प्राकृतिक भूलभुलइयाँ चित्र : आकाश अग्रवाल |
विगत 2 सितम्बर 2015 को भाई बलराम अग्रवाल के ब्लॉग ‘जनगाथा’ पर पोस्ट हुआ
माननीय डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी का आलेख ‘हिन्दी लघुकथा का ‘दिल्ली दरवाजा’ पढ़ा। बलराम अग्रवाल ने इस आलेख का लिंक
फेसबुक पर‘लघुकथा साहित्य’ समूह पर भी डाला। शायद इसी कारण फेसबुक पर सक्रिय बहुत से
लेखक-आलोचक इसे पढ़ सके। इस आलेख के माध्यम से दिल्ली के लघुकथाकारों व लघुकथा
साहित्य के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए कार्य से परिचित करवाने के लिए माननीय
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी व बलराम अग्रवाल का बहुत-बहुत धन्यवाद।
अपने उक्त आलेख के अंत मे
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे लिखते हैं:
‘प्रस्तुत आलेख
का पटाक्षेप करने से पूर्व बजरिये इसी आलेख के वर्तमान हिन्दी लघुकथा के
रूप-स्वरूप पर नये सिरे से बहस-मुबाहिसा की बात स्थापित लघुकथाकारों से करना चाहता
हूँ। गोकि आजकल ताबड़तोड़ लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। किसी विधा पर किया जाने वाला
अधिकाधिक लेखन ही उस विधा को विनाश का फलक भी देता है। वर्चस्वशुदा लघुकथाकार अपने
बेबाक वक्तव्यों से लघुकथा में कदम रखने वाले नवागन्तुकों को सचेत करें। गोकि फूहड़
और स्तरहीन लघुकथाओं के संग्रह/संकलन की भूमिका लिखने से बचें। लघुकथा लेखन की
दिशा में प्रवेश करने के निमित्त हिन्दी लघुकथा का ‘दिल्ली दरवाजा’ खुला हुआ है।
हिन्दी लघुकथा लेखन की वैतरणी पार करने के लिए हम दिल्ली के लघुकथाकारों को जानें, समझें, पहचानें।
कम-अज-कम उनको पढ़ें, उनके अवदानों को समीप से देखें। लघुकथा के प्रति उनकी
रागात्मक संवेदना अथवा संवेदनात्मक राग पर विचार करें। यही शुभ-सोच लघुकथा विधा को
मानक प्रदान करेगी।’
मुझे ऐसा लगता है कि डॉ. पुरुषोत्तम दुबे के आलेख का यह
अंतिम पैरा कुछ लेखकों-आलोचकों को परेशान कर रहा है। इसी पैरा से आहत दिख रहे माननीय
योगराज प्रभाकर जी ने दिनांक 4 सितम्बर को ‘लघुकथा साहित्य’समूह पर ही अपना उग्र आक्रोश एक छोटी-सी आलेखात्मक पोस्ट द्वारा जाहिर किया।
मेरे विचार में साहित्य के क्षेत्र में हर व्यक्ति के, चाहे वह लेखक हो, पाठक हो
या आलोचक हो, अपने विचार होते हैं। अपना अनुभव होता है। सभी को अपने विचार व्यक्त
करने का अधिकार है। मेरी निगाह में डॉ. दुबे के आलेख में ऐसा कुछ भी नहीं है,
जिससे लगता हो कि वे लघुकथा का अहित चाहते हैं। ‘लघुकथा उन्नयन’ के लिए डॉ. दुबे का मार्ग
योगराज प्रभाकर जी के मार्ग से अलग हो सकता है। भारत की आज़ादी के लिए महात्मा
गाँधी अपने ढंग से लड़े और भगतसिंह-चंद्रशेखर आदि अपने ढंग से। दोनों के ही योगदान
को भुलाया नहीं जा सकता।
मेरे विचार में ‘ताबड़तोड़’ तो वहीं लिखा जाlता है, जहाँ नियम या तो तय नहीं है या फिर अनुशासनहीनता
होती है। छंदबद्ध कविता से छंद रहित कविता अधिक लिखी जा रही है जिसका नाम लेने भर
से आज का प्रकाशक भाग खड़ा होता है। ग़ज़ल का मापदण्ड तो और भी सख्त है फिर भी
बहुत से संपादक अपनी पत्रिका में उसे छापने से मना कर देते हैं। हाइकू को 5-7-5 के
पैमाने से हटकर लिखिए, फिर पता चलेगा कि उस हाइकूकार का कितना स्वागत होता है।
हाइकू के क्षेत्र में भी सक्रिय संपादक अनाड़ी लेखकों के हाइकू रद्दी की टोकरी में
डाल रहे हैं।
अपनी पोस्ट में माननीय योगराज प्रभाकर जी जिसे‘जुमा-जुमा आठ दिन’ कहते हैं वे आठ दिन पचास नहीं
तो पेंतालीस वर्ष तो हो ही गए हैं। लगभग आधी सदी का बीत जाना बहुत अधिक नहीं, तो
बहुत कम समय भी नहीं होता। ‘नवांकुरों को नज़रंदाज़ करो’ जैसी बात न दुबे जी ने अपने आलेख में
कही, न मेरे विचार में कोई और कह रहा है। बात तो लेखन की है व्यक्ति की नहीं। डॉ.
