‘जनगाथा’ के इस अंक में प्रस्तुत हैं मूल तेलुगु से श्रीमती पारनन्दि निर्मला द्वारा हिन्दी में अनूदित कुछ लघुकथाएँ। इनका भाषा संपादन मेरे द्वारा किया गया है और ये शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा-संकलन से उद्धृत हैं—बलराम अग्रवाल
दासी/सरे राममोहन राय
मा
-->लिक ने उसे बाजार से खरीदा था। खरीदकर लाती हुई उसने अपने मालिक को बड़े प्रेम से… ममता से देखा था। घर आने के बाद उसके तीन लड़कों और लड़कियों को, बहुओं को, पोते-पोतियों को, अड़ोस-पड़ोस के लोगों को बड़े आदर-भाव से देखा था उस दासी ने।मा
उसके बाद वह उन लोगों की विश्वासपात्र बन गई।
षडरस भोजन करने का मन होने पर उसने कभी मुँह नहीं खोला। दोनों वक्त मालिक द्वारा दिए गए दो मुट्ठी भात को ही वह बड़े चाव से खाती थी। पीने को पानी न मिलने पर, उस परिवार के सदस्यों के स्नान करने के बाद बचे हुए पानी को कटोरे में डालकर देने से, उसे वह अमृत समझकर पीती थी। उस घर के सदस्यों को देखकर वह खुशी से चहक-चहक उठती थी।
दिन बीतते गए। मकर-संक्रान्ति का त्यौहार आया। मालिक ने पितरों की तुष्टि के लिए पूजा का अनुष्ठान किया। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा भी दी। यह देख वह दासी बहुत ही आनन्दित हुई।
दूसरे दिन ‘कनुवा’* नामक पर्व मनाते हैं। मालिक ने उसे अपने हाथों में उठा लिया। यह देख, फौरन उसकी समझ में आ गया कि वे अब क्या करने जा रहे हैं! अपनी बोली में उसने गिड़गिड़ाना-रोना शुरू किया। अब तक अपने दासी होने के दुर्भाग्य पर भी संतोष था उसे, लेकिन…। मालिक को न तो उसकी भाषा ही समझ में आई और न ही उसके रोने-गिड़गिड़ाने पर उसने कोई ध्यान दिया। और तो और, घर के बाकी सब लोगों की आँखें भी मालिक द्वारा उसे हाथों में उठा लिए जाने से चमक उठी थीं।
पूजा वाली जगह पर लाकर एक तेज और बारीक धार वाले चाकू ने ‘सर्र’ से उसका गला काट डाला। ‘फस्स’ की आवाज के साथ खून का फव्वारा उसके शेष शरीर से फूट पड़ा और जमीन पर फैल गया। अलग हुई गरदन और बाकी शरीर, दोनों ही, थोड़ी देर जमीन पर फड़फड़ाकर शान्त हो गए।
बेचारी दासी!
- मांसाहारी इस पर्व पर मुर्गी की बलि देकर प्रसाद-रूप में उसका मांस खाते है।
यह है प्रजातन्त्र/श्रीचरण मित्रा
दोनों बेटों को केवल चार दिनों के अन्तराल में घर वापस आया देख माँ अन्नपूर्णा घबरा उठी। वे कोई छोटे बच्चे न थे, उन्हें वोट का हक मिले पाँच-छ: साल बीत गए थे।
“माँ…अम्मा…इस लाल कमीज को हमारे प्रेसीडेन्ट साहब ने दिया है। मैंने उनसे कहा था कि पहनने को एक कमीज दें, तो यह कमीज उन्होंने मुझे दी। इसे देकर उन्होंने कहा—देख रे, तू इसे पहनकर बिल्कुल देशभक्त लग रहा है। सब तुझे कामरेड कहेंगे। इसे पहनकर मैं मालिक के काम से उनके गाँव जा रहा था…।”
तब लाल कामरेड की तरह गए और बुझी लकड़ी की तरह वापस लौटे अपने बेटे से माँ ने पूछा—“फिर क्या हुआ?”
