नजदीक की दूरी / सतविन्द्र कुमार राणा
सतविन्द्र कुमार राणा |
"पापा जी सालगिरह मुबारक हो! आज आपकी और मम्मी जी की शादी सालगिरह है
न?" मंझली बहू धीरे-से बोली।
"आँ...हाँ..हाँ, ग्यारह मई है, आज ही।" याद करते हुए बोले।
"बहू! इसको क्या ध्यान रहना
था, कभी ये चोंचले किये ही नहीं।"
माँ की शिकायत में तंज था।
दूसरी बहू ने छेड़ा, "पापा जी को
नया फोन मिलेगा आज तो गिफ्ट में।"
पिता जी धीमे-से मुस्कुराए।
छः बेटों के किसान पिता। सब बच्चे अब बाप बन चुके थे। छः कमरे का मकान, संयुक्त परिवार का घर था।
चाय के साथ सब ने पकौड़े खाए। सबने उन्हें सालगिरह की बधाई दी। पिताजी को
सस्ता-सा नया फोन मिला, जिसे वे आसानी से चला सकते थे।
चलने के लिए उठे तो माँ ने टोका, "कहाँ चल दिए अब?"
पिता जी झट से बोले, "वहीँ जो
बरसों से मेरा ठिकाना है, तबेले के साथ वाला कोठड़ा।"
अब माँ चुप थी।
पिताजी आगे बोले, "तू सँभाल
अपने पोते-पोतियों को और मैं सँभालूँ भैंसों को।"
दोनों के होठों पर मुस्कान और आँखों में विवशता झलक रही थी।
पिता जी चले गए।
माँ बड़बड़ा रही थी ,"बड़े परिवार
में बड़े पास रहते हैं, पर एक साथ नहीं।"
मौन शब्द / विभा रश्मि
विभा रश्मि |
"सुनो ! दोनों में
नोक-झोंक चल रही है। आज सुबह से बहू-बेटे में रूठना-मनाना जारी है।"
घबरा कर
अधेड़ पत्नी अपने पति से बोली।
"सुनो! उनके बेडरूम
से तेज़ आवाजें आ रही है, खूब झगड़ रहे है।"
"क्यों, क्या हुआ?" पति का स्वर चिन्तित था।
"शिकायत चल रही है, दो साल हो गये शादी को, बहू ने न जाने कितनी बार हमारे बेटे से प्यार का इज़हार किया। पर हमारे बेटे ने ‘वे शब्द’ नहीं बोले पलट के, जो आजकल बोलने का बहुत फ़ैशन हो गया है।"
"क्या नहीं बोल, कौन-से शब्द?" पति का सवाल था।
"वोही···…।" पत्नी के नेत्रों में इस उम्र में भी रंगीन बल्बों की लड़ियाँ जल उठी थीं।
"अच्छा…अच्छा··· ।" पति समझ गया।
उसे लगा पत्नी कहीं वे 'खास शब्द' बोल न पड़े। आगे बढ़ कर उसने अधेड़
पत्नी की मुलायम हथेली अपनी दोनों हथेलियों में कैद कर उसे चुप करा दिया और उसे
असीम प्यार से तकता रहा।
दूसरे की माँ /
सीमा
जैन
सीमा जैन |
"अजब इंसान है तू! तुझमें थोड़ी-बहुत इंसानियत भी बची है
या नही? …तुझे अपनी अपाहिज़, बीमार
माँ से मंदिर और पूजा की ज़्यादा चिंता है। माँ का ज़रा भी ख़्याल नही…?" मेरा दोस्त श्याम एक साँस में सब कुछ कह गया।
मैंने थकी-सी आवाज़ में कहा, "माँ की चिंता है तभी तो एक पुजारी का इंतज़ाम करने के लिए भटक रहा हूँ। जो
मेरे पीछे त्यौहार के समय मंदिर को संभाल ले।” फिर अपने आँसू पीते हुए मैंने बात
आगे बढ़ाई, “ ये मंदिर की नौकरी ही तो हमारी रोज़ी-रोटी है। ये
चली गई तो मैं माँ के साथ सड़क पर आ जाऊँगा…मुझे अपने कैंसर के इलाज़ के लिए शहर
जाना है।”
दोस्त को सोच में पड़ा देख उसने आगे कहा, “और ये सलाह माँ ने ही दी है दोस्त कि कोई मंदिर संभालने
को मिल जाये तो तू शहर चला जा…एक बार नंबर चला गया तो फिर पता नही कब लगे?
