Monday, 16 September 2024

मंटो की चुनी हुई लघुकथाएँ

'सियाह हाशिए' (1955) से चुनी हुई कुछ लघुकथाएँ। प्रस्तुति : बलराम अग्रवाल 


'सियाह हाशिए' का समर्पण पृष्ठ

             उस आदमी के नाम जिसने 

                अपनी खूंरेज़ियों

            का जिक्र करते हुए कहा : 

            जब मैंने एक बुढ़िया को मारा 

             तो मुझे ऐसा लगा--

            'मुझसे क़त्ल हो गया...!!'

।।1।।

करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।

लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलग कर दिया ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।

एक आदमी को बहुत दिक़्क़त पेश आई। उसके पास चीनी की दो बोरियां थीं जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं। एक को तो वह जैसे-तैसे रात के अंधेरे में पास वाले कुंए में फेंक आया; लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो ख़ुद भी साथ चला गया।

शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएं में रस्सियां डाली गईं।

जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया। लेकिन वह चंद घंटों बाद मर गया।

दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएं में से पानी निकाला तो वह मीठा था।

उसी रात उस आदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे।

।।2।।

ग़लती का सुधार

'कौन हो तुम ?'

'तुम कौन हो ?'

'हर-हर महादेव... हर-हर महादेव!'

'हर-हर महादेव!'

'सुबूत क्या है ?'

'सुबूत...? मेरा नाम धरमचंद है।'

'यह कोई सुबूत नहीं।'

'चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।'

'हम वेदों को नहीं जानते... सुबूत दो।'

'क्या ?'

'पायजामा ढीला करो।'

पायजामा ढीला हुआ तो शोर मच गया- 'मार डालो... मार डालो।'

'ठहरो... ठहरो... मैं तुम्हारा भाई हूं... भगवान की क़सम, तुम्हारा भाई हूं।'

'तो यह क्या सिलसिला है ?'

'जिस इलाक़े से मैं आ रहा हूं, वह हमारे दुश्मनों का है... इसीलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ़ अपनी जान बचाने के लिए... एक यही चीज ग़लत हो गई है, बाक़ी मैं बिल्कुल ठीक हूं...'

'उड़ा दो ग़लती को...'

गलती उड़ा दी गई... धरमचंद भी साथ ही उड़ गया।

।।3।।

हलाल और झटका

'मैंने उसकी शहरग (हृदय से मिलने वाली सबसे बड़ी नस) पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया।'

'यह तुमने क्या किया ?'

'क्यों?'

'इसको हलाल क्यों किया ?'

'मज़ा आता है इस तरह।'

'मजा आता है के बच्चे... तुझे झटका करना चाहिए था... इस तरह।'

और हलाल करने वाले की गरदन का झटका हो गया।

।।4।।

घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया। रात गुज़ार कर एक दोस्त ने उससे पूछा- 'तुम्हारा नाम क्या है?'

लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया- 'हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो...!'

लड़की ने जवाब दिया- 'उसने झूठ बोला था।'

यह सुन कर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा--"उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया है। हमारे ही मजहब की लड़की थमा दी चलो, वापस कर आएँ।'

।।5।।

बंटवारा

एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक़ चुना। जब उसे उठाने लगा तो वह अपनी जगह से एक इंच भी न हिला।

एक शख़्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज़ मिल ही नहीं रही थी, संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाले से कहा- 'मैं तुम्हारी मदद करूं ?'

संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाला मदद लेने को राजी हो गया।

उस शख़्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज़ नहीं मिल रही थी, अपने मज़बूत हाथों से संदूक़ को हिलाया और उठा कर पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया; और दोनों बाहर निकले।

संदूक़ बहुत भारी था। उसके वज़न के नीचे, उठाने वाले की पीठ चटख रही थी और टांगें दोहरी होती जा रही थीं। मगर इनाम की उम्मीद ने उसके शारीरिक श्रम के अहसास को आधा कर दिया था।

संदूक़ उठाने वाले के मुक़ाबले में संदूक़ को चुनने वाला बहुत कमज़ोर था। सारे रास्ते सिर्फ़ एक हाथ से संदूक़ को सहारा देकर वह अपना हक़ बनाए रखता रहा।

जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुंच गए तो संदूक़ को एक तरक़ रख कर सारा श्रम करने वाले ने कहा- 'बोलो, इस संदूक़ के माल में से मुझे कितना मिलेगा ?'

