सावन की झड़ी / कान्ता रॉय
"भाभी, निबंध लिखवा दो!" चीनू ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
"किस विषय पर?" चीनू की
स्कूल डायरी उठा कर हाथ में लेते हुए बोली, लेकिन नजर
बरामदे पर टिकी थी।
इधर सुषमा बरामदे में खड़ी थी और उधर वो गुजराती
लड़का। बहुत बार मना कर चुकी थी सुषमा को, लेकिन.....!
लड़का। बहुत बार मना कर चुकी थी सुषमा को, लेकिन.....!
बाऊजी नजीराबाद वाले से रिश्ता जोड़ना चाहतें हैं और यह है कि इस गुजराती
में अटकी है!
ननद के चेहरे की मायूसी उसे बार-बार हिमाकत करने को उकसा जाती थी, इसलिये कल रात उसने भी हिम्मत की थी, "बाऊजी, वो पड़ोस में गुजराती लड़का है ना....!"
"हाँ, तो?"
"अपनी सुषमा को पसंद करता है। उसकी नौकरी भी पक्की है, वेयर हाऊस में।"
"वो....? शक्ल देखी है उसकी, काला-कलूटा, जानवर है पूरे का पूरा! उपर से
दूसरी जात!" बाऊजी की आवाज़ इतनी सर्द लगी कि उसकी हड्डियों तक सिहर उठी थीं।
पतिदेव ने उसकी ओर खा जाने वाली नजरों से देखा था।
चीनू ने हाथ से डायरी छीन ली और आँचल खींच फिर से पूछा, "भाभी, बताओ न, जानवरों की
क्रिया-कलापों पर क्या लिखूँ?"
सुषमा और चीनू के लिए वह भाभी कम माँ अधिक थी। "भाभी, मोर क्यों नाचता है?" चीनू ने इस बार सबसे
सरल प्रश्न पूछा था। वैसे चीनू के प्रश्नों के जबाब उसे कई जगह से खोजने पड़ते थे। आज कल के बच्चे कम्पयूटर
से भी तेज, और चीनू उन सबमें
भी अव्वल।
"मोरनी को रिझाने के लिए ही मोर नाचता है।" उसने
स्नेहिल स्वर में कहा।
"और जुगनू क्यों चमकता है?”
"अपने साथी को आकर्षित करने के लिए।"
सुनते ही क्षण भर को वह चुप हो गया।
"आप हमारे भैया की साथी हो?"
"हाँ!" मैं उसकी ओर आँखें तरेरती हुई बोली।
"भैया ने कल रात आपको मारा क्यों?"
"चीनू!" वह एकदम से सकपका गयी, "क्योंकि मैं उन पर ध्यान नहीं देती हूँ।" भर्राये
स्वर में धीरे से बोली।
"तो उनको भी आपको रिझाने के लिए जुगनू की तरह चमकना
चाहिये, मोर की तरह नाचना चाहिये ना?"
"धत्! वे क्यों रिझायेंगे मुझे, वे जानवर थोड़ी ना हैं!"
"भैया जानवर नहीं हैं, लेकिन वह गुजराती तो जानवर है ना, इसलिये तो
सुषमा जीजी को रिझाता रहता है।" कह कर चीनू
जोर-जोर से हँसने लगा। लेकिन वह सुन्न पड़ गयी।
"ये क्या ऊटपटाँग बातें कर रहा है तू?"
