Sunday, 6 September 2015

नए पैरोकारों की भूलभुलइया में लघुकथा / श्याम सुन्दर अग्रवाल

प्राकृतिक भूलभुलइयाँ                                                      चित्र : आकाश अग्रवाल



विगत 2 सितम्बर 2015 को भाई बलराम अग्रवाल के ब्लॉग जनगाथा पर पोस्ट हुआ माननीय डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी का आलेख हिन्दी लघुकथा का दिल्ली दरवाजा पढ़ा। बलराम अग्रवाल ने इस आलेख का लिंक फेसबुक परलघुकथा साहित्यसमूह पर भी डाला। शायद इसी कारण फेसबुक पर सक्रिय बहुत से लेखक-आलोचक इसे पढ़ सके। इस आलेख के माध्यम से दिल्ली के लघुकथाकारों व लघुकथा साहित्य के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए कार्य से परिचित करवाने के लिए माननीय डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी व बलराम अग्रवाल का बहुत-बहुत धन्यवाद।
अपने उक्त आलेख के अंत मे डॉ. पुरुषोत्तम दुबे लिखते हैं:
प्रस्तुत आलेख का पटाक्षेप करने से पूर्व बजरिये इसी आलेख के वर्तमान हिन्दी लघुकथा के रूप-स्वरूप पर नये सिरे से बहस-मुबाहिसा की बात स्थापित लघुकथाकारों से करना चाहता हूँ। गोकि आजकल ताबड़तोड़ लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। किसी विधा पर किया जाने वाला अधिकाधिक लेखन ही उस विधा को विनाश का फलक भी देता है। वर्चस्वशुदा लघुकथाकार अपने बेबाक वक्तव्यों से लघुकथा में कदम रखने वाले नवागन्तुकों को सचेत करें। गोकि फूहड़ और स्तरहीन लघुकथाओं के संग्रह/संकलन की भूमिका लिखने से बचें। लघुकथा लेखन की दिशा में प्रवेश करने के निमित्त हिन्दी लघुकथा का दिल्ली दरवाजाखुला हुआ है। हिन्दी लघुकथा लेखन की वैतरणी पार करने के लिए हम दिल्ली के लघुकथाकारों को जानें, समझें, पहचानें। कम-अज-कम उनको पढ़ें, उनके अवदानों को समीप से देखें। लघुकथा के प्रति उनकी रागात्मक संवेदना अथवा संवेदनात्मक राग पर विचार करें। यही शुभ-सोच लघुकथा विधा को मानक प्रदान करेगी।
मुझे ऐसा लगता है कि डॉ. पुरुषोत्तम दुबे के आलेख का यह अंतिम पैरा कुछ लेखकों-आलोचकों को परेशान कर रहा है। इसी पैरा से आहत दिख रहे माननीय योगराज प्रभाकर जी ने दिनांक 4 सितम्बर को लघुकथा साहित्यसमूह पर ही अपना उग्र आक्रोश एक छोटी-सी आलेखात्मक पोस्ट द्वारा जाहिर किया। मेरे विचार में साहित्य के क्षेत्र में हर व्यक्ति के, चाहे वह लेखक हो, पाठक हो या आलोचक हो, अपने विचार होते हैं। अपना अनुभव होता है। सभी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है। मेरी निगाह में डॉ. दुबे के आलेख में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे लगता हो कि वे लघुकथा का अहित चाहते हैं। लघुकथा उन्नयन के लिए डॉ. दुबे का मार्ग योगराज प्रभाकर जी के मार्ग से अलग हो सकता है। भारत की आज़ादी के लिए महात्मा गाँधी अपने ढंग से लड़े और भगतसिंह-चंद्रशेखर आदि अपने ढंग से। दोनों के ही योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
मेरे विचार में ताबड़तोड़ तो वहीं लिखा जाlता है, जहाँ नियम या तो तय नहीं है या फिर अनुशासनहीनता होती है। छंदबद्ध कविता से छंद रहित कविता अधिक लिखी जा रही है जिसका नाम लेने भर से आज का प्रकाशक भाग खड़ा होता है। ग़ज़ल का मापदण्ड तो और भी सख्त है फिर भी बहुत से संपादक अपनी पत्रिका में उसे छापने से मना कर देते हैं। हाइकू को 5-7-5 के पैमाने से हटकर लिखिए, फिर पता चलेगा कि उस हाइकूकार का कितना स्वागत होता है। हाइकू के क्षेत्र में भी सक्रिय संपादक अनाड़ी लेखकों के हाइकू रद्दी की टोकरी में डाल रहे हैं।
