Saturday, 4 November 2017

पंचकुला-2017 : हिन्दी लघुकथाएँ… पहली कड़ी

हार-जीत / कपिल शास्त्री
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सर के पीछे पड़ी हलकी-सी चपत से ही इस युद्ध का शंखनाद हो चुका था। तकियों को अस्त्र-शस्त्र की तरह इस्तेमाल करने के बाद बात मल्लयुद्ध तक आ पहुँची थी।
"आज तो तेरी ईंट से ईंट बजा दूँगा," विकास उसकी आँखों में देखकर गुर्राया।
"मैं भी पापा, आज आपको नहीं छोडूंगी।"
पलंग के ऊपर बाप-बेटी साँड की तरह भिड़े हुए थे। इस युद्ध के लिए पापा ने ही अपनी पाँच वर्षीय बेटी अंजलि को ललकारा था और घुटनो के बल आकर बेटी की  ऊँचाई की बराबरी कर ली थी।
किसी मिटटी-पकड़ पहलवान की तरह दोनों के पंजे और सर आपस में भिड़े हुए थे। फिर पापा ने एहतियात से बेटी को उठाकर नरम गद्दे पर पटक दिया। इससे वो और उग्र हो गयी और उठकर ताबड़तोड़ मुक्के बरसाने लगी। उसके मुक्कों से बचते हुए पापा ने भी पुरानी मारधाड़ से भरपूर महान पारिवारिक चित्रों के नायकों की तरह मुँह से ढिशुम-ढिशुम की आवाज़ निकाली और तीन-चार मुक्के उसकी बगल से निकाले। बच्ची भी कहाँ हार मानने वाली थी, उसने तीन-चार असली के जड़ दिए और वो पापा के सीने पर चढ़ गयी और उन्हें चित कर के ही दम लिया।
इतने  में ही पत्नी शालिनी ने आकर जब देखा कि करीने से चढ़ाए गए गिलाफ तकियों से विमुख हो अचेतावस्था में पड़े हैं तो तमतमा गयी। दोनों को अलग किया और बिफर कर बोली "ये क्या पागलपन मचा कर रखा है बाप-बेटी ने घर में!" फिर बेटी को  बाहर जाकर खेलने की हिदायत दी।
बेटी ने मम्मी को गर्व से बताया, "मैंने पापा  को हरा दिया" और विजयी मुद्रा में प्रस्थान किया।
"इस पागलपंती में दुनियादारी के सारे टेंशन भूल जाता हूँ।" विकास ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
"ये छटाँक भर की, तुम्हे पीट-पाट कर चली जाती है और तुम कुछ नहीं कर पाते!" पत्नी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
विकास ने भी उसकी ठुड्डी पकड़कर कहा "ये तुम्हारी शक्ल की है न, इसलिए बच जाती है।"
यह सुनकर शालिनी मुस्करा उठी और पूछा, "क्या तुम भी अपने पापा से इतने ही फ्रेंडली थे?"
इस बात पर उसके चहरे पर उदासी छा गयी और बोला, "नहीं था। वो मुझसे मन से प्यार तो करते थे, पर कभी इज़हार नहीं किया। मैं भी उनके गुस्से के डर से दूर-दूर छिटका-छिटका  ही रहता। पर मैं भी चाहता था कि मेरे पिता मेरे दोस्त जैसे होते।" कहकर विकास ने एक ठंडी सांस छोड़ी।
                                            
