Wednesday, 26 December 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-11


आज 'जनगाथा' ने बारहवें वर्ष में प्रवेश किया………

इसकी शुरुआत कराने वाले प्रिय कथाकार-कवि-अनुवादक मित्र

सुभाष नीरव का, मेरे बेटे प्रिय आकाश का और धेवते प्रिय नेहिल

का भी आज जन्मदिन है। 

इन सभी को बधाई के साथ, आइए, पढ़ते हैं—ग्यारहवीं कड़ी की

लघुकथाएँ
 
[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  9 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018 तथा 20 दिसम्बर 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी  ग्यारहवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  ग्यारहवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…

51 मधुदीप—जनपथ का चौराहा
52 मनोज सोनकर—बाप
53 महेंद्र सिंह महलान—थूक सने चेहरे
54 महेश दर्पण—मुहल्ले का फर्ज
55 महेश शर्मा— सॉरी डिअर चे!


51

मधुदीप

जनपथ का चौराहा  
शाही सवारी राजपथ पर आगे बढ़ रही है| विंटेज विक्टोरिया बग्घी में अरबी घोड़ों की जगह गुलाम जुते हैं| भिश्ती अपनी मशकों से आगे–आगे छिड़काव करते जा रहे हैं| सुन्दर युवतियाँ पुष्पवर्षा कर रही हैं| दोनों ओर प्रजाजन हाथ जोड़कर अभिवादन में खड़े हैं| उनकी आँखें नीचे झुकी हैं| किसी को भी दृष्टि उठाकर देखने की अनुमति नहीं है| राजसेवक हंटर लिए खड़े हैं|
    प्रचण्ड सूर्य अब सिर के ऊपर आकर चमक रहा है| शाही सवारी एक तोरण द्वार के पास पहुँच रही है| गुलामों के पाँव थकने लगे हैं| उनकी चाल सुस्त पड़ने लगी कि कोचवान का चाबुक उनकी पीठ पर बज उठा|
   “यह गलत हो रहा है!” सुरक्षा का अभेद्य घेरा भेदकर तोरण द्वार की ओट से एक अधनंगा व्यक्ति उछलकर राजपथ पर पहुँच गया|
   सुरक्षा कर्मी उसकी ओर झपट रहे हैं|
   “ठहरो!” राजपुरुष की गम्भीर आवाज राजपथ पर गूँजी तो सुरक्षाकर्मियों के पाँव जड़ हो गए |
  “क्या गलत हो रहा है नवयुवक ?” भारी आवाज में रौब है|
  “आपकी बग्घी में आदमी जुते हुए हैं|”
  “नहीं नवयुवक, हमारी बग्घी को तो घोड़े खींच रहे हैं|”
  “आप असत्य कह रहे हैं...|”
  “राजपुरुष का कथन कभी असत्य नहीं होता| क्यों कोचवान, क्या हमारी बग्घी में आदमी जुते हुए हैं|”
  “नहीं राजपुरुष, बग्घी में तो अरबी घोड़े ही जुते हैं| पिछले माह ही तो आपने इन्हें अरब के व्यापारी से ख़रीदा है|”
  “अब तो आप संतुष्ट हो नवयुवक!” राजपुरुष आश्वस्ति भरे स्वर के साथ कोचवान को बग्घी आगे बढ़ाने का आदेश दे चुका है|
  कोचवान के बार-बार चाबुक फटकारने  के बाद भी बग्घी आगे नहीं बढ़ रही है| अधनंगा व्यक्ति सामने तना खड़ा है| बग्घी में जुते गुलाम अब सीधे खड़े हो रहे हैं| कोचवान और राजपुरुष के साथ बग्घी पीछे की तरफ उलट रही है| राजपथ के दोनों ओर खड़े प्रजाजनों की दृष्टि अब ऊपर उठ रही है| सुरक्षा का घेरा टूट गया है| भीड़ ने आगे बढ़कर उस अधनंगे व्यक्ति को ऊपर उठा लिया है| राजपुरुष सड़क पर खड़ा काँप रहा है|
     सामने ही जनपथ का चौराहा है|
संपर्क : 138/16, ओंकार नगर बी, त्रिनगर दिल्ली-110035