अपनी पोस्ट में माननीय योगराज प्रभाकर जी जिसेजुमा-जुमा आठ दिन कहते हैं वे आठ दिन पचास नहीं तो पेंतालीस वर्ष तो हो ही गए हैं। लगभग आधी सदी का बीत जाना बहुत अधिक नहीं, तो बहुत कम समय भी नहीं होता। नवांकुरों को नज़रंदाज़ करो जैसी बात न दुबे जी ने अपने आलेख में कही, न मेरे विचार में कोई और कह रहा है। बात तो लेखन की है व्यक्ति की नहीं। डॉ. दुबे ने लिखा है—फूहड़ और स्तरहीन लघुकथाओं के संग्रह/संकलन की भूमिका लिखने से बचें।और अगर वरिष्ठ जन इससे नहीं बचेंगे तो प्रभाकर जी जैसे प्रखर समीक्षकों को सदैव यह कहने का अवसर मिलेगा कि साहित्यिक गलियारों में लघुकथा को आज भी चुटकुला कहने और माननेवालों की कमी नहीं है
मेरे विचार में न तो कोई किसी के लिखने पर पाबंदी लगा सकता है और न ही उसे निरुत्साहित कर सकता है। जिस लेखन में दम है, उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। डॉ. पुरुषोत्तम दुबे भी अपने आलेख मे लिखते हैं—‘खेमेबाजियाँ और झण्डाबरदारी के आरोप-प्रत्यारोप कब और किस युग में नहीं लगे? लेकिन परिपक्व लेखन पर क्या कभी कोई उँगली उठ सकी है?
एक बात के लिए मैँ माननीय योगराज प्रभाकर जी को धन्यवाद देना चाहता हूँ। उनकी यह पोस्ट पढ़कर बहुत-से लघुकथाकारों ने अपने मन की बात कह दी, जिसे कहने में उससे पहले वे थोड़ी झिझक महसूस कर रहे होंगे। इन रचनाकारों की टिप्पणियों को देखकर मुझे लघुकथाकारों को दो भागों में बाँटना पड़ेगा। पहले मुझ जैसे,जो पिछले 30-35-40 साल से लघुकथा लेखन में हैं, इन्हें मैं केवल उम्र व अनुभव के लिहाज से ही ‘सीनियर’ कह लेता हूँ। दूसरे वे, जो गत कुछ माह से लेकर चार-पाँच वर्षों से ही लघुकथाएँ लिख रहे हैं। उन्हें केवल उम्र व अनुभव के आधार पर ही अगर मैं ‘जूनियर’ कह दूँ तो शायद ही किसी को एतराज होगा।
यहाँ जूनियर्स की टिप्पणियों से ऐसा आभास हो रहा है कि सीनियर्स उनका मार्गदर्शन न कर उत्साहमर्दन कर रहे हैं। सीनियर्स द्वारा किसी-किसी की तो अच्छी-भली स्तरीय लघुकथाओं का ही गला घोंट दिया जा रहा है। भेदभाव के आरोप भी लग रहे हैं। मुझे तो ऐसा लगा जैसे यहाँ जूनियरही सीनियर का मार्गदर्शन कर रहे हैं, समझा रहे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए! मुझे तो लगता है कि वे लघुकथा विधा के बारे में सीनियर्स से अधिक जानते हैं। माननीय सुमीत चौधरी की निम्न टिप्पणी मेरी बात की गवाही दे रही है—‘मुझे तो लगता है कई नवोदित रचनाकार इन स्थापित रचनाकारों से अच्छा लिख रहे हैं...बहुत सारे स्थापित रचनाकार लघुकथा लेखन में उनकी जैसे इच्छा तोड़-मरोड़ कर लिखते जा रहे हैं... कई पुस्तकें/रचनाएँ इसकी गवाह है...उनके द्वारा लघुकथा का रूप भी बिगड़ रहा है... नवोदित कहीं लघुकथा लेखन में स्थापित को  पीछे न छोड़ दें तो मन में डर तो स्वाभाविक ही है.... आदरणीय योगराज जी सर सही कह रहे हैं... उनकी इस बात को हम सभी की सहमति है...
 फेसबुक पर ‘लघुकथा साहित्य’ से अलग भी लघुकथा के कई समूह सक्रिय हैं और जहाँ तक मेरी जानकारी हैं उनके सदस्यों की संख्या लघुकथा साहित्य समूह के सदस्यों की संख्या के मुकाबले बीसगुना तक अधिक है। वहाँ पर पोस्ट रचनाओं को यहाँ के सदस्यों की कुल संख्या से कहीं अधिक लेखक-आलोचक पढ़ते हैं, चार-पाँच सौ तक लाइक का बटन दबाने वाले होते हैं और सौ से अधिक टिप्पणियाँ भी हो जाती हैं। मेरे विचार में जिन लेखकों को लगता है कि लघुकथा साहित्य पर उनकी रचनाओं से ठीक व्यवहार नहीं हो रहा, सही मार्गदर्शन नहीं हो रहा, उन्हें इस समूह पर अपनी रचनाएँ पोस्ट करनी ही नहीं चाहिएँ। वहाँ उनका ठीक से मार्गदर्शन तो होगा ही उन्हे मानसिक संतोष भी मिलेगा। जिस गली, घर, समूह में मेरी बात न सुनी जाती हो, मेरा अनादर होता हो, अपनी गली, मोहल्ले के उस घर या समूह में जाना मैं तो पसंद नहीं करता।
अंत में यही कहूँगा कि अगर हम पड़ोसी के घर जाकर परिवार के मुखिया को यह समझाएँगे कि उसे अपना घर कैसे चलाना चाहिए, तो सोच सकते हैं कि वह हमें क्या समझेगा।
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      सम्पर्क : 575, प्रताप सिंह नगर, निकट दशमेश पब्लिक स्कूल, कोटकपूरा (पंजाब)                         मो॰ : +919478047837


