(स्व.) डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी के 75वें जन्मदिन पर विशेष आलेख :
लघुकथा नगर, महेन्द्रू पटना-800006 : यह पता रहा एक लम्बे अर्से तक। कोई मकान नम्बर नहीं , गली नम्बर नहीं, बस लघुकथा नगर। यह एक ऐसे आदमी का पता रहा है, जो लघुकथा में ही जागता, लघुकथा में ही स्वप्न देखता। यह लघुकथा का वह सूत्रधार रहा , जिससे भारत भर के लघुकथाकार, समीक्षक, समर्थक, स्थापित साहित्यकार, नवोदित रचनाकार, राजनेता, पत्रकार, विरोधी सभी जुड़े हुए रहे। जोड़ने का मंच था--अखिल भारतीय लघुकथा मंच। यहाँ दिए जाने वाले सम्मान के लिए हवाई यात्रा करके जाना भी लेखक सौभाग्य समझते थे। इनका आवास देश भर के लेखकों का एकमात्र अड्डा था, जहाँ बैठकर लघुकथा के प्रचार- प्रसार की योजनाएँ बनतीं, क्रियान्वित होतीं, वार्षिक सम्मेलन में देश भर के प्रतिष्ठित, नवोदित लेखक आते, सम्मान पाते। बहुत से नवोदित जुड़ते, अपने को धन्य समझते। कुछ ऐसे भी थे जो सीख लेते, तो धरती पर पैर नहीं टिकते और कुछ दिनों में उड़न छू हो जाते। वे बहुत जल्दी ही भूल जाते कि किसी ने नन्हे-से पौधे को सींचकर पल्ल्वित -पुष्पित किया है। अवसरवादी लेखक दूर होते ही विरोधी बन जाते। साहित्य में ऐसे अहसान फ़रामशों की संख्या न तब कम थी और न अब कम है। कमज़ोर व्यक्ति अगर कुछ नहीं करेगा, तो विरोध तो ज़रूर करेगा। पुनः इस बात पर बल दूँगा कि अपने लेखकीय समय की आहुति देकर कितने लोग दूसरों का हित सोचेंगे! यह प्रश्न विचारणीय है। लगातार धोखा खाने पर भी, अपनी ढलती उम्र और कमज़ोर स्वास्थ्य के साथ भी पुष्करणा जी नए लोगों को प्रोत्साहित करने में लगे हैं। पुराने लोगों को आज भी अपने साथ जोड़े हुए हैं। मैं इनको केवल लेखक नहीं कहूँगा, केवल सम्पादक नहीं कहूँगा। ये लेखकों के लेखक और सम्पादकों के भी सम्पादक हैं। अपने सम्पादन में नवोदितों की साधारण रचनाएँ भी इसलिए छापीं कि आज जैसा लिख रहे हैं, कल नए अनुभव अर्जित करके उससे बेहतर लिखेंगे। मैं ऐसे नवोदितों का साक्षी हूँ, जिन्होंने लघुकथा का बेसिक इनसे सीखा, आज अच्छा लिख रहे हैं।
वर्ष 1983 में आपने ‘लघुकथा : बहस के चौराहे
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु |
इनकी बहुत-सी लघुकथाओं पर बहुत सारे लेखक चर्चा-परिचर्चा, समीक्षा कर चुके हैं। मेरा आशय इस लेख में न उनका पिष्ट-पेषण करना है, न कोई परिणाम प्रस्तुत करना है। कुछ लघुकथाओं का स्पर्श मात्र करना है, ताकि उनकी अन्तर्वस्तु का संकेत भर कर सकूँ। पुष्करणा जी किसी सम्भ्रान्त वर्ग क्रे प्रतिनिधि लेखक नहीं हैं। वे सामान्य या मध्यम वर्ग के लेखक हैं। यही उनका मुख्य परिवेश है। मध्यम वर्ग सपने उच्च वर्ग के देखता है, उन सपनों को पूरा करने के लिए रात-दिन मरता-खपता है, झगड़ता है, बेईमानी भी करता है, लेकिन ईमानदारी की आश्रयस्थ्ली भी यही बनता है। त्याग करने में भी पीछे नहीं रहता। इनकी लघुकथाओं में घर-परिवार, पत्नी-पुत्र, पुत्री आदि, दफ़्तर के अधिकारी, बाबू, वह सामान्य व्यक्ति भी है,जो केवल भीड़ का एक हिस्सा भर है। इस सामान्य व्यक्ति का सपना सिर्फ़ दो जून की रोटी, सिर ढकने को जैसी-तैसी छत, गुज़ारे के लिए कोई भी काम। कोई काम इसके लिए छोटा नहीं है। अपने काम को ईमानदारी से निभाना इसका संस्कार है। यह उस पूँजीपति वर्ग की तरह नहीं है, जो सरकार से भारी-भरकम ॠण लेकर हज़म कर जाता है और बाद में किसी तिकड़म से दिवालिया होने का स्वाँग करता है। यह उन नेताओं में से भी नहीं है, जो सत्ता की खेती को साँड बनकर चरते रहते हैं; जिन्हें सत्ता केवल चारा नज़र आती है।
