Tuesday, 12 December 2017

डॉ. शकुन्तला ‘किरण’ से डॉ लता अग्रवाल की बातचीत-2

अर्जुन का तीर है लघुकथाडॉ. शकुन्तला किरण

साथियो ! लघुकथा के क्षेत्र में आदरणीया डॉ॰ शकुन्तला ‘किरण’ जी एक जाना-पहचाना और सम्मानित नाम है। आप देश के किसी भी विश्वविद्यालय में लघुकथा के लिए
डॉ॰ शकुन्तला किरण


डॉ॰ लता अग्रवाल
पंजीकृत पहली शोधार्थी व पीएच॰ डी॰ शोधोपाधि प्राप्त व्यक्तित्व हैं (राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर सन् 1976 में पंजीकृत व सन् 1982 में पीएच॰ डी॰ उपाधि प्राप्त)| इस नाते इस क्षेत्र में आज जो भी इतिहास उपलब्ध है उसमें आपकी बड़ी भूमिका है | आपके द्वारा लिखित आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ लघुकथा के महासागर का ऐसा लाइट हाउस है जिससे उस राह के राहगीर और पोत सदैव दिशा और प्रेरणा पाते रहेंगे |

सुखद संयोग रहा कि अक्टूबर 2017 में अजमेर यात्रा के दौरान मुझे उनका निकट सान्निध्य मिला | दीदी ने नवें दशक से ही साहित्य पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से स्वयं को दूर रखा था; किन्तु उस दिन मेरे निवेदन पर (जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी, न ही इस तैयारी के साथ उनसे मिलने गयी थी) उनकी अनुमति से, जो प्रश्न उस समय मस्तिष्क में आये मैंने उनसे किये और उन्होंने सहर्ष उन सबके जवाब भी दिए | उन जवाबों की पहली किस्त इसी ब्लॉग पर कुछ दिन पहले (5-12-2017 को) पोस्ट की गयी थी। आज उस बातचीत की दूसरी और अन्तिम किस्त आपसे साझा कर रही हूँ |डॉ॰ लता अग्रवाल]