"भाभी, निबंध तो मैं खुद ही लिख लूँगा, आप तो बस सुषमा जीजी को उसका मोर
दिला दो! फिर वो कभी आपकी तरह छुप-छुपकर रोयेंगी नहीं
।" और चीनू की नजर भी बरामदे पर जाकर टिक गयी।
राग-अनुराग / नीता सैनी
“हूँ...आ गया।" नानाजी ने जबाब दिया। फिर बैठक में ही बनी अँगीठी (कार्निस) पर अपनी पगड़ी
उतारकर रखी।
इतने में नानी ने फिर आवाज लगाई, "जरा इधर ताँ आयो सरदार जी।"
"आँदा हाँ।" कहकर
नानाजी ने अपना कुर्ता उतार अँगीठी के साथ ही दीवार पर लगी खूँटी पर टाँग दिया।
आँगन में लगे नल से पानी चलाने की आवाज आई। फिर नाना के पैरों की आहट बैठक
से आई तो नानी ने फिर आवाज लगाई,
"सरदार जी, जे एक वार आ जांदे, मैं कद दी बाट जोह रही हाँ।" नानी को दिखता बहुत कम था। फिर भी वह
टोह-टोह कर घर के सभी काम कर लेती थी। उस वक़्त वह बरामदे में बैठी सब्जी काट रही
थी।
"ओये सबर वी करया कर, बस इक
गल्ल दे पिछे ही पै जांदी है।" नानाजी की आवाज में झुँझलाहट थी।
नानी को मीठा खाने का बहुत शौक था। नानाजी जब भी शहर जाते तो वहाँ से नानी
की पसंद की मीठी गोलियों का
डिब्बा लेकर आते थे। डिब्बा हाथ मे पकड़े वे नानी की तरफ बढ़े और मुस्कराते हुए शिकायत के लहजे में बोले, "मेरे
घर विच वड़दे ही बेसबरी हो जांदी है। इन्ना वी सबर नहीं के बंदा बाहरों आया है। कपड़े बदल लैण देवे ते हथ-पैर धो
लेण देवे।"
नानी की सब्जी काटने की रफ्तार तेज हो गई थी, झल्लाकर बोली, "नहीं आना ताँ मर परे। मैं केहड़ा तेरे तों कोई
कम्म करवाना सी, बस तेरे पैर ही छूने सी।"
यात्रा के बीच में / रूप देवगुण
चार
साहित्यकार–अमन, आर्यन, विनय और पुनीत एक कार में बैठे यात्रा कर रहे थे। आर्यन कार चला रहा था।
विनय आगे बैठा था। अमन और पुनीत पिछली सीटों पर थे। सबसे पहले पुनीत बोला,
“हम कार में बैठे यात्रा कर रहे हैं, पर
यात्रा का अर्थ क्या है, यह हम नहीं समझते। बस हमारा ध्यान,
जिधर हमने पहुँचना है, वहाँ लगा रहता है। पर
यात्रा का अर्थ होता है कहीं बीच में किसी रैस्टोरैण्ट या ढाबे पर कुछ देर के लिए
रुकना और आराम से चाय पीना।” इतने में अमन बोला, “यह तो ठीक
है पर कई बार लघुशंका की मजबूरी भी हो जाती है इसलिए एक आध हाल्ट इसके लिए भी होना
चाहिए।” आगे बैठा विनय बोला, “अन्दर बैठे-2 क्या कर रहे हो,
बाहर देखो, कितने हरे-भरे खेत हैं, खेतों में पानी लगा हुआ है, आकाश में बादल छाए हुए
हैं, इनका भी यात्रा में आनन्द लेना चाहिए।” अब आर्यन की
बारी थी, वह बोला, “हालांकि ड्राइव
करने वाले को बोलना नहीं चाहिए पर फिर भी रास्ते में चुप्पी साधना ठीक नहीं होता,
हमें गप्प-शप्प, हँसी-मजाक भी करना चाहिए।”
इतने में विनय बोला, “वो देखो, सामने
कितना बड़ा अच्छा ढाबा दिखाई दे रहा है।” इसपर अमन ने कहा, “इस
ढाबे पर कार को रोकना, हम यहाँ चाय पीएँगे, लघुशंका का समाधान करेंगे, इसके साथ लगे खेतों को
निकट से देखेंगे। आकाश में बादलों को खुल कर देखेंगे और चाय पीते-पीते गप्प-शप्प
भी करेंगे।”
अभी उसने बात खत्म ही की थी कि कार ढाबे के पास जाकर एक साइड पर खड़ी हो
