Saturday, 13 August 2022

रोहित कुमार 'हैप्पी' (ऑकलैंड, न्यूजीलैंड) की पाँच लघुकथाएँ

दूसरा रुख

"चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरण हटाकर देखा, तो निहायत खुशी हुई। तस्वीर भारत माता की थी। माँ-सी सुन्दर, भोली सूरत, अधरों पर मुस्कान, कंठ में सुशोभित जेवरात, मस्तक को और ऊँचा करता हुआ मुकुट और हाथ में तिरंगा। मैं लगातार उस तस्वीर को देखता रहा। तभी क्या देखता हूँ कि तस्वीर में से एक और औरत निकली। अधेड़ उम्र, अस्त-व्यस्त दशा, आँखों से छलकते आँसू उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताजे घाव, कुछ घावों के निशान मैंने पूछा, "तुम कौन हो?" 

वह बोली, "मैं तुम्हारी माँ हूँ, भारत माँ!"

मैंने हैरत से पूछा, "भारत माँ? पर तुम्हारी यह दशा! चित्रकार ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी! तुम्हारा मुकुट कहाँ है? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश, मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र नहीं, तुम भारत माता नहीं हो सकती!" मैंने अविश्वास प्रकट किया।

वह कहने लगी, “तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बंदी थी। फिर बंधन से तो छूट गई, पर अब घावों से ग्रस्त हूँ। कुछ घाव गैरों ने दिए हैं, तो कुछ अपने ही बच्चों ने। रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की, उनमें से कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कपूतों ने बेच खाए। इसीलिए रो रही हूँ। सैकड़ों वर्षों से रो रही हूँ। पहले गैरों के बंधन पर रोती थी, अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।"

उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रुख देख, मेरी खुशी धीरे-धीरे खत्म होने लगी और आँख का पानी बन छलक उठी

संवाद

पिंजरे में बंद दो सफेद कबूतरों को जब भारी भरकम लोगों की भीड़ के बीच लाया गया, तो वे पिंज़रे की सलाखों में सहमकर दुबकते जा रहे थे। फिर दो हाथों ने, एक कबूतर को जोर से पकड़कर, पिंज़रे से बाहर निकालते हुए दूसरे हाथों को सौंप दिया। मारे दहशत के कबूतर ने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली थीं। समारोह के मुख्य अतिथि ने बारी-बारी से दोनों कबूतर उड़ाकर समारोह की शुरुआत की। तालियों की गड़गड़ाहट ज़ोरों पर थी।

एक झटका सा लगा, फिर उस कबूतर को अहसास हुआ कि उसे तो पुनः उन्मुक्त गगन में उड़ने का अवसर मिल रहा है | वह गिरते-गिरते संभलकर जैसे-तैसे उड़ चला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब बगल में देखा कि दूसरा साथी कबूतर भी उड़कर उसके साथ आ मिला था। दोनों कबूतर अभी तक सहमें हुए थे। उनकी उड़ान सामान्य नहीं थी।

थोड़ी देर में सामान्य होने पर उड़ान लेते-लेते एक ने दूसरे से कहा, "आदमी को समझना बहुत मुश्किल हैं। पहले हमें पकड़ा, फिर छोड़ दिया! यदि हमें उड़ने को छोड़ना ही था, तो पकड़कर इतनी यातना क्यों दी? मैं तो मारे डर के बस मर ही चला था।" "चुप, बच गए न आदमी से बस उड़ चल!"

दोराहा

मैं दोराहे के बीच खड़ा था और वे दोनों मुझे डसने को तैयार थे। एक तरफ साँप था और दूसरी तरफ आदमी।

मैंने ज्यादा विचारना उचित नहीं समझा। सोचा- साँप शायद ज़हरीला न हो या शायद उसका डंक चूक जाए, लेकिन आदमी से तो मैं भली-भाँति परिचित था । और मैं साँप वाले रास्ते की ओर बढ़ गया।

बलि का बकरा

समारोह में साहित्यकार को एक नन्हा सा पौधा देकर आयोजकों ने उसका अभिनंदन किया। पौधा लेते-देते की सुंदर फोटो खींची गई। फिर जैसा कि आजकल होता है, फोटो मोबाइल के जरिये फेसबुक पर अपलोड हो गई।

साहित्यकार की फेसबुक वॉल पर उनके चहेतों ने बधाई देने का सिलसिला छेड़ दिया। उधर आयोजकों के चहेते भी उन्हें बधाई दे रहे थे। दोनों पक्ष मोबाइलों पर अपने चहेतों के 'लाइक' देख-देखकर आत्म-मुग्ध थे ।

इसी बीच जल-पान का न्योता आ चुका था। नन्हा पौध समारोह में मेज़ पर कहीं पीछे छूट गया था। समारोह में जलपान चल रहा था। लेखकों, कवियों और पत्रकारों का अच्छा-खासा जमावाड़ा लगा था। पौधे वाली फोटो कई फेसबुक दीवारों की शोभा बनी हुई थी शुभकामनाएं और बधाइयाँ अभी भी आ-जा रही थीं। उधर बलि का बकरा बना पौधा अपनी मूल मिट्टी से जुदा हुआ मुरझा चला था।

परिणाम

उस शानदार महल की दीवारों पर लगे सफेद चमकीले पत्थरों का सौंदर्य देखते ही बनता था। दर्शक उन पत्थरों की सराहना किए बिना नहीं रह सकते थे सुंदर चमकीले पत्थर लोगों से अपनी 1 प्रशंसा सुन फूले नहीं समाते थे। आलीशान महल की दीवारों पर लगे शानदार पत्थरों ने एक दिन नींव के पत्थरों से कहा, "तुम्हें कौन जानता है? हमें देखो, हमें कितनी सराहना मिलती है ?" नींव के पत्थरों ने झुंझलाकर घोड़े अशांत मन से उत्तर दिया, "हमें शांत पड़े रहने दो शांति भंग मत करो।"

सफेद चमकीले पत्थरों ने इस बार जब व्यंग्यात्मक मुसकान बिखेरी तो यह शायद नींव के पत्थरों की कहीं गहरे जा चुभी वे अशांत होकर झुंझला उठे। नींव के पत्थरों की झुंझलाहट और थोड़ी-सी अशांति के फलस्वरूप महल की कई दीवारें हिल गई और उनमें लगे कई आत्ममुग्ध सुंदर पत्थर अब जमीन पर गिर धूल चाट रहे थे।

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

रोहित कुमार 'हैप्पी'

editor@bharatdarshan.co.nz

4 comments:

Anonymous said...

सभी लघुकथाएँ प्रभावशाली हैं।

Anonymous said...

अच्छी मानवेतर लघुकथाएँ जिसमें देश की पीड़ाएँ, मानवीय चरित्र से खौफ खाये परिंदों व बेजान पत्थरों की दास्ताँ प्रभावशाली ढंग से उजागर हुई हैं।

manorama pant said...

सभी लघुकथाएँ सीधे सीधे दिल को छूने वाली हैं ,।आदरणीय बलराम जी को धन्यवाद अलहदा कथानक वाली कथानक तथा कथाकार से परिचित कराने हेतु

Anonymous said...

सार्थक कथाकारो की पहचान हार्दिक बधाई पाठकों के लिय उतना ही महत्वपूर्ण है सवाँद के द्वारा उनकी बातों को सामने लाये
निजी जीवन सार्थकता बताये जनगाथा आ बलरामजी हार्दिक धन्यवाद