“हाँ यार, ये समस्या तो है। तुम
अकेले ही हो माँ की देखभाल करने वाले।” श्याम बोला।
“…और यदि मैं भी न रहा तो..."
श्याम ने मुझे रोककर मेरा हाथ थाम लिया, "तुम चिंता न करो, मैं घर और
मंदिर दोनों संभाल लूंगा…हमारे मंदिर को पिताजी देख लेंगें।"
मैंने खुश होते हुए कहा,
"अपनी माँ को तो सभी संभालते हैं,
पर दूसरों की माँ को संभालने वाले बहुत कम हैं। तुमने मेरा बहुत बड़ा
बोझ उतार दिया श्याम।"
एक दर्द भरी मुस्कान के साथ वह बोला- "अब तो अपनी माँ को संभालने वाले
भी कम हो रहे हैं दोस्त!"
खमियाजा / पवित्रा अग्रवाल
“अरे यार बंसल, बहुत दिनों बाद मिले हो? कैसे हो? बच्चे कहाँ हैं?”
पवित्रा अग्रवाल |
“एक बेटा कनाडा में है और
एक अमेरिका में।”
“तो क्या तुम और भाभी यहाँ
अकेले हो?”
“हाँ गुप्ता, अब तो अकेले ही हैं और लगता है मरते दम तक अकेले ही रहेंगे।”
“अरे ऐसा क्यों सोचते
हो…चल सामने के रेस्त्रां में बैठ कर चाय पीते है।”
रेस्टोरेंट
में चाय का इंतजार करते गुप्ता को बंसल से हुए एक पुराने वार्तालाप की याद आ गई। उसने कहा था –‘अरे गुप्ता तू तो पूरा कंजूस है, इतना पैसा होते हुए भी बच्चों का कैरियर बनाने में पीछे रह गया। मेरे पास
तो इतने साधन भी नहीं थे, फिर भी पेट काट कर दोनों लड़कों को
इंजीनियर बनाया है। दोनों को बड़ा अच्छा पैकेज मिला है। अब चैन से हूँ। बस दोनों की
शादी और हो जाये, अच्छी संस्कारी बहुएँ आ जायें तो
जिंदगी आराम से कटे।’
उसने कहा था ‘अरे यार, बेटे तभी तक अपने हैं जब तक शादी नहीं होती।’
उसने कहा था ‘अरे यार, बेटे तभी तक अपने हैं जब तक शादी नहीं होती।’
चाय आने
के साथ ही उसका ध्यान भंग हुआ। बंसल ने पूछा, “तुम्हारे बच्चे कैसे हैं, कहाँ हैं?”
“यहीं हैं हमारे साथ। मैंने तो ग्रेजुएशन करा के बाईस की उम्र में दोनों की शादी कर दी थी । घर के व्यापार में लगे हैं तो भाग कर भी कहाँ जायेंगे?...लोग मुझे हमेशा कंजूस कहते रहे क्योंकि मैंने बच्चों को डाक्टर, इंजिनियर नहीं बनाया। पर अब लगता है कि अच्छा ही किया…ज्यादा पढ़ाता तो कैरियर की तलाश में हमें छोड़ कर कहीं दूर जा बैठते। फिर इतने बड़े व्यापार का मैं क्या करता?...अब दुःख तकलीफ में हम एक दूसरे के साथ तो हैं।”
“शायद तुम ठीक ही कह रहे हो। मुझे भी अब यही लगता है... बच्चो को ऊँची शिक्षा दिलाने का खमियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।”
“यहीं हैं हमारे साथ। मैंने तो ग्रेजुएशन करा के बाईस की उम्र में दोनों की शादी कर दी थी । घर के व्यापार में लगे हैं तो भाग कर भी कहाँ जायेंगे?...लोग मुझे हमेशा कंजूस कहते रहे क्योंकि मैंने बच्चों को डाक्टर, इंजिनियर नहीं बनाया। पर अब लगता है कि अच्छा ही किया…ज्यादा पढ़ाता तो कैरियर की तलाश में हमें छोड़ कर कहीं दूर जा बैठते। फिर इतने बड़े व्यापार का मैं क्या करता?...अब दुःख तकलीफ में हम एक दूसरे के साथ तो हैं।”
“शायद तुम ठीक ही कह रहे हो। मुझे भी अब यही लगता है... बच्चो को ऊँची शिक्षा दिलाने का खमियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।”
बेबसी / लता अग्रवाल