Wednesday, 2 September 2015

हिन्दी लघुकथा का ‘दिल्ली दरवाजा’/डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे



डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे

तिहासिक घटनाओं और युद्धों की विभीषिकाओं के आधार पर कहा जाता है कि दिल्ली सात बार उजड़ी और सात बार बसी। इस उजड़ने और बसने के क्रम में दिल्ली के जन-जीवन में कई सांस्कृतिक परिवर्तन उपस्थित हुए। फलस्वरूप हर बार दिल्लीवासियों की सोच बदली और बदलती चली गई। इस प्रकार निरन्तरता के साथ परिवर्तित सोच का प्रभाव दिल्लीवासी रचनाकारों/लेखकों पर जबर्दस्त पड़ा। कहना न होगा कि रचनाकारों की भी पीढ़ियाँ होती हैं। फलत; उसी सोच का प्रभाव दिल्ली के रचनाकारों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी पर भी देखा गया। फिर मानो हस्तान्तरित लेखन का व्यापक सिलसिला चल निकला जो आज तक अनवरत है।

     मुझको यहाँ यह कहते हुए रश्क हो रहा है कि दिल्ली के अतीत में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों के बूते पर जिस अलहदा और खास किस्म की रचनाधर्मिता दिल्ली के सृजनकारों के हाथ लगी, उससे लेखन की दुनिया इस कदर आन्दोलित हुई कि दिल्ली फैशनपरस्त लेखकों का घर बन गई। गोकि आगे चलकर दिल्ली से जो भी लिखा आया वह हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में सहयोगी बना।

     दिल्ली का लिखा केवल दिल्ली में ही सीमित न रहकर देश और दुनिया में फैल गया। इतना ही नहीं, हिन्दी साहित्य की मान्य विधाओं के बावजूद सन् 1980 से अपने अंगदी पाँव से जमी हिन्दी लघुकथा विषयक लेखन में दिल्ली के लेखकों ने अपना वर्चस्व जमाया और लघुकथाओं के पठन के सिलसिले में पाठकों की एक बड़ी जमात खड़ी की।

     खेमेबाजियाँ और झण्डाबरदारी के आरोप-प्रत्यारोप कब और किस युग में नहीं लगे? लेकिन परिपक्व लेखन पर क्या कभी कोई उँगली उठ सकी है? अन्य प्रश्नों के विवाद में न पड़कर मैं लघुकथा विधा के उन खास-उल-खास लघुकथाकारों की, जो वर्तमान में दिल्ली में रह रहे हैं एवं जो तन्मयता से हिन्दी लघुकथा लेखन की तरक्की और भलाई में अग्रेसरिक बने हुए है, जिन्होंने लघुकथा लेखन के प्रति अपना जज्बा कायम किया हुआ है, चर्चा कर प्रस्तुत आलेख को विस्तार देना चाहूँगा।

