Sunday, 28 November 2010

सुभाष नीरव की लघुकथाएँ

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सुभाष नीरव नौवें दशक के प्रतिभासंपन्न लघुकथाकार हैं। रूपसिंह चंदेल हीरालाल नागर के साथ उनकी लघुकथाओं का एक संकलन कथाबिंदुसन् 1997 में चुका है। लेखन, अनुवाद, आलोचना संपादन आदि लघुकथा की बहुआयामी सेवा के मद्देनजर लघुकथा के लिए पूर्णतः समर्पित पंजाब की साहित्यिक संस्था मिन्नी द्वारा सन् 1992 में उन्हें प्रतिष्ठित माता शरबती देवी पुरस्कारसे सम्मानित किया जा चुका है। उनकी लघुकथाओं को पढ़कर निःसंकोच कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों की तुलना में भले ही उन्होंने कम और कभी-कभार लेखन किया है लेकिन जितना भी किया है वह अनेक दृष्टि से उल्लेखनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि लघुकथा के प्रति समर्पित भाव उनमें लगातार बना रहा है। उनके इस जुड़ाव के कारण ही पंजाबी का लघुकथा-संसार हिन्दी क्षेत्र के संपर्क में बहुलता से आना प्रारम्भ हुआ जिसे सौभाग्य से श्याम सुन्दर अग्रवाल सरीखे अन्य अनुवादकों का भी संबल हाथों-हाथ मिला। सुभाष की लघुकथाएं लघुकथा-लेखन के अनेक आयाम प्रस्तुत करती हैं और हिन्दी लघुकथा-साहित्य की सकारात्मक धारा को पुष्टि प्रदान करती हैं।बलराम अग्रवाल
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॥1॥ कबाड़
बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
            बेटा सीधे आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।
            दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-सँवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह!
            बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया,“देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंगरूम बनाऊँगा।
            रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।

॥2॥ चोर
मि. नायर ने जल्दी से पैग अपने गले से नीचे उतारा और खाली गिलास मेज पर रख बैठक में आ गये।
            सोफे पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ।
            “रामदीन तुम? यहाँ क्या करने आये हो?” मि. नायर उसे देखते ही क्रोधित हो उठे।
            “साहब, मुझे माफ कर दो, गलती हो गयी साहब... मुझे बचा लो साहब... मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं... मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब।रामदीन गिड़गिड़ाने लगा।
            “मुझे यह सब पसन्द नहीं है। तुम जाओ।मि. नायर सोफे में धंस-से गये और सिगरेट सुलगाकर धुआँ छोड़ते हुए बोले,”तुम्हारे केस में मैं कुछ नहीं कर सकता। सुबूत तुम्हारे खिलाफ हैं। तुम आफिस का सामान चुराकर बाहर बेचते रहे, सरकार की आँखों में धूल झोंकते रहे। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।
            “ऐसा मत कहिये साहब... आपके हाथ में सब-कुछ है।रामदीन फिर गिड़गिड़ाने लगा,“आप ही बचा सकते हैं साहब, यकीन दिलाता हूँ, अब ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा, मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब... मुझे बचा लीजिए... मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, सर।  कहते-कहते रामदीन मि. नायर के पैरों में लेट गया।
            “अरे-अरे, क्या करते हो। ठीक से वहाँ बैठो।
            रामदीन को साहब का स्वर कुछ नरम प्रतीत हुआ। वह उठकर उनके सामने वाले सोफे पर सिर झुकाकर बैठ गया।
            “यह काम तुम कब से कर रहे थे ?”
            “साहब, कसम खाकर कहता हूँ, पहली बार किया और पकड़ा गया। बच्चों के स्कूल की फीस देनी थी, पैसे नहीं थे। बच्चों का नाम कट जाने के डर से मुझसे यह गलत काम हो गया।
            इस बीच मि. नायर के दोनों बच्चे दौड़ते हुए आये और एक रजिस्टर उनके आगे बढ़ाते हुए बोले,“पापा पापा, ये सम ऐसे ही होगा न ?”  मि. नायर का चेहरा एकदम तमतमा उठा। दोनों बच्चों को थप्पड़ लगाकर लगभग चीख उठे,“जाओ अपने कमरे में बैठकर पढ़ो। देखते नहीं, किसी से बात कर रहे हैं, नानसेंस !
            बच्चे रुआँसे होकर तुरन्त अपने कमरे में लौट गये।
            “रामदीन, तुम अब जाओ। दफ्तर में मिलना। कहकर मि. नायर उठ खड़े हुए। रामदीन के चले जाने के बाद मि. नायर बच्चों के कमरे में गये और उन्हें डाँटने-फटकारने लगे। मिसेज नायर भी वहाँ आ गयीं। बोलीं,“ये अचानक बच्चों के पीछे क्यों पड़ गये? सवाल पूछने ही तो गये थे।
            “और वह भी यह रजिस्टर उठाये, आफिस के उस आदमी के सामने जो...कहते-कहते वह रुक गये। मिसेज नायर ने रजिस्टर पर दृष्टि डाली और मुस्कराकर कहा, ”मैं अभी इस रजिस्टर पर जिल्द चढ़ा देती हूँ।
            मि. नायर अपने कमरे में गये। टी.वी. पर समाचार आ रहे थे। देष में करोड़ों रुपये के घोटाले से संबंधित समाचार पढ़ा जा रहा था। मि. नायर ने एक लार्ज पैग बनाया, एक साँस में गटका और मुँह बनाते हुए रिमोट लेकर चैनल बदलने लगे।

