एकांतवास में सार्थक कर्म
त्रासद कोरोना काल की कम शब्दों में अधिक बात कहती अशोक लव की लघुकथा संग्रह हैं "एकांतवास में ज़िंदगी"। बकौल उनके, कोरोना काल में लाॅकडाउन के दौरान घर में बंद जो देखा, महसूस किया, उसे लघुकथाओं में ढाल दिया है। डरे, सहमे मनुष्य लोगों की पीड़ा को स्वर देने का दायित्व इन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की लघुकथाओं में बखूबी निभाया है।पुस्तक सर्वभाषा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित की गई है।
अशोक लव जी एक सिद्धहस्त संवेदनशील लघुकथाकार ही नहीं, अनेक विधाओं में चिंतनशील रचनाएँ लिखनेवाले बहुप्रशंसित सुप्रसिद्घ रचनाकार हैं। आठवें दशक से लघुकथा विधा के मूर्धन्य लेखक रहे हैं। विधा पर उनकी पकड़ बहुत मजबूत है। ये अपनी छोटी-छोटी लघुकथाओं के द्वारा कथा के मर्म को पूर्णतः उद्घाटित करते हैं।
पुस्तक कोरोना के ग्रास बने समर्थ, संवेदनशील लघुकथाकार, संपादक, आलोचक स्व. रवि प्रभाकर जी को समर्पित की गई है।
"एकांतवास में ज़िंदगी" की भूमिका वरिष्ठ लेखक, संपादक योगराज प्रभाकर द्वारा लिखी गई है। उसका शीर्षक है - 'तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह' यह भूमिका पठनीयता से भरपूर तो है ही, संग्रह की रचनाओं के प्रति आकर्षण भी जगाती है।
"एकांतवास में ज़िंदगी" की पहली लघुकथा है, "बड़-बड़ दादी" हमेशा बोलनेवाली दादी को भी कोरोना के खतरों का एहसास हो चुका है। इसीलिए वह बस हनुमान चालीसा में रम सबके संकट को टालने की प्रार्थना में लीन रहती है। हर परिवार का यही किस्सा था उस वक्त। सभी बेबस, वश में कुछ नहीं। सभी अपने-परायों, यहाँ तक कि दुश्मनों के लिए भी बस, प्रार्थनारत थे। यह लघुकथा उसी काल को तथा लोगों के एकांत भावों को प्रस्तुत करती है।
अधिकांश लघुकथाओं के कथ्य, प्रस्तुतिकरण और समग्र प्रभाव विविध चुनौतीपूर्ण स्थितियों को दर्शाते हैं। साथ ही प्रामाणिक भी हैं।
अशोक लव लघुकथा की तकनीक, पंचलाइन पर पूर्ण दक्षता के साथ निगाहें डालते हैं। यथा - धुलाई युद्ध, और क्या जीना, मृत्यु का भय, इकलौता मास्क, आनलाइन चैन कहाँ आदि अनेक।
"स्व-आहुति" जैसी रचनाएँ मात्र रचना नहीं, सच्चाई है। डर के साए में पनपी सच्चाई! पत्नी पति को सब्जी लेने सामने की दुकान पर भी नहीं भेजना चाहती है। वह लड़ पड़ी है क्योंकि भय का कद बढ़ गया है, कोविड उसके पति को न छू ले। घर का इकलौता कमानेवाला पति गुजर न जाए। घर उजड़ जाएगा। खुद वह मर गई तो फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे भय से हम दो-चार हो चुके हैं।
खुद चिकित्सक, नर्स, कोरोना वारियर तक स्वजनों से बिछड़ रहे थे। ऐसे में जीवन-स्पंदन में चिकित्सक की सूझ-बूझ से नर्स के मंगेतर की जान बच जाती है।
"चलें गाँव" में लेखक ने मजदूरों की वापसी को विषय बनाया है। सरकार ने गाँव-घर वापसी के लिए बस की व्यवस्था कर दी थी। फिर भी कुणाल गाँव में बीमार बापू पर बोझ बनने से बचने के लिए बस से उतर जाता है। अंत की पंक्ति कई सवाल खड़े करती है, उसकी आँखों में चमक लौट आई थी और पैरों में खड़े होने का साहस लौट आया था।
लाॅकडाउन में साहित्यकारों द्वारा आनलाइन कवि गोष्ठी, लघुकथा गोष्ठी की अधिकता पर तंज है "नाम रोग वायरस" तो देश बचना चाहिए में सत्ता पक्ष की असंवेदनशीलता को रेखांकित किया गया है। वह भी वैश्विक स्तर पर। "वे पचपन दिन" वेल विहेब्ड प्रेमी की लाॅकडाउन में सच्चाई सामने आने पर प्रेमिका की मुक्ति जैसे लाॅकडाउन के साइड इफेक्ट (फायदे) को बता रही है। उस दौरान अंदर बंद जोड़ों तथा पारिवारिक रिश्तों के झगड़ों की बातें भी आम हो रही थीं।