लता अग्रवाल |
“आ ! ले ! ले !” रात के
समय तीन आवारा अय्याश सड़क पर बैठी उस पगली को खाने का पैकेट दिखा कर अपनी ओर बुला
रहे थे।
खाने के पैकेट के प्रति
पगली की लालसा देखकर लगता था उसने काफी समय से कुछ नहीं
खाया था। वह उनके पीछे- पीछे उस अँधेरे की और चल दी।
अपनी भूख शांत करने के लिए वह ओरों की भूख का शिकार हो गई।
अंडेवाला / शोभा
रस्तोगी
शोभा रस्तोगी |
नुक्कड़
पर रेहड़ी लगाके दुबला और गँवार-सा आदमी अंडे बेचता है। एक के ऊपर एक कई एग-ट्रे
रखी हैं | साथ ही गर्म
तवा भी, जिस पर आमलेट बनता है। कुछ छुटपुट सामान भी।
मैं अंडे लेने उसकी रेहड़ी पर पहुँची ही हूँ। चार अंडों का ऑर्डर दिया है। यकायक
मेरी तीन साला बेटी मेरा हाथ छुड़ाकर तिरछी-सी झुक गई है। मैं हैरान! तभी देखती हूँ
कि अंडेवाले के सिकुड़े से मुंह पर अर्थपूर्ण मुस्कान
फ़िसल आई है जो मुझे बिल्कुल नागवार गुजरी। मैं परेशान और ये… मुस्कान ? मैं उसे बिना कुछ बोले
थोड़ा-सा झुकती हूँ । अब आश्चर्यमिश्रित मुस्कान की बारी
मेरी है | रेहड़ी के दोनों पहियों पर लम्बवत्, लकडी का एकफट्टा बिछा है। उसपर एक तरफ़ डलिया है जो शायद डस्टबिन का काम कर
रही है। बाकी कुछेक रद्दी पेपर। उसी सब के बीच दो-चार किताबें हैं जिन्हें हाथ में
पेंसिल लिये गहरी सांवली रंगत पर सपनों की झिलमिलाती चमक सजाए पाँच-छह वर्षीय एक बच्चा पढ़ रहा है। उसकी मोटी आँखों में दूर तक
उजाला साफ़ दिखता है। मेरी बेटी को देख उस उजाले का एक टुकड़ा उसके गालों तक उतर आया
है। मैं सीधी खड़ी होती हुई अपना दायाँ हाथ उठा
देती हूँ अंडेवाले के सम्मान में।
वह जो नहीं कहा / स्नेह गोस्वामी
सुबह 6 बजे
सुनो
जानू! आज तुम टूर पर हो तो लग रहा है आज यह घर पूरा का पूरा मेरा है। लग रहा है
मैं आज सच्चे अर्थो में घरवाली हूँ, वर्ना तो शाम के समय पूरे घर में तुम्हारी ही आवाजें
सुनाई देती हैं–
‘सुनती हो चाय बनाओ, जल्दी से खाना लाओ, चादर नहीं झाडी अब तक भई! तुम तो सारा दिन सोयी रहती हो और अब आधी रात तक
बर्तन बजाती रहोगी। अब दूध क्या एक बजे रात दोगी।’ पूरा
दिन यही सब सुनते बीतता है। पर आज कितनी शान्ति है। आज मैंने शादी के बाद पहली बार
अदरक डली चाय बनाई है। अब आराम से अपना मनपसन्द कोई नॉवल पढ़ना चाहती हूँ। तुम तो
अपनी मीटिंग की फाइलों में उलझे होवोगे, फिर भी बाय!
स्नेह गोस्वामी |
सुबह 10 बजे
सुनो
जानू, मीटिंग शुरू हो गई
क्या? पक्का हो गई होगी। मैंने भी मन्नू भंडारी का ‘आपका बंटी’ खत्म कर लिया। बेचारा बंटी! पर बंटी
को बेचारा होने से बचाने के चक्कर में कितनी शकुन हर रोज़ बेचारी होती है। तुम मर्द
कैसे समझोगे। खैर जाने दो। मैंने आज अपने लिए सैंडविच और पोहा बनाया, चटखारे ले कर खाया। रोज-रोज आलू के परांठे खा के उब गयी थी। तुम तो कभी
ऊबते ही नहीं परोंठों से। मन में संतुष्टि हो रही है। अब कुछ देर टी.वी. पर कोई
सीरियल देखूंगी। जब तुम घर होते हो तब तो टी. वी. पर या तो न्यूज चलती हैं या फिर
कोई मैच; वह भी तब तक जब तक तुम्हारा मन करे वरना
टी.वी. बंद। अरे कोई अच्छा सा सीरियल शुरू हो गया है, इसलिए
बाय!
