हार-जीत / कपिल शास्त्री
9406543770 |
"आज तो तेरी ईंट से ईंट बजा दूँगा,"
विकास उसकी आँखों में देखकर गुर्राया।
"मैं भी पापा, आज आपको नहीं छोडूंगी।"
पलंग के ऊपर
बाप-बेटी साँड की
तरह भिड़े हुए थे।
इस युद्ध के लिए पापा ने ही
अपनी पाँच वर्षीय बेटी अंजलि को ललकारा था और घुटनो के बल आकर बेटी की ऊँचाई की बराबरी कर ली थी।
किसी मिटटी-पकड़ पहलवान की
तरह दोनों के पंजे
और सर आपस में भिड़े हुए थे।
फिर पापा ने एहतियात से बेटी को उठाकर नरम गद्दे पर पटक
दिया। इससे वो और उग्र हो गयी और उठकर ताबड़तोड़ मुक्के बरसाने लगी। उसके मुक्कों से
बचते हुए पापा ने भी पुरानी मारधाड़ से भरपूर महान पारिवारिक चित्रों के
नायकों की तरह मुँह से ढिशुम-ढिशुम की आवाज़
निकाली और तीन-चार मुक्के उसकी
बगल से निकाले।
बच्ची भी कहाँ हार मानने वाली थी, उसने तीन-चार असली के जड़
दिए और वो पापा के सीने पर चढ़ गयी और उन्हें चित कर के ही दम लिया।
इतने में ही पत्नी शालिनी ने आकर जब देखा कि करीने से चढ़ाए गए
गिलाफ तकियों से
विमुख हो अचेतावस्था में पड़े हैं तो तमतमा गयी। दोनों को अलग
किया और बिफर
कर बोली "ये क्या
पागलपन मचा कर रखा है बाप-बेटी ने घर
में!" फिर बेटी को बाहर जाकर खेलने की हिदायत दी।
बेटी ने मम्मी
को गर्व से बताया,
"मैंने पापा
को हरा दिया" और विजयी
मुद्रा में प्रस्थान किया।
"इस पागलपंती
में दुनियादारी के सारे टेंशन भूल जाता हूँ।" विकास ने गहरी
साँस छोड़ते हुए कहा।
"ये छटाँक भर
की, तुम्हे पीट-पाट कर चली
जाती है और तुम कुछ नहीं कर
पाते!"
पत्नी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
विकास ने भी
उसकी ठुड्डी पकड़कर कहा "ये तुम्हारी शक्ल
की है न, इसलिए बच जाती
है।"
यह सुनकर
शालिनी मुस्करा उठी और
पूछा,
"क्या तुम भी अपने पापा से इतने ही फ्रेंडली थे?"
इस बात पर
उसके चहरे
पर उदासी छा गयी और बोला,
"नहीं था।
वो मुझसे मन से प्यार तो करते थे,
पर कभी इज़हार नहीं किया। मैं भी उनके गुस्से के डर से दूर-दूर छिटका-छिटका ही रहता। पर मैं भी चाहता था कि मेरे पिता मेरे दोस्त जैसे
होते।" कहकर विकास ने एक ठंडी
सांस छोड़ी।
अपने-अपने / कुणाल
शर्मा
9728077749 |
एक दिन जेठानी ने बेटी पिंकी को मुट्ठी में कुछ छुपाये दबे पाँव घर
से निकलते देखा। वह कमरे में गई तो बेड पर गुल्लक औंधे मुंह पड़ी थी। वह तेजी से
उसके पीछे गई। पिंकी हाथ में पैसे दबाए आगे बढ़ रही थी। उसने उसे बाजू से खींचते
हुए गली मे ही दो-चार थप्पड़ जड़ दिए।
“अब चोरी करना भी सीख गई!" वह
उसे घुड़क रही थी। पिंकी जोर-जोर से रोने लगी। गोपाल ने बीच में पड़कर उसकी बाजू
छुड़ाई।
"अब आपकी लाडली
ने चोरी करना भी सीख लिया है।" उसकी आवाज में और तल्खी आ गई थी।
गोपाल ने पिंकी को पुचकारते हुए कहा, " बेटी, तुमने पैसे चोरी
क्यों किये? अगर कोई जरूरत थी तो मम्मी से मांग लेती।"
पिंकी का रोना सिसकियों में बदल गया था। " मम्मी...मम्मी मुझे
मारती।" वह सुबकते हुए आँखों से टपकते गर्म पानी को पोंछते हुए बोली।
"मारती क्यों?…अच्छा मुझे ये बता
तुमने पैसे क्यों लिये?"