“मैं अपनी राह अकेला बढ़ा जा रहा था तब एक पुलिस-बाबू मुझे पकड़कर बोला—क्यों रे! कहाँ जा रहा है? नक्सलाइट है क्या? कोई खबर कहीं पहुँचाने जा रहा है?…मेरे बार-बार मना करने पर भी वह मुझे लाठी से पीटने लगा। बोला—अगर तुझको कुछ भी नहीं मालूम है तो कम्यूनिस्टों वाला यह लाल कमीज क्यों पहना है?…यों कहते हुए अपने बूट से उसने मेरे बगल में जोर का ठोकर मारा। उसके पैर पकड़कर प्रार्थना करने, गिड़गिड़ाने पर बड़ी मुश्किल से उसने मेरा पीछा छोड़ा…।”
गरीब माँ का हृदय अपने जवान बेटे की इस बेबस हालत को देखकर पानी से बाहर पड़ी मछली-सा तड़प उठा।
मारे दर्द के, दो दिनों तक वह खाना नहीं खा सका। तीसरे दिन, रिक्शा लेकर दूसरा भाई घर से निकला ही था कि चार लोग मारपीट करके जबरन उसे उठाकर ले जाने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर माँ का हृदय फट पड़ा।
“क्या हुआ बाबू…क्या हुआ रे?” पूछने पर उन चारों में से एक ने उत्तर दिया—“कया कहूँ अम्मा! विजयवाड़ा के लिए सत्याग्रह करते हमारे एक नेता को किसी ने चाकू घोंपकर मार डाला है। चश्मदीदों का कहना है कि मारने वाले ने पीला कमीज पहना था। यह भी पीला कमीज पहने है, इसलिए…”
“हाय राम! यह कैसा अंधेर है भगवान!! लाल कमीज पहनने से पुलिस वाले मरम्मत करते हैं और पीली कमीज पहनने से जनता पीटने लगती है। इससे तो अच्छे ये घर में पड़ी फटी-पुरानी कमीजें पहनकर ही रह रहे थे…।” कहती हुई बुढ़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी।
और उसके बाद फिर एक दिन—
बताए गए काम को करने में गधे की तरह लग जाने वाले उन दोनों भाइयों को चुनाव में खड़े होने वाले एक उम्मीदवार ने उनके लाख मना करने पर भी खद्दर की कमीजें सिलवाकर जबर्दस्ती पहना दीं। अब उनकी क्या हालत होने वाली है—यह तो श्रीराम प्रभु ही बता सकते हैं।
चोट खाया गणित/दार्ल तिरुपति राव
“बिटिया! कहाँ तक पढ़ी हो?”
“बी ए।”
“केवल बी ए पढ़ने से क्या होता है? बी एड भी कर लिया होता तो अच्छा होता।…कौन-सी श्रेणी में पास किया है?”
“फर्स्ट क्लास।”
“इससे क्या? असल चीज तो दिमाग है। किसी बैंक में नौकरी पाने के लिए दिमाग चाहिए, दिमाग।”
“छुट्टी के दिनों में संगीत भी सीखा है हमारी बिटिया ने।” लड़की के पिता ने कहा,“थोड़ा-बहुत ललित संगीत भी आता है इसे।”
“रेडियो-स्टेशन पर गाती है?”
“नहीं जी, रेडियो में गाने लायक नहीं आता।”
“फिर क्या फायदा? अरे, गुनगुना तो मैं भी लेता हूँ एकाध गाना। रेडियो में गाना आता हो तो नाम भी मिलता है और पैसा भी।”
“फुरसत के समय में साहित्यिक पुस्तकें या पत्रिकाएँ पढ़ने का शौक है इसको। बिना मतलब सैर-सपाटे पर निकल जाना या सिनेमा-हाल में घुस बैठना पसन्द नहीं है इसको।”
“सिर्फ पढ़ती ही है या कहानी-वहानी कुछ लिख भी लेती है?” एक ठहाका लगाते हुए उन्होंने पूछा।
“नहीं-नहीं, लिखने की आदत नहीं है जी।”
“हूँ…ऽ…लिखने की आदत नहीं है! अभी कहानियाँ लिख रही होती तो आगे उपन्यास भी लिख सकती थी। निर्माता लोग उपन्यासों के आधार पर ही फिल्में बनाते हैं। अरे हाँ, एक बात पूछना तो मैं भूल ही गया। उम्र कितनी है इसकी?”
