Saturday, 4 November 2017

पंचकुला-2017 : हिन्दी लघुकथाएँ… तीसरी कड़ी

ज्ञान का प्रकाश / पवन जैन
एक बडा सा पंडालउसमें पाँच फुट ऊँचा स्टेज। स्टेज पर सिंहासनसिंहासन पर बैठे महंत जी जिनके गले में रूद्राक्ष की माला और मोटी मोटी सोने की तीन-चार जंजीरेंउनकी मंद-मंद मुस्कान जनता को प्रभावित कर रही थी।
आज नौ दिन का यज्ञ सम्पन्न हुआसमापन पर आसपास के गांवों से जुड़ा हजारों की संख्या में यह जनसमुदाय जय जयकार के नारे लगा रहा था।
प्रकाश ने प्रचार प्रसार में जी जान जो लगा दी थीहजारों की यह भीड़ पिछले कई  दिनों से की गई उसकी मेहनत का ही तो परिणाम था। महंत जी ने उसे अपना दाहिना  हाथ बना लिया था तथा विशेष आशीर्वाद देने का आश्वासन भी दिया था।
नौ दिनों तक खूब धार्मिक वातावरण रहाप्रवचनभजनभक्ति और आरतीजनता ने भी जी खोल कर चढ़ावा चढाया।
अनुमान से बहुत ज्यादा दीक्षायें दे कर महंत जी प्रसन्न थे एवं जनता को आशीर्वाद दे रहे थे ।
अचानक प्रकाश ने मंच पर आ कर घोषणा की , "महंत जी आज बहुत खुश हैइस गाँव को निरंतर ज्ञान मिलता रहे इसलिए चढावे की पूरी राशि एक विद्यालय बनाने में लगायेंगे।"
पंडाल में चारों तरफ से गूंज रही तालियों की आवाज से महंत जी का दिल बैठ रहा था।
यज्ञ समापन पर पधारे जिलाधीश ने सहमति देते हुऐ घोषणा की, "यह यज्ञ भूमि विद्यालय को आबंटित की जाती है।" 
उन्होंने महंत जी के हाथों में कुदाली पकड़ाकर तुरंत ही भूमि पूजन हेतु मजबूर कर दिया।
महंत जी ने क्रोध से कुदाली चलानी शुरु कीदस्तूर हो चुका था पर अब भी उनकी कुदाली रूक नहीं रही थी।
उनके पसीने की बूंदे मिट्टी में मिल रहीं थी पर लगातार बदलते चेहरे के भावों से स्पष्ट हो रहा था कि था कि अब उनका क्रोध शांत होता जा रहा है ।
कुछ ही देर में वे खडे़ होकर बोले, "प्रकाश तुम्हारा रोज दीपक जलाना मुझे समझ आ गयातुम प्रवचनों में ज्ञान ढूंढ रहे थे और मैं पैसों की खनक देख रहा था। पर इन पसीने की बूंदों से मेरा लोभ भी अब धुल गया है।"  
"आओ एक दीपक जलाओ जिसकी रोशनी दूर- दूर तक फैले।"
                             
मूछ का ताव / लक्ष्मी नारायण अग्रवाल

"क्या हुआ गोवर्धन जमीन गिरवी क्यों रख रहे हो ?'
 "क्या बताऊं लाला पिछली बार फसल अच्छी हुई थी। बेच कर हाथ में पैसा आया भी था कि एक दिन पड़ौसी का बेटा नई मोटर साइकिल ले आया और मूछों पर ताव देते हुए मेरे घर के सामने से चार  चक्कर लगा डाले । मुझे और मेरे बेटे को गुस्सा आ गयापैसे तो हाथ में थे ही हम गए और उनसे  भी मंहगी एक मोटर साइकिल ले आएबचे हुए पैसे बीज और खाद में लग गए। लेकिन इस बार सूखा पड़ जाने से अगली फसल के लिए पैसे नहीं हैं। पहली बार बेटी पेट से है उसकी ससुराल भी कुछ तो भेजना पड़ेगा।'
"तो मोटर साइकिल बेच दो ।'
 "लड़का बेचने ही नही देता ।'
 "तुम उसके बाप हो या वो तुम्हारा ?'
 "बहुत कोशिश की मानता ही नहींउसी के नाम पर जो है ।'
 "तो भाई गोवर्धन इसका मतलब तो ये हुआ कि पड़ोसी अगर कार ले आए और तेरे घर में किसी के  पैसे रखे हैं तो तुम कार ले आओगे।'
"हाँ लाला, गल्ती तो हुई है।'
 "अच्छा ये बता तेरी जमीन कितनी है?'
 "तीन एकड़ ।'
 "और पड़ोसी की?'
 "तीस ।'