52

मनोज सोनकर 

बाप 
रामनगीना किसी कंपनी में बहुत बड़े अफसर हैं| कंपनी ने उन्हें महँगी सोसाइटी में शानदार फ़्लैट दिया है| गाँव बाढ़ के कारण बर्बाद हो गया है, इसलिए उनके माता-पिता उनके साथ रह रहे हैं|
“दद्दा! आप बालकनी में खड़े होकर दतुअन कर नीचे न थूकिए| पड़ोसी हमें जंगली बताते हैं|” रामनगीना कुढ़े हैं|
“मेरे सामने कोई ऐसा कहेगा तो दस जूते मारूँगा|” पिता गरजे हैं|
“दद्दा! आप जोर-जोर से गाकर रामायण न पढ़िए| कान फट जाते हैं|”
“जिनके कान फट रहे हैं, उन्हें कानों में रुई ठूँस लेनी चाहिए| रामायण सुनने और सुनाने से पाप कट जाते हैं, मुक्ति मिल जाती हैं| हम तो गाकर ही पढ़ेंगे|”
“आप बालकनी में अंगोछा पहनकर मालिश मत कीजिए| कुछ लोगों को बुरा लगता है| औरतें कुढती हैं|”
“लोग गए जहन्नम में! मैं तो बालकनी में खड़े होकर, अंगोछा पहनकर ही मालिश करूँगा| सरसों का तेल बहुत गुणकारी होता है| जो सरसों के तेल से लगातार मालिश करता है वह कम से कम सौ साल जीता है| तेरे दादा एक सौ बीस बरस की उम्र में मरे थे, अस्सी तो मैं भी पर कर चुका हूँ|”
“आप जोर-जोर से रेडियो और टीवी नहीं चलाइए|”
“मेरे कान कमजोर हो गए हैं, जोर-जोर से नहीं चलाऊँगा तो सुनूँगा कैसे?”
“आप बालकनी में बैठकर हुक्का मत पीजिए|”
“तुम बालकनी में सिगरेट पी सकते हो, तो मैं हुक्का क्यों नहीं पी सकता?”
“आप अँगोछा और बंडी में सब्जी लेने बाजार मत जाइए| सब लोग आपको पहचानने लगे हैं, कुछ मेरा खयाल कीजिए|”   
“सब्जी लेने मैं नंगा तो नहीं जाता! कुछ-न-कुछ पहनकर ही जाता हूँ| रही लोगों की बात, तो किसी ने मुझे ख़रीदा नहीं है| गांधी जी तो आधी धोती पहनकर पूरे देश में घूमते थे! उन्हें लोग आदर देते थे, टोकते नहीं थे|”
“आप ड्राइवर को बहुत मुँह मत लगाइए|”
“उसे मुँह नहीं लगाऊँगा तो किसे मुँह लगाऊँगा| वह अपने गाँव का है, अपने जिले का है, अपनी भाषा समझता है, अपनी बोली समझता है|” 
“आप पान खाकर यहाँ-वहाँ मत थूकिए| दीवारें गन्दी हो जाती हैं, सीढ़ियाँ गन्दी होती हैं, लोग भुनभुनाते हैं|”
“पान पाचक होता है, स्वास्थ्यवर्धक होता है। उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ? पान खाऊँगा तो थूकूँगा भी| फिर, मैं पान खाकर किसी के मुँह पर तो नहीं थूकता|”
“होली, होली है| आप सब पर रंग मत डालिए। कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगता है| सब लोग एक जैसे नहीं होते हैं|”
“मैं तुमसे बड़ा हूँ और जानता हूँ कि होली में सब बराबर होते हैं|”
“आप बरसात में फटी छतरी लेकर मत निकलिए|”
“नई क्यों खराब करूँ ?”
“आप दूसरों के बच्चों को घुमाने मत ले जाइए। यह उनके नौकरों का काम है|”
“बच्चों में तो भगवान बसते हैं|”
“आप भलरू  को हजार रूपये मत दीजिए। उसने हमारी मदद नहीं की थी|” 
“जरुर दूँगा| वह मुसीबत में है|”
“वह बड़ा आदमी है।+ उसके रुतबे और इज्जत का कुछ तो खयाल कीजिए|” माँ फुसफुसाई|
“बात-बात पर हुक्म चलाता है, मैं उसका बाप हूँ या वह मेरा बाप है!” बाप गरजा है|
“इन देहातियों की सही जगह देहात ही है। इन्हें टरकाना होगा|” बेटा बुदबुदाया है|
                                संपर्क व फोटो : प्रतीक्षित