“पच्चीस पूरे कर चुकी है…”
“इसका मतलब कि सेन्ट्रल गवर्नमेंट, बैंक आदि में आवेदन करने की तो इसकी उम्र निकल गई। अब तो ज्यादा-से-ज्यादा किसी जगह पर ‘सेल्स गर्ल’ का काम ही कर सकती है। ठीक है, मैं अब चलता हूँ। देख तो लिया ही है न, निर्णय की सूचना हम आपको पत्र द्वारा दे देंगे।”
लड़की का पिता अभी कुछ-और बातें करना चाहता था, लेकिन वे सज्जन उठ खड़े हुए और बाहर निकल गए।
कुछ ही दिन बाद वह लड़की एक राष्ट्रीयकृत बैंक में प्रोबेशनल ऑफीसर के पद पर चुन ली गई। उड़ते-उड़ते यह बात उन लोगों तक भी जा पहुँची। एक दिन, लड़की बताने वाले बिचौलिए से रास्ते में उनकी भेंट हो गई। उसे बीच में ही रोककर उन्होंने पूछा,“अरे हाँ, उस लड़की का रिश्ता कहीं हुआ या नहीं?”
“किस लड़की का?” बिचौलिए ने पूछा, हालाँकि वह समझ चुका था कि वे किस लड़की के बारे में पूछ रहे हैं। वे भी इस बात को भाँप चुके थे, फिर भी शर्म को ताक पर रखकर उन्होंने अपनी बात स्पष्ट कर दी।
“जहाँ तक मुझे मालूम है, उसका विवाह अभी तक नहीं हुआ है।” बिचौलिए ने उन्हें बताया।
“क्यों?” अनजान बनते हुए उन्होंने पूछा, फिर आगे बोले,“उस लड़की की जन्मपत्रिका से मेरे बेटे की जन्मपत्रिका शत-प्रतिशत मिलती है। उसने न जाने कितनी लड़कियाँ देखीं, लेकिन उसे बस यही लड़की पसंद है…पता नहीं क्यों?”
“लेकिन वह लड़की तो फिलहाल विवाह नहीं करना चाहती है।” बिचौलिए ने कहा।
“क्यों भला? शादी-ब्याह से विरक्ति हो गई है क्या?”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।” बिचौलिया बोला,“उसके स्वयंवर में अनेक राजकुमार उसके कदमों पर आ झुके हैं। अपने योग्य ही लड़का मिलने तक वह रुके रहना चाहती है, बस।” यह कहते हुए बिचौलिया बिना उनसे विदा लिए आगे बढ़ गया।
स्पर्श/कान्ड्रेगुल श्रीनिवास राव
धीमी गति से चलती उस लॉरी के पीछे दौड़ते हुए शेषगिरि ने ड्राइवर से पूछा,“यह तगरपुवलसा जाएगी?”
“तीन रुपए लगेंगे।” उसके स्थान पर क्लीनर ने कहा।
शेषगिरि ने आगा-पीछा न देखा। एक पल भी व्यर्थ किए बिना वह लॉरी में चढ़ गया। लॉरी तेज गति से दौड़ने लगी। चलते-चलते वह अक्किवेड्डिपालेम को पार कर गण्डगुण्डा के समीप पहुँच रही थी। सफेद साड़ी पहने हाथ में टोकरी लिए एक युवती को लॉरी रोकने का इशारा करते देख ड्राइवर ने लॉरी को सड़क के किनारे खड़ा कर दिया।
“कहाँ जाना है?” क्लीनर ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।
“चिट्ठीवलसा जाना है।” गाड़ी पर चढ़ने का उद्यम करते हुए युवती बोली।
उसे अपनी सीट की ओर आता भाँपकर शेषगिरि थोड़ा सिकुड़कर बैठ गया। वह बोनट पर बैठ गई। लॉरी चल दी। शेषगिरि की एक ही कमजोरी थी—स्त्री के सौन्दर्य को आँखों से पी जाना।