 काला अध्याय / राधेश्याम भारतीय
वह औरत अपने पति के कत्ल-केस मे सजा काट रही थी।
कारागार में जितने भी कैदी थेउन सबके रिश्तेदार उनसे मिलने आते थे। औरत का मन भी अपने बच्चों से मिलने को बेचैन हो उठता। उसने जेलर से प्रार्थना की कि वे उसे उसके बच्चों से तो मिलवा दें। कई बार कहने के बाद आज उसकी दोनों बेटियां उससे मिलने आई थीं।
उसे उसकी बेटियों के पास ले जाया गया। वे जाली के दूसरी ओर खड़ी थीं।
आओमेरी बेटियो, आओ  मेरे गले लग जाओ!” औरत मानो उनके बीच जाली की दीवार को फाड़कर उन्हें गले लगा लेना चाहती थी।
बोलो बेटी बोलो। कुछ तो बोलो। तुम चुप क्यों हो? मैं तुम्हारी माँ हूँ....
माँ!…कैसी माँ…किसकी माँ ! तू माँ नहीं, डायन हैडायन! तू हमारे बाप को खा गई। ...छिःछिः तूने प्यार में अंधी होकर…।
प्यार नहीं दीदी, हवस!…अंधी हवस...” छोटी बेटी ने भी मन की आग उगल दी।
मुझे इसकी सजा मिल रही है…।”
“...तुम्हें तो तुम्हारे किये की सजा मिली हैलेकिन हमें?…हमें किस जुर्म की सजा मिली…?”
तुम्हें किसने सजा दी?”
तुम्हारे पाप ने....!
मेरे किये की सजा तो मैं भुगत रही हूँदेखोमेरे कपड़ों की ओर ।
“...और जो दिखाई न देवह सजा नहीं?…मेरे दादा-दादी अपने बेटे की याद में कैसे तिल-तिल मर रहे हैंक्या वह सजा नहींऔर उससे बड़ी सजा…चंद सालों बाद जब दादा-दादी नहीं रहेंगे तो कैसे ‘गिद्ध’ हमें नोच-नोच खायेंगे…” इतना कहते-कहते बड़ी बेटी फूट-फूटकर रोने लगी।
उसे रोते देख छोटी बेटी भी बिलख पड़ी।
                                
