-->दोस्तो, अपरिहार्य कारणों से ‘जनगाथा’ के मई, जून व जुलाई 2011 अंक पोस्ट नहीं किये जा सके। कारण दिनांक 7 अगस्त, 2011 को पोस्ट अपने ब्लॉग ‘अपना दौर’ (http://apnadaur.blogspot.com) में व्यक्त कर चुका हूँ अत: यहाँ भी उसे दोहराने का औचित्य नहीं है। इस बीच कुछ पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक तथा कुछ कथाकारों के लघुकथा संग्रह भी प्राप्त हुए हैं। संबंधित संपादकों व लेखकों से क्षमाप्रार्थी हूँ कि उन पत्रिकाओं-संग्रहों पर अभी तक मैं कुछ नहीं लिख सका। दरअसल, मैं उन्हें पढ़ने का समय न निकाल सका।
आज अपने प्रिय दोस्त डॉ॰ भ॰ प्र॰ निदारिया से मिलने नई दिल्ली के रामाकृष्णापुरम गया था। बाइत्तेफाक़ लंच के समय पहुँचा और वे अपनी सीट पर नहीं मिले। कुछ समय उनके कार्यालय में पड़ी कुर्सियों में से एक में बैठकर इंतजार किया तत्पश्चात बाहर निकल आया। घूमता-घामता पुरानी किताबों की एक दुकान पर जा पहुँचा। वहाँ मेरी नजर भाई जसबीर चावला का लघुकथा संग्रह ‘आतंकवादी’(2006), कृष्ण लता यादव का लघुकथा संग्रह ‘भोर होने तक’(2005), युगल के लघुकथा संग्रह ‘गर्म रेत’ तथा ‘फूलों वाली दूब’ पर पड़ी। इनमें से प्रथम दो को मैं खरीद लाया, शेष दो मेरे पास पहले से थे। तभी मुझे ‘कश्मीरी की प्रतिनिधि कहानियाँ’(सं॰ शिब्बनकृष्ण रैना, संस्करण 1990) भी दिखाई पड़ी। पन्ने पलटे तो उसमें कुछ लघुकथाएँ भी संकलित मिलीं। 45 रुपये छपे मूल्य वाली उस पुस्तक को मैं 25 रुपये देकर खरीद लाया, केवल उन कश्मीरी लघुकथाओं को आप तक पहुँचाने की खातिर। बहुत संभव है कि इन सबको या इनमें से कुछ को किन्हीं सज्जन ने पहले भी कहीं पढ़ रखा हो, लेकिन मेरा साक्षात्कार इनसे पहली बार हुआ है इसलिए इन्हें ‘जनगाथा’ के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत करने का लोभ संवरण कर नहीं पा रहा हूँ। ये लघुकथाएँ जिनसे मिलने जाने के कारण मिल पाई हैं, ‘जनगाथा’ का यह अंक उन डॉ॰ निदारिया को ही समर्पित है। प्रस्तुत हैं ‘कश्मीरी’ भाषा की 4 लघुकथाएँ—
॥1॥ राम का नाम/ हरिकृष्ण कौल
फोटो: आदित्य अग्रवाल |
इन्जेक्शन लग जाने पर उसकी पीड़ा कुछ कम हुई और उसने दाएँ-बाएँ नजर डाली। सभी के चेहरे लटक गये थे।
पति ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा—“अब तू भगवान की स्मरण कर, राम का नाम ले।”
पत्नी बिलख पड़ी—“लगता है डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। तुम सब शायद मेरे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो।”
“पाँच मिनट के लिए मान लो वही बात है। एक-न-एक दिन मरना तो सबको है। और फिर, तुमने अपनी सारी जिम्मेदारियाँ भी तो पूरी कर ली हैं। तुम्हें तो भगवद्भजन से अपार आनन्द मिलता था। याद है, रोज़ दो घण्टे तक कीर्तन-भजन किया करती थीं।”
“राम का नाम मैं नहीं लूँगी। मैं मरना नहीं चाहती।” और वह सिर पटकने लगी।