संदूक़ पर पहली नज़र डालने वाले ने जवाब दिया, 'एक चौथाई।'

'यह तो बहुत कम है!'

'कम बिल्कुल नहीं, ज़्यादा है... इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।'

'ठीक है, लेकिन यहां तक इस कमरतोड़ बोझ को उठा के लाया कौन है?'

'अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो ?'

'ठीक है, खोलो संदूक़।'

संदूक़ खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में काट डाला।

।।6।।

बेख़बरी का फ़ायदा

लबलबी दबी। पिस्तौल से झुंझलाकर गोली बाहर निकली। खिड़की में से बाहर झांकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।

लबलबी थोड़ी देर बाद फिर दबी। दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली।

सड़क पर भिश्ती की मश्क फटी। वह औंधे मुंह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में घुल कर बहने लगा। लबलबी तीसरी बार दबी। निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई।

चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई। 

पांचवीं और छठी गोली बेकार गई। कोई हलाक हुआ न जख़्मी।

गोलियां चलाने वाला भिन्ना गया।

अचानक सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया।

गोलियां चलाने वाले ने पिस्तौल का मुंह उसकी ओर मोड़ा। उसके साथी ने कहा, 'यह क्या करते हो?' गोलियां चलाने वाले ने पूछा, 'क्यों?' ' गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!' ' तुम ख़ामोश रहो... इतने से बच्चे को क्या मालूम ?'

।।7।।

मुनासिब कार्रवाई

जब हमला हुआ तो मुहल्ले में कुछ अल्पसंख्यक लोग क त्ल हो गए। जो बाक़ी बचे, जानें बचाकर भाग निकले। एक आदमी और उसकी बीवी अलबत्ता अपने घर के तहखाने में छिप गए।

छिपे हुए मियां-बीवी ने दो दिन और दो रातें हमलावरों के आने की आशंका में गुज़ार दी, मगर कोई नहीं आया। दो दिन और गुजर गए। मौत का डर कम होने लगा। भूख और प्यास ने ज़्यादा सताना शुरू किया। चार दिन और बीत गए। मियां-बीवी को जिंदगी और मौत से कोई दिलचस्पी न रही। दोनों उस शरणस्थली से बाहर निकल आए।

पति ने बड़ी धीमी आवाज में लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट किया और कहा, 'हम दोनों अपना-आप तुम्हारे हवाले करते हैं। हमें मार डालो।' जिनका ध्यान आकर्षित किया था, वे सोच में पड़ गए-

'हमारे धरम में तो जीव-हत्या पाप है...' उन्होंने आपस में मशविरा किया और मियां-बीवी को मुनासिब कार्रवाई के लिए दूसरे मुहल्ले के आदमियों के सुपुर्द कर दिया।


(प्रकाशित : 'सनद', अक्टूबर-दिसम्बर, 2013/संस्थापक सम्पादक : फ़ज़ल इमाम मलिक)

6 comments:

Anonymous said...

मंटो को पढ़ना सहज है, लेकिन उसके लिखे शब्दों को महसूस करना, उसके कहे को समझना आसान नहीं है।
प्रस्तुत रचनाएँ 7-8 दशक के बाद भी पढ़ते समय साँसों को थाम लेती हैं।

Anonymous said...

वाह वाह बहुत सुंदर
सभी लघुकथाएं एक से बढ़कर एक

Anonymous said...

मंटो की लघु कथाएं अद्भुत

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर संकलन

Onkar said...

सुंदर प्रस्तुति

Anonymous said...

मंटो को पढ़ना स्वयं को समृद्ध करना है।