दुबे ने लिखा है—‘फूहड़ और स्तरहीन लघुकथाओं के संग्रह/संकलन की भूमिका लिखने
से बचें।’और अगर वरिष्ठ जन इससे नहीं बचेंगे तो प्रभाकर जी जैसे
प्रखर समीक्षकों को सदैव यह कहने का अवसर मिलेगा कि ‘साहित्यिक
गलियारों में लघुकथा को आज भी चुटकुला कहने और माननेवालों की कमी नहीं है।’
मेरे विचार में न तो कोई किसी के लिखने पर पाबंदी लगा सकता
है और न ही उसे निरुत्साहित कर सकता है। जिस लेखन में दम है, उसे आगे बढ़ने से कोई
नहीं रोक सकता। डॉ. पुरुषोत्तम दुबे भी अपने आलेख मे लिखते हैं—‘खेमेबाजियाँ और
झण्डाबरदारी के आरोप-प्रत्यारोप कब और किस युग में नहीं लगे? लेकिन परिपक्व
लेखन पर क्या कभी कोई उँगली उठ सकी है?’
एक बात के लिए मैँ माननीय योगराज प्रभाकर जी को धन्यवाद
देना चाहता हूँ। उनकी यह पोस्ट पढ़कर बहुत-से लघुकथाकारों ने अपने मन की बात कह दी, जिसे कहने में उससे पहले वे थोड़ी
झिझक महसूस कर रहे होंगे। इन रचनाकारों की टिप्पणियों को देखकर मुझे लघुकथाकारों
को दो भागों में बाँटना पड़ेगा। पहले मुझ जैसे,जो पिछले 30-35-40 साल से लघुकथा
लेखन में हैं, इन्हें मैं केवल उम्र व अनुभव के लिहाज से ही ‘सीनियर’ कह लेता हूँ।
दूसरे वे, जो गत कुछ माह से लेकर चार-पाँच वर्षों से ही लघुकथाएँ लिख रहे हैं।
उन्हें केवल उम्र व अनुभव के आधार पर ही अगर मैं ‘जूनियर’ कह दूँ तो शायद ही किसी
को एतराज होगा।
यहाँ ‘जूनियर्स’ की टिप्पणियों
से ऐसा आभास हो रहा है कि ‘सीनियर्स’ उनका मार्गदर्शन न कर ‘उत्साहमर्दन’ कर रहे हैं। सीनियर्स
द्वारा किसी-किसी की तो अच्छी-भली स्तरीय लघुकथाओं का ही गला घोंट दिया जा रहा है।
भेदभाव के आरोप भी लग रहे हैं। मुझे तो ऐसा लगा जैसे यहाँ ‘जूनियर’ही ‘सीनियर’ का मार्गदर्शन कर रहे हैं,
समझा रहे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए! मुझे तो लगता है कि वे
लघुकथा विधा के बारे में सीनियर्स से अधिक जानते हैं। माननीय सुमीत चौधरी की निम्न टिप्पणी मेरी बात की गवाही दे
रही है—‘मुझे तो लगता है कई नवोदित
रचनाकार इन स्थापित रचनाकारों से अच्छा लिख रहे हैं...बहुत सारे
स्थापित रचनाकार लघुकथा लेखन में उनकी जैसे इच्छा तोड़-मरोड़ कर लिखते जा रहे हैं... कई पुस्तकें/रचनाएँ इसकी गवाह
है...उनके द्वारा लघुकथा का रूप भी बिगड़ रहा है... नवोदित कहीं
लघुकथा लेखन में स्थापित को पीछे न छोड़ दें तो मन में डर तो
स्वाभाविक ही है.... आदरणीय योगराज जी सर सही कह रहे हैं... उनकी इस बात को
हम सभी की सहमति है...’
फेसबुक पर ‘लघुकथा साहित्य’ से अलग भी लघुकथा के कई समूह
सक्रिय हैं और जहाँ तक मेरी जानकारी हैं उनके सदस्यों की संख्या ‘लघुकथा साहित्य’ समूह के सदस्यों की संख्या
के मुकाबले बीसगुना तक अधिक है। वहाँ पर पोस्ट रचनाओं को यहाँ के सदस्यों की कुल
संख्या से कहीं अधिक लेखक-आलोचक पढ़ते हैं, चार-पाँच सौ तक ‘लाइक’ का बटन दबाने वाले होते
हैं और सौ से अधिक टिप्पणियाँ भी हो जाती हैं। मेरे विचार में जिन लेखकों को लगता
है कि ‘लघुकथा साहित्य’ पर उनकी रचनाओं से ठीक
व्यवहार नहीं हो रहा, सही मार्गदर्शन नहीं हो रहा, उन्हें इस समूह पर अपनी रचनाएँ
पोस्ट करनी ही नहीं चाहिएँ। वहाँ उनका ठीक से मार्गदर्शन तो होगा ही उन्हे मानसिक संतोष
भी मिलेगा। जिस गली, घर, समूह में मेरी बात न सुनी जाती हो, मेरा अनादर होता हो,
अपनी गली, मोहल्ले के उस घर या समूह में जाना मैं तो पसंद नहीं करता।
अंत में यही कहूँगा कि अगर हम पड़ोसी के घर जाकर परिवार के
मुखिया को यह समझाएँगे कि उसे अपना घर कैसे चलाना चाहिए, तो सोच सकते हैं कि वह
हमें क्या समझेगा।
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