दोपहर 3 बजे
जानू, आज मैंने कई दिनों बाद फिल्म
देखी। लगा था, जिन्दगी मशीन हो गई है। पर नहीं दिल अभी
धड़क रहा है। पुराणी फिल्म थी साहिब बीबी और गुलाम। मीना कुमारी छोटी बहू बनी है; गरीब घर की बेटी और बड़े जमींदार की पत्नी। पति को नाचने वाली से और शराब
से फुर्सत नहीं। बीवी बेचारी सारी जिन्दगी उसे खुश
करने के चक्कर में पागल हुई रहती है। सुनो! ये हसबैंड लोगों को बाहर वालियां क्यों
अच्छी लगती हैं? बेशक कोई बाहर वाली घास भी न डाले, पर ये लट्टू हुए आगे-पीछे घूमते रहेंगे। घरवाली को सिर्फ कामवाली बाई बनाए
रर्क्खेगें। अरे, आज सफाई तो की ही नहीं। चलो, अब थोड़ी सफाई कर ली जाय, फिर खाना सोचूंगी।
बाय!
शाम 7 बजे
जानू, शाम को सफाई में ही तीन
घंटे लग गए। आज मैंने घर रगड़-रगड़ कर साफ़ किया। एक-एक खिड़की दरवाजा, रोशनदान झाड़ कर चमकाये। इस घर पर सच में बहुत प्यार आया। फिर सारी चादरें
बदलीं, सोफा-कवर बदले। पूरा घर अलग ही लुक दे रहा है।
कपड़े धोने के लिए मशीन में डाले। फिर अपने लिए रोटी बनाई। सब्जी तो वही पड़ी थी जो
रात तुम्हारे लिए बनाई थी, उसी के साथ खा ली। अब कुछ
देर गाने सुने जाएँ, ठीक! बाय !
रात 11 बजे
सुनो
जानू, शाम को खाना तो
बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ीं। खाया ही आठ बजे था, पर
कोफ़ी का एक कप बनाया। एक तुम्हारा भी बन गया था सो दोनों कप मुझे ही पीने पड़े। फिर
सास-बहू के सीरियल देखे। बहुत दिनों से देखे नहीं थें, पर
लगा नहीं कि एक साल बाद देखे। वही कहानी, वही करेक्टर, वही उनके षड्यन्त्र। फिर भी अच्छा समय बीत गया। अब सोने जा रही हूँ। अच्छा
अब गुड नाईट!
रात दो बजे
सुनो
जानू, तुम तो सो
चुके होवोगे, पर मुझे नींद नहीं आ रही। तुम्हारे
चीखने-चिल्लाने की आवाजें सुबह से अब तक नहीं सुनी।
शायद इसलिए या इस समय पूरे कमरे में गूँजते खर्राटो के बिना सोने की आदत नहीं रही
इसलिए। कारण जो भी हो पर नींद तो सचमुच ही नहीं आ रही। इतना अच्छा दिन बीता फिर तो
निश्चिंत हो कर सोना चाहिये था न, फिर भी नहीं
सोई। तुम से पूरी तरह से न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही। पर
तुम यह सब कैसे जानोगे। तुम खुद कभी ये समझोगे नहीं और मैं तो शायद कभी कह ही नहीं
पाऊँगी। क्योंकि जब तुम घर में रहोगे तो यह घर तुम्हारा ही होगा. तुम ही बोलोगे, तुम ही हुक्म दोगे। मैं तो
सिर्फ– ‘जी, आई जी, जी लाई जी,’ ही कह पाती हूँ। पर फिर भी तुम्हें
मिस कर रही हूँ। अपनी मीटिंग जल्दी से खत्म करो और आ जाओ। मुझे नींद नहीं आ रही
है।
पढ़ी गयी सभी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी डॉ॰ अशोक भाटिया तथा डॉ॰ बलराम अग्रवाल द्वारा की गयी। उन्हें इन लिंक्स पर देख-सुन सकते हैं : https://www.youtube.com/watch?v=mUv_WAdGIZs&app=desktop https://www.youtube.com/watch?v=Lb6k0h8Nc9s
ल घुकथा सम्मेलन में पढ़ी गई कथाएँ अपनी पृथक पहचान लिये थीं । सभी साथियों को बधाई ।आ. बलराम भाई आ.अशोक भाटिया जी की विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ आगे लघुकथा लेखन के मार्ग को आसान पर पुख्ता बनाएँगी । जिससे हर लघुकथाकार अपनी कथा को स्वयं ही तराशकर पेश करने में सक्षम हो सकेगा ।
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