"पापा...पापा, चाचू पिछले महीने से
बीमार हैं, मैम रिया को कह रही थी कि अगर उसने दो महीने की फीस जमा नही कराई
तो स्कूल से उसका नाम काट देंगी। इसलिए मैंने..." आगे के शब्द उसके गले में
ही अटक गए।
पिंकी की बात सुनकर गोपाल ने उसे छाती से लगा लिया। उसे लगा, उसकी नसों में दौड़ता
खून सफेद हो गया है।
चन्द्रग्रहण / सुरेन्द्र
गुप्त
9416250279 |
सुबह की चाय / नीलिमा शर्मा ‘निविया’
"अरे, तू बहुत जल्दी जग गई बेटा!" पापा के कमरे में चाय के
दो प्याले लेकर जब वो पहुँची थी तो पिता ने उदासी में भी मुस्करा कर स्वागत किया
था।
माँ की मृत्यु के बाद पहली बार मायके गई थी वह।
"आपको जल्दी चाय पीने की आदत है न।"
"ये आदत भी तेरी माँ के साथ ही चली गई, अब न कोई जल्दी उठता है और न चाय बनती
है।" पापा के चेहरे पर अजीब सी उदासी फ़ैल गई थी।
"अरे!"
"हाँ, दोनों बहुएँ आपस में झगड़ती थीं आए दिन।
मैंने खुद ही कह दिया, सुबह चाय न बनाया करो, मैं भी बाई के
आने पर ही पी लिया करूँगा।"
"सर्दी बहुत है,
लो चाय पकड़ो।" पति की आवाज़ के साथ वर्तमान में वापस आई नित्या की आँखों से दो
आँसू टपक गए।
ड्राइविंग सीट पर बैठे पति ने उसके हाथ थाम लिए,
"प्लीज़, अब और परेशान मत हो,
बस इतने ही दिन का साथ था पापा का। ईश्वर की इच्छा के आगे हम कुछ नही
कर सकते।"
"शिरीष! पापा कब गुज़रे किसी को पता ही नही चला। वो तो
कामवाली बाई जब चाय लेकर गई, तब पता चला।" उसने हाथ में पकड़े चाय के प्याले को देखते
हुए द्रवित स्वर में कहा।
"चाय पी लो फिर चलते हैं।" पति ने अपना प्याला खाली कर डस्टबिन में फेंकते हुए कहा।
चाय के प्याले में हिलती हुई चाय उसको पिता की डबडबाती आँखों
जैसी लगी। उसने बिना चखे ही चाय का प्याला किनारे कर दिया।
हिचकी / कुमार गौरव
9718805056 |
उधेड़बुन में खाना छोड़ कमरे में टहलते हुए फोन के कॉन्टेक्ट लिस्ट
में ढूँढ़ने लगा कि कौन रह गया याद करने को।
टहलते टहलते आईने के सामने जाकर रुक
गया। खुद के चेहरे को उसने ध्यान से देखा। कुछ तो है जो ठीक नहीं है। अचानक उसे आश्चर्य
हुआ, हिचकियां बंद हो गई थीं।
नई
कमीज / पंकज शर्मा
भीखू भी थोड़ा शरमा रहा था। आज तक उसने
भी साफ़ कपड़े कहाँ पहने थे? और फिर यह तो एकदम नई कमीज थी, हालाँकि पैंट नई नहीं
थी, मगर धुली हुई थी। आखिर मंगू ने पूछ ही लिया, “क्यों बे, यह नई कमीज कहाँ से
लाया है रे?”
