Monday, 9 July 2018

परिंदों के दरमियां : बुक शेल्‍फ की शोभा मत बनाइए, पढ़ डालिए, रोज पढ़िए / राजेश उत्साही


राजेश उत्साही


लघुकथा पर केन्द्रित बलराम अग्रवाल जी की पुस्‍तक ‘परिंदों के दरमियां’ अपन को भी प्राप्‍त हो गई है।
बलराम जी ने अपनी पिछली बेंगलूरु यात्रा में मुलाकात के समय किताब की तैयारी का जिक्र किया था। तब वे इसके आवरण को अन्तिम रूप देने में जुटे थे। अब किताब प्रकाशित हो गई है। इन्‍दौर के क्षितिज लघुकथा सम्‍मेलन में इसका विमोचन हो गया है।
लघुकथा लेखन और अध्‍ययन करने वालों के लिए यह एक नायाब किरताब बनी है, इसमें कोई शक नहीं है। इसे पढ़ते हुए मुझे बार-बार डॉ.भोलानाथ तिवारी की पुस्‍तक ‘अच्‍छी हिन्‍दी- कैसे बोलें,कैसे लिखें’ याद आती रही। यह पुस्‍तक पिछले पच्‍चीस वर्षों से सन्‍दर्भ के लिए मेरी टेबिल पर हर वक्‍त सामने रखी होती है। बलराम जी ‘परिंदों के दरमियां’ भी लघुकथा के सन्‍दर्भ में इसी श्रेणी की पुस्‍तक है। इस क्रम में अशोक भाटिया जी कीपरिंदे पूछते हैं’ को भी रखा जाना चाहिए।
परिंदों के दरमियां’ के अन्‍दर के पृष्‍ठों पर तो महत्‍वपूर्ण बातें हैं ही। पर मेरा मत है कि केवल लघुकथा लेखक ही नहीं, बल्कि हर तरह का साहित्‍य रचने वालों के लिए सबसे महत्‍वपूर्ण बात किताब के फ्लैप पर ही दी गई है।
वह इस तरह है —
‘‘साहित्‍य सदा ही ‘स्‍वांत: सुखाय’ होता है, कोई माने या न माने। हाँ, इतना जरूर है कि लेखक का ‘अंत:करण’ जितना व्‍यापक होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही व्‍यापक होगी, स्‍वमेय ही ‘परहिताय’ बनेगी। लेखक का ‘अंत:करण’ जितना संकुचित होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही संकुचित रहेगी। कुछ रचनाएँ बाहरी तौर पर जितनी आकर्षक होती हैं, भीतरी तौर पर उतनी ही घातक हो सकती हैं। कुल मिलाकर, स्‍वयं की दृष्टि से स्‍वयं के लिए लिखिए, यह मानते हुए कि आप एक मानवीय इकाई हैं, न कि साम्‍प्रदायिक। यही मानते हुए स्‍वयं की दृष्टि से स्‍वयं के लिए लिखिए, किसी दूसरे के लिए नहीं। दूसरी बात, ’विचार’ में पैनापन और ‘दृष्टि’ में प्रगतिशीलता को पनपाइए। जड़ों से जुड़ने या जुड़ा रहने के मुहावरे को हमने परम्‍परा और रीति-रिवाजों से चिपके रहना मान लिया है, जबकि उनसे चिपके रहना अनेक बार ‘जड़ता’ का ही द्योतक बन जाता है।’’
बलराम जी के इस कथन पर गम्‍भीरता से ध्‍यान दिया जाना चाहिए। लघुकथा लेखकों को तो मेरी सलाह है कि हर बार नई लघुकथा लिखने से पहले एक बार इस कथन को अवश्‍य ही याद कर लें, पढ़ लें। अच्‍छा होगा कि इसका एक पोस्‍टर बनाकर अपने अध्‍ययन कक्ष में लगा लें। वैसे बार-बार पढ़ने पर कुछ समय बाद यह आपके मस्तिष्‍क में ही अंकित हो जाएगा। वैसे जरूरत इस बात की भी है कि इसे ज्‍यों का त्‍यों न मान लें। इसे परत-दर-परत खोलकर भी देखें।
