ट ने भी अपने स्तर पर इस क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण कार्य प्रस्तुत किया है। श्री बी एल आच्छा जी, माधव नागदा, सुकेश साहनी, जितेंद्र जीतू और बहुत सारे नाम इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। मध्यप्रदेश से क्षितिज संस्था ने तो लघुकथाओं की विवेचना करते हुए सार्थक लघुकथाएं पुस्तक प्रकाशित की है। इसी क्रम में उज्जैन के प्रतिष्ठित लघुकथाकार संतोष सुपेकर ने लघुकथा पर साक्षात्कार और विमर्श के जरिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस पुस्तक का शीर्षक है 'उत्कंठा के चलते'। यह पुस्तक डॉक्टर सतीशराज पुष्करना एवं रवि प्रभाकर को समर्पित की गई है। इस पुस्तक में डॉ॰ योगेंद्र नाथ शुक्ल ने साक्षात्कारों के माध्यम से लघुकथा का परिदृश्य बदलने की उम्मीद जताई है। डॉ॰ उमेश महादोषी ने लघुकथा के संदर्भ में लेखक और पाठक के मध्य संवाद के महत्व पर अपनी बातचीत की है। लघुकथा में लेखक का परकाया प्रवेश जरूरी है, यह बात साक्षात्कार के विभिन्न प्रश्नों के माध्यम से सतीश राठी ने स्थापित करने की सफल कोशिश की है। प्रो॰ शैलेंद्र कुमार शर्मा ने लघुकथाकार को यह जिम्मेदारी बताई है कि उसे थोड़े में बहुत-कुछ कहना होता है। लघुकथा के अनुवाद परिदृश्य पर अंतरा करवड़े का साक्षात्कार महत्वपूर्ण है। कांता राय लंबे अरसे से लघुकथा में लेखक, समालोचक और संपादक के रूप में बहुत सारा महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं । उनसे लिया गया साक्षात्कार इस विधा के भीतर तक उतरकर बहुत सारे प्रश्नों के जवाब खोजने में कामयाब हुआ है। समालोचक श्री पुरुषोत्तम दुबे आलोचना के संदर्भ में अपने साक्षात्कार में कुछ महत्वपूर्ण बातों को स्थापित करने में सफल हुए हैं। स्त्री विमर्श पर लघुकथा के संदर्भ में श्रीमती वसुधा गाडगिल ने अपने साक्षात्कार में महत्वपूर्ण चर्चा की है। वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सूर्यकांत नागर अपने साक्षात्कार में एक पूरे कालखंड को समेटेकर अनुभवजन्य रचना को सार्वलौकिक बनाना आवश्यक मानते हैं और इस संदर्भ में उनका विचार पक्ष बड़ा प्रबल है। व्यंगकार पिलकेन्द्र अरोड़ा ने भी लघुकथा के सोशल मीडिया के साथ संबंध में अपनी बात कही है। प्रसिद्ध चित्रकार श्री संदीप राशिनकर ने अभिव्यक्ति में निहित संवेदनशीलता पर अपनी बात प्रस्तुत की है। अमेरिका निवासी श्रीमती वर्षा हळवे ने लघुकथा में साइंस फिक्शन के बाबत बात कही है । एक पाठक के रूप में श्रीसंजय जोहरी के विचार भी पुस्तक में समाविष्ट किए गए हैं । 

इस प्रकार इस पुस्तक को लेखक, पाठक, संपादक, समालोचक, व्यंग्यकार, चित्रकार आदि व्यक्तित्व के माध्यम से

संतोष सुपेकर

एक समग्र स्वरूप में प्रस्तुत करने की ईमानदार कोशिश श्री संतोष सुपेकर ने की है जिसमें वह सफल रहे हैं। पुस्तक का मूल्य सिर्फ ₹100 है और इस तरह ₹100 की गागर में बड़ा-सा सागर प्रस्तुत किया गया है। 

प्रत्येक लघुकथा लेखक और पाठक को यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।

समीक्ष्य पुस्तक : उत्कण्ठा के चलते (लघुकथा साक्षात्कार एवं विमर्श)