सबसे पहले मानवता की पोषक लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूँगा। ‘सहानुभूति’ वर्कशॉप के अधिकारी और कर्मचारी रामू दादा पर केन्द्रित है। अधिकारी कड़क है, तो कर्मचारी रामू दादा भी कम नहीं। वह अधिकारी की डाँट के प्रत्युत्तर में कहता है कि जो कहना हो वह लिखकर कहें या पूछें। लिखित कार्यवाही करके कर्मचारी के बीवी-बच्चों के पेट पर लात मारना अधिकारी का आशय नहीं है, वह कर्मचारी को ही खरी-खोटी सुनाना उचित समझता है। अधिकारी को सबक सिखाने की बजाय अधिकारी ने ही रामू दादा को सबक सिखा दिया। इस तरह की एक लघुकथा है ‘वापसी’। कैसी वापसी, कहाँ से वापसी? जेबकतरे ने पर्स चुराया। उसे पुलिस का भी संरक्षण प्राप्त है। जेबकतरे ने पैसे सहेज लिये। पर्स को और उस पर्स में पड़े कागज को फेंक दिया। फिर न जाने क्या सोचकर कागज़ को उठा लिया। वह एक पत्र था। पढ़ा तो पता चला कि उस पत्र में माँ को पैसे भेजने की बात लिखी है। पत्र पढ़कर जेबकतरा प्रभावित हुआ और उस राशि को जिसकी जेब काटी थी, उसकी माँ तक पहुँचाने की व्यवस्था में जुट गया। यह मानवीय संवेदना की अच्छी लघुकथा है। इसके साथ लेखक का यह सन्देश भी निहित है कि हर बुरा आदमी हर समय बुरा नहीं होता। विषम परिस्थितियाँ उसे बुंरा बनाने के लिए बाध्य करती हैं। यह व्यावहारिक सत्य है कि परिस्थितिवश अच्छा आदमी भी बुरा कार्य कर सकता है। ‘माँ’ लघुकथा में अनजान वृद्धा द्वारा ठिठुरते हुए व्यक्ति को अपना शॉल दे देना उसके ममत्व को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है। माँ का यह ममत्व अनेक रूप में सामने आ सकता हैं ; क्योंकि उसका एक चेहरा नहीं होता।
समाज का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले मीडिया का असली रूप ‘भीतर की आग’ में दिखाई देता है। समाचार -पत्र जिस पवित्रता की दुहाई देकर अच्छा बनना चाहते हैं, उसके भीतर का सच कुछ और ही है। जिसमें सही काम करने की आग है, उसका जीवन कुछ और ही है। सुदीप को अखबार का सम्पादक व्यावहारिक होने के लिए कहता है। यही व्यावहारिकता दुनियादारी है। सुदीप को यह दुनियादारी स्वीकार नहीं है। ‘ऊँचाई’ में एक बूढ़े , गरीब अध्यापक की कथा है, जो सहायता की आशा से अपने पुराने शिष्य के पास जाते हैं। शिष्य गुरु जी का आशय समझकर अपनी आर्थिक तंगी का रोना शुरू कर देता है। गुरु सहज आत्मीयतावश शिष्य की सहायता के लिए तत्पर हो जाता है। गुरु का आत्मीय अग्रह देखकर शिष्य लज्जित हो उठता है। ‘उपहार’ लघुकथा में गुरु का आदर्श रूप सामने आता है। शिष्या के उत्तीर्ण होने पर ट्यूशन के रूप में ली गई राशि वापस करते हुए शिक्षक कहते हैं-इन पैसों से तुम आगे की पढ़ाई जारी रख सकती हो।
पारिवारिक जीवन की लघुकथाओं में आत्मिक सम्बन्ध, परिवार के सदस्यों के बीच आपसी समझ, वैचारिक असन्तुलन, दो पीढ़ियों में अन्तर , बड़ों की उपेक्षा आदि कई मुद्दे सामने आते हैं। इन लघुकथाओं में भावनाओं का यथार्थ, भविष्य निधि, आत्मिक बन्धन, दीप जल उठे, बीती विभावरी, आकांक्षा, नई पीढ़ी, पिघलती बर्फ़, चूक, विश्वास आदि प्रमुख हैं। ‘भावनाओं का यथार्थ’ का बेटा जिस खण्डहर होते मकान को बेचना चाहता है, उस मकान से पिता की भावनाएँ जुड़ी हैं। पिता अपनी बुढ़ापे की स्थिति और मन:स्थिति बतातकर पुत्र को निरुत्तर कर देता है। ‘भविष्य निधि’ जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है-हमारे वर्त्तमान के कर्म ही हमारी भविष्य-निधि है। इस भविष्य-निधि में हम जितने सुकर्म मिलाएँगे , हमारे सुख-सन्तोष का कोश उतना ही बढ़ता जाएगा। आत्मिक बन्धन , बीती विभावरी,आकांक्षा, विश्वास दाम्पत्य जीवन की सधी हुई कथाएँ हैं , जिनमें पति-पत्नी के बीच में आए भावनात्मक उतार -चढ़ाव का सहज चित्रण किया है। इन लघुकथाओं का मूल स्वर है- विश्वास और आपसी समझ। आपसी समझ में जब दरार आती है , तो रिश्ते दरकने लगते हैं। इन जुड़ाव को बनाए रखने के लिए अहं का त्याग और समर्पण -भाव अनिवार्य कारक है।