गई।
दो जून की रोटी / देवराज डडवाल
“आप भी न बाबू जी, पता नही कहाँ रह जाते हैं खाने के समय!" वृद्ध ससुर काम निपटाकर थोड़ा बिलम्ब से खाने को आये तो बहू रजनी बुरी तरह से बिफर पड़ी।
"तो क्या मैं स्वयं ले लूँ खाना बहू?" थरथराती आवाज मे उसने पूछा।
"पता नही आपके हाथ कैसे हैं," कहते हुए रजनी तपाक से उठी, " अभी पहुँची
ही थी सोफे तक…बच्चे तो आपके हाथों से कुछ भी खाना नही चाहते।" वह निरन्तर बड़बड़ाए जा रही थी।
एक थाली मे तीन चपातियाँ, थोड़े चावल व तरकारी डालकर लाई और उसे वृद्ध ससुर के समक्ष रख दिया। काँपते हाथों से वृद्ध ने खाना खाया। लड़खड़ाते हाथों से खाते समय चावल के
कुछ दाने फर्श पर गिर गए । वे उन दानों को फर्श से उठाकर थाली मे डाल ही रहे थे कि
बहू की नजर पड़ गई, "आप कोई बच्चे हैं बाबू जी! क्या कर
रहे हैं आप यह?"
“कुछ नही बहू, बस चार दाने फर्श
पर गिर गए।"
"अच्छा, ये चार दाने हैं? कमाने जाओ तब पता चले आटे-दाल का भाव," रजनी
ने ससुर को बुरी तरह लताड़ लगाई।
रजनी की लताड़ खाये वृद्ध ने दराती उठाई व पशुओं का चारा लेने चल दिये
"अरी रजनी, तुम्हारे
ससुर जी इतनी धूप मे दराती उठाकर कहाँ जा रहे हैं?" पड़ोसन
रीना ने बुज़ुर्ग की अनदेखी पर उसे चेताते हुए पूछा।
"पता नही दी...मानते किसकी है ये?…क्या जरूरत पड़ी है इन्हें अब इस उम्र मे काम करने की। दो जून की रोटी ही
तो खानी है, परन्तु माने तब न।"
रजनी का यह जबाब सुन रीना मुँह बिचकाकर अंदर चली गई, जबकि पलपल बदलती बहू की बात सुनकर
वृद्ध की कमजोर टाँगें लम्बे डग भरने लगी थीं।
निक्कू नाच उठी / नीरज सुधांशु
नींद में भी कसमसा रही थी निक्कू, ठीक से सो नहीं पा रही थी। माँ
समझ गई, उसने तेल मालिश की व थोड़ी देर पैर दबाए तब जाकर
उसे नींद आ पाई। ‘सारा दिन उछलती कूदती रहती है, एक
मिनट भी चैन से नहीं बैठती, खाने में चोर और नाचने में
मोर है, पैर तो दुखेंगे ही ना!’ कहते हुए माँ ने उसका
माथा प्यार से चूम लिया व चादर ओढ़ा दी।
सच ही तो था। जब से निक्कू के दादा-दादी
आए थे। सारा दिन उन्हें अपने खिलौने, किताबें दिखाने में लगी रही, उनके साथ खेलती रही। शाम को उन्हें लैपटॉप पर अपनी पसंद के गाने लगवा कर
डांस भी करके दिखाया। सबने रोका कि अब बस करो, पर वह
कहाँ रुकने वाली थी, घंटे-भर तक डांस करती रही।
“मम्मा, आज चाचू बी आएँगे न?” सुबह उठते ही उसने माँ से
पूछा।
“हाँ बेटा।”
“मम्मा, मैं उनको बी डांस करके दिखाऊँगी।”
“नहीं बेटा, इस बार खिलौने दिखा देना, डांस अगली बार दिखा
देना।” माँ ने समझाने की कोशिश की।
“नईंईंईं..., मम्मा, मुझे डांस करके दिखाना है।” उसने ज़िद
की।
“कल आपके पैर दुख रहे थे
न! आप फिर थक जाओगे।”
“ऊंऊंऊं...।”
“अच्छे बच्चे मम्मा का
कहना मानते हैं न!” माँ ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में लेकर कहा।
उसने उदास मन से सहमति में गरदन हिलाई और
दौड़कर दादाजी के कमरे में गई, “दादू, दादू, आज मैं
डांस नईं करूँगी।”
“क्यों बेटा?”