सम्पादन, संयोजन : सन्तोष सुपेकर 

प्रथम संस्करण : 2021

मूल्य- ₹100/-

प्रकाशक : एचआई पब्लिकेशन, 

302-303, तीसरी मंजिल, शान्ति प्लाजा, होटल समय के सामने, 

फ्रीगंज, उज्जैन (म.प्र.)- 456007 / 

मो. 9754131415

Friday, 1 October 2021

अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है लघुकथा : राम मूरत 'राही'

बचपन में कहानी, उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था।  तभी मेरे मन में कहानीकार बनने की इच्छा जाग्रत हुई थी। मैंने 1980 यानी उन्नीस वर्ष की उम्र में एक कहानी लिखी थी, जिसे इंदौर के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ भेजी थी। जब एक महीने बाद भी कहानी प्रकाशित नहीं हुई, तब मैं एक दिन समाचार पत्र के दफ्तर जा पहुँचा और साहित्य संपादक से कहानी के प्रकाशन के बारे में पूछा। तब उन्होंने मुझसे कहा, 'बेटा! पहले तुम पंद्रह सौ कहानी पढ़ो, फिर लिखना।' मैं उनका जवाब सुनकर, मायूस होकर लौट आया और जब यह बात मैंने अपने एक मित्र को बताई, तो उसने मुझे सुझाव दिया कि तुम पहले बच्चों के लिए छोटी-छोटी कहानियां लिखो, फिर बड़ो के लिए लिखना। मित्र के पर मैंने एक हास्य कहानी लिखी जो दिल्ली से प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिका 'लोटपोट' में वर्ष 1980 में ही प्रकाशित हुई थी। इसके बाद मैं बाल कहानियों के साथ-साथ ही बाल कविताएं भी लिखने लगा।

लघुकथा लिखने की प्रेरणा मुझे जिन दो लघुकथाओं से मिली थी, उसमें से एक थी 'नपुंसक' जो सारिका • पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और दूसरी लघुकथा थी स्व. रामनारायण उपाध्याय जी की 'फूट के बीज' जो नईदुनिया में प्रकाशित हुई थी। 1984 से मैंने लघुकथा लेखन की शुरुआत की थी।

आज के पाठक लघुकथा केवल इसलिए नहीं पढ़ते हैं कि वह आकार में छोटी होती है, वरन इसलिए भी पढ़ते हैं कि उनकी सुप्त चेतना को एकदम जाग्रत कर देती है। इस संदर्भ में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री संतोष सुपेकर जी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि 'सुप्त समाज के लिए इंजेक्शन की सुई है लघुकथा, जिसकी थोड़ी सी दवा विशाल स्तर पर जागृति फैला सकती है।'

लघुकथा आज के समय की सबसे लोकप्रिय विधा है। लघुकथा समाज में फैली विसंगतियों, संवेदनाओं से पाठकों को रूबरू करवाती है। मेरा मानना है कि एक सार्थक लघुकथा वह होती है, जो अनुभव, संवेदना के साथ रची जाती है और पाठकों के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख देती है।

वैसे तो मैंने कविताएं, गजलें, व्यंग्य, बाल कहानियां, संस्मरण, समीक्षाएं भी लिखीं हैं और कुछ व्यंग्य चित्र भी बनाये हैं, लेकिन लघुकथा सृजन से जितनी संतुष्टि मुझे मिलती है, उतनी इन विधाओं से नहीं। क्योंकि लघुकथा के माध्यम से मैं जीवन के यथार्थ को बड़ी सहजता सरलता से व्यक्त कर पाता हूं। लघुकथा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा कम शब्दों में बड़ा संदेश दिया जाता है। लघुकथा 'देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर' बिहारी के इस दोहे को चरितार्थ करती है।

क्लिष्ट भाषा के बजाय मैं सरल सहज भाषा में लिखता हूं, ताकि आम पाठकों को शब्दकोश में या गूगल पर क्लिष्ट शब्द का अर्थ ढूंढना न पड़े और वे बड़ी आसानी से समझ जायें।