     उपल्बधि के अनुसार, मौजूदा वक्त में दिल्ली के जो कथाकार लघुकथा लेखन में संलग्न हैं उनमें चित्रा मुद्गल, कमल चोपड़ा, बलराम अग्रवाल, मधुदीप, बलराम, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, अशोक गुजराती, कलीम आनंद, कुमार नरेन्द्र, गजेन्द्र रावत, पूरन सिंह, रीता कश्यप, वीरेन्द्र गोयल, शोभा रस्तोगी, सुभाष नीरव, अंकुश पूर्वानिल, महावीर उत्तरांचली, सुशांत सुप्रिय, हरनाम शर्मा, अशोक वर्मा, असगर वजाहत, विष्णु नागर, महेश दर्पण, राजकुमार गौतम, अनिल शूर आजाद, रूपसिंह चन्देल प्रभृति अनेक नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।

     तेवर और तमीज न तो एक सिक्के के दो पहलू हैं और न ही समानार्थी होकर किसी राह के रहबर हैं। मगर लघुकथा लेखन में दोनों ही का मिजाज असली सिक्कों की भाँति खनकता हुआ मिलता है। तेवर की अस्मिता अथवा तेवर का अस्तित्व रचनाकार के अहम् से बनता है। यहाँ अहम् से मेरा तात्पर्य है—नवलेखन में अच्छे अर्थों में प्रयुक्त साहित्यकार का निजत्व जो उसके साहित्य को विशिष्ट बनाता है; जबकि तमीज विवेकजन्य है। तमीज का अगला कदम ही अदब है। यह अदब ही अरबी भाषा में साहित्य शास्त्र कहलाता है। तेवर और तमीज का सम्मिलन ही दिल्ली के लघुकथाकारों के जोश और जुनून में देखने को मिलता है।

     लघुकथा लिखना और लेखकीय आचरण के साथ-साथ लघुकथा विधा के संवर्द्धन  में दायित्व भाव रखना, सामंजस्य का ऐसा दोहरा प्रीतिकर रूप दिल्ली के लघुकथाकारों को शीर्ष क्रम में खड़ा कर देता है। बात यहाँ डॉ॰ कमल चोपड़ा की करूँ तो इस आलेख के आशय को संगत देने वाली बात होगी। कमल चोपड़ा अपने बूते पर हिन्दी लघुकथा के सन्दर्भ में “संरचना” के अब तक सात अंक निकाल चुके हैं। समय, समाज और साहित्य का परिदृश्य ही ‘संरचना’ की रीढ़ है। ‘संरचना’ वस्तुत; देशभर के लघुकथाकारों की प्रतिनिधि लघुकथाओं का ऐसा जीवंत दस्तावेज है जो लघुकथा लेखन की सार्थकता को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है। ‘संरचना’ में ‘विचार’ शीर्षक से जिन आलेखों का प्रकाशन हो रहा है, वे हिन्दी लघुकथा की दशा, दिशा और संभावनाओं से परिचित कराते मिलते हैं। जिस प्रकार भारत देश के केन्द्र में दिल्ली वासित है, ठीक उसी प्रकार हिन्दी लघुकथा के केन्द्र में समय की धड़कनों की तरह वर्ष में एक बार महती अर्थ में प्रकाशित होने वाली ‘संरचना’ लघुकथा के सृजन कर्मियों के मध्य अपना अतुलनीय प्रदेय गिनाती मिलेगी।

     दिल्ली में ‘दिशा प्रकाशन’ के संस्थापक मधुदीप पर यहाँ चर्चा करना कतई गैर-जरूरी नहीं है। हिन्दी लघुकथा का सम्पदा एक विरासत के रूप में खड़ी करने की उनकी जिद अनोखी, अछूती और लाजवाब है। मधुदीप की यह जिद उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक गुणों को उजागर करती है। देश-विदेश के हिन्दी और हिन्दीतर क्षेत्र के, स्थापित और नवांकुर गोकि लघुकथाओं के प्रणयन में जो अपने उल्लेखनीय योगदान प्रस्तुत कर चुके अथवा कर रहे हैं, उनकी सृजनाओं को तरजीह देते हुए अत्यन्त उदारमना भाव से वे अपने संस्थान से अनवरत रूप में ‘पड़ाव और पड़ताल’ का प्रकाशन कर रहे हैं और अपने हिन्दी लघुकथा क्षेत्र में इस सारस्वत अनुष्ठान में सक्रिय लघुकथाकारों को आसन्दी प्रदान कर रहे हैं। इस आलेख के लिखे जाने तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पन्द्रह खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। ये सब हिन्दी लघुकथा संसार की ऐतिहासिक निधि बन चुके हैं। हिन्दी लघुकथा के सन्दर्भ में अध्ययनरत और शोधरत देशभर के शोधार्थियों के लिए ‘पड़ाव और पड़ताल’ के मौजूदा और आने वाले अन्य खण्ड उपयोगिता की दृष्टि से अनुपम और विश्वसनीय सिद्ध होंगे।