॥3॥ सहयात्री
बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
            जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भाँति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
            अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी,‘कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती! एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ...।
            तभी, उसके मन ने कहा,‘क्यों कुढ़ रही है ?... क्या मालूम यह बीमार हो? अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ भूल गयी। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी,‘क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं?... दया-तरस नाम की तो कोई चीज रही ही नहीं।
            इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती,‘क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफर भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफर खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?’
            इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वंद। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। क्या पता बेचारी बीमार हो?.. शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को ! तो क्या हुआ?.. , न ! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।
            “माताजी, आप बैठो।आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, “तू भी आजा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।
 
सुभाष नीरव : संक्षिप्त परिचय
सुभाष नीरव(बायें) कथाकार सूर्यकांत नागर के साथ चित्र:बलराम अग्रवाल
27 दिसम्बर, 1953 को मुरादनगर (उत्तर प्रदेश)  में जन्मे सुभाष नीरव का अपने लेखन के बारे में कहना है कि—‘न् 1976 के आसपास से हिन्दी लेखन प्रारंभ किया। कहानी, कविता और लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद कार्य भी। अब तक तीन कहानी-संग्रह "दैत्य तथा अन्य कहानियाँ", "औरत होने का गुनाह" और "आख़िरी पड़ाव का दु:ख", दो कविता संग्रह "यत्किंचित" और "रोशनी की लकीर", एक बाल कहानी संग्रह "मेहनत की रोटी" प्रकाशित। इसके अलावा, लगभग एक दर्जन पुस्तकों का पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद जिनमें "काला दौर", "कथा पंजाब-2" "कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ","पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं", "छांग्या रुक्ख"(दलित आत्मकथा)और "रेत" (उपन्यास-हरजीत अटवाल) प्रमुख हैं। अनियतकालीन पत्रिका "प्रयास" का आठ वर्षों तक संचालन/संपादन। इन दिनों नेट पर ब्लागिंग।
पुरस्कार/सम्मान : हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए 'माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992' तथा 'मंच पुरस्कार, 2000' से सम्मानित।
निवास का पता : 372, टाइप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023
दूरभाष : 09810534373(मोबाइल),011-24104912(निवास)
ई मेल subh_neerav@yahoo.com

8 comments:

KK Yadav said...

नीरव जी की तीनों लघुकथाएं बेजोड़ हैं....बधाई.

हरि जोशी said...

झकझोर देने वाली सुभाष नीरव की इन लघुकथाओं में हमेशा की तरह पैनापन है। कथ्‍य अंदर तक वेधता है।

भगीरथ said...

सामान्य अनुभवों की अच्छी सुगठित कथाएं

Ila said...

तीसरी लघुकथा सबसे अच्छी लगी। दूसरी भी अच्छी है। पहली के अंत का पूर्वानुमान पाठक को हो जाता है।
इला

Devi Nangrani said...

laghukatha katha ke har tatv ki maujoodgi mein sans le rahi hai.Laghukatha ka nichod ek unmitti chap hriday par chod jata hai..
Neerav ji shiddat se is jazbe ko pesh karne mein bakhooobi safal hue hain

प्रदीप कांत said...

कबाड - अप्रासंगिक होते जा रहे बुजुर्ग
चोर - छोटों की चोरी बडी, बडों की चोरी .........छोटी......

सहयात्री - अंतत: जीतती संवेदनाएँ

बेजोड लघुकथाएँ .....

रूपसिंह चन्देल said...

लाजवाब लघुकथाएं. नीरव मेरी पढ़ी के सशक्त लघुकथाकार हैं. उनकी लघुकथाएं सामाजिक विद्रुपताओं, राजनीतिक पतन और व्यवस्थागत भ्रष्टाचार गहनता से अभिव्यक्त करती हैं. कबाड़ ने हिलाकर रख दिया . वहीं चोरी यह सिद्ध करती है कलमाड़ी , ए राजा और अशोक चह्वाण जैसी बड़ी मछलियां बहुत शोर शराबे के बावजूद शलाखों के पीछे नहीं जा पाती हैं जबकि छोटे लोग छोटी सी गलती के लिए सजा पा जाते हैं. सहयात्री अपने कथ्य में अनेक आयामों को उद्धाघाटित करती है.

बधाई,

चन्देल

सुरेश यादव said...

सुभाष नीरव की तीनो लघु कथाएं गहरी संवेदनाएं लिए हैं .विषय सुपरिचित होते हुए भी इन्हें नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है .सभी के लिए बधाई .लेकिन दूसरी लघु कथा 'चोर'के लिए विशेष बधाई .इसमें विषय की नवीनता के साथ हीभृष्टाचार पर सीधी चोट की गयी है .बलराम अग्रवाल को इस चुनाव केलिए धन्यवाद .