अपने-अपने / कुणाल शर्मा
9728077749
माँ के स्वर्ग सिधार जाने के बाद जेठानी-देवरानी में तनातनी और बढ़ गई थी। पिताजी तो काफी बरस पहले शांत हो चुके थे और घर की जिम्मेदारी बड़े बेटे गोपाल के कंधों पर आ टिकी थी। परिवार को एक डोर मे बांधे रखने की उसकी चाहत जितनी बड़ी थीउससे कहीं बड़ी थी अपनी पत्नी के सामने उसकी चुप्पी। आये दिन घर में किसी ना किसी बात को लेकर जंग छिड़ी रहती। रिश्तों मे बढ़ते कसैलेपन के साथ-साथ छोटे भाई के बीवी-बच्चों के साथ होते सौतेले व्यवहार को देख वह तड़प उठता। परंतु पत्नी के इमोशनल ड्रामे के आगे थूक गले में ही निगल लेता। अंततः घर के आँगन में एक ऊंची दीवार उठ गई। उसने होंठ सी लिए। बच्चे स्कूल या गली-मोहल्ले में तो आपस में मिल लेते, लेकिन घर में तो उनके लिए भी लक्षमण रेखा खींच दी गईhथी।
एक दिन जेठानी ने बेटी पिंकी को मुट्ठी में कुछ छुपाये दबे पाँव घर से निकलते देखा। वह कमरे में गई तो बेड पर गुल्लक औंधे मुंह पड़ी थी। वह तेजी से उसके पीछे गई। पिंकी हाथ में पैसे दबाए आगे बढ़ रही थी। उसने उसे बाजू से खींचते हुए गली मे ही दो-चार थप्पड़ जड़ दिए।  “अब चोरी करना भी सीख गई!" वह उसे घुड़क रही थी। पिंकी जोर-जोर से रोने लगी। गोपाल ने बीच में पड़कर उसकी बाजू छुड़ाई।
"अब आपकी लाडली ने चोरी करना भी सीख लिया है।" उसकी आवाज में और तल्खी आ गई थी।
गोपाल ने पिंकी को पुचकारते हुए कहा,  " बेटी, तुमने पैसे चोरी क्यों किये? अगर कोई जरूरत थी तो मम्मी से मांग लेती।"
पिंकी का रोना सिसकियों में बदल गया था। " मम्मी...मम्मी मुझे मारती।" वह सुबकते हुए आँखों से टपकते गर्म पानी को पोंछते हुए बोली।
"मारती क्यों?…अच्छा मुझे ये बता तुमने पैसे क्यों लिये?"
"पापा...पापा, चाचू पिछले महीने से बीमार हैं, मैम रिया को कह रही थी कि अगर उसने दो महीने की फीस जमा नही कराई तो स्कूल से उसका नाम काट देंगी। इसलिए मैंने..." आगे के शब्द उसके गले में ही अटक गए।
पिंकी की बात सुनकर गोपाल ने उसे छाती से लगा लिया। उसे लगा, उसकी नसों में दौड़ता खून सफेद हो गया है।
                                       
चन्द्रग्रहण / सुरेन्द्र गुप्त
9416250279
"अरे… उठो… उठो, चलो जल्दी करो… बस पन्द्रह मिनट ही तो रह गये हैं ग्रहण लगने में, दो तो बज ही चुके हैं।'' पापा की एक ही आवाज में पिंटू, चिंटू तथा टिंकू आँखें मलते-मलते उठे तथा खाद के बोरे को काट-काट कर बनाए गये थैलों को अपने-अपने बाजुओं में टांगकर खड़े हो गये।  सभी ने एक-एक थाली भी अपने-अपने हाथों में ले ली।  बस, कुछ ही पलों में वे अपने मम्मी-पापा के साथ बाहर हो लिए।                                                                                       रात्रि में बाहर निकलते ही नजदीक की कालोनी में पहुँचकर उनके मम्मी-पापा ने जोर-जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया--''दान करो… दान करो… ग्रहण लग गया… चन्द्रग्रहण लग गया।''                                                                                                जैसे ही बच्चों ने अपने मम्मी-पापा को बोलते सुना तो उनके भी मुखों से उसी प्रकार यन्त्रचालित-सा निकल पड़ा--''दान करो… दान करो… ग्रहण लग गया… दान करो।''                             लोग अपने-अपने घरों से निकलकर एक रुपए का या दो का सिक्का उनकी थालियों में डालने लगे। कोई-कोई गेहूँ लाकर उनके थैलों में डालने लगा। बच्चे क्या करते, जैसे ही कोई उनकी थाली में रुपया-दो रुपया डालता, वह थाली में से उठाकर झट-से अपनी फटी-पुरानी निकर की जेब में बहुत सँभालकर डाल लेते। सर्दी की शुरुआत तो थी, किन्तु वातावरण में अभी ठिठुरन पैदा नहीं हुई थी। सो बच्चे, जो क्रमश चार-पाँच-छ वर्षों के रहे होंगे, नंगे पैर भाग-भाग कर एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे उछल-कूद करते हुए, खुशी-खुशी अनाज व पैसे एकत्र कर रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर के उपरांत अपने मम्मी-पापा की नकल करते हुए बोलते जाते--''दान करो… दान करो… ग्रहण लग गया… ग्रहण लग गया।''                                                                                                                    ग्रहण अढाई घंटे तक रहा। गलियों-कूचों एवं कालोनियों में अढाई घंटे घूमने के बाद जब वे अपने घर पहुँचे तो उनके मुख-मण्डल पर तनिक भी थकान नाम की कोई भी चीज नजर नहीं आ रही थी।                                                                                                                               तीनों बच्चे अपने मम्मी-पापा के इर्द-गिर्द बैठ गये थे और अपनी-अपनी जेबें खाली करने लगे थे। जब सबसे छोटे ने अपनी निकर तथा कुर्ते की जेब से चिल्लर निकाली तो उसकी आँखों में सिक्कों की तेज चमक थी। जेबें खाली करता-करता वह पापा से बोल उठा--''पापा… पापा, ये चन्द्रग्रहण रोज-रोज क्यों नहीं लगता!" 