परिंदों के दरमियां’ में 37 लोगों द्वारा पूछे गए सवालों के उत्‍तर हैं। उन उत्‍तरों में 38 लघुकथाओं का सन्‍दर्भ है।
पूछे गए सवाल ज्‍यादातर आम सवाल ही हैं। वे अशोक भाटिया जी की पुस्‍तक में भी थे। अशोक जी ने भी अपनी पुस्‍तक में उत्‍तरों को समझाने के लिए लघुकथाओं और अन्‍य सन्‍दर्भों का उपयोग किया है। ‘परिंदों के दरमियां’ में इसका उपयोग और बेहतर ढंग से किया गया है।
जब-तब यह बात उठती रहती है कि लेखन के साथ-साथ अध्‍ययन भी जरूरी है। और केवल लघुकथाओं का अध्‍ययन नहीं, सभी तरह का, उससे इतर भी। ‘परिंदों के दरमियां’ में बलराम जी ने रघुवीर सहाय, राजेन्‍द्र यादव,नरेन्‍द्र कोहली के विस्‍तृत लेखों और दिनेश कुमार तथा रोहिणी अग्रवाल की संक्षिप्‍त टिप्‍पणियों का उपयोग किया है। मेरी सलाह है कि तीनों लेखों को बहुत ध्‍यान से पढ़ा जाना चाहिए, केवल सरसरी निगाह से नहीं। इनमें कई सारी काम की ही नहीं, विमर्श की बातें भी हैं।
उत्‍तरों को पुष्‍ट करने के लिए विभिन्‍न लेखकों की लघुकथाएँ दी गई हैं। लघुकथाओं की खूबियों के बारे में भी बताया गया है। लेकिन कुछ जगहों पर शायद थोड़े और खुलासे की जरूरत मुझे महसूस हुई।
जैसे लेखकीय दायित्‍वबोध की चर्चा करते हुए तीन लघुकथाओं के उदाहरण दिए गए हैं। जिन दो रचनाओं के बारे में यह कहा गया है वे लेखकीय दायित्‍यबोध की कमी से ग्रसित हैं, उन पर और अधिक चर्चा की जरूरत थी। केवल रचनाएँ पढ़ने भर से ही यह बात समझ नहीं आती है। अव्‍वल तो जिसमें लेखकीय दायित्‍व निभाने की बात है, उसमें भी।
लघुकथा (अपनी या किसी अन्‍य की भी) की समीक्षा कैसे की जाए, उसके क्‍या मानक हैं या हों। इन सब पर सवालों के उत्‍तरों के बीच-बीच में तमाम सूत्र हैं। जैसे कि –
• ‘सैल्‍फ ऐसेस्‍मेंट’ यानी ‘आत्‍म अवलोकन’...‘आत्‍म निरीक्षण’ से बड़ा न कोई अन्‍य आलोचक हो सकता है न गुरु।
जो रचनाकार स्‍व-आलोचना और स्‍व-समीक्षा के मार्ग से गुजरने का अभ्‍यस्‍त नहीं है,परिपक्‍वता की मंजिल तक उसका पहुँचना संदिग्‍ध हो सकता है; साथ ही, बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा को समझने व सहने का विवेक उसमें नहीं पनप सकेगा,ऐसा मेरा (बलराम जी का) मानना है।
अपनी खुद की रचना को उत्‍कृष्‍ट बनाने के लिए उसे यथेष्‍ट अन्‍तरालों के बाद बार-बार पढ़ना और सम्‍पादित करना चाहिए।
• ‘बयान’ का नहीं लेखन का ‘सपाट’ होना कमजोरी है।
लघुकथा का मूल उद्देश्‍य उद्बोधन और उत्‍प्रेरण है। वह अगर दुखांत से आता है तो उसी से आने देना चाहिए।