“मम्मा ने मना किया है। कल
रात को मेरे पैर में दुखु हो रा था न इसलिए।”
“ठीक कह रही है मम्मा, हम बैठकर गेम खेलेंगे, ओके...!”
उसने अच्छे बच्चे की तरह सहमति जताई।
शाम को जब चाचू आए तो उन्होंने निक्कू को
आवाज़ लगाई, “हमें नहीं नाच के
दिखाओगी?”
“मम्मा ने मना किया है।”
उसने मायूसी से कहा। उसने गुस्से में खिलौने भी नहीं दिखाए व अनमनी-सी घूमती रही।
चाचू ने उसका मूड ठीक करने की कोशिश की, “अच्छा चलो हम यहाँ बैठकर मोटू-पतलू
देखेंगे।”
“मुझे नी देखना।” कहकर वो
रूसकर जाने लगी। आखिरकार चाचू टी वी के सामने बैठकर चैनल बदलने लगे।
पर ये क्या!! निक्कू तो नाचने लगी।
टीवी से धीमे स्वर में आती मधुर संगीत की
आवाज़ और किसी ने नहीं पर निक्कू के पाँवों ने सुन ली थी। और वे थिरक उठे।
स्वर्ग की ओर / शील कौशिक
प्रदीप
की 82 वर्षीय माँ का हृदयगति रुकने के कारण स्वर्गवास हो गया l उनके अंतिम प्रस्थान की
तैयारियाँ चल रहीं थी l वहाँ खड़े एकत्रित लोग आपस
में बतियाने लगे–
“भाइयो ! ऐसी मौत तो परमात्मा भाग्यवान को ही देता है... वह न तो स्वयं
कष्ट पाई और न ही किसी को दुःख–तकलीफ दी... झट से चली गई ... ये हार्ट फेल भी क्या
गज़ब की बीमारी है... बन्दा एक सैकिंड में पूरा हो जाता है l”
तभी अंतिम संस्कार हेतु आये पंडित और अन्य लोगों के बीच खुसर–पुसर हुई–
“अरे भाई सोने की सीढ़ी भी तो चाहिए, इनके पड़पोता भी तो होगा?”