सुबह की चाय / नीलिमा शर्मा ‘निविया’
"अरे, तू बहुत जल्दी जग गई बेटा!" पापा के कमरे में चाय के दो प्याले लेकर जब वो पहुँची थी तो पिता ने उदासी में भी मुस्करा कर स्वागत किया था।
माँ की मृत्यु के बाद पहली बार मायके गई थी वह।
"आपको जल्दी चाय पीने की आदत है न।" 
"ये आदत भी तेरी माँ के साथ ही चली गई, अब न कोई जल्दी उठता है और न चाय बनती है।" पापा के चेहरे पर अजीब सी उदासी फ़ैल गई थी।
"अरे!"
"हाँ, दोनों बहुएँ आपस में झगड़ती थीं आए दिन। मैंने खुद ही कह दिया, सुबह चाय न बनाया करो, मैं भी बाई के आने पर ही पी लिया करूँगा।"
    "सर्दी बहुत है, लो चाय पकड़ो।" पति की आवाज़ के साथ वर्तमान में वापस आई नित्या की आँखों से दो आँसू टपक गए।
ड्राइविंग सीट पर बैठे पति ने उसके हाथ थाम लिए, "प्लीज़, अब और परेशान मत हो, बस इतने ही दिन का साथ था पापा  का। ईश्वर की इच्छा के आगे हम कुछ नही कर सकते।"
"शिरीष! पापा कब गुज़रे किसी को पता ही नही चला। वो तो कामवाली बाई जब चाय लेकर गई, तब पता चला।" उसने  हाथ में पकड़े चाय के प्याले को देखते हुए द्रवित स्वर में कहा।
"चाय पी लो फिर चलते हैं।" पति ने अपना प्याला खाली कर डस्टबिन में फेंकते हुए कहा।
चाय के प्याले में हिलती हुई चाय उसको पिता की डबडबाती आँखों जैसी लगी। उसने बिना चखे ही चाय का प्याला किनारे कर दिया।
                               
हिचकी /  कुमार गौरव
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नौ से सात की नौकरी करनेवाला आदमी रविवार को सुबह दस बजे सोकर उठा। रूटीन कामों से निवृत्त होकर नाते रिश्तेदारों को फोन किया। कुछ दोस्तों वाले व्हाटस्-अप ग्रूप में कुछ जोक्स डाले। दोस्तों की डीपी ढूंढकर नाइस डीपी लिखते हुए खाना खाने लगा तो हिचकियाँ शुरू हो गईं। दो तीन गिलास पानी पीने के बाद भी जब ठीक न हुआ तो दादी माँ का नुस्खा याद आया। मन ही मन सोचने लगा, सब को तो फोन कर ही लिया। दोस्तों को भी मैसेज से याद कर ही लिया। अब कौन रह गया जो याद कर रहा है। 
उधेड़बुन में खाना छोड़ कमरे में टहलते हुए फोन के कॉन्टेक्ट लिस्ट में ढूँढ़ने लगा कि कौन रह गया याद करने को। 
टहलते टहलते आईने के सामने जाकर रुक गया। खुद के चेहरे को उसने ध्यान से देखा। कुछ तो है जो ठीक नहीं है। अचानक उसे आश्चर्य हुआ, हिचकियां बंद हो गई थीं।
                       
