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‘माँ’ को केन्द्र में रखकर लिखी गई समकालीन लघुकथाओं का एक संकलन कथाकार प्रतापसिंह सोढ़ी के सम्पादन में ‘लघुकथा संसार:माँ के आसपास’ नाम से आया है। इसमें देशभर के 62 कथाकारों की 101 लघुकथाएँ संकलित हैं। ‘जनगाथा’ के इस अंक में प्रस्तुत हैं उक्त संकलन से कुछ रचनाएँ:
॥1॥ संबोधन/खुदेजा खान
बाहर से किसी बूढ़े भिखारी ने टेर लगाई,“माँ…ऽ…मुट्ठी दे माँ…ऽऽऽऽ…”
इतना सुनते ही वो वृद्ध महिला चावल का कटोरा ले उस बूढ़े भिखारी की झोली में डालने के लिए दौड़ पड़ती है।
एक तो ये बूढ़ा भिखारी ऊँचा सुनता है, जब तक बाहर निकलकर दिख न जाए तब तक पुकारता रहता है। उसकी पुकार से वृद्ध पुरुष खीझ उठता—“तुमने बहुत लपका लिया है उसे, असमय आकर ऐसे चिल्लाता है जैसे उसका उधार खाए बैठे हैं। इकट्ठा राशन क्यों नहीं दे देती उसको?”
वृद्ध महिला बड़ी धीरता से बोली,“इकट्ठा राशन दे भी दूँ, लेकिन वो जो ‘माँ’ बोलकर बुलाता है, उसमें बड़ी आत्मीयता झलकती है। अब अपने बच्चे तो साथ रहते नहीं, ‘माँ’ सुनने को तरस जाता है मन। कम-से-कम ये अभागा आकर मेरी ममता को तो छू जाता है।”
वृद्ध पति, पत्नी के मर्म को समझकर सम्बोधन की आर्द्रता में भीग गया।
सम्पर्क:धर्मपुरा, चित्रकूट रोड, जगदलपुर(छत्तीसगढ़)
॥2॥ मेरी प्यारी माँ/पारस दासोत
दीपावली का दिन…
“माँ! आज तो मैं मिठाई खाकर रहूँगा। माँ! राजा बाबू की सफेद मिठाई-जैसी खाऊँगा, हाँ।”
“मेरे शेर, मेरे लाल! आज नहीं…आज नहीं।”
बच्चा रोने लगा।
“राजा बेटे, रोते नहीं। ठहर, मैं अभी तेरे लिए मिठाई लाती हूँ।”
इन्हीं शब्दों के साथ माँ रसोई की ओर चली गई। थोड़ी देर बाद, माँ के हाथ में मिठाई थी।
“ले, ये ले सफेद मिठाई।”
“माँ! तू कितनी अच्छी है। क्यों माँ, ये दिवाली रोज क्यों नहीं आती?” बच्चे ने मिठाई को अपने मुँह में रखते हुए पूछा।
“आएगी-आएगी, रोज-रोज आएगी। बेटे! तू बड़ा होकर काम तो कर!”
इस उत्तर के साथ माँ पास ही रखे टिमटिमाते दिये को निहारती, गुड़-आटे से सनी अपनी अंगुलियाँ चाट रही थी।
सम्पर्क:प्लॉट नं 129, गली नं 9, क्वींस रोड, जयपुर(राजस्थान)
॥3॥ हक़ अदा कर दिया/मुइनुद्दीन अतहर
बुढ़िया के तीन बेटे थे, तीनों सरकारी विभाग में अच्छे पदों पर आसीन थे। अच्छी आय थी।
आज उनकी माँ का तीजा था। मस्जिद में क़ुरआन-ख्वानी हो रही थी। पढ़ने वालों को बाँटने के लिए लाई, चना, चिरौंजी, काजू, किशमिश तथा मिश्री मिश्रित बड़े-बड़े दाने बनाए गए थे।
दसवें तथा बीसवें में रिश्तेदारों तथा मोहल्ले वालों को खूब अच्छा-अच्छा खाना खिलाया गया। किसी परिचित ने पूछा,“मियाँ, फकीर नहीं दिख रहे हैं! क्या उन्हें नहीं बुलाया गया?”
जवाब मिला,“फकीर लोग आजकल बुलाने वालों की हैसियत देखकर आते हैं। इसलिए उन्हें नहीं बुलाया गया।”
जिस अभागी माँ को तीनों बेटों ने जीवन में कभी अच्छा खाना नहीं खिलाया, माँ को माँ की तरह नहीं रखा, आज उन तीनों बेटों ने अपनी माँ के चालीसवें में दिल खोलकर खर्च किया। रिश्तेदारों तथा मोहल्ले वालों को बिरयानी व मुर्ग-मुसल्लम खिलाया गया। जिस माँ को कभी अच्छे कपड़े नसीब नहीं हुए, आज गरीबों को उनके नाम से कपड़े बाँटे जा रहे हैं। एक छोटे-से बिना हवा-पानी वाले कमरे में रहने वाली माँ की कब्र को खूब सजाया-सँवारा गया। कब्र की पहचान के लिए माँ के नाम का संगमरमर का पत्थर भी लगाया गया तथा इत्र की खुशबू छिड़ककर गुलाब के गजरों से लाद दिया गया।
तीनों भाइयों का कहना था—“हमने अपना हक़ अदा कर दिया।”
सम्पर्क:1308, अजीजगंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर(मध्य प्रदेश)
प्रतापसिंह सोढ़ी : संक्षिप्त परिचय
प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। साहित्य की सभी विधाओं में लेखन। अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। लघुकथा संग्रह ‘शब्द संवाद’ प्रकाशित। मासिक पत्रिका ‘शहादत’ एवं ‘संप्रति’, कविता संकलन ‘काव्यकुंज’, लघुकथा संकलन ‘समप्रभ’ तथा ‘लघुकथा संसार:माँ के आसपास’ का सम्पादन।
सम्पर्क:5, सुखशान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इंदौर(मध्य प्रदेश)
मोबाइल:09753128044