53 

महेंद्र सिंह महलान

थूक सने चेहरे
सूरतो पहली बार केवल दो दिन ही ससुराल ठहर पाई। वापिस आई तो उसका फूल-सा चेहरा कुम्हलाया हुआ था। दूसरी दफा जब पति लेने आया तो उसने साथ जाने से साफ मना कर दिया। ससुर को आना पड़ा, मगर वह टस से मस नहीं हुई। बात बढ चली। अन्ततः उसका ससुर अपने पुत्र एवं गाँव के एक प्रभावषाली व्यक्ति धन्ना सेठ को लेकर उसके यहाँ आ डटा। पर वह अपनी बात पर अड़ी रही। झगड़े का फैसला ग्राम-पंचायत में पहुँचा। सूरतों के पिता को पंचायत में हाजिर होना पड़ा। उसकी खिल्ली उड़ाई गई, खरी-खोटी बातों की बौछार होने लगी उस पर। वह तिलमिलाता हुआ घर पहुँचा और सूरतो का हाथ पकड़कर घसीटते हुए पंचायत में लाकर उस पर चिल्लाया, ‘‘हरामजादी, क्यों मेरी इज्जत को धूल में मिला रही है? जाती क्यों नही ससुराल? बताती क्यों नही कि क्या बात है? तू...तू ही दे जवाब!’’
          ‘‘बताए या न बताए, हम इसकी चुटिया पकड़कर ले जायेँगे आज! पूरे पाँच हजार के गहने चढ़ाए हैं इसको!... क्या सेंत-मेंत में ही डकारकर बैठ जाएगी यां?’’ यह सूरतो के ससुर की गर्जना थी, ‘‘बेटा, देखते क्या हो...जीप में डाल लो इसे!’’
          हाँ-हाँ, हम इसे जबरदस्ती ले जाएँगे। दीनू ने अपने बेटे का विवाह किया है इनके साथ, कोई चारी या ठगी नहीं की! क्यों भाइ्र पंचो, तुम्हें तो ऐतराज नहीं है?’’ दीनू के साथ आया उसका अभिन्न मित्र धन्ना सेठ भी मूँछों पर हाथ फेरता हुआ उठ खड़ा हुआ।
          ‘‘ऐतराज मुझे है बदमाश!...क्या तू ही तो वह नहीं जो उस रात शराब पीए मेरी सुहाग की सेज पर चढ़ आया था। तूने इन लोगों को विवाह में गहने बनवाने के लिए पाँच हजार रूपए का बिन ब्याज का कर्जा दिया। क्या इसलिए नहीं कि इन गरीबों के घर कहने को बहू आ जाए, और तुझे मिल जाए एक रखैल?....खबरदार, जो किसी ने मेरे हाथ लगाया!’’
          सामने खड़े सेठ के मुँह पर पिच्च्-से थूक  दिया सूरतो ने। पंचायत खामोश थी। किसी को यह गुमान नहीं था कि गऊ-सी दिखनेवाली गाँव की वह अनपढ़-गँवार छोकरी भरी सभा में सत्य को यों नगा करके रख देगी।
          सेठ के मुँह पर चिपका थूक पोंछने का साहस अब किसी में नहीं था। सूरतो के कथित पति व ससुर में भी नहीं। उन्हें तो स्वयं अपने चेहरे थूक से सने नजर आ रहे थे।
                            जन्म : 07-01-1949 निधन : 03-8-2017   





54
महेश दर्पण

मुहल्ले का फर्ज
            ‘‘तुम अब मुहल्ले के लोफरों के साथ भी घूमने लगे हो....यह सब अच्छा नहीं है, समझे! सारे मुहल्ले में हल्ला हो रहा है कि पांडे जी का लड़का भी लोफरों के साथ मारा-पीटी करता घूमता है।’’
            ‘‘नहीं मम्मी, तुमसे किसने कह दिया! वो तो कल रात मेरे दोस्त की बहन को लड़कों ने घेरकर बदतमीजी करनी चाही थी...तो उन लड़कों के साथ हम लोगों की कहा-सुनी हो गई थी, बस!’’
            ‘‘वो तो सब ठीक हे बेटा्...पर, तुम्हें क्या जरूरत थी खामखां झगड़े-फसाद में टाँग अड़ाने की? तुम्हें पता है, कल सब तो भाग जाएंगे और बदनामी मिलेगी तुम्हें।’’
            ‘‘मम्मी, तुम समझती क्यों नही! कल अगर हमारी शालू को ही कोई छेड़ बैठेगाकृतो क्या मैं अकेले ही निबटने जाऊंगा गुंडो से...!
            आखिर, मुहल्ले में रहने का भी तो कोई फर्ज होता है कि नहीं!’’
                                          संपर्क : प्रतीक्षित 