लघुकथा लेखक सिर्फ इशारा करता है,व्‍याख्‍या नहीं।
अपने अन्‍दर बैठे आलोचक पर विश्‍वास करें। उसे समय-समय पर सही खुराक देते रहें ताकि वह स्‍वस्‍थ्‍य बना रहे।
लघुकथा पूर्ण होने में उतना ही समय लगता है, जितने में लेखक स्‍वयं आश्‍वस्‍त हो।
जिसे हम ‘घटना’ कहते हैं, उसके सच से कई बार अपरिचित होते हैं।
संकेत को लिखना ही नहीं,समझना भी कला है; और इस कला से सिर्फ लेखक को ही नहीं,पाठक और समीक्षक/ आलोचक को भी परिचित रहना चाहिए, स्‍वयं में इसका विकास करना चाहिए।
समीक्षा बौद्धिक कर्म है, बिलकुल वैसे जैसे सृजन मनो-बौद्धिक कर्म है। समीक्षा की कसौटी नि:संदेह विवेक है, मन की भूमिका उसमें गौण रहनी चाहिए।
व्‍यक्तिगत सम्‍बन्‍धों के निर्वहन के बावजूद समीक्षा को पाद-पूजा के स्‍तर तक गिर नहीं जाना चाहिए। यही बात व्‍यक्तिगत द्वेष की भावना पर भी लागू होती है।
लघुकथा लेखन में सबसे पहली चीज नि:संदेह ‘मूल्‍य’ ही है। और तथ्‍य से भी बड़ी बात है कथ्‍य की विश्‍वसनीयता।
आज के समीक्षक को इतना अधिक सैद्धांतिक और शास्‍त्रीय होने की आवश्‍यकता नहीं है। आज की लघुकथा ही यर्थाथवादी है तो उसके आलोचक को भी व्‍यवहारवादी ही होना श्रेयस्‍कर है।
सृजन-कर्म की यदि तटस्‍थ भाव से समीक्षा/आलोचना की गई हो तो सम्‍बन्धित लेखक ही नहीं, उसके आजू-बाजू वाले,यहाँ तक कि अन्‍य समीक्षक और आलोचक भी बहुत-कुछ सीख जाते हैं। सुधार की प्रक्रिया हमेशा ग्रहण करने की नीयत से जुड़ी होती है। ग्रहण करने की नीयत न हो, और रचनाकार अथवा समीक्षक/आलोचक स्‍वयं को दूसरों की तुलना में बेहतर और अधिक जानकार अथवा नि:कृष्‍ट और निर्बुद्ध मानकर चलता रहे तो सुधार की गुंजाइश लेशमात्र भी नहीं बनती है।
परिंदों के दरमियां’ मेंसमीक्षक की कसौटी’ पर बलराम अग्रवाल जी से डॉ. लता अग्रवाल की सारगर्भित बातचीत भी है। लघुकथा की समीक्षा में रुचि रखने वालों को इसे अवश्‍य ही पढ़ना चाहिए।
किताब के अन्‍त में 21 वीं सदी की 22 लघुकथाएँ भी दी गई हैं। उनके आरम्‍भ में ही दी गई टिप्‍पणी इस बात की ओर इशारा करती है कि उसमें हर स्‍तर की लघुकथाएँ हैं। एक मजेदार अवलोकन मैंने यह किया कि 22 में केवल 4 पुरुष लेखक ही इसमें हैं।
तो अगर आपके पास ‘परिंदों के दरमियां’ है तो उसे केवल अपनी बुक शेल्‍फ की शोभा मत बनाइए, पढ़ डालिए, रोज पढि़ए। जिनके पास नहीं है, उन्‍हें मेरी सलाह है कि वे इसे तुरन्‍त हासिल करें।
Rajesh utsahi : Editor(Hindi),Teachers of India Portal,
Azim Premji University, Pixal Park,
B-Block PES Institute of Technology South Campus,
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1 comment:

राजेश उत्‍साही said...

शुक्रिया बलराम जी।