     लघुकथाकार बलराम अग्रवाल हिन्दी लघुकथा के तारतम्य में एक गम्भीर आलोचक की भूमिका का भी निर्वहन कर रहे हैं। वर्तमान में हिन्दी लघुकथा में आलोचना की बड़ी कंगाली देखी जा रही है। आलोचना के मापदण्ड स्थिर करने के सिलसिले में स्थापित लघुकथाकारों के मध्य से ही किसी को आना होगा, तभी हिन्दी लघुकथा सर्जना का कलेवर सजेगा-सँवरेगा। बलराम अग्रवाल का यह कथन कि ‘हिन्दी लघुकथा को बढ़ते-चढ़ते, पुष्पित-पल्लवित होते देखते-करते रहना चाहता हूँ’ लघुकथा विधा की अस्मिता के लिए बड़ा मौजूँ है। ‘पड़ाव और पड़ताल’ खण्ड-2 में लघुकथा विधा के प्रति सम्पादकीय व्यवहार जताते हुए ‘लघुकथा’ पर की गई बलराम अग्रवाल की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि ‘लघुकथा एक उर्वर कथा विधा है। उर्वर से तात्पर्य है कि कथा-अभिव्यक्ति की दिशा में सपाट और सहज-बयानी से लेकर बिम्ब, प्रतीक, संकेत, व्यंजना, विरोध आदि जो-जो काव्यांग इसमें आ उपस्थित होते हैं, वे अपनी पूरी आभा और आकर्षण के साथ लगातार पाठक को प्रभावित करते हैं।’ हिन्दी लघुकथा अपने औचित्य निर्धारण के हित में बलराम अग्रवाल सरीखे आलोचक की दरकार करती है।

     भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘बयान’ से पहचान बना चुकी चित्रा मुद्गल सच्चे अर्थों में हिन्दी लघुकथा विधा की प्रतिनिधि रचनाकार हैं। सामाजिक विद्रूपता और कोलाहल, अलगाव और रिसते रिश्ते, छद्म नैतिकता और झूठे विश्वास की चीर-फाड़ करने वाली यह अन्वेषी लेखिका हिन्दी लघुकथा लेखन के तारतम्य में आधुनिक शती की ‘रोल मॉडल’ है। चित्रा जी का कर्तृत्व दिल्ली की देहरी तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी हो चुका है।

इसी क्रम में कथाकार-नाटककार असगर वजाहत का तथा कवि व व्यंग्यकार विष्णु नागर का नामोल्लेख भी आवश्यक है। लघुकथा संग्रह ‘मुश्किल काम’ के जरिए असगर वजाहत ने और ‘ईश्वर की कहानियाँ’ तथा ‘बच्चा और गेंद’ के जरिए विष्णु नागर ने इस विधा को अपनी लेखकीय सम्मति प्रदान की है।
           प्रस्तुत आलेख का पटाक्षेप करने से पूर्व बजरिये इसी आलेख के वर्तमान हिन्दी लघुकथा के रूप-स्वरूप पर नये सिरे से बहस-मुबाहिसा की बात स्थापित लघुकथाकारों से करना चाहता हूँ। गोकि आजकल ताबड़तोड़ लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। किसी विधा पर किया जाने वाला अधिकाधिक लेखन ही उस विधा को विनाश का फलक भी देता है। वर्चस्वशुदा लघुकथाकार अपने बेबाक वक्तव्यों से लघुकथा में कदम रखने वाले नवागन्तुकों को सचेत करें। गोकि फूहड़ और स्तरहीन लघुकथाओं के संग्रह/संकलन की भूमिका लिखने से बचें। लघुकथा लेखन की दिशा में प्रवेश करने के निमित्त हिन्दी लघुकथा का ‘दिल्ली दरवाजा’ खुला हुआ है। हिन्दी लघुकथा लेखन की वैतरणी पार करने के लिए हम दिल्ली के लघुकथाकारों को जानें, समझें, पहचानें। कम-अज-कम उनको पढ़ें, उनके अवदानों को समीप से देखें। लघुकथा के प्रति उनकी रागात्मक संवेदना अथवा संवेदनात्मक राग पर विचार करें। यही शुभ-सोच लघुकथा विधा को मानक प्रदान करेगी।
       लेखक सम्पर्क : 'शशिपुष्प', 74जे/ए, स्कीम नं॰ 71, इन्दौर-452009 मो॰:+919407186940