आज काफी संख्या में रोजाना लघुकथाएं लिखीं जा रही हैं, लेकिन उन्हीं लघुकथाओं/लघुकथाकारों को पहचान मिलती है, जिनके कथानक में विविधता होती है, नवीनता होती है, जिसे पढ़कर एक-दो दिन नहीं, वर्षों तक पाठकों के जहन में घूमती रहती है। लघुकथा में संवेदना का होना बहुत जरूरी है। इस संबंध में इंदौर के वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सतीश राठी जी ने वर्ष 2018 में हुए क्षितिज साहित्य मंच के अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में 'सृजन' विषय पर कहा था कि 'पाठक की आंख का आंसू बने, वही लघुकथा की गुणवत्ता और लोकप्रियता का साक्ष्य है।'

कुछ लघुकथाएं सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं :

टिप

वे महीने में तीन-चार बार परिवार सहित शहर की एक होटल में खाना खाने जाया करते थे। वेटर को टिप में कभी सौ रुपये, तो कभी और ज्यादा देते थे। एक बार पत्नी ने वेटर के जाते ही उनसे पूछा- आप वेटर को पाँच-दस रुपये टिप देने के बजाय, सौ या सौ से ज्यादा रुपये क्यों देतें हैं?'

'इन बेचारों को तनख्वाह बहुत कम मिलती है।' उन्होंने जवाब दिया। 

‘आपको कैसे पता कि इनको तनख्वाह कम मिलती है?'

'क्योंकि बेरोजगारी के दिनों में मैंने भी कुछ महीने वेटर का काम किया था।'

बोहनी

एक गरीब-से दिखने वाले वृद्ध से जनरल कोच में

एक पुलिस वाले ने पूछा- 'टिकट दिखाओ।'

'नहीं है साहब...'

'तो चलो थाने...' इतना कहकर पुलिस वाले ने उस वृद्ध की बाँह पकड़ी और कोच के एक कोने में ले गया, जहां पर कोई नहीं था। फिर बांह छोड़ते हुए धीमी आवाज में बोला--'लाओ दो सौ रुपये निकालो, नहीं तो थाने चलना पड़ेगा।'

'साब... दो सौ रुपये नहीं है।'

"ठीक है... सौ रुपये निकालो।'

'साब... सौ रुपये भी नहीं है।'

'अबे कुछ तो होगा? वही दे दे।' पुलिस वाले ने खीझकर कहा।

बुजुर्ग ने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी एक तरफ रखते हुए, अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक पांच रुपये का सिक्का निकालकर पुलिस वाले को देते हुए कहा- 'लो साब....'

पुलिस वाले ने जब पांच रुपये का सिक्का देखा, तो वह गुस्से में भर उठा और बोला- 'अबे स्साले... भिखारी समझ रखा है क्या?'

वह बुजुर्ग डरता हुआ बोला--'नहीं साब... भिखारी तो मैं हूं... अभी हाल ही में डिब्बे में भीख मांगने आया था कि आपने मुझे पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद पकड़ते तो शायद मैं आपको दो सौ रुपये दे देता। अभी तो मेरी बोहनी भी नहीं हुई है। ये पांच रुपये का सिक्का तो कल का बचा हुआ है। इसे आप रख लो, आपकी बोहनी हो जाएगी।' 

जंगल की ओर

शहर की एक कॉलोनी में लगे मोबाइल टॉवर के पास, नीम के पेड़ पर बैठा एक चिड़ा अचानक धरती पर आ गिरा और थोड़ी देर तड़पने के बाद उसने दम तोड़ दिया। तभी एक चिड़िया अपने दो नन्हे बच्चों के साथ वहां आई और चिड़ा को मृत पड़ा देखकर विलाप करने लगी। दोनों नन्हे बच्चे भी अपनी माँ को रोता देखकर, जोर-जोर से रोने लगे। कुछ देर बाद उन में से एक बच्चे ने अपनी माँ से सिसकते हुए पूछा--'माँ! पिताजी को क्या हो गया है, और आप रो क्यों रही हैं?'