डॉ लता अग्रवाल : दीदी, कहा जाता है कि लघुकथा इकहरे, एकांगी कथ्य की विधा है। इसका क्या अर्थ है ?
जैसाकि  ‘लघुकथा’ नाम से पता चलता है, यह कम शब्दों में कही जाने वाली कथा-विधा है | इसमें कथ्य के एक पहलू पर ही लेखक अपना काम करता है | यद्यपि कथ्य के एक ही पहलू पर अनेक कहानियाँ भी लिखी जाती रही हैं; फिर भी, कहानी कुछ ऐसे विस्तारों की ओर जाने को बाध्य होती जिनके बिना उसकी काया को विस्तार देना कहानीकार के लिए असम्भव होता है। ऐसी हर बाध्यता से मुक्त रचना ही ‘लघुकथा’ कहलाती है और सही अर्थों में वही एकांगी प्रस्तुति होती भी है।
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा में ‘समापन बिंदु’ और ‘अंत’ दो अलग स्थितियाँ कही जाती हैं। ये किस तरह अलग होती हैं
तात्त्विक दृष्टि से देखा जाए तो, किसी भी लघुकथा का ‘समापन’ नहीं होता, और न ‘अंत’ ही होता है। मेरा प्रारम्भ से ही मानना रहा है कि लघुकथा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से पाठक के मनो-मस्तिष्क में पुन; शुरू होती है। फिर वह कथा चिन्तन को और तत्जनित प्रतिक्रिया को जन्म देती है, और कुछ नहीं तो दूसरी कथा को जन्म देती है। इसीप्रकार यह क्रम चलता रहता है | फिर भी, कुछ लघुकथाओं में समापन और अंत की स्थिति देखने को मिलती है जिसे रचना को देखे बिना यहाँ समझाना सम्भव नहीं है।
डॉ लता अग्रवाल : प्राचीन काल से लेकर अब तक, समकालीन हिन्दी लघुकथा में मानवीय सम्वेदना की प्रस्तुति को आप किस-किस रूप में रेखांकित करेंगी ? तात्पर्य यह कि उसके रूप में क्या-क्या परिवर्तन नजर आते हैं?
साहित्य में एक विधा के रूप में लघुकथा छोटी से छोटी अनुभूति को विराट मानवीय संवेदना के स्तर पर गहराई से मूर्त रूप प्रदान करती है | मर्म को छू लेना लघुकथा की ऐसी  विशेषता है जिसका निर्वाह वह आदिकाल से अब तक करती आ रही है | वही लघुकथा जीवित रहती है जिसका मर्म जीवित हो।
डॉ लता अग्रवाल : एक सफल लघुकथा में दृश्य विधान का क्या महत्व है?
बहुत महत्वपूर्ण रोल है | दृश्य विधान नाट्यशास्त्र का विषय है। यह न केवल लिखित साहित्य पर अपना फोकस रखता है वरन श्रव्य या पठनीय साहित्य में भी अपनी भूमिका का निर्वाह उतनी ही गंभीरता और प्रभावपूर्ण ढंग से करता है | दृश्यात्मकता किसी वस्तु के अवलोकन के कई द्वार खोल देती है। लघुकथाकार के पास शब्दों की वह शक्ति होनी चाहिए जिससे वह जो रच रहा है, उसे पाठक की आँखों के सामने मूर्त कर सके | दृश्यात्मकता रचना और रचनाकार दोनों की उत्कृष्टता का पैमाना है |
डॉ लता अग्रवाल : आपकी दृष्टि में कौन-से विषय हैं जो अभी भी लघुकथा में अछूते हैं और जिन पर तत्परता से काम होना चाहिए ?
आज हर क्षेत्र में पुराने मानक अक्षम साबित हो रहे हैं। कारण, जिन्दगी का केनवास बहुत विस्तार पा गया है | यही बात लेखन पर भी लागू होती है | लघुकथा में पारिवारिक, सामाजिक मुद्दों पर बहुत लेखन हुआ है, राष्ट्रीय मुद्दों पर भी | किन्तु आज आवश्यकता है इन मुद्दों पर गहराई से चिन्तन करने की। चिन्तन में उथलापन होगा तो रचना में भी गहराई नहीं आ पाएगी। लघुकथा के कथ्यों को विश्वस्तर पर ले जाने की बात भी यदा-कदा सामने आती रहती है| इस बारे में किसी आलोचक का एक कथन मुझे याद आ रहा है। उन्होंने शायद कहा था— कथ्य-चुनाव के मामले में लघुकथाकारों को एक प्रक्रिया से गुजरना चाहिए। वे पहले स्थानीयता से जुड़ें, फिर राष्ट्रीयता से और उसके बाद अन्तरराष्ट्रीयता से।