पहचान तलाशते रिश्ते / रणजीत टाडा
बाद दोपहर का समय था। सूरज अपने पूरे तेज के साथ चमक रहा था। सड़कों पर चहल-पहल थी। स्कूल की छुट्टी के बाद  मैं घर लौट रही थी। लोकल बस स्टॅाप से घर के लिए मुझे काफी पैदल चलना पड़ता है। सड़क के तीन मोड़। अभी दूसरे मोड़गैस एजेंसी वाली सड़क पर मुड़ी ही थी कि पीछे से एक कार बराबर आ कर रूकी। दो लोग उतरे और मुझे कार में खींचने लगे। मैंने पूरी ताकत से विरोध किया। मुझे निढ़ाल करने के लिए वे थप्पड़़-घूसे मारने लगे। मेरी साधारण-सी सलवार-कमीज फाड़ने की कोशिश की।
        मैं संघर्ष करते हुए मदद के लिए चिल्लाई। लेकिन कुछ ही दूरी पर गैस एजेंसी के बाहर खड़े छः-सात लोगों के कानों पर जूं तक न रेंगी।
        तभी वहां से गुज़र रहे एक बुजुर्ग ने ‘हैल्प-हैल्प!‘ चिल्लाते हुए उन लोगों को उनके मुर्दापने पर डांटा तो उनमें से एक ने उल्टा बुज़ुर्ग से ही पूछा, ‘‘आप उसके क्या लगते हो?‘‘
        बुज़ुर्ग गुस्से में चीखा, ‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को! किसी औरत से रिश्ता न हो तो क्या एक अनजान आदमी उसकी मदद भी नहीं कर सकता?‘‘ फिर भी उन लोगों की आत्मा न जागी।
 लेकिन मेरे कमजोर संघर्ष में शायद उस बुज़ुर्ग की चीख शामिल हो जाने के कारण वे मुझे वहीं छोड़कर कार में भाग गए।
मैं एक स्कूल में लगभग बारह साल से पढ़ा रही हूंलेकिन मेरे साथ ऐसा होगाऐसा तो कभी न सोचा था। बुजु़र्ग की तरह मुझे भी अब उन दर्शकों पर गुस्सा आ रहा था। मैनें उनसे पूछा, ‘‘जब मैं चिल्ला रही थी कि कार का नम्बर नोट कर लोतो आपने क्यों नहीं किया?‘‘
एक आदमी बोला, ‘‘हमने सोचाजो आपको ‘रंडी-रंडी‘ बोल रहा थावो आपका पति है!‘‘

आसक्ति / मधु जैन
बनारसी दास ने सर्विस के दौरान अपार दौलत इकठ्ठी की। बिना पैसे लिए कभी किसी का काम नहीं किया। बढ़िया घरबच्चे भी विदेशों में अच्छी जॉब परघर में शानोशौकत की हर चीज मौजूद। पर इस लक्ष्मी के आने से घर की लक्ष्मी रूठ कर परलोक सिधार गई।
बच्चों के पास जाना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें घर और सामान से अत्यधिक लगाव था।
रिटायरमेन्ट के बाद घर में अकेले। मिलनसार, पर एक नंबर के कंजूस भी थे।
आज काम वाली बाई के कई बार घंटी बजाने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो वह पड़ोसी अजय से जाकर बोली, "भाईसाब, अंकल जी दरवाजा नहीं खोल रहे।"
किसी तरह दरवाजा खोल अंदर जाकर देखा तो बनारसीदास जी अपनी पत्नी के पास पहुँच चुके थे।
अजय ने उनके बच्चों को सूचना दी तो वे बोले, "अंकल जी, इतनी जल्दी तो हम लोगों का आना संभव नहीं है। आप लोग ही....."
अब अजय ने कालोनीवासियों को इत्तला दी।
"अजय, इनका तो इस शहर में कोई नहीं है। क्यो न हम पुलिस को सूचित कर दें।" कॉलोनीवासियों की सलाह थी।
"हाँ यही ठीक रहेगा।"
पुलिस के आने के पहले ही घर के सभी कीमती सामान कालोनीवासियों  के घरों की शोभा बढ़ा रहे थे।