सभी
आसपास खड़े लोग हंसने लगे।
“नहीं-नहीं”,
भीखू बोला, “मैंने अपने खुद के पैसों से ली है, कसम से।”
“अरे
कहाँ से आए इतने पैसे, तेरे पास तो फूटी कौड़ी नहीं होती”, जगन बोल उठा।
“सच
कहता हूँ जगन भाई”, भीखू बोला।
“तो
फिर यह नई कमीज?” पूछने वाले के साथ-साथ सभी के चेहरे सवालिया थे।
भीखू ने सकुचाते हुए भेद खोला, “वो
मैंने..., मैंने बीड़ी-सिगरेट और पान मसाला वगैरा खाना-पीना छोड़ दिया था न, बस उसी
के..., उसी के पैसे बचा-बचा कर यह नई कमीज़ लाया हूँ अपने लिए। वो मुझे एक बाबू ने
बोला था एक दिन कि अगर मैं नए और साफ सुथरे कपड़े पहनूंगा तो लोग मुझे अच्छा
समझेंगे, मुझे पसंद करेंगे, और उन पर अच्छा..., वो क्या बोला था? ...हाँ, अच्छा ‘इम्प्रैसन”
पड़ेगा। ...और मुझे अच्छा काम और अच्छे पैसे भी मिल सकते हैं।“
फिर
कुछ याद करता हुआ बोला, “...और उसने यह भी कहा था कि इन चीजों से तो तुम्हारी सेहत
ही खराब होगी, ...कल को कोई भयंकर बीमारी भी लग सकती है, फिर क्या करोगे? ...उसने
तो बहुत कुछ समझाया था परन्तु मेरी समझ में बस इतना ही आया था।...और मैंने पैसे
जोड़ कर यह नई कमीज खरीद ली...।”
उपयोग / अशोक दर्द
9418248262 |
सोहनलाल को सुझाव अच्छा लगा। वह शाम को ही गाँव रवाना हो
गया। सुबह बूढ़ी माँ को लेकर मंत्री जी के पहुँचने से पहले ही प्रधान के घर पहुँच
गया।
मंत्री जी अपने लाव–लश्कर के साथ ठीक समय पर पहुँच गये। लोगों ने अपनी–अपनी समस्याओं को लेकर कई प्रार्थना–पत्र मंत्री महोदय को दिए। समय पाकर सोहन ने भी अपनी बूढ़ी
माँ को प्रार्थना–पत्र थमा मंत्री जी के सम्मुख खड़ा कर दिया। काँपती हुई माँ के
प्रार्थना–पत्र को मंत्री जी ने स्वयं पकड़ते हुए कहा, “बोलो माई, क्या सेवा कर सकता हूँ?”
बूढ़ी माँ ने रटाये गये शब्द बोल दिये, “साहब, मेरे खातिर मेरे
बेटे की बदली मत करो, इसके चले जाने से इस बूढ़ी की देखभाल कौन करेगा?”
बूढी माँ के शब्द इतने कातर थे कि मंत्री जी अंदर तक पिघल
गये। बोले, “ठीक है माई, आपके बेटे की बदली अभी रद्द कर देता हूँ।”
मंत्री जी ने साथ
आये अधिकारी को कैंप आदेश बनाने को कहा। कुछ ही देर में तबादला रद्द होने के आदेश
सोहनलाल के हाथ में थे।
सोहनलाल ने शाम को ही बूढ़ी माँ गाँव भेज दी। पढ़ी गयी सभी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी डॉ॰ अशोक भाटिया तथा डॉ॰ बलराम अग्रवाल द्वारा की गयी। उन्हें इन लिंक्स पर देख-सुन सकते हैं : https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&app=desktop https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s
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