 
55


महेश शर्मा





सॉरी डिअर चे! 

आज मैं बड़ा उत्साहित था। पूरे कॉलेज में जबरदस्त गहमा-गहमी थी। मेरे सीनियर मणि दा और उनके साथी जो एक दूसरे को कामरेड कहकर सम्बोधित किया करते थे, आज एक जुलूस निकाल रहे थे। हॉस्टल में, उनके कमरे में, वे सब सिर से सिर जोड़े, गरमा-गरम बहस में मशगूल थे, जो मेरी समझ से बाहर थी। बस एक शब्द  ‘बाजारीकरण’ बार-बार मेरे कानों से टकरा रहा था। इस शब्द को लेकर कुछ नारे हाथों-हाथ रचे जा रहे थे जिन्हें मैं लाल रोशनाई से कागज़ की बड़ी-बड़ी शीट पर लिख रहा था।
तभी मेरी नज़र कमरे की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर पड़ी। लम्बे बाल, थोडा उठा हुआ चेहरा, फौजी कैप। नीचे लिखा था--इफ यू ट्रेम्बल विद इंडिग्नेशन एट एवरी इंजस्टिस, देन यू आर ए कामरेड ऑफ़ माइन।
‘‘यह किसका पोस्टर है मणि दा।’’ मैंने पूछा।
मणि दा और उनके साथी हँस पड़े और कहने लगे, “कैसे नौजवान हो यार! चे ग्वेरा  को नहीं जानते?”
फिर जब उन्होंने मुझे चे ग्वेरा के बारे में विस्तार से बताया तो मैंने राय दी, कि क्यों ना हम जुलूस में इस पोस्टर को भी शामिल करें? मेरी राय मान ली गयी।
नारों, कविताओं और गीतों से गूँजता जुलूस कॉलेज से रवाना हुआ। मेरे हाथ में चे का पोस्टर था। मैं उत्तेजना से काँप रहा था।
अचानक सामने से तेज़ शोर उठा। सायरन बजाती हुईं सरकारी गाड़ियाँ हमारी और झपटीं। देखते ही देखते अफरा-तफरी मच गयी। हम पर चारों तरफ से लाठियाँ बरसने लगीं। मैंने देखा—मणि दा अपने साथियों समेत अनेक वर्दीधारियों से भीड़ गए थे।
तभी, एक डंडा मेरी  टाँगों पर पड़ा। मैं चीखकर नीचे गिर पडा। चे का पोस्टर मेरे हाथों से छूटकर सड़क पर आ गया, जिस पर से अनेक बूट गुजर गए।
मेरा सहपाठी मुझे उठाता हुआ बोला, “चल भाग, वर्ना काम में आ जाएँगे।”
मैं घबराकर उसके साथ बेतहाशा भागने लगा। सब-कुछ पीछे छूटने लगा।
थोड़ी देर बाद हमने अपने आपको एक बाज़ार में पाया। हम एक दैत्यकार शॉपिंग माल की पेवमेंट पर बैठे हाँफने लगे।
वहाँ भी मुझे चे ग्वेरा दिखाई दिया। वो एक नौजवान लड़के की टी. शर्ट पर छपा हुआ था।
एक लड़की उस लड़के से हँसते हुए पूछ रही थी, “वाओ, नाइस टी… लेकिन ये है कौन? ए हॉलीवुड स्टार और समथिंग?”
लड़का भी  हँसा, “आई डोंट नो बेब। मे बी सम रॉकस्टार। बट इट्स कूल ना!!!”
                                          संपर्क : प्रतीक्षित 

1 comment:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

सभी को जन्मदिन की शुभकामनाएं हार्दिक बधाई के संग

पढ़ना अच्छा लग रहा है