चिड़िया ने सिसकते हुए बताया--'बेटा! अब तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है।'

'माँ! पिता जी की मृत्यु कैसे हुई?' दूसरे बच्चे ने सिसकते हुए पूछा।

'बेटा! मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से।'

'माँ! क्या रेडिएशन से एक दिन हम भी मर जाएंगे?' पहले बच्चे ने मासूमियत से पूछा।

'नहीं बेटा ! इससे पहले कि हम पर भी मोबाइल टॉवर से निकलने वाले रेडिएशन का दुष्प्रभाव पड़े, हम ये शहर छोड़कर ऐसे गांव में जाएंगे, जहां मोबाइल के टावर न हो।'

चिड़िया इतना कहकर चिड़ा को आखरी बार देखकर, फिर अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर गांव की तरफ उड़ गई।

गांव में एक पेड़ पर घोंसला बनाकर रहते हुए अभी उसे कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन चिड़िया बहुत ज्यादा बीमार पड़ गई। तब उसके एक बच्चे ने माँ को बीमार देखकर पूछा- 'माँ! आपको क्या हो गया है?'

'बेटा! शहर छोड़कर हम गांव इसलिए आए थे कि यहां हमारी जान को कोई खतरा नहीं होगा, लेकिन हम यहां भी सुरक्षित नहीं हैं।' 

‘कैसे माँ? यहां तो मोबाइल टावर भी नहीं है।' एक बच्चे ने पूछा।

'बेटा! यहां गांव में मनुष्य ज्यादा फसल की पैदावार लेने के लालच में साग-सब्जी के खेतों में रासायनिक खाद डाल रहा है और फसलों में अधिक मात्रा में कीटनाशको का छिड़काव भी कर रहा है, जिससे साग सब्जियां जहरीली हो रही है। हम पंछी इसे खाकर बीमार पड़ते है और फिर अपनी जान गवां देते है?'

'माँ! अब हम कहां जाएंगे?' दूसरे बच्चे ने चिंतित होकर पूछा।

'बेटा! मैं तो अब कहीं नहीं जा पाऊंगी। क्योंकि मेरा अंत निकट आ गया है। हां... अब तुम दोनो यहाँ से दूर जंगल में चले जाओ, जहां मनुष्य की छाया नहीं पड़ी हो ।'

नपुंसक

पश्चिमी संस्कृति में रची बसी किरण की शादी, उसके माता-पिता किसी भारतीय लड़के से करना चाहते थे। जब इसी सिलसिले में किरण अपने माता-पिता के साथ अमेरिका से भारत आई और कुछ दिनो बाद जब वह अपनी एक भारतीय सहेली सुधा से मिलने उसके घर गई, तो उसकी सहेली ने उससे पूछा- 'किरण ! मुझे आज तेरी मम्मी ने फोन पर बताया था कि तूने अभिषेक के साथ शादी करने से इंकार कर दिया है। तूने ऐसा क्यों किया? जबकि वह तो बहुत ही अच्छा लड़का है।'

'क्योंकि वह नपुंसक है।'

'नपुंसक है! तुझे कैसे मालूम पड़ा यार कि वह नपुंसक है?'

'क्योंकि मैं उसके साथ चार दिन पहले एक गार्डन में घूमने गई थी, तीन दिन पहले नाइट शो मूवी देखने गई थी और दो दिन पहले ही उसके साथ उसके बेडरूम में एक घंटे तक अकेली भी थी। लेकिन उस शख्स ने मेरे साथ इन तीनों जगहों पर ऐसी कोई हरकत नहीं की कि जिससे मुझे ये पता चल सके कि वह मर्द है।'

'किरण! ये भारत है, तेरा अमेरिका नहीं। भारतीय संस्कृति में शादी से पहले... ।'

मेरा तीर्थ

'सुना है कि तुम तीर्थ पर गये थे?'

'सही सुना है तुमने।'

'कौन से तीर्थ पर गये थे?"

'गांव।'

'गांव! गांव कोई तीर्थ होता है क्या?'

'हां...'

'वो कैसे?'

'क्योंकि वहां मेरे माता-पिता रहते हैं।'

लेखक संपर्क : राम मूरत 'राही', 168- बी, सूर्यदेव नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)

मो. 9424594873

(वीणा, अक्टूबर 2021 से साभार)