ड्राइविंग में निमग्न ड्राइवर, खिड़की के बाहर झाँकता क्लीनर और कन्धे से खिसककर बार-बार नीचे गिरता उस युवती का आँचल—सभी शेषगिरि के लिए सहायक सिद्ध हुए। वह उसके उन्नत वक्षस्थल को देखता हुआ भरपूर आनन्द का उपभोग कर रहा था। लगातार उसे देखते रहने से उसके मन में कामेच्छा उत्पन्न हो गई। उसे आलिंगनबद्ध कर उसके स्तनों का भरपूर स्पर्श करने की अपनी भावना को उसने बड़ी मुश्किल से दबाया। युवती का ध्यान उसकी ओर था ही नहीं। उसकी दृष्टि-चेष्टाओं से अनजान वह सामने से क्रॉस करती अन्य गाड़ियों को देखने में मग्न थी।
शेषगिरि की मानसिक हालत लगातार बिगड़ रही थी। कामेच्छा बलपूर्वक उस पर अधिकार जमा लेना चाहती थी। लॉरी जितनी तेजी से दौड़ रही थी, उतनी ही तेजी से शेषगिरि के भावनाएँ भी भड़क रही थीं। अचानक सड़क के मोड़ पर अत्यन्त तेजी से आती एक अन्य लॉरी को देखकर ड्राइवर ने जोरों से ब्रेक को दबाया, लेकिन वह दुर्घटना को टाल नहीं पाया। टायर ‘की…ऽ…च-की…ऽ…च’ की आवाज में चिल्ला उठे। दोनों वाहन टकरा गए। यह सब पल-भर में ही हो गया। जनता के हाथों पिटाई होने के डर से दोनों लॉरियों के ड्राइवर और क्लीनर लॉरियाँ छोड़कर भाग खड़े हुए। टूटे काँच के टुकड़ों से शेषगिरि को काफी गम्भीर चोटें लगीं। माथे से खून धारा-प्रवाह बहने लगा था। अचेतावस्था हावी होने के कारण उसकी पलकें झपकी जा रहीं थीं।
बोनट पर बैठी उस युवती को भी चोटें आई थीं, लेकिन अपनी चोटों पर ध्यान न देकर उसने शेषगिरि को थाम लिया। उसके माथे से बहते खून को अपने आँचल से पोंछकर उसने घाव को हथेली से दबा लिया। धीरज और साँत्वना देते हुए उसने उसके सिर को अपनी छाती में दबा लिया।
उसके कोमल स्पर्श को पाकर शेषगिरि ने बलपूर्वक अपनी आँखें खोलीं। माँ की छाती पर सिर रखकर थकान मिटाने-जैसा सुख उसने महसूस किया और बालकों-जैसी दृष्टि से आभारपूर्वक उसे निहारते हुए सहसा अचेत हो गया।
आम आदमी/वेलचेटि सुब्रह्मण्यम
उन्होंने ऐसा क्यों किया?
विश्वास कीजिए, भरे हॉल में हर व्यक्ति स्तब्ध रह गया था। दरअसल, उनके इस कृत्य पर विश्वास किया ही नहीं जा सकता था। अगर किसी सामान्य व्यक्ति ने ऐसा काम किया होता तो अलग बात थी, लेकिन यह तो साक्षात् महामहोपाध्याय द्विवेदुल संगमेश्वर शास्त्री गारू ने किया था। इसीलिए तो यह आश्चर्य का विषय बन गया था।
वास्तव में हुआ यह कि एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिका द्वारा आयोजित ‘बहुभाषा कहानी प्रतियोगिता’ में प्रथम पुरस्कृत शास्त्रीजी की कहानी को घोषित किया गया था। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित शास्त्रीजी की रचना को इस पुरस्कार का मिलना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उल्टे, इस प्रतियोगिता के लिए शास्त्रीजी जैसे महान लेखक का रचना भेजना ही पत्रिका के लिए गरिमा की बात थी। पत्रिका द्वारा आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह में उनके उपस्थित होने ने उसे भव्यता प्रदान कर दी थी। सारा कार्यक्रम ठीक-ठाक ही चला था, लेकिन शास्त्रीजी का वह अचानक व्यवहार किसी की समझ में नहीं आया।