डॉ लता अग्रवाल : जी दीदी, अजमेर में हुए ‘शब्द निष्ठा’ सम्मान के दौरान आदरणीय बलराम अग्रवाल जी ने यह बात कही थी।
तो इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि इस दिशा में कोई काम ही नहीं हुआ, बहुत हुआ है। अनेक युवा भी इसी प्रक्रिया को अपना रहे होंगे, सही दिशा में सक्रिय होंगे | फिर भी, आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो समस्याएं, चिन्तन उभरकर आ रही हैं उनकी ओर से आँखें मूँदना गलत होगा। उन पर चिंतन और मंथन को जारी रखने की आवश्यकता है |
डॉ लता अग्रवाल : शैली किसी भी कथ्य के सम्प्रेष्ण को प्रभावी बनाती है। लघुकथा में कौन–कौन सी शैली कथ्य और तथ्य को बेहतर संप्रेषित करने की क्षमता रखती है
बेशक, शैली किसी भी कथ्य के सम्प्रेष्ण को प्रभावी बनाती है; लेकिन कब, कौन-सी शैली अपनायी जाए, इसका निर्धारण भी एक कला है। शैली का सम्बन्ध सम्बन्धित कथ्य और उसके लेखक से है। किसी एक शैली को प्रभावशाली मान लेना कथाकार के अपने हित में भी नहीं है।
डॉ लता अग्रवाल : बहुत-सी लघुकथाएँ मात्र विवरणात्मक अथवा व्याख्यात्मक शैली में लिखी मिल जाती हैं। प्रभाव और सम्प्रेषण की दृष्टि से इस शैली को  कितना अपनाया जाना चाहिए ?
लघुकथा कम शब्दों में कही जाने वाली गद्य कथा-विधा है। अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में इसे परिभाषित करते हुए मैंने लिखा है—‘शाब्दिक मितव्ययता के सन्दर्भ में, लघुकथा एक प्रकार से एक प्रबुद्ध अर्थशास्त्री का ऐसा निजी बजट है जिसे वह सकारात्मक सोच-समझ के साथ इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का (लघुकथा के सन्दर्भ में—प्रत्येक शब्द का) सार्थक उपयोग हो सके।’ इसमें अनावश्यक स्थूल विवरण, अस्वाभाविक बडबोलापन रचना को छितरा और प्रभावहीन बनाता है। लघुकथाकार को शिल्प के छितरेपन से बचना चाहिए।  इसके स्थान पर द्वंद्व, प्रतीक एवं संकेतों के माध्यम से बात कहने पर बल देना चाहिए|
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा में 'आत्मकथात्मक शैली' का प्रयोग किया जाना चाहिए अथवा नहीं; यदि हाँ, तो किस रूप में और किस हद तक ? क्या इस शैली में लिखी लघुकथा को लेखक की सीधी उपस्थिति की कथा माना जाएगा?
कथा-विधा में प्रयुक्त होने वाली या प्रयुक्त हो सकने वाली कोई भी शैली लघुकथा में अवांछित नहीं है—आत्मकथात्मक शैली भी नहीं। इस शैली की रचनाएँ जाहिर है कि ‘प्रथम पुरुष’ में लिखी जाती हैं। इस बारे में बलराम अग्रवाल का एक वक्तव्य पिछले दिनों कहीं पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा था—‘ 'प्रथम पुरुष' में लिखी रचनाओं में से अधिकतर में 'मैं' पात्र को लेखक ग्लोरीफाई ही अधिक करता देखा जाता है। कारण? 'मैं' जबकि एक स्वतंत्र पात्र होना चाहिए, फिर भी अधिकतर लेखक अपने आप को उससे जोड़ने का मोह संवरण कर लेते हैं और अपने ऊपर लानत-मलानत भेजने से कतराते हैं।’ उनका मानना है कि ‘कही जाने वाली घटना से स्वयं जुड़ा होने के बावजूद लिखी जाने वाली घटना से लेखक स्वयं को दूर रखे।’ मेरा भी मानना है कि लेखक अगर कथा-घटना से स्वयं को दूर नहीं रखेगा तो निश्चित रूप से अपनी उपस्थिति लघुकथा में दर्ज करके उसकी प्रस्तुति को कमजोर करने का कारण बन जाएगा।
डॉ लता अग्रवाल : क्या संवाद को लघुकथा में 'प्रभाव की बैसाखी' कहना उचित होगा ?
संवाद को प्रभाव की बैसाखी नहीं बल्कि उसकी व्याप्ति कहना अधिक न्यायसंगत होगा। संवाद सहज लगें, पात्र के अनुकूल हों, संक्षिप्त हों; किन्तु अर्थ की दृष्टि से उनमें विस्तार हो|
