न हन्यते हन्यमाने शरीरे
गत
एक वर्ष मन लगातार उद्विग्न रहा है; और 25-26 अक्टूबर के बाद तो कोई दिन ऐसा नहीं
बीता जब अन्दर ही अन्दर आँसू लगातार न झरे हों।
लघुकथा
लेखन ने जो बृहद् परिवार दिया है, उसमें से किसी का भी चले जाना मस्तिष्क को हिला
जाता है, ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ को जानते हुए भी।
डॉ सतीश दुबे |
जीवन
में कई बार ऐसा घटित होता जाता है कि मस्तिष्क जो कहता है, मन उसे स्वीकार नहीं
करता, तर्क पर तर्क देता हुआ अपनी बात मनवाता रहता है। गत 25 दिसम्बर, 2016 से अब
तक यह लगातार हुआ है। इनके सन्दर्भ में राम-नाम के सत्य को मन स्वीकार नहीं कर रहा
है।
उम्र
में और लेखन में भी, बहुत वरिष्ठ होने के बावजूद उनका सम्बोधन ‘आप’ ही रहता था। कई
सालों से प्रत्येक नवरात्र की नवमी तिथि को मैं उन्हें फोन किया करता था। एक बार नवमी
के बजाय दशहरे की शाम को किया तो उधर से बोले—“हाँ, मैं कल आपके फोन का इन्तजार
करता रहा। अब सोच ही रहा था कि आज तो आपका फोन जरूर आएगा।” लेकिन विडम्बना देखिए
कि इस साल (मार्च-अप्रैल 2017 में पड़े) चैत्र नवरात्र की नवमी भी खाली गयी और
सितम्बर 2017 में पड़े शारदीय नवरात्र की नवमी भी। ऐसा नहीं कि भूल गया था; याद रहा,
इस बार तो हर बार से ज्यादा याद आया, लेकिन फोन की ओर हाथ बढ़ाने की, नम्बर डायल करने
की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
सुरेश शर्मा जी |
रोना
ऐसा भी होता है, सच कहूँ, पहली बार जाना। आँसू अब से पहले भी भीतर गिरते रहे हैं, लेकिन
अब से पहले इतनी गहराई से महसूस नहीं किया था।
इन्होंने
ही सुरेश शर्मा जी के चले जाने की सूचना फोन पर दी थी। संयोग से उस समय नासिक में
था और त्र्यम्बकेश्वर दर्शन की ओर मेरा मुख था। शायद इसीलिए शर्मा जी के प्रति मन
अनजानी श्रद्धा से भर गया था। त्र्यम्बकेश्वर महादेव के प्रांगण में बैठकर कुछ समय
सुरेश शर्मा जी की ओर से जाप किया था। तब से, जब भी देव-दर्शन का संयोग बनता है,
सुरेश शर्मा जी मेरी स्मृति में आ जाते हैं। जैसे मैं अपने पिताजी-चाचाजी की ओर से
मंत्र जाप करता हूँ, सुरेश शर्मा जी की ओर से भी करता हूँ। उस कड़ी में अब ये भी आ
जुड़े हैं। सोचा नहीं था कि इतनी जल्दी आ जुड़ेंगे।
गत
1 नवम्बर, 2016 को मेरे मोबाइल पर संदेश आया—‘जन्मदिन मुबारक हो।’ मैंने तुरन्त
फोन किया—“प्रणाम भाईसाहब, अभी से?”
बोले,
“हाँ।”
“लेकिन
मुझसे पहले तो आपका जन्मदिन पड़ेगा?”
बोले,
“बलराम भाई, पहले-बाद का मसला ही नहीं है। यह पूरा माह हमारा है। इसलिए पहले ही
संदेश भेज दिया कि कहीं आप बाजी न मार लें।”
‘कोई
दूसरा बाजी न मार ले’ की स्पर्द्धात्मक भावना का यह स्नेह-पक्ष था। उसके बाद तो 12
नवम्बर को भी बात हुई, 26 नवम्बर को भी और एक बार सम्भवत: दिसम्बर के पहले-दूसरे
सप्ताह में भी। इतनी जल्दी-जल्दी वार्तालाप के बीच से संवादकर्ता का उठकर अनायास
चले जाना कचोटता है। आखिर हुआ क्या? भरे-पूरे परिवार को, हँसती-खिलती महफिल को
एकाएक भौंचक कर, बिना कुछ बताए क्यों चले गये?
लेकिन,
यह शिकायत करें किससे? पूछें किससे?
इन
सवालों के बावजूद हम निश्चिन्त हैं। क्यों? इसलिए कि हमारा विश्वास जैसे ‘जातस्य
हि ध्रुवो मृत्यु’ में है, वैसे ही ‘ध्रुवं जन्म मृतस्य च’ में भी है; और ‘न
हन्यते हन्यमाने शरीरे’ में तो अटूट है। ‘न हन्यते’ के रूप में उनका लेखन हमारे
बीच मौजूद है, मौजूद रहेगा।
मन
है कि उनके इस मौन को उनकी कुछ लघुकथाओं के माध्यम से तोड़ू; लेकिन इस समय नहीं। यह
जिम्मेदारी उठाने की स्वस्थ मन:स्थिति में नहीं हूँ। यह समय उनकी स्मृति को नमन
करने का है। 12 नवम्बर का इन्तजार मुझ पर बहुत भारी पड़ रहा है, इसलिए आज ही इस
पोस्ट को डाल देने को विवश हूँ। मित्रगण क्षमा करें। –बलराम अग्रवाल
Aadarneey Balram ji,
ReplyDeletePranaam.Yah Adab ka hi kamaal hai ki Jo log sansaar se vida ho jaane par bhi apne Rachna sansaar me sadaa moujood rahte hai.Dr Satish Dube se mera vyaktishah milna nahi hua,lekin unhe padhta raha hu.Mere pratham Laghukatha Sangrah 'Akshay Toonir' ki samixa unhone likhi thi jo 'Shesh' me chhapi thi.Tab maine apni krutagyata jaahir karte hue unse phone par baat ki thi.Mere shabdon ke uttar me unhone jo Aasheervachan kahe vah mere smruti kosh ki anmol poonji hai.Mujhe laga jaise mere shabd sadharan jal boondon ki tarah hai jinhe unhone Panchaamrut me tabdeel kar mere kaano me udel diya ho.Mai to dhanya kya balki nihaal ho gaya jab unhone kaha" Vaisnav ji, aapki anubhoot laghukathaen us durlabh Nyayik Lok se aaee hai jinhe koi aap jaisa Nyaadheesh hi likh sakta hai." Unki yaaden mera prerna srot bankar mujhe sadaa Oorjavaan rakhegi.Shree Radha Rani Dubeji ki mahaan Atma ko apne shree charnon me sthan den. Murlidhar Vaishnav
सादर नमन। विनम्र श्रद्धांजलि *****
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