पुष्करणा जी ने लघुकथाओं में मानसिक उथल -पुथल और भाव के स्तर पर होने वाले परिवर्तन पर गहनता से विचार करके रचनाओं को आगे बढ़ाया है। मन की पर्तें खुलने पर मनुष्य का क्या स्वरूप सामने आता है, वह अलग से मनोविश्लेषण का और अध्ययन का विषय है। काम प्रवृत्ति मनुष्य की सहज वृत्ति है। इसे पाप-भावना न समझकर संयम के द्वारा, जहाँ उदात्त रूप दिया जा सकता है, वहीं असन्तोष और असंयम से इसी विकृति की ओर भी मोड़ा जा सकता है। आग में अविवाहित युवती का नौकर के प्रति काम भावना से भरना उसे बहुत उद्वेलित कर जाता है। पुष्करणा जी ने उसके अन्तर्द्वन्द्व का बहुत सूक्ष्मता से चित्रण किया है। मृगतृष्णा लघुकथा में धनाढ्य विधुर मित्र अपने मित्र के द्वारा एक सुन्दर युवती फोटो दिखाने पर कामुकता में घिर जाते हैं , जबकि मित्र वह रिश्ता उनके बेटे के लिए लेकर आए हैं। सत्यता का आभास होते ही वे खुद को सँभाल लेते हैं। पुरुष में मार्कण्डेय जी पीछे की सीट से आते दो नारी स्वर से आकर्षित होते हैं , लेकिन मुड़कर पीछे देखने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। उनकी कल्पना में वे केवल युवा नारियाँ हैं, जिनसे वे मन ही मन जुड़ रहे हैं। उनकी मधुर कल्पना को उस समय झटका लगता है जब-‘अंकल प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!’ का स्वर उनके कानों से टकराता है। ‘अच्छा बेटा’ कहकर वे स्वयं को उस काम-कुण्डली से मुक्त कर लेते हैं।
‘निष्ठा’ का विषय नया है। पत्नी के मन में फ़िल्म के सन्दर्भ में उभरी आशंका का निवारण किया गया है। ‘उधेड़बुन’ लघुकथा की मानवती वर्षा और भीगने की ठिठुरन से पीड़ित की सहायता करना चाहती है; लेकिन उसका मन तरह -तरह की आशंकाओं में घिरने लगता है। इस तरह के प्लाट पर लघुकथा लिखना बड़ी चुनौती है। आत्मसंघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व के बीच झूलती हुई मानवती किसी काम भावना से पीड़ित नहीं है, लेकिन उस समय के एकान्त में अकेली नारी को अपने अस्तित्व की भी चिन्ता है, जिसे प्रौढ़ तार-तार कर सकता है। इन सभी उद्वेगों से उद्वेलित होते हुए भी वह पति के कपडे देकर सहायता करती है, चाय भी पिलाती है। इस अवधि में उसका मन तरह -तरह की आशंकाओं के बीच आन्दोलित होता रहता है। ‘रक्तबीज’ में आपने भ्रष्ट नेता की वासना का चित्रण किया है, जिनके लिए हर औरत केवल भोग्या है। ‘नेता कभी बूढ़े नहीं होते’- यह संवाद वासना के मकड़जाल का पर्दाफ़ाश कर देता है। मदद के नाम पर ये कितनी ही महिलाओं को अपना शिकार बनाते हैं। इस लघुकथा का शीर्षक ‘रक्तबीज’ बहुत सार्थक है। शुम्भ-निशुम्भ के साथी रक्तबीज को शिव से वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की जितनी बूँदें धरती पर गिरेंगी , उनसे उतने ही राक्षस पैदा हो जाएँगे। इस सन्दर्भ में लघुकथा का यह शीर्षक पूरी लघुकथा की कुंजी के रूप में काम करता है। इसी कड़ी में मन के साँप के नायक को पत्नी की अनुपस्थिति में कभी ऑफ़िस की मिसेज सिन्हा का सौन्दर्य विचलित करता है, कभी वह नौकरानी को आवेगभरी दृष्टि से निहारता है। सब काम निपटाकर वह दूसरे कमरे में सोने चली जाती है, तो निद्रामग्न होने पर चुपके से उसे निहारता है। पुष्करणा जी ने मालिक के मन में उभरती हुई वासना को ‘मन के साँप’ द्वारा बड़ी कुशलता से रूपायित किया है।
आपने अपने लघुकथा-विषयक लेखों से, विभिन्न सम्मेलनों में अपने चिन्तन से लघुकथा -जगत् को एक दिशा दी है और आज भी दे रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उसी तत्परता से आप कारुय करते रहेंगे। एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि इनकी कर्मठता से सभी नए-पुराने साथियों को कुछ सीखना चाहिए।
(साभार : लघुकथा डॉट कॉम, अक्टूबर 2021)