अबोला / अन्तरा करवड़े
सवा पाँच बज चुके थे। दिन भर की बारिश के बाद की ठिठुरन के चलते चाय का कप उठाते हुए हाथ काँप गएतब न चाहते हुए भी ओढ़ाये गए दुशाले को उन्होंने नागरिक सम्मान की तरह स्वीकार कर लिया था।
ठीक साढ़े पाँच पर रामभरोसे आता है। बारिश के दिनों में वे उसे कुछ पैसे दिये रहते हैंपकोडेजलेबीकचौरी जैसी खुशियाँ खरीद लाने के लिये। आज तो दिन भर से ऎसी मूसलाधार बारिश है कि... याद आते ही स्वाद ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं। इस उम्र में खुशियों के पैमाने और धीरज का खिंचाव छोटा होता जाता है।
आधा घन्टा बीत गया हैधुआं-धुआं-से रास्ते पर एक लम्बी सी आकृति उभर रही है। रामभरोसे का बेटा।
घर में पूरा पानी भर गया है साहबबापू बीमार हैं। आपकी मदद को भेजा है। कहें तो कुछ पका दूँ।
दमा वाली साँस और साड़ी की सरसराहट से उनकी उपस्थिति दर्ज होती है। आँखे सजलमुख पर पीड़ा और वात्सल्य के मिले-जुले भाव। वे बैठे रहते हैंहाल चाल पूछतेस्वाद ग्रन्थियों की तृप्ति न हो पाने का मलाल करते। अन्दर से गिलास भरकर अदरक वाली चाय और नाश्ता आया है। युवक के चेहरे पर भक्तिभाव तैरने लगा है।
वे कुछ ठगा-सा महसूस कर रहे हैं।
अभी आया,” कहकर कमरे में जाते हैं। तिपाई पर पुराने गर्म कपड़ों की पोटलीपैकेटबन्द नाश्ता और कुछ पैसे रखें हैं। कुछ बोलना चाहते हैं लेकिन बाम की तीव्र गंध और असहयोग आंदोलन के समान उनकी ओर की गई पीठ, इसकी अनुमति नही देती। थोड़ा नरम पड़कर मन ही मन मुस्कुराते ज़रुर हैं।
फाटक लगा लीजियेहम रामभरोसे के घर जा रहे हैं।
जी।” संक्षिप्त-सा प्रतिउत्तर मिलता है। अच्छा लगता है।
रामभरोसे के घर आज वे खुशियाँ बाँटते हैं,  प्रेम की ऊष्मा फैलाते हैं,  तृप्त हो जाते हैं।
वापसी मेंरामभरोसे के भतीजे की रिक्शा में उन्हे घर छुड़वाया जा रहा है। मन ही मन कल्पनाएं कर रहे हैंइतनी सारी खुशियों भरी झोली को खाली करना है...लेकिन। खैरअब उन्होंने सोच लिया हैस्वयं ही बातचीत की पहल करेंगेऔर पत्नी को कभी भी ’बातूनी’ होने का ताना नही देंगे। 
ब्रेकिंग न्यूज़ / सुषमा गुप्ता
"साहब ये तो मर चुका है। बुरी तरह जल गई है बॉडी। और कार भी बिल्कुल कोयला हो रखी है। आग तो भीषण ही लगी होगी।" कॉन्स्टेबल रामलाल अपने इंस्पैक्टर साहब से हताश-सा बोला। बहुत भयानक बदबू फैली थी माँस जलने की। वह बदबू से बेहोश होने को था। फिर भी बड़ी हिम्मत से उसने जाँच की।
"अरे रामलाल, पूछ तो आसपास के लोगों से कुछ देखा इन्होंने?" इस्पैक्टर साहब गरज कर बोले।
भीड़ में से एक आदमी बोला, "सर, कुछ क्या सबकुछ देखा। दस मिनट में तो सब पूरी तरह से जल कर राख हो गया। हम पाँचों यहीं थे तब।"
"आप क्या कर रहें थे पाँचों यहाँआपने कोशिश नहीं की आग बुझाने की?"
"सर हम आग कैसे बुझाते?"
"तो आप सब खड़े देखते रहे?"

"नही सर हमनें वीडियो बनाई है न। अलग अलग ऐंगल सेताकि मीडिया दिखा सके कि ये हुआ कैसे।"                                                                                                                                                                                                                                          पढ़ी गयी सभी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी डॉ॰ अशोक भाटिया तथा डॉ॰ बलराम अग्रवाल द्वारा की गयी। उन्हें इन लिंक्स पर देख-सुन सकते हैं :                                                                                                                                                                      https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&app=desktop                                                                                                                                                                               https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s

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