पुरस्कार प्राप्त करने से पूर्व अपना वक्तव्य देते हुए उन्होंने घोषित किया—“सच कहा जाय तो इस सत्कार, सम्मान और पुरस्कार का अधिकारी मैं नहीं हूँ। इस कहानी को मैंने नहीं मेरे घर पर काम करने वाले एक युवक ने लिखा है। अत: मेरा अनुरोध है कि राज्यपाल महोदय के द्वारा ओढ़ाया जाने शाल, दिया जाने वाला सम्मान-पत्र और पुरस्कार की राशि का चेक—मुझे नहीं, मेरे साथ आए उस युवक को ही मिलने चाहिएँ। हुआ वस्तुत:यह था कि छ:-सात पत्रिकाओं ने इस सुन्दर कहानी को जब लौटा दिया तब इस साहित्यिक समाज पर इस सत्य को जतलाने के लिए ही मैंने अपने नाम से इस कहानी को इस प्रतियोगिता हेतु भेज दिया था।…”
इस वक्तव्य के रूप में अपनी बात कहकर वे अपने आसन पर जा बैठे थे। समारोह में उपस्थित इने-गिने संपादकों के सिवा कोई ऐसा नहीं था, जिसके मुँह से ‘वाह’ न निकल पड़ी हो।
असहनीय शोर/भामिडि पाटि रामगोपालम
एक मकान के मालिक से सुब्बाराम की भेंट हुई। वह किराए के लिए मकान लेने उसके घर गया था। मकान उसको पसंद आया और मालिक ने देना भी स्वीकार कर लिया। लेकिन
-->कहा,“एक बात पूछनी है—आपके यहाँ कुत्ता तो नहीं है ना?”
“नहीं…नहीं है।” सुब्बाराम ने कहा।
“रेडियो या टी वी है?”
“जी, नहीं।”
“ग्रामोफोन या स्टीरियो सेट?”
“वह भी नहीं है।”
“संगीत सीखने वाली बहनें या हारमोनियम जैसा कोई बाजा?”
“नहीं हैं।”
“अलार्म देने वाली घड़ी?”
“नहीं।”
“छोटी-छोटी बातों पर रो पड़ने वाले बच्चे?”
“नहीं, हमारे अभी बच्चे नहीं हुए हैं।”
“अच्छी बात है।” मकान-मालिक ने कहा,“मेरे कहने का मतलब यह नहीं था कि आप नि:संतान रहें। दरअसल बात यह है कि मुझे शोरगुल बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं है।…आप कल ही इस घर में शिफ्ट कर सकते हैं।”
उसकी रजामंदी पाकर सुब्बाराम गेट तक गया, फिर लौटकर बोला,“साहब, एक विनती है।”
“कहिए।”
“मेरे पास एक पेन है जो मेरे पिताजी ने मुझे दिया था। लिखते समय वह पेन बर्र-बर्र की आवाज करता है। दिन में तो कुछ पता नहीं चलता है, लेकिन रात में आवाज जरूर आती है।
-->मैं लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हूँ। मैंने सोचा कि मुझे पहले ही यह बात आपको बता देनी चाहिए इसलिए…। आपको कोई एतराज तो नहीं है न?”
बस, सुब्बाराम को वह मकान किराए पर नहीं मिला।
टेस्ट/वाई के मूर्ति
श्रीराम की शादी हाल ही में हुई थी। उसने एलूर में पत्नी के साथ नया घर बसाया था।
“बाप रे बाप! क्या गर्मी है!!” घर आते ही परेशान होते हुए उसने पंखे का स्विच ऑन किया और कुर्सी पर जा बैठा।
पंखे की हवा से मेज पर पड़ा अन्तर्देशीय पत्र उड़कर उसकी गोद में आ गिरा। उठाकर देखा तो उसे खुला पाया। पता चला कि वह आज की ही डाक से आया था। भेजने वाले की जगह पर ‘सुशीला’ लिखा हुआ था। बस, उसका पारा सातवें आसमान पर जा चढ़ा।
“सीता…ऽ…ओ सीता…!” वह जोर-से चिल्लाया।
पति की आवाज सुनकर सीता ने भाँप लिया कि वह गुस्से में है, लेकिन उसके गुस्से का कारण उसकी समझ में नहीं आया। वह लगभग दौड़ती हुई-सी आई और पति की ओर देखने लगी मानो पूछ रही हो कि क्या बात है?