“पड़पोता तो नहीं, पड़पोती है l” प्रदीप ने बताया l
एकदम सबको साँप सूँघ गया हो जैसे।
“फिर तो बिमला देवी सोने की सीढ़ी नहीं चढ़ेगी l” पंडित ने आदेशात्मक स्वर में कहा l
प्रदीप की पत्नी सुधा खड़ी चुपचाप सुन रही थी, यकायक बोली, “ पड़पोती तो
है न बिमला देवी की, माँ को सोने की सीढ़ी चढ़ाओ l ”
सुधा को चारों ओर विरोध के स्वर सुनाई पड़े l
“पता है क्या तुम्हें, यही बिमला देवी थी, जिसने जब पड़पोती हुई थी तो थाली
बजवाई थी...कुआँ पुजवाया था और मोहल्ले भर में लड्डू बाँटे थे l वो हमेशा कहा करतीं–क्या बेटा और क्या बेटी, दोनों
पैदा तो एक ही माँ की कोख से होते हैं और एक ही माँ–बाप की औलाद हैं l दोनों को लाड़-प्यार से पालो, एक बराबर शिक्षा और
संस्कार दो और अपने पैरों पर खड़ा करो l माँ तो
अपनी पड़पोती को हमेशा सीने से लगाये फिरती थी l सबको
कहती थी–अब तो मैं मरने पर सोने की सीढ़ी चढ़ सकूंगी, पड़पोती
का मुँह जो देख लिया है l फिर उनकी भावनाओं की
कद्र करते हुए आप लोग उन्हें सीढ़ी क्यों नहीं चढ़ाते हो ?” सुधा ने तैश में आकर कहा l
कुछ देर सन्नाटा छाया रहा, परन्तु स्वयं प्रदीप व कोई भी रिश्तेदार इंकार न कर सका l धीरे–धीरे वहाँ खड़े लोगों के सिर भी आगे की ओर हिलने लगे l सुधा को लगा सहमति के स्वरों के साथ –साथ अम्मा जैसे पड़पोती का हाथ पकड़ कर
सुनहरी सीढ़ियाँ चढ़ती स्वर्ग की ओर जा रही है और चारों तरफ दुधिया प्रकाश फैला हैl
सीमा / सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
"माँ ऐसे गुमसुम बाहर क्यों बैठी हैं? चलिए अंदर टीवी पर आपका पसंदीदा नाटक आ रहा है|"
"माँ ऐसे गुमसुम बाहर क्यों बैठी हैं? चलिए अंदर टीवी पर आपका पसंदीदा नाटक आ रहा है|"
"कहना क्या चाह रही हो माँ?"
"बहू जरा नजर रख अंशुल पर। कहीं
मेरी तरह, तेरी तक़दीर में भी अकेलापन न लिख दिया जाए।"
"माँ, आप भी अपने बेटे पर शक
कर रहीं हैं और कल सब्जी लेते समय सुमन भी कुछ ऐसा ही संकेत कर रही थी|"
"ठीक कह रही हूँ बहू, छूट
देने का खामियाज़ा खुद भुगती हूँ| अब वही दुःख तुझे भी
भुगतते नहीं देख सकूंगी|"
"जी माँ आप चिंता न करें|" सामने से अंशुल को आता देख मुस्कराहट की चादर ओढ़ ली।
अंशुल के कमरे में आते ही कुसुम ने प्रश्नों की बौझार उस पर शुरू कर दी। अंशुल बड़ी चालाकी से हर प्रश्न
का उत्तर साफगोई से देकर बचता रह। कुसुम के सिर की कसम
खाकर अंशुल ने बोला- "तुम्हें धोखा देने की तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता।"
कुसुम को विश्वास हो गया अंशुल ऐसा कुछ नहीं कर सकता। फिर भी माँ की बात उसके दिल में
खटक रही थी। बच्चे का क्रंदन भी ना सुन पाई। अंशुल ने कहा–"अब तो सब क्लियर हो गया, फिर भी क्या सोच रही हो?"
वह चुपचाप अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए दरवाजे की तरफ पीठ कर बैठ गयी। उसने पीठ की ही थी कि कामवाली की
पायल की आवाज गूंजी| अंशुल भी दबे कदम कमरे से बाहर चला
गया, उसने रसोई में जाकर कामवाली का हाथ पकड़ा ही था कि
दरवाजे पर छड़ी लिए खड़ी कुसुम को देख घबरा गया।
कुछ समय बाद माँ अंशुल के घावों पर हल्दी लगाते हुए बोली – "कहा था न बाप की राह पर मत चलना। मैं कमजोर थी, पर बहू नहीं।" पढ़ी गयी सभी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी डॉ॰ अशोक भाटिया तथा डॉ॰ बलराम अग्रवाल द्वारा की गयी। उन्हें इन लिंक्स पर देख-सुन सकते हैं : https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&app=desktop https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s
धन्यवाद सभी लघुकथाओं को पढ़ने और नजदीक से देखने जानने का अवसर देने के लिए
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