पचास किलोमीटर तक पैदल चलनेवाली कोमलांगी शारदा ईश्वर के भरोसे कोरोना काल में पति संग गाँव लौट रही थी। सहृदय सिक्खों द्वारा भोजन और जरूरी सामान दिया जाना मनुष्यता की मिसाल कायम करते मददगारों की कथा है भगवान सुनते हैं। यह शीर्षक बदल दिया जाता और अंत भी तो लाॅकडाउन के वक्त तमाम डर के बावजूद मनुष्यता का अद्भुत चेहरा सामने आता। इसे सबने उस त्रासद काल में भरपूर देखा था, महसूस किया था।
बहुत छोटी सी प्यारी सी लघुकथा "अलमारी खुल" पुस्तकों की महत्ता बतलाती है। लाॅकडाउन ने उपेक्षित पड़ी किताबों में प्राण फूँक दिए। सच कहा जाए तो लोगों के अंदर प्राण का संचार हुआ। यह लघुकथा पहली पंक्ति से पंच लाइन तक बाँधे रखती है।
"विवशता" लोगों की विवशता को अच्छी तरह उजागर करती है।
कोविड 2 के समय अस्पतालों में बेड, आॅक्सीजन, लकड़ियों की किल्लत से सभी वाकिफ हैं। कोई घर ऐसा न था, जहाँ किसी परिजन को कोविड ने लील न लिया हो। शवों से श्मशान अटे पड़े थे। एक तरफ मनुष्यता तो दूसरी तरफ असंवेदनशीलता, फायदा उठाने की कोशिशें भी देखने में आ रही थीं। इन्हीं सब को आधार बनाकर लिखी गई "न लकड़ी, न अग्नि" बहुत चुपके से उस दौर को सामने लाती है और हाहाकार का स्वर बन जाती है। पूरी लघुकथा ही वस्तु स्थिति को दर्शाने में सक्षम। कभी भी कोविड की दूसरी लहर का जिक्र होगा, विभीषिका को प्रस्तुत करती यह लघुकथा याद की जाएगी; और "एकांतवास में ज़िंदगी" किताब भी।
पुस्तक में गत दो वर्षों में लिखी इनकी 60 यथार्थवादी लघुकथाएंँ सम्मिलित हैं। इस पुस्तक की लघुकथाओं से परिलक्षित होता है, उनके अंतर्मन में मानव व मानवीय भावनाओं के प्रति एक सकारात्मक भाव है। महामारी के लगभग हर पक्ष को समाहित किया गया है। ये केवल दुखदायी आपबीती नहीं, व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ती रचनाएँ हैं। मनुष्य के साहस, धैर्य, संघर्ष, मनुष्य बने रहने की खासियतों को बिना असहज हुए, बिना अधिक शब्द खर्च किए कितनी सफाई से अपनी बातें कहती हैं ये लघुकथाएँ कि पाठक चकित हो जाता है।
अशोक लव जी का अनुभव, सूक्ष्म दृष्टि, लघुकथा लेखन का कौशल देखते बनता है। सहज, सरल, बोधगम्य भाषा की रवानगी मर्मस्पर्शी लघुकथाओं को पठनीय बनाती हैं।
अंत में "एकांतवास में ज़िंदगी" के आलेख खंड में केशव मोहन पांडेय, डॉ मनोज तिवारी तथा यशपाल निर्मल के तीन आलेख भी सराहनीय हैं और पुस्तक की उपयोगिता को प्रस्तुत करते हैं।
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पुस्तक : एकांतवास में ज़िंदगी (लघुकथा संग्रह)
लेखक : अशोक लव
प्रकाशक : सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
संस्करण : 2021
मूल्य : 300 /-
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समीक्षक
अनिता रश्मि
19-20 की उम्र में लघु उपन्यास। एक और उपन्यास, दोनों पुरस्कृत। लघुकथा और समीक्षा पर भी कार्य।प्रमुख सम्मान / पुरस्कार -
शुरुआत में ही राजभाषा विभाग, बिहार सरकार का नवलेखन पुरस्कार, साहित्य गौरव सम्मान, शैलप्रिया स्मृति सम्मान, रामकृष्ण त्यागी समृति सम्मान से पुरस्कृत।
अद्यतन
'हंस सत्ता विमर्श और दलित विशेषांक' के पुस्तक रूप में एक कहानी।
"रास्ते बंद नहीं होते" लघुकथा संग्रह इंडिया नेटबुक्स से।
'सरई के फूल' कथा संग्रह, हिन्द युग्म से।
डायमंड बुक्स कथामाला के अंतर्गत "21 श्रेष्ठ नारी मन की कहानियाँ, झारखंड" का संपादन।
सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन।
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