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा दृश्यांकन है, चित्रांकन है, चरित्रांकन है या यह तीनों
तीनों। जब चरित्र की बात होगी तो उसके आसपास का चित्र भी कथा में झलकेगा ही। जब चित्र की बात होगी तो पात्र उसका अभिन्न अंग होगा इसलिए यह कहना सही नहीं होगा की लघुकथा चित्र या चरित्र में से किसी एक का ही प्रतिनिधित्व करती है |
डॉ लता अग्रवाल : क्या प्राचीन लेखन को देखते हुए लघुकथा में नये पिलर खड़े करने की आवश्यकता आप महसूस करती हैं ?
बिलकुल। यदि किसी विधा में समय के साथ नवीनता बनाये रखना है तो नये पिलर तो खड़े करने होंगे न। नये पिलर ही किसी विधा को नया आधार और नयी ऊँचाई देते हैं। वे नये वातायनों का निर्माण करते हैं जिनसे समयानुकूल ताजी हवा और रोशनी अन्दर आ सके। जो विधाएँ नयेपन से कतराती हैं, वे रुग्ण होकर अन्तत: नष्ट हो जाती हैं। 
डॉ लता अग्रवाल : कालजयी लघुकथा आप किसे कहेंगी यानी आपकी दृष्टि से उसमें क्या गुण-धर्म होने चाहिएँ?
किसी भी विषय अथवा घटना को जबरन लघुकथा में धकेलने का प्रयास इस विधा को कृत्रिम और कमजोर बनाता है अत: जब तक लेखक के भीतर का द्वंद्व कागज पर नहीं उतरेगा, प्रभावशाली लघुकथा नहीं लिखी जा सकेगी | वस्तुत: लघुकथा घटना या विषय में नहीं उस गूँज में होती है जो कथा के बाद पाठक के मनो-मस्तिष्क में विस्तार पाती है | इस बात को ध्यान  में रखकर लिखी गई कथा निश्चय ही कालजयी रचना होगी |
डॉ लता अग्रवाल : आप हिन्दी लघुकथा के विचार पक्ष की माइलस्टोन हैं और आपका रचना पक्ष भी स्तरीय है। उसके बाद राजनीति में शीर्ष स्थान पर रहीं। उसे भी त्यागकर गत लगभग तीन सदी से आप आध्यात्मिक साधना की राह पर अग्रसर हैं। इन तीनों ही क्षेत्रों के अनुभव आपको हैं। यदि क्रम में रखना हो तो निश्चित ही आप अध्यात्म को प्रथम और राजनीति को तृतीय स्थान पर रखेंगी। क्यों
प्रथम—हम आध्यात्म को जीवन का उद्देश्य मानते हैं, जो साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। द्वितीय—साहित्य पर आए; इसका उद्देश्य भी स्वान्त: सुखाय, सर्वहिताय रहा है। सही कहा—अंत में रखना चाहूँगी राजनीति को; क्योंकि आज न केवल नेता और कार्यकर्ता बल्कि दल भी राष्ट्रीय हितों से दूर हैं।
डॉ लता अग्रवाल : जैसे कि कहा जाता है :
               * "अतीत की स्मृतियों का ताना बाना हैसंस्मरण।"
               * "ध्रुपद की तान हैकहानी।"
               * "जज्बात और अल्फ़ाज़ का बेहतरीन गुंचा हैग़ज़ल।"
               लघुकथा के लिए ऐसा एक वाक्य आप क्या निर्धारित करना पसन्द करेंगी ?
"अर्जुन का तीर है लघुकथा।"
डॉ लता अग्रवाल : अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों को लेकर लघुकथा में कोई काम हुआ है या हो सकता है या होना चाहिए

"अर्थ, धर्म और काम—ये तीनों आदिकाल से ही सामान्य जन की चिन्ताओं से जुड़े रहे हैं इसलिए जन-साहित्य का, जिसमें लघुकथा भी शामिल है, हिस्सा भी लगातार बनते रहे हैं। पूर्वकालीन लघुकथाओं में दर्शन के माध्यम से ‘मोक्ष’ की ओर भी मनुष्य का ध्यान आकर्षित किया जाता रहा है। ‘मोक्ष’ प्रचलित अर्थों में समकालीन लघुकथा का ध्येय नहीं है अलबत्ता सड़ी-गली मान्यताओं और मानसिक गुलामी की जंजीरों से ‘मुक्ति’ उसका विषय अवश्य है और हमेशा रहेगा।"
                                             'संरचना - 10' (जनवरी-दिसंबर 2017) में प्रकाशित

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