“इस लिफाफे को किसने फाड़ा है?” श्रीराम बरसा।
“मैंने।” सिर झुकाए सीता ने धीमे-से उत्तर दिया।
“छि:-छि! मेनर्सलेस ब्रूट! क्या तुम्हारी अक्ल मारी गई है? तुमने इसे क्यों फाड़ा? तुम्हें यह भी पता नहीं है कि दूसरे का पत्र पढ़ना असभ्यता है? देखो, इन्सान के रूप में पैदा होना ही काफी नहीं है, मेनर्स को जानना और निभाना भी आना चाहिए। जो इन्हें निभाना नहीं जानता वह इन्सान नहीं, जानवर है जानवर।”
“बात यह है जी कि…मैंने सोचा था कि कहीं कोई अर्जेण्ट मैटर न हो…इसलिए…” आँसुओं को बरबस रोकती सीता ने भर्राए स्वर में कहा।
“क्यों झूठ बोलती हो? तुमने क्या खोलते समय यह नहीं देखा कि प्रेषक के स्थान पर ‘सुशीला’ लिखा हुआ है? तुमने सोचा होगा कि न जाने यह सुशीला कौन है! यही जानने के लिए तुमने इसे खोला। यही बात है न?”
सीता चुप रही।
“जानती हो, यह सुशीला कौन है? यह मेरी चचेरी बहन है। यहाँ से दूर अपरा में रहती है। अपना अच्छा-बुरा मुझे लिखकर अपना मन हल्का कर लेती है। तुम्हें क्या जरूरत आ पड़ी थी इसे खोलकर पढ़ने की? देखो, किसी का भी पत्र खोलकर पढ़ना मुझे कतई पसंद नहीं है। तुमको यही मेरी आखिरी चेतावनी है। जाओ।”
बिना चूँ-चाँ किए वहाँ से चली गई भारत देश की मध्यवर्गीय गृहिणी सीता! उसके चले जाने के बाद आराम से श्रीराम ने पत्र को पढ़ना शुरू किया।
एक दिन, दफ्तर की छुट्टी थी, अत: वह घर पर ही था। पत्नी अपनी बहन के घर विजयवाड़ा गई हुई थी। अभी दो दिन भी नहीं बीते थे। घर में उसका जी ऊब रहा था इसलिए वह मेटिनी शो देखने जाने के लिए तैयार होने लगा। इतने में ही ‘पोस्ट’ आवाज सुनाई दी। बाहर निकलकर उसने पोस्टमैन से चिट्ठी ली। चिट्ठी—सीता धर्मपत्नी श्रीराम के नाम थी, बाकी पता भी यहीं का था। भेजने वाले का नाम देखा—वासू लिखा था।
एकबारगी उसे झटका लगा। यह वासू कौन है? जहाँ तक मुझे मालूम है, सीता के रिश्तेदारों में वासू नाम का कोई व्यक्ति नहीं है। फिर, यह कौन है? सीता का कोई बॉय-फ्रेंड या कॉलेज-फेंड तो नहीं है? जरूर इसका सीता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा, अन्यथा इतना साहस न करता कि सीधे घर के पते पर पत्र लिख भेजता। संयोग से घर पर हूँ इसलिए यह मेरे हाथ लग गया। पता नहीं कितने अरसे से यह चक्कर चल रहा है!—यों सोचते हुए एकबारगी गुस्से से पागल हो गया श्रीराम। अन्तत: लिफाफे के मुँह को फाड़कर उसने पढ़ना शुरू किया—
‘पतिदेव को नमस्कार! आप अपने उसूल के कितने पक्के हैं, यही देखने के लिए यह एक छोटा-सा टेस्ट था। लेकिन बेचारे! इस टेस्ट में पास न हो सके। दुखी न होइए। कम-से-कम अब-से अपने उसूल को निभाने का प्रयत्न कीजिए। आप अपने उसूलों के पक्के रहें, इसीलिए देवीमाता के मंदिर में आपके नाम से पूजा-अर्चना करवा रही हूँ। तो फिर छुट्टी लूँ? आपकी पत्नी
सीता’
पत्र को पढ़कर श्रीराम बेहोश-सा हो गया।