नई कमीज / पंकज शर्मा

भीखू आज सुबह अपने काम पर जाने के लिए नयी कमीज पहन कर निकला तो सभी देखने वालों को अपनी आँखों पर मानो विश्वास ही नही हुआ, ‘भीखू और नई कमीज? ये कैसे हो गया? इसके पास इतने रुपये कहाँ से आ गए? लगता है कहीं कोई अच्छा हाथ मारा है, या फिर कहीं से उठा कर लाया है?’ गन्दी बस्ती की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले सभी लोगों के दिमाग में कुछ न कुछ कुलबुला रहा था।
          भीखू भी थोड़ा शरमा रहा था। आज तक उसने भी साफ़ कपड़े कहाँ पहने थे? और फिर यह तो एकदम नई कमीज थी, हालाँकि पैंट नई नहीं थी, मगर धुली हुई थी। आखिर मंगू ने पूछ ही लिया, “क्यों बे, यह नई कमीज कहाँ से लाया है रे?”
सभी आसपास खड़े लोग हंसने लगे।
“नहीं-नहीं”, भीखू बोला, “मैंने अपने खुद के पैसों से ली है, कसम से।”
“अरे कहाँ से आए इतने पैसे, तेरे पास तो फूटी कौड़ी नहीं होती”, जगन बोल उठा।
“सच कहता हूँ जगन भाई”, भीखू बोला।
“तो फिर यह नई कमीज?” पूछने वाले के साथ-साथ सभी के चेहरे सवालिया थे।
          भीखू ने सकुचाते हुए भेद खोला, “वो मैंने..., मैंने बीड़ी-सिगरेट और पान मसाला वगैरा खाना-पीना छोड़ दिया था न, बस उसी के..., उसी के पैसे बचा-बचा कर यह नई कमीज़ लाया हूँ अपने लिए। वो मुझे एक बाबू ने बोला था एक दिन कि अगर मैं नए और साफ सुथरे कपड़े पहनूंगा तो लोग मुझे अच्छा समझेंगे, मुझे पसंद करेंगे, और उन पर अच्छा..., वो क्या बोला था? ...हाँ, अच्छा ‘इम्प्रैसन” पड़ेगा। ...और मुझे अच्छा काम और अच्छे पैसे भी मिल सकते हैं।“
फिर कुछ याद करता हुआ बोला, “...और उसने यह भी कहा था कि इन चीजों से तो तुम्हारी सेहत ही खराब होगी, ...कल को कोई भयंकर बीमारी भी लग सकती है, फिर क्या करोगे? ...उसने तो बहुत कुछ समझाया था परन्तु मेरी समझ में बस इतना ही आया था।...और मैंने पैसे जोड़ कर यह नई कमीज खरीद ली...।”
       
उपयोग / अशोक दर्द
9418248262
सोहनलाल का तबादला दूर गाँव के हाई स्कूल में हो गया। शहर की आबोहवा छूटने लगी। पत्नी ने सुझाव दिया, “कल प्रधान जी के यहाँ शिक्षा मंत्री आ रहे हैं। क्यों न माताजी से तबादला रोकने की प्रार्थना करवाई जाये। हो सकता है बूढ़ी माँ को देख मंत्री जी पिघल जाएँ और काम हो जाए।”
सोहनलाल को सुझाव अच्छा लगा। वह शाम को ही गाँव रवाना हो गया। सुबह बूढ़ी माँ को लेकर मंत्री जी के पहुँचने से पहले ही प्रधान के घर पहुँच गया।
मंत्री जी अपने लावलश्कर के साथ ठीक समय पर पहुँच गये। लोगों ने अपनीअपनी समस्याओं को लेकर कई प्रार्थनापत्र मंत्री महोदय को दिए। समय पाकर सोहन ने भी अपनी बूढ़ी माँ को प्रार्थनापत्र थमा मंत्री जी के सम्मुख खड़ा कर दिया। काँपती हुई माँ के प्रार्थनापत्र को मंत्री जी ने स्वयं पकड़ते हुए कहा, “बोलो माई, क्या सेवा कर सकता हूँ?”
बूढ़ी माँ ने रटाये गये शब्द बोल दिये, “साहब, मेरे खातिर मेरे बेटे की बदली मत करो, इसके चले जाने से इस बूढ़ी की देखभाल कौन करेगा?”
बूढी माँ के शब्द इतने कातर थे कि मंत्री जी अंदर तक पिघल गये। बोले, “ठीक है माई, आपके बेटे की बदली अभी रद्द कर देता हूँ।”
  मंत्री जी ने साथ आये अधिकारी को कैंप आदेश बनाने को कहा। कुछ ही देर में तबादला रद्द होने के आदेश सोहनलाल के हाथ में थे।
सोहनलाल ने शाम को ही बूढ़ी माँ गाँव भेज दी।                                                                                                                                                                                      पढ़ी गयी सभी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी डॉ॰ अशोक भाटिया तथा डॉ॰ बलराम अग्रवाल द्वारा की गयी। उन्हें इन लिंक्स पर देख-सुन सकते हैं :                                